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________________ वे अपराजेय होते, तो ऐसा होता। संक्षेप में वे कथंचित् प्रेरक हैं, सर्वथा | चारित्रमोहोदयतलवरेण गृहीतः सन् तदनुभवति।' (समयसार/ नहीं। तात्पर्यवृत्ति, 194) संदर्भ 14. 'तस्यां परिणामशक्तौ स्थितायां स जीवः कर्ता यं परिणाममा त्मनः करोति तस्य स एवोपादानकर्ता, द्रव्यकर्मस्तु निमित्तमात्रम्।' 1. समयसार/आत्मख्याति, 283-285 (समयसार/तात्पर्यवृत्ति 121-125) 2. उपासकाध्ययन, 106 3. सर्वार्थासिद्धि 9/7 15. 'यदुक्तं पूर्वं पुण्यपापादिसप्तपदार्थजीवपुद्गलसंयोगपरिणामनिवृत्तास्ते जो क्रियावान निमित्त प्रेरक कहे जाते हैं वे भी उदासीन निमित्तों च जीवपुद्गलयोः कथञ्चित्मरिणामत्वे सति घटन्ते।' (वही) के समान कार्योत्पत्ति के समय सहायक मात्र होते हैं।' (जैनतत्त्व | 16. वही/तात्पर्यवृत्ति 121-125 मीमांसा/प्रथम संस्करण/पृ.83)' 17. 'परद्रव्येणैव स्वयं रागादिभावापन्नतया स्वस्य रागादिनि मित्तभूतेन शुद्ध स्वभावात्प्रच्यवमान एव रागादिभिः परिणवही/पृष्ठ 53 6. वही/पृष्ठ 84, 90 म्येत इति तावद्वस्तुस्वभावः।' (समयसार/ आत्मख्याति, 7. वही/पृष्ठ 54 278-279) 8. 'परपरिणतिहेतोर्मोहनाम्नोऽनुभावादविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्मा 18. समयसार/आत्मख्याति, 89 19. समयसारकलश, 175 षितायाः।' (समयसार कलश 3) तत्र घातीनि चत्वारि कर्माण्यन्वर्थसंज्ञया। 20. समयसार/आत्मख्याति, 89 घातकत्वाद्गुणानां हि जीवस्यैवेति वाक्स्मृतिः।। (पंचाध्यायी 21. समयसार/आत्मख्याति 278-279 22. पंचास्तिकाय /त.प्र.29 2/1002) 23. मोक्षमार्ग प्रकाशक 9/314 10. का वि अउव्वा दीसादि पुग्गलदव्वस्य एरिसी सत्ती। केवलणाणसहावो विणासिदो जाइ जीवस्स॥ (कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 24. सागारधर्मामृत 2/1 25. समयसार/आत्मख्याति, 4 211) 11. धवला 7/2, 1, 15 26. पंचास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति, 1 12. एषः प्रशस्तो रागः... उपरितनभूमिकायामलब्धास्पदस्यास्था 27. बृहद्रव्यसंग्रहटीका, गाथा 36 नरागनिषेधार्थतीव्ररागज्वरविनोदार्थं वा कदाचिज्ज्ञानिनोऽपि भवति।' 28. पंचास्तिकाय/त.प्र. 85 (पंचास्तिकाय/तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति, 136) 29. तथा धर्मोऽपि .... गच्छतां जीवपुद्गलानामप्रेरकत्वेन बहि13. 'यथा कोऽपि तस्करो यद्यपि मरणं नेच्छति तथापि तलवरेण - रङ्गनिमित्तं भवति।' वही/तात्पर्यवृत्ति, 88 137, आराधना नगर, गृहीतः सन् मरणमनुभवति तथा सम्यग्दृष्टिः यद्यप्यात्मोत्थ भोपाल-462003 म.प्र. सुखमुपादेयं च जानाति विषयसुखं च हेयं जानाति तथापि गीत साँसे सँवारती हैं देह का मकान साँसें सँवारती हैं देह का मकान। मृत्यु मिटाती है मकान के निशान। अशोक शर्मा लहरों में बहने तक ही लगता है ऐसा जर्जर सी नैया सहती सौ-सौ तूफान।।2।। थोड़ी सी आग वाली यह छोटी देहरी ले थोड़ी मिट्टी, हवा, पानी, आकाश आयु भर करती जाने किसकी तलाश? सूरज के उगने तक ही लगता है ऐसा। सन्ध्या से रात जुड़ी, रात से विहान।।1।। सागर में डूबी गागर की इतनी गाथा गागर में सागर होना, सागर में गागर मैली या उजली सबकी होनी है चादर प्रतिमा के जगने तक ही लगता है ऐसा काम नहीं आती कोई भोर की अजान।।3।। फैलाकर पंख सुनहले मन पाँखी उड़ता नायूँ मैं अम्बर सारा ले इतनी पीड़ा पंखों के झरने तक ही चलती है क्रीड़ा साँसे सँवारती हैं देह का मकान। मृत्यु मिटाती है मकान के निशान।। अभ्युदय निवास, 36-बी, मैत्री विहार, सुपेला, भिलाई (दुर्ग) छत्तीसगढ़ -अक्टूबर 2001 जिनभाषित 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524256
Book TitleJinabhashita 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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