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________________ इस समय के राजर्षि) ने सुधीजनों को अलंकृत करने वाली इस उत्तर - कृपणता अर्थात् वैभव-सम्पत्ति का न तो स्वयं उपभोग 'प्रश्नोत्तररत्नमालिका' की रचना की है। करना, और न ही उसे सुपात्रों को दान में देना। अमोघवर्ष के दो ग्रन्थ अत्यंत प्रसिद्ध हैं - छन्द एवं अलंकार प्रश्न - वैभव के होने पर प्रशंसनीय विषय क्या है? शास्त्र से संबंधित 'कविराजमार्ग' तथा नीतिशास्त्र से संबंधित उक्त उत्तर - उदारता, जिससे स्व-पर को सुख-सन्तोष मिलता है। 'प्रश्नोत्तररत्नमालिका'। प्रश्नोत्तररत्नमालिका का महत्त्व इसी से जाना प्रश्न - धन-विहीन पुरुष की प्रशंसनीय बात कौन-सी मानी जाने जा सकता है कि उसकी पाण्डुलिपि काल-प्रभाव से भारतवर्ष में तो | योग्य है? दुर्भाग्य से अनुपलब्ध रही, किन्तु 'कातन्त्र-व्याकरण' के परमभक्त उत्तर - उदारता, मानवता एवं ऋजुता। तिब्बत के भारतीय-विद्या के रसिक श्रद्धालुओं ने उसे तिब्बत के एक प्रश्न - शक्ति-सम्पन्न पुरुषों का सराहनीय गुण कौन-सा है? शास्त्रभण्डार में सुरक्षित ही नहीं रखा, अपितु उसका तिब्बती अनुवाद उत्तर - सहिष्णुता, क्षमाशीलता एवं न्यायप्रियता। कराकर उसका अपने यहाँ प्रचार भी किया। संयोग से उसकी 'कविराजमार्ग' भले ही लाक्षणिक ग्रन्थ हो किन्तु अमोघवर्ष का पाण्डुलिपि आचार्य श्री विद्यानन्द जी को सन् 1971-72 के आसपास कवि-हृदय इतना भावुक था तथा कर्नाटक के प्रति उसके मन में इतना प्राप्त हुई थी। उनकी प्रेरणा से उसका नागरी संस्करण तथा हिन्दी एवं | अधिक उदार भाव था कि उसने काव्यारम्भ में अपनी मातृभूमि की अंग्रेजी-अनुवाद भ. महावीर के 2500वें परिनिर्वाण समारोह (सन् रज-वन्दन कर आह्लादित भाव से उसकी प्रशंसा में इस प्रकार चित्रण 1974-75) के आसपास प्रकाशित कराया गया और उसे सर्वसुलभ | किया हैकराया गया, यद्यपि यह एक अत्यंत लघुकृति है। उसमें संस्कृत के 'समस्त भूमण्डल में, ऐसा सुन्दरतम भूखण्ड आपको कहीं आर्या-छन्द के केवल 29 श्लोक मन्त्र हैं किन्तु उनमें निश्चय, व्यवहार, | भी दिखाई नहीं देगा, जहाँ लोक-मानस द्वारा सहज स्वाभाविक रूप आध्यात्मिक एवं आचार के साथ-साथ कवि के अपने जीवन के | में निःसृत-समृद्ध कन्नड़ के मधुर-संगीत के समकक्ष, हृदयावर्जक अनुभवों का, प्रियदर्शी मौर्य सम्राट अशोक के सदृश ही प्रश्नोत्तरी- | संगीत सुनाई देता हो।' शैली में एक साथ ऐसा सामंजस्य बैठाया गया है कि उसके पाण्डित्य, | 'उस कर्नाटक-भूमि के मूल निवासी जन, स्वर एवं लयबद्ध काव्य-कौशल तथा भाषाधिकार पर आश्चर्य होता है। कहाँ तो वह | संगीतात्मक ध्वनियों में ऐसे जन्मजात प्रतिभा सम्पन्न होते हैं कि वे शस्त्रकला का पारगामी रणधोरी सैनिक सम्राट और कहाँ उसकी किसी के भी, संगीत की अन्तरंग भाव-भूमि को तत्काल ही आत्मसात् शास्त्रगामिता एवं लेखनी की प्रौढ़ता? धन-वैभव के विषय में उसकी कर लेने में सक्षम हैं और स्वयं भी वे बड़े संवेदनशील रहते हैं।' विचारणा का एक मार्मिक उदाहरण देखिए - 'प्रश्नोत्तरी-शैली' में वह । 'उस कर्नाटक के केवल विद्यार्थीगण ही नहीं, अपितु सर्वथा स्वयं से ही प्रश्न करता है और स्वयं ही उसका उत्तर भी देता है- | अशिक्षित ग्राम्यजन भी, जिसने कि विद्यालयों में कभी भी विधिवत् 'किं शोच्यं कार्पण्यं सति विभवे किं प्रशस्यमौदार्यम्। | शिक्षा ग्रहण नहीं की, वह भी अपनी सहज स्वाभाविक प्रतिभा के तनुरवित्तस्य तथा प्रभविष्णोर्यत्सहिष्णुत्वम्।।25।' । बल पर काव्य-विद्या के परम्परागत नियमों को समझते हैं तथा अपने प्रश्न - वैभव-सम्पत्ति के होते हए भी शोचनीय विषय क्या है? लोक-संगीत में स्वयं उनका प्रयोग भी कड़ाई पूर्वक किया करते हैं।' महाजन टोली नं. 1, आरा-802301 (बिहार) किं शोच्यं कार्पण्यं सति विभवे किं प्रशस्यमौदार्यम् तनुतरवित्तस्य तथा प्रभविष्णोर्यत्सहिष्णुत्वम्।। धन होने पर निन्दनीय क्या है? कृपणता। निर्धन होने पर प्रशंसनीय क्या है? उदारता। शक्तिशाली होने पर सराहनीय क्या है? सहिष्णुता। को देवो निखिलज्ञो, निर्दोषः किं श्रुतं तदुद्दिष्टम्। को गुरुरविषयवृत्तिर्निर्ग्रन्थः स्वस्वरूपस्थः।। देव कौन है? सर्वज्ञ। निर्दोष श्रुत क्या है? सर्वज्ञ का उपदेश। गुरु कौन है? जो विषयों से निवृत्त है, निर्ग्रन्थ है और आत्मस्वरूप में लीन रहता है। दानं प्रियवाक्सहितं ज्ञानभगर्वं क्षमान्वितं शौर्यम्। त्यागसहितं च वित्तं दुर्लभमेतच्चतुर्भद्रम्॥ लोक में चार (गुण दुर्लभ) हैं। प्रय बोलते हुए दान करना, ज्ञान रहते हुए अभिमान न करना, शौर्य होते हुए भी क्षमाशील होना और धन होने पर त्याग करना। किं दुर्लभं नृजन्म, प्राप्येदं भवति किं च कर्त्तव्यम्। आत्महितमहितसङ्गत्यागो रागश्च गुरुवचने।। दुर्लभ क्या है? मनुष्य जन्म। इसे प्राप्त करके क्या करना चाहिए? आत्मा का हित, अहितकर लोगों की संगति का त्याग और गुरु के उपदेश में अनुराग। -अक्टूबर 2001 जिनभाषित 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524256
Book TitleJinabhashita 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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