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________________ चमगादड़ न सही, अबाबील रहने लगेगा दुष्प्रवृत्तियाँ, अवांछनीय आदतें, कुविचारणाएँ बहुत समय तक अभ्यास में सन्निहित रहने पर स्वाभाविक प्रतीत होने लगती है, निर्दोष लगती है और कभी-कभी तो उचित एवं आवश्यक दिखने लगती हैं। उनके प्रति पक्षपात बनता है और मोह जुड़ता देखा गया है। ऐसी दशा में उसे ढूँढ निकालना और यह समझ सकना तक कठिन पड़ता है कि उनसे कुछ हानियाँ भी हैं या नहीं। इसका निश्चय श्रेष्ठ, सज्जनों और दुष्ट दुर्जनों की सद्गति एवं दुर्गति का पर्यवेक्षण करते हुए किया जा सकता है। जो दुष्प्रवृत्तियों को अपनाते रहे हेय जनों जैसी मनःस्थिति में संतुष्ट रहे, अचिन्त्य चिन्तन में निरत रहे, उन्हें ठोकरें खाते और ठोकरें मारते हुए ही दिन काटने पड़े हैं, जिनने प्रगति की बात सोची और वरिष्ठता के लिये आकांक्षा जगाई, उन्हें साथ ही वह निर्णय भी करना पड़ता है कि व्यक्तित्व का स्तर उठाने वाली विचार प्रक्रिया को अपनाने, स्वभाव का अंग बनाने में कोई कसर न रहने दी जायेगी। , " इस संदर्भ में सर्वप्रथम उन आदतों से जूझना चाहिए जो एक प्रकार से अपंग स्थिति में डाले रखने के लिये उत्तरदायी हैं। पक्षाघात पीड़ितों, अपंगों, अशक्तों की तरह हीनता के विचार भी ऐसे हैं, जिनके रहते किसी का भी पिछड़ेपन से पिंड छूटना असम्भव है। 'लो ब्लड प्रेशर के मरीज ऐसे पड़े रहते हैं, जैसे लंघन करने वाले ने चारपाई पकड़ ली हो और करवट बदलना तक कठिन हो रहा हो। आलसियों की अकर्मण्यों की गणना ऐसे ही लोगों में होती है। वे समर्थ होते हुए भी असमर्थ बनते है, निरोग होते हुए भी रोगियों की चारपाई में जा लेटते हैं। आरामतलबी, काहिली, कामचोरी हरामखोरी ऐसी ही मानसिक व्यथा है, जिसके कारण बहुत कुछ कर सकने में समर्थ व्यक्ति भी अपंगअसमर्थों की तरह दिन गुजारता है ढेरों समय खाली होने पर भी महिलाओं की तरह उसे जैसे-तैसे काटता है, जबकि उन क्षणों का किन्हीं उपयोगी कामों में नियोजन करने के उपरान्त कुछ ही समय में अतिरिक्त योग्यता का धनी बना जा सकता है, सक्षमों, सुयोग्य प्रतिभावानों और सुसम्पन्नों की पंक्ति में खड़ा हुआ जा सकता है। 'आलस्य' शरीर को स्वेच्छापूर्वक Jain Education International | | अपंग बनाकर रख देने की प्रक्रिया है। इसी प्रकार प्रमाद मन को जकड़ देने वाली रीतिनीति है। प्रमादी सोचने का कष्ट सहन करना नहीं चाहता है, जो चल रहा है, उसी से समझौता कर लेता है। नया कुछ सोच न सकने पर, नया साहस न जुटा सकने पर, प्रगति की सुखद कल्पनाएँ करते रहना, शेखचिल्ली की तरह उपहासास्पद बनना है। आलसी उन कामों को नहीं करते, जो बिना कठिनाई के तत्काल किये जा सकते थे। इसी प्रकार प्रमादी उतार-चढ़ावों के सम्बन्ध में कुछ भी सोचने का कष्ट नहीं उठाते। मात्र जिस तिस पर दोषारोपण करते हुए दुर्भाग्य का रोना रोते हुए मन हल्का करते रहते हैं, जबकि दोष उनका अपना होता है। परिस्थितियों को बदलने सुधारने के लिये जिस सूझबूझ, धैर्य संतुलन, साहस एवं प्रयास की आवश्यकता पड़ती है, उसे जुटा न पाने का प्रतिफल यह होता है कि अनीति जड़ जमा लेती है। पिछड़ापन ऐसा सहचर बनकर बैठ जाता है, जिसे हटाने या बदलने जैसी कोई बात बनती ही नहीं । अस्तव्यस्त विचारों को यदि वर्तमान को सुधारने वाले उपाय ढूँढने में लगाया जा सके और वर्तमान परिस्थितियों से तालमेल बिठाते हुए अगला कदम क्या हो सकता है, यदि इस पर व्यावहारिक दृष्टि से चिन्तन किया जा सके तो प्रगति पथ पर बढ़ चलने का कोई मार्ग अवश्य मिलेगा, पर जिसने पत्थर जैसी जड़ता अपना ली है, उसे रचनात्मक प्रयासों में लग पड़ने के लिए न आलस्य छूट देता है न विचारों की असंगत उड़ानों से विरत करके कुछ व्यावहारिक उपाय सोचने की सुविधा, प्रमाद की खुमारी रहते सोचने की सुविधा, प्रमाद की खुमारी रहते बन पड़ती है। वस्तुतः प्रगतिशीलता के यही दो अवरोध चट्टान की तरह उड़ते हैं। इन्हें हटाये बिना कोई गति नहीं, कोई प्रगति नहीं । को हीन बनाने वाले मनोविकारों में उदासी और निराशा प्रमुख हैं। पेट भरने के बाद नदी की बालू में लोट-पोट करने वाले मगर और उदरपूर्ति के उपरान्त कीचड़ में मस्त होकर पड़े रहने वाले वराह को फिर दीनदुनिया की कोई सुध नहीं रहती। जब वासी पच जाता है और झोले में खालीपन प्रतीत होता है, तभी वे उठने और कुछ करने की होता है, तभी वे उठने और कुछ करने की बात सोचते हैं। 'पंछी करें न चाकरी, अजगर करे न काम', का उदाहरण बनकर जो समस्त कामनाओं से रहित परमहंसों की तरह दिन मनुष्य For Private & Personal Use Only गुजारते हैं और 'राम भरोसे जो रहे पर्वत पै हरियाय' के भाग्य भरोसे जो समय काटते हैं, उन्हें 'ना काहू सों दोस्ती ना काहू सो बैर' वाली स्थिति रहती है। वे न कल की सोचते हैं न परसों की । उस उदासीन सम्प्रदाय का दर्शन अपनाने वालों के लिये प्रगति और अवगति से कुछ लेना-देना नहीं होता, मुट्ठी बाँधकर आते और हाथ पसारकर चले जाते हैं, न शुभ की आकांक्षा, न अशुभ की उपेक्षाऐसी उदासीनता पिछड़े और गये गुजरे स्तर का प्रतीक है। 1 · निराशा इससे बुरी है वह सोचती भी है और चाहती भी किन्तु साथ ही अपनी असमर्थता, भाग्य की मार, परिस्थितियों की प्रतिकूलता, साथी की बेरुखी जैसी निषेधात्मक संभावनाओं पर ध्यान केन्द्रित करती है और कदम उठाने से पहले ही असफल रहने का दृश्य देखती और हार मान लेती है। ऐसे लोग उदास रहने वालों की अपेक्षा अधिक दीन-हीन स्थिति में होते हैं और संतोष भी हाथ से गँवा बैठते हैं। अशुभ की आशंका जिन्हें डराती रहती है, वे चिन्तातुर पाये जाते हैं। कुछ चाहते तो हैं किन्तु सूझबूझ और पुरुषार्थ के अभाव परिस्थितिजन्य गतिरोध मान बैठते हैं अपने को ऐसे चक्रव्यूह में फँसा पाते हैं, जिसमें से बच निकलने का रास्ता अवरुद्ध पाते हैं, इस स्तर के व्यक्ति चिन्तातुर देखे जाते हैं, घबराहट में सिर धुनते हैं, हड़बड़ी में कुछ का कुछ कहते, कुछ करते और सोचते हैं. वह सब बेतुका होता है अपनी परेशानी साथियों के सामने इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं, मानो आकाश टूटकर उन्हीं पर गिरा हो । यों इस कथन में उनका प्रयोजन सहायता न सही, सहानुभूति पाने का तो होता ही है पर वे यह भूल जाते हैं कि हारते का सभी साथ छोड़ देते हैं। मित्र भी कन्नी काटने लगते हैं। इस दुनिया में सफल, साहसी और समर्थ को ही साथियों का सहारा मिलता है। डूबते को देखकर लोग दूर रहते हैं, ताकि चपेट में आकर कहीं उन्हें भी न डूबना पड़े। उदारपरोपकारी तो जहाँ-तहाँ उँगलियों पर गिनने जितनी संख्या में ही पाये जाते हैं। ऐसी दशा में चिन्तातुर, निराश, भयभीत, संत्रस्त, कायर, दुर्बल होने की दुहाई देने के नाम पर यदि सहानुभूति अर्जित करना चाहता हो तो भी उसे नहीं के बराबर सफलता मिलेगी। जो अक्टूबर 2001 जिनभाषित 27 www.jainelibrary.org.
SR No.524256
Book TitleJinabhashita 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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