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________________ चिन्तन की स्वच्छता स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य पं. श्रीराम शर्मा आचार्य पिछली भूलों का परि चूल्हे पर पकती है। लगने को मार्जन, वर्तमान का परिष्कृत अनुकूलताएँ और प्रतिकूलताएँ धूप-छाँव की तरह आती- 1 यह भी लगता है कि विचार निर्धारण एवं उज्ज्वल भविष्य | जाती र जाती रहती हैं। उनमें से एक भी चिरस्थायी नहीं होती। सामने आने | बिना बुलाये आते हैं और का निर्माण यदि सचमुच ही | वाली परिस्थिति का समाधान ढूँढने के लिये और भी अधिक सूझ- अनचाहे ही चढ़ दौड़ते हैं पर अभीष्ट हो, तो इसके लिये बूझ की, साहस एवं पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ती है। उन्हें जुटाने | वास्तविकता ऐसी नहीं है। हम विचार संस्थान पर दृष्टि के लिये मनोबल तगड़ा रहना चाहिए, अन्यथा निराशा, चिन्ता, कोई दिशा-धारा निर्धारित करते जमानी चाहिए। इस मान्यता भय जैसी कुकल्पनाएँ घिर जाने पर तो हाथ-पैर फूल जाते हैं, कुछ हैं और उस सरिता में तदनुरूप को सुस्थिर करना चाहिए कि करते-धरते नहीं बन पड़ता है। फलतः अपने ही बुने जाल में मकड़ी | लहरें उठने लगती हैं। समस्त समस्याओं का उद्गम भीतरी हेर-फेर का बाहा भी यहीं है और समाधान भी की तरह फँसकर अकारण कष्ट सहना पड़ता है। जो इनसे बचता क्रिया-कलापों और परिस्थिइसी क्षेत्र में सन्निहित है। यह | है, वह अक्षुण्ण स्वास्थ्य का श्रेयाधिकारी बनता है। तियों में परिवर्तन होना सुनिसोचना सही नहीं है कि धन श्चित है। मनःस्थिति के अनुवैभव के बाहुल्य से मनुष्य सुखी एवं | सम्पन्न ही सब कुछ बन गये होते, तब | रूप परिस्थिति के बदल जाने की बात को समुन्नत बनता है। इसलिये सब कुछ छोड़कर महामानवों की कहीं कोई पूछ न होती, न सभी विज्ञजन एक स्वर से स्वीकार करते हैं। उसी का अधिकाधिक अर्जन जैसे भी संभव आदर्शों का स्वरूप कहीं दृष्टिगोचर होता और अस्तु, परिस्थितियों को बदलने के निमित्त हो, करना चाहिए, इस भ्रान्ति से जितनी न मानवी गरिमा का प्रतिनिधित्व करने वाले मनःस्थिति को बदलना प्राथमिक उपचार की जल्दी छुटकारा पाया जा सके, उतना ही उत्तम महामानवों की कहीं आवश्यकता-उपयोगिता तरह माना गया है। विचारों में मूढ़ता भरी रहने समझी जाती। पर, भ्रांतियों और विकृतियों के अम्बार लगे शरीर की बलिष्ठता और चेहरे की समझा जाना चाहिए कि व्यक्ति या रहने पर यह सम्भव नहीं कि किसी को गईसुन्दरता का अपना महत्त्व है। धन की भी व्यक्तित्व का सार-तत्त्व उसके मनःसंस्थान गुजरी स्थिति में पड़े रहने से छुटकारा मिल उपयोगिता है और उसके सहारे शरीर यात्रा में केन्द्रीभूत है। अन्तःकरण, अन्तरात्मा सके। जिसका भाग्य बदलता है, उसके के साधन जुटाने में सुविधा रहती है। इतने आदि नामों से इसी क्षेत्र का वर्णन-विवेचन विचार बदलते हैं। विचार बदलने से मतलब पर भी यह तथ्य भुला नहीं दिया जाना चाहिए किया जाता है। शास्त्रकारों ने 'मन एवं है - अवांछनीयताओं की खोज-कुरेद और जो कि व्यक्तित्व का स्तर और स्वरूप, चिन्तन मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयोः' 'आत्मेव भी अनुपयुक्त है, उसे बुहार फैंकने का साहस क्षेत्र के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हआ आत्मनः बन्धु आत्मैव रिपुरात्मनः' 'उद्द- | भरा निश्चित। है। व्यक्तित्व का स्तर ही वस्तुतः किसी के रेदात्मनात्मानम् नात्मानम् अवसादयेत्' आदि यहाँ एक तथ्य और भी स्मरण रखने उत्थान-पतन का आधारभूत कारण होता है। अभिवचनों में एक ही अंगुलि-निर्देश किया योग्य है कि मात्र कुविचारों का समापन ही उसी के अनुरूप भूतकाल बीता है, वर्तमान है कि मन के महत्त्व को समझा जाये और सब कुछ नहीं है। एक कदम उठाने, दूसरा बना है और भविष्य का निर्धारण होने जा रहा उसके निग्रह के, परिशोधन-परिष्कार के बढ़ाने के उपक्रम के साथ ही यात्रा आरम्भ है। उसकी उपेक्षा करने पर भारी घाटे में रहना निमित्त संकल्पपूर्वक साधनारत रहा जाये। मन होती है। छोड़ने पर खाली होने वाले स्थान पड़ता है। स्वास्थ्य का, शिक्षा का, प्रतिभा को जानने की उपमा विश्व-विज्ञान से दी गई | को रिक्त नहीं रखा जा सकता। उस स्थान का, सम्पदा का, पद अधिकार का, कितना है, जो अपने ऊपर शासन कर सकता है, वह पर नई स्थापना भी तो होनी चाहिए। ही महत्त्व क्यों न हो, पर उनका लाभ मात्र सबके ऊपर शासन करेगा, इस कथन में अनौचित्य के अनुकूलन के साथ ही औचित्य सुविधा संवर्धन तक सीमित है। यह सम्पदा बहुत कुछ तथ्य है। का संस्थापन भी आवश्यक है। आपरेशन से अपने लिये और दूसरों के लिये मात्र निर्वाह मन का, आत्मा का, जो निरूपण मवाद निकालने के उपरान्त घाव भरने के सामग्री ही जुटा सकती है, पर इतने भर से | किया जाता है उसे एक शब्द में विचारणा का लिये तत्काल मरहम-पट्टी भी तो करनी पड़ती बात बनती नहीं, आखिर शरीर ही तो | स्तर ही कहना चाहिए। मान्यताएँ, भावनाएँ, | है। कुविचारों की विकृत आदतों का निराकरण व्यक्तित्व नहीं है, आखिर सुविधाएँ मिल भर आस्थाएँ इसी क्षेत्र की गहरी परतें हैं। कल्पना, तब हो सकता है, जब उस स्थान पर जाने से ही तो सब कुछ सध नहीं जाता, कुछ विवेचना, धारणा इसी क्षेत्र में काम करती हैं। सत्प्रवृत्तियों को प्रतिष्ठित कर दिया जाए, इससे आगे भी है। यदि न होता तो साधन सम्मान, आदत, स्वभाव की खिचड़ी इसी | अन्यथा घोंसला खाली पड़ा रहने पर 26 अक्टूबर 2001 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524256
Book TitleJinabhashita 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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