SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मों का प्रेरक स्वरूप प्रो. रतनचन्द्र जैन आगम में निमित्त दो प्रकार के के लिये प्रभावित नहीं करते, अपितु कर्म प्रेरक हैं पर अपराजेय नहीं। वे आत्मा को बतलाये गये हैं - उदासीन और प्रेरक। | जब वह स्वयं रागादिरूप परिणत जो किसी द्रव्य को अपनी ओर से अभिभूत करने की चेष्टा करते हैं, किन्तु जब उनका होने की चेष्टा करता है तब वे उसमें किसी क्रिया में प्रवृत्त नहीं करते, प्रभाव तीव्र नहीं होता, उस समय पौरुष करके सहायता कर देते हैं। 'सहायता कर अपितु स्वयं प्रवृत्त होने पर सहायता प्रतिरोध किया जाय, तो वे हावी नहीं हो पाते और | देते हैं' यह कहना भी उचित नहीं मात्र करते हैं, वे उदासीन निमित्त | है। वे (पुद्गलकर्मरूप निमित्त) वहाँ कहलाते हैं। जैसे धर्मद्रव्य जीव और जा सकता है। मात्र उपस्थित रहते हैं, यह कहना पुद्गल को अपनी ओर से चलने में ही उचित है। प्रवृत्त नहीं करता (अर्थात् वह ऐसा प्रभाव उत्पन्न नहीं करता कि जीव | यह मत समीचीन नहीं है। आत्मा के साथ संयुक्त पुद्गलकर्म स्वयं चल पड़े), बल्कि स्वयं चलने में प्रवृत्त होने पर सहायता मात्र | धर्म, अधर्म, आकाश, काल तथा गुरु आदि निमित्तों से भिन्न हैं। करता है, अतः वह उदासीन निमित्त है। किन्तु जो निमित्त ऐसा प्रभाव । इनके समान वे जीव के स्वतः परिणमन में उदासीनरूप से सहायता उत्पन्न करते हैं कि द्रव्य-विशेष किसी कार्य में स्वयं तो प्रवृत्त न | मात्र नहीं करते, बल्कि उसे इस प्रकार प्रभावित करते हैं कि वह हो, किन्तु उनके प्रभाव से प्रवृत्त होने लगे वे प्रेरक निमित्त कहलाते स्वाभाविक क्रिया छोड़कर स्वभाव से विपरीत क्रिया करने लगता हैं। उदाहरणार्थ, जीव मोहरागादि रूप से परिणत होने की स्वयं चेष्टा है। कर्म इसलिये प्रेरक नहीं कहलाते कि उनकी ईरण (गति) क्रिया नहीं करता, न यह उसके स्वभाव के अनुकूल है, जैसा कि आचार्य की प्रकृष्टता जीव के रागादिरूप परिणमन व्यापार में सहायता मात्र अमृतचन्द्र ने कहा है - आत्मात्मना रागादीनामकारक एव करती है, बल्कि इसलिये कहलाते हैं कि वे अपनी ओर से ऐसा प्रभाव (आत्मा स्वयं रागादि का अकर्ता ही है) किन्तु पुद्गलकर्म उदय में आकर उत्पन्न करते हैं, जिससे जीव स्वभाव से विपरीत रागादिरूप परिणमन ऐसा प्रभाव उत्पन्न करते हैं कि जीव मोहरागादिरूप से परिणत हो करने लगता है। यद्यपि परिणमन शक्ति जीव में ही है, तथापि जाता है। अतः पुद्गलकर्म प्रेरक निमित्त हैं। उपासकाध्ययन में कहा | कर्मजनित प्रभाव के बिना जीव के परिणमन में रागादि विकार नहीं गया है - आ सकता। वह कर्मोदय के प्रभाव से ही संभव है। प्रेर्यते कर्म जीवेन जीवः प्रेर्यत कर्मणा। धर्मादि द्रव्य एवं गुरु आदि निमित्त उपादान के उसी गुण के एतयोः प्रेरको नान्यो नौनाविक समानयोः।। परिणमन में सहायता करते हैं, जो उसमें स्वभावतः है। उसमें न कोई अर्थ - जीव कर्म को प्रेरित करता है, कर्म जीव को। दोनो का | बाधा पहुँचाते हैं, न किसी अस्वाभाविक दशा की उत्पत्ति में हेतु बनते सम्बन्ध नौका और नाविक के समान है। इनका कोई तीसरा प्रेरक नहीं हैं। किन्तु कर्म ठीक इसके विपरीत हैं। वे जीव के स्वभावभूत गुण के परिणमन में सहायता नहीं करते, अपितु बाधा पहुंचाते हैं तथा पूज्यपाद स्वामी ने भी कहा है, 'संसारे परिभ्रमन् जीवः अस्वाभाविक दशा की उत्पत्ति में हेतु बनते हैं। इसीलिए उनके नाम कर्मयन्त्रप्रेरित: पिता भूत्वा भ्राता पुत्रः पौत्रश्च भवति।' अर्थात् ज्ञानावरण (ज्ञान को आवृत्त करने वाला), दर्शनावरण (दर्शन को संसार में भटकता हुआ जीव कर्मरूपी यंत्र से प्रेरित होकर कभी पिता आवृत्त करने वाला), मोहनीय (मोहित करने वाला), अन्तराय (विघ्न बनता है, तो कभी पिता बनकर भाई, पुत्र या पौत्र बनता है। उपस्थित करने वाला) आदि है।' किन्तु कुछ विद्वान कर्मों को भी धर्मादि द्रव्यों के समान उदासीन | ज्ञानावरण कर्म आत्मा के ज्ञान गुण को आवृत ही करता है, ही मानते हैं, प्रेरक नहीं। उनके अनुसार जैसे धर्मादि द्रव्य जीव के तभी अज्ञान उत्पन्न होता है। ऐसा नहीं है कि आत्मा में स्वभाव गति आदि क्रिया में स्वयं प्रवृत्त होने पर सहायता मात्र करते हैं, वैसे से अज्ञान नामक गुण है और ज्ञानवरण कर्म उसी के परिणमन में ही जब जीव रागादिरूप से परिणत होने के लिये स्वयं प्रवृत्त होता सहायता करता है। इसी प्रकार मोहनीय कर्म आत्मा के श्रद्धा, ज्ञान है तब पुदगलकर्म उसमें सहायता मात्र करते हैं। आगम में और चारित्र गुणों के स्वाभाविक परिणमन में बाधा डालकर उनके पुद्गलकर्मों को प्रेरक कहा गया है उसकी वे दूसरी ही व्याख्या करते मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान एवं मिथ्याचारित्र के रूप में परिणत होने का हैं। वे कहते हैं पुद्गल कर्म, नोकर्म, मेघ, बिजली, वायु आदि जड़ कारण बनता है। ऐसा नहीं है कि मिथ्यादर्शनादि आत्मा के स्वभावभूत वस्तुएँ क्रियावान् (सक्रिय) हैं। उनकी ईरण (गति) क्रिया की प्रकृष्टता धर्म हैं और आत्मा जब इन धर्मों के रूप में स्वयं परिणत होने के अन्य द्रव्यों के क्रिया व्यापार के समय उनके बलाधान में निमित्त होती लिये उद्यत होता है तब मोहनीय कर्म उसमें सहायता मात्र कर देता है इस बात को ध्यान में रखकर ही उन्हें प्रेरक कहा गया है। बलाधान के विषय में भी उनका मत है कि कार्योत्पत्ति के समय बल का आधान धर्मादि द्रव्य जीव के स्वभाव का घात (आच्छादन एवं स्वयं उपादान करता है, किन्तु उसमें निमित्त अन्य द्रव्य होता है। | विपर्यय) नहीं करते, किन्तु पुद्गल कर्म जीव के स्वभाव का घात करते तात्पर्य यही है कि पुद्गल कर्म जीव को रागादिरूप परिणत होने | हैं, इसीलिए ज्ञानावरणादि चार कर्मों को घाती कर्म कहा गया है - है। 10 अक्टूबर 2001 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524256
Book TitleJinabhashita 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy