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________________ रसरहित ही लेते हैं। रसवान भी आहार प्राप्त हो तो उसके स्वाद ग्रहण | बाधाएँ सही हैं, उनका स्मरण करते हैं, और इन आधारों पर उस वेदना में लालसा या लोलुपता नहीं होती। को समतापूर्वक सहन करते हैं। वैसे तो सभी प्राणी भूख-प्यास की बड़ा कठिन है जैन मार्ग। स्वादिष्ट आहार जीभ के माध्यम से वेदना से पीड़ित हैं, जो उपाय कर सकते हैं वे कुछ क्षणिक उपायों ही पेट में जाता है, पर जीभ की नहीं सुनना, रूक्षाहार और स्निग्ध से कुछ समय को (कृत्रिम उपायों से) शमन करते हैं। कुछ योग्यआहार में भेद नहीं करना-एक से राग और अन्य से द्वेष नहीं करना। अयोग्य, भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार न कर उन बाधाओं को शमन करने राग-द्वेष की उत्पत्ति तो तब ही होती है जब स्वाद इष्ट हो, और रूक्ष की चेष्टा करते हैं। कुछ प्राणी साधनों के अभाव में रोते-बिलखते दीन अनिष्ट हो। इष्ट-अनिष्ट की कल्पना राग द्वेष के आधार पर होती है। हुए उसे सहते हैं। सहना तो सभी को अनिवार्य है पर साधुजन उन वीतरागी साधु को वीतरागता के आधार पर ही न कोई पदार्थ इष्ट बाधाओं का समतापूर्वक मुकाबला करते हैं। उनका परिणाम विचलित होता है और न कोई अनिष्ट होता है। नहीं होता। वे परमधैर्यरूपी जल से ही तृषा बुझाते हैं, शास्त्र के अमृत जिनोपदेश सदा उनके समक्ष रहता है। वे तत्त्वज्ञानी हैं अतः | रूप उपदेश के भोजन से ही क्षुधावेदना मेंटते हैं। प्रत्येक पदार्थ को तात्त्विक दृष्टि से ही देखते हैं। इसी से उनमें राग- धन्य है वे वीतरागी योगी, जो इन क्षुधा-तृषा वेदनाओं को द्वेष भाव न होकर वीतराग भावों की ही अभिवृद्धि होती रहती है। आहार समताभावपूर्वक दूरकर, आत्मनिष्ठ हो, परमार्थ का साधन करते हैं। की कांक्षा, तृषा की वेदना होने पर वे मुनि-परम्परा में होने वाले कठिन | ऐसे त्रिलोकवन्द्य योगीश्वरों के चरणों में बार-बार नमस्कार। तपस्वियो के चारित्र को ध्यान में रखकर धैर्य धारण करते हैं। वात्सल्य रत्नाकर (तृतीय खण्ड) नरकों में, तिर्यग्गति में कैसी-कैसी भयंकर भूख-प्यास की से साभार बालवार्ता : बोधकथाएँ अनपढ़ बहू और शिक्षित सास । सरल प्रश्न का अजीब उत्तर एक परिवार में तीन ही सदस्य थे, पति-पत्नी और उन दोनों घटना बादशाह अकबर के समय की है। बादशाह का दरबार का एक बेटा। जवान होने पर धूमधाम से बेटे का विवाह कर दिया लगा हुआ था। बीरबल राजदरबार में बैठे हुए थे। एक व्यक्ति गया। बहू घर में आई। वह देखने में बहुत सुंदर थी। बोलती भी | राजदरबार में आया। उसने बादशाह और मंत्री दोनों को एक जगह बहुत मीठा थी, पर अपढ़ थी। अपढ़ ही नहीं, नासमझ भी थी। पाकर प्रसन्नता व्यक्त की। दोनों को उसने प्रणाम किया तथा दोनों एक दिन पड़ौस में किसी के यहाँ मौत हो गयी थी। सास के समक्ष उसने प्रश्न किया राजदरबार में, कि- 'सत्ताईस में से दस किसी कार्य में व्यस्त थी। उसने बहू को भेजा, वहाँ सान्त्वना देने के लिये। बहू वहाँ गयी और शाब्दिक सान्त्वना देकर आ गई। उसने निकाल दिये जायें तो कितने बचेंगे?' न दुख व्यक्त किया और न वह रोई। सास ने कहा/समझाया कि सभी लोग सोच में पड़ गये कि सत्ताईस में से दस चले वहाँ रोना आवश्यक था बहू। गये तो शेष सत्रह बचेंगे। यह तो बहुत आसान सी बात है। लेकिन योग की बात है अचानक दूसरे ही दिन पड़ोस के एक अन्य यदि इतना आसान गणित होता, तो राजदरबार में वह व्यक्ति क्यों घर में पुत्र का जन्म हुआ। सास ने फिर बहू को वहाँ भेजा। सास पूछता? सभी एक दूसरे की ओर देखने लगे। किसी के समझ में के बताये अनुसार वहाँ पहुँचते ही बहू ने रोना शुरू कर दिया। कुछ नहीं आया कि रहस्य क्या है? देर रोती रही, पश्चात् अपने घर लौट आई। घर लौटी, तो सास के बीरबल चुप थे। अकबर ने इशारा किया तो हाजिर जवाब पूछने पर उसने सास को बताया कि आपके कहे अनुसार मैंने वहाँ | बीरबल बोले- राजन! सत्ताईस में से दस निकल जाने पर कुछ नहीं जाते ही रोना शुरू कर दिया था। बचेगा। बीरबल का उत्तर सुनकर सभी भौंचक्के रह गये। कुछ लोग सास ने बहू को फिर समझाया 'क्या करती हो बहू, वहाँ तो हँसने लगे कि ये कौन से स्कूल में पढ़कर आये हैं? इनके गुरुजी तुझे प्रसन्न होकर गीत गाना चाहिए था, अब आगे ध्यान रखना।' कौन हैं? इन्हें इतना भी ज्ञान नहीं। बहू ने सास की यह बात भी बड़े ध्यान से सुनी। फिर एक दिन तब बीरबल ने समझाया कि बात सिर्फ गणित हल करने की बात है, वह बहू ऐसे घर में गयी जहाँ आग लग गई थी। उसने की नहीं है। बात अनुभव की है। सत्ताईस नक्षत्र होते हैं। उनमें से सास के कहे अनुसार वहाँ गीत गाये और प्रसन्नता व्यक्त की। अनपढ़ बहू के समयोचित कार्य न करने से उसके कार्यों की दस नक्षत्र ऐसे हैं जिनमें वर्षा होती है। यदि वे नक्षत्र निकाल दिये सभी ने निंदा की। वह सर्वत्र हँसी की पात्र बनी। आवश्यक कार्यों जायें तो वर्षा के अभाव में फसल नहीं होगी। अकाल की स्थिति को समयोचित करने की लिये बुद्धिमत्ता आवश्यक है। विवेक और हो जायेगी और सभी का जीवन समाप्त हो जायेगा। तब पृथ्वी पर बुद्धि के अभाव में ऐसी ही दशा हर अज्ञानी की है। आवश्यक कार्य | कुछ भी शेष नहीं बचेगा। करना नहीं और वासना का दास बना रहता है। आवश्यक कार्य है | इसी प्रकार त्रस पर्याय मिलने के उपरान्त मनुष्यभव यूँ ही - मन और इन्द्रियों को समय पर (विषयों के आधीन होते समय) | रत्नत्रय की आराधना के बिना निकाल दो, तो फिर कल्याण करने वश में करना। जो ऐसा नहीं करते, महर्षि उनके क्रिया-कलाप देखकर | का अवसर कभी नहीं मिलेगा। हँसते हैं। 'विद्याकथाकुंज' से साभार 'विद्याकथाकुञ्ज' से साभार | - अक्टूबर 2001 जिनभाषित 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524256
Book TitleJinabhashita 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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