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________________ वास्तुदेव स्व. पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया श्री पं. आशाधरजी ने अपने बनाये प्रतिष्ठापाठ पत्र 43 में और | है। अभिषेक पाठ के श्लोक 44 में वास्तुदेव का उल्लेख निम्न शब्दों ___ जैसा कि नेमिचन्द्र प्रतिष्ठापाठ के परिशिष्ट में वास्तुबलि विधान में किया है नामक एक प्रकरण छपा है, वह न मालूम नेमिचन्द्र कृत है या अन्य श्री वास्तुदेव वास्तूनामधिष्ठातृतयानिशम्। कृत? उसमें वास्तुदेवों के नाम इस प्रकार लिखे हैकुर्वन्ननुग्रहं कस्य मान्यो नासीति मान्यसे।।44।। 'आर्य, विवस्वत्, मित्र, भूधर, सविंद्र, साविंद्र, इन्द्रराज, ओं ह्रीं वास्तुदेवाय इदमघु पाद्य.. रुद्र, रुद्रराज, आप, आपवत्स, पर्जन्य, जयंत, भास्कर, सत्यक, अर्थ - हे श्री वास्तुदेव (गृह देव) तुम गृहों के अधिष्ठातापने भृशुदेव, अंतरिक्ष, पूषा, वितथ, राक्षस, गंधर्व, शृंगराज, मृषदेव, से निरन्तर उपकार करते हुए किसके मान्य नहीं हो? सभी के मान्य दौवारिक, सुग्रीव, पुष्पदंत, असुर, शोष, रोग, नाग, मुख्य, हो इसीलिये मैं भी आपको मानता हूँ। भल्लाट, मृग, आदिति, उदिति, विचारि, पूतना, पापराक्षसी और चरकी ये 40 नाम हैं।' ऐसा कहकर वास्तुदेव के लिये अर्घ देवें। वास्तुदेवों के इसी तरह के नाम जैनेतर ग्रन्थों में लिखे मिलते श्रुतसागर ने वास्तुदेव की व्याख्या ऐसी की है- 'वास्तुरेव देवो हैं (देखो सर्वदेव प्रतिष्ठा प्रकाश व वास्तु विद्या के अजैन ग्रन्थ) वहीं वास्तुदेवः।' घर ही को देव मानना वास्तुदेव है। जैसे लौकिक में से हमारे यहाँ आये हैं। वे भी आशाधर के बाद के क्रिया-कांडी ग्रन्थों अन्नदेव, जलदेव, अग्निदेव आदि माने जाते हैं। इससे मालूम होता में पुन्याहवाचन पाठों में। यह बलि विधान इसी रूप में आशाधर पूजाहै कि श्रुतसागर की दृष्टि में वह कोई देवगति का देव नहीं है। पाठ नाम की पुस्तक में भी छपा है। वहाँ दस दिग्पालों को भी करणानुयोगी-लोकानुयोगी ग्रन्थों में भी वास्तु नाम के किसी देव का वास्तुदेवों में गिना है। जैनेतर ग्रन्थों में ऐसा नहीं है। उल्लेख पढ़ने में नहीं आया है। आशाधर ने इस देव का नाम क्या है यह भी नहीं लिखा है। यहाँ तक कि इसका स्वरूप भी नहीं लिखा | एक संधि जिन संहिता में भी वास्तुदेव बलि विधान नामक 24वाँ परिच्छेद है जिसमें भी उक्त 40 नामों के साथ दस दिग्पालों के नाम हैं। ऐसा मालूम होता है कि वास्तुदेवों को बलि देने के पहिले प्रतिष्ठातिलक के कर्ता नेमिचन्द्र के सामने भी आशाधर का दिग्पालों का बलिविधान लिखा हो और लगते ही वास्तुदेवों को बलि उक्त श्लोक था, जिसके भाव को लेकर उन्होंने जो श्लोक रचा है देने का कथन किया हो, इस तरह से भी वास्तुदेवों में दिग्पाल देव वह प्रतिष्ठातिलक के पृष्ठ 347 पर इस प्रकार है - शामिल हो सकते हैं। अन्य मत में वास्तुदेवों को बलि देने की सामग्री सर्वेषु वास्तुषु सदा निवसंतमेनं, में मधु-मांस आदि हैं। जैन मत में मांस को सामग्री में नहीं लिया श्रीवास्तुदेवमखिलस्य कृतोपकारं। है, तथापि मधु को तो लिया ही है। प्रागेव वास्तुविधिकल्पितभागमी, एक संधि संहिता के उक्त परिच्छेद के 17वें श्लोक में मजेदार शानकोणदिशि पूजनया धिनोमि।। बात यह लिखी है - बलि देते वक्त बलि द्रव्यों को लिये हुए आभूषणों अर्थ - सब घरों में सदा निवास करने वाले और सबका जिसने | से भूषित कोई कन्या या वेश्या अथवा कोई मदमाती स्त्री होनी चाहिए। उपकार किया है तथा पहिले से ही जिसका ईशान कोण की दिशा में यथावास्तुविधि से यज्ञ भाग कल्पित है, ऐसे इन वास्तुदेव को पूजता बलिप्रदानकाले तु योग्या स्याद् बलिधारणे। भूषिता कन्यका वा स्याद् वेश्या वा मत्तकामिनी।।17।। अभिषेकपाठसंग्रह के अन्य पाठों में वास्तुदेव का उल्लेख नहीं ऐसा कथन नेमिचन्द्र प्रतिष्ठा पाठ में छपे इस प्रकरण के पृष्ठ है। हाँ, अगर जिनगृहदेव को वास्तुदेव मान लिया जाये तो कदाचित् | 4 के श्लोक 11 से भी प्रतिभासित होता है। जैनधर्म से उसकी संगति बैठाई जा सकती है, क्योंकि जैनागम में | जिन शास्त्रों में साफ तौर पर अन्य मत के माने हुए देवों की जिनमंदिर की नवदेवों में गणना की है। पता नहीं आशाधर और आराधना का कथन किया है और उनकी आराधना विधि में ऐसी नेमिचन्द्र का वास्तुदेव के विषय में यही अभिप्राय रहा है या और वाहियात बातें वेश्या आदि की लिखी है, उन शास्त्रों को हम केवल कोई? फिर भी यह तो स्पष्ट ही है कि जैन कहे जाने वाले अन्य कितने यह देखकर जिनवाणी मानते रहें कि वे संस्कृत प्राकृत में लिखे हैं ही क्रियाकांडी ग्रन्थों में वास्तुदेव को जिनगृहदेव के अर्थ में नहीं लिया और किन्हीं जैन नामधारी बड़े विद्वान के रचे हुए हैं, जब तक हम 14 अक्टूबर 2001 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524256
Book TitleJinabhashita 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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