SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कवि क्षमासागरजी भी किसी के ज्ञानी और दानी होने के अहंकारी भ्रम को तोड़ने के लिये कहते हैं 'कभी ऐसा हो कि देने का मन हो और लेने वाला कोई करीब न हो / कभी हम कुछ कहना चाहें और सुनने वाला कोई करीब न हो / तब एहसास होता है / देने और सुनाने वाले से/ लेने और सुनने वाला ज्यादा कीमती होता है बहुत कुछ है, यह तो मात्र एक बानगी है। उनकी कविताओं को पढ़ कर मैंने कवि क्षमासागर को जाना, पर मुनि क्षमासागरजी को पाया उन्हीं की कविता विश्वास के माध्यम से जिसे पाकर / हम अपना सब / खो देने को / राजी हो जाते हैं और यह भी नहीं पूछते / कि अपने को देखकर हम क्या पायेंगे / मानिए यह विश्वास है / और एकदम सच्चा है। मैंने मुनिजी में यह विश्वास ही पाया है। कवि क्षमासागर से परिचय के बाद मुनि क्षमासागरजी का प्रथम दर्शन मुझे उनके इंदौर प्रवास में मुनि क्षमासागर की कविताएँ के लोकार्पण के अवसर पर हुआ। देखते ही अन्तज्ञांन ने कहा, यहाँ परखने की गुंजाइश नहीं- यह कोमलता, यह सहजता, यह बाल सुलभता, यह अहं शून्यता इस संत का बाहर और अन्दर का सब कुछ है - एकदम निर्मल स्वच्छ, स्फटिक सा पारदर्शी । सिर झुक गया, हाथ जुड़ गए। एक वीतरागी, अपरिग्रही, संत से यह अनुरागी, परिग्रही गृहस्थ जुड़ गया। तब से अब तक मुनिश्री के प्रत्येक चातुर्मास में उनके दर्शन तथा सान्निध्य का सौभाग्य मुझे निरंतर मिलता आ रहा है। इन अवसरों पर मुनिजी के साथ अपने एकाध अविस्मरणीय संस्मरणों को आत्म सुख के लिये व्यक्त कर रहा हूँ। बीना में वर्षांयोग के समय जब मैं उनसे मिलने गया तो एक दिन मुनि श्री ने कहा - निकट ही सागर में आचार्य श्री विद्यासागर जी का चातुर्मास है, दर्शन करना चाहें तो सागर हो आयें। मुनि जी की लिखी पुस्तक 'आत्मान्वेषी' मैं पढ़ चुका था। यह पुस्तक आचार्यश्री के शिष्य ने नहीं लिखी। शिष्य तो निमित्त जैसा है। मुनि जी को तो जैसे परकाया प्रवेश की सिद्धि है। विद्याधर से आचार्य विद्यासागर तक की यात्रा में मुनि जी ने अपने को आचार्य श्री की माता की भावभूमि में प्रविष्ट कर दिया है मातृभाव से लिखा है। जिन्हें पढ़ा था उन्हें प्रत्यक्ष देखना और मिलना सौभाग्य की बात थी। मैंने कहा 'महाराज ! बड़ी भीड़ होगी, Jain Education International कोई संकेत मिल जाये तो सहज हो।" मुनि जी ने सहज कहा 'हम लोगों को तीन-तीन, चार-चार साल तक दर्शन नहीं हो पाते। जाओ, जैसा अवसर मिले करना । " गया, आचार्यश्री आहार लेने के बाद आसन पर विराजमान थे। बड़ी भीड़ थी। स्वयंसेवक को आने का प्रयोजन बताया। उसने प्रवचन के बाद मिलने को कहा। बाद में गया तो स्वयंसेवक ने बताया कि अभी आचार्यश्री कुछ विशिष्ट लोगों से विचार विमर्श कर रहे हैं। दूर से ही दर्शन कर लो. मिलना संभव नहीं । जाने कैसे मेरे मन में यह भाव आया और मैंने छूटते ही कहा- 'मैं अति विशिष्ट हूँ। मुझे उनके दृष्टि- पथ तक जाने दो।' स्वयंसेवक सहमा । मैं आगे बढ़ा, दूर 'नमोऽस्तु' की मुद्रा में खड़ा हो गया। कुछ देर बाद आचार्यश्री ने आँखे उठाईं, मुझे देखा, आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ उठाया और मैं आगे बढ़ कर उनके चरणों तक पहुँच गया। परिचय दिया। आचार्यश्री ने कुशल क्षेम जानकर और भी बहुत कुछ पूछा । मैं कृतार्थ होकर आ गया। मुनिश्री ने पूछा दर्शन हुए? मैने कहा 'दर्शन के साथ स्पर्शन भी हुआ मुनि जी मुस्कुराए"भाग्यशाली हो।' मैं भी हँसा आपका आशीर्वाद पाया हुआ कोई अभागा रह ही नहीं सकता। एक निजी प्रसंग। मेरी पुत्र वधू कैंसर ग्रस्त थी । मुनिजी को पता था। मिलने पर हर बार स्वयं उसका हाल पूछते थे। एक बार मैंने अपने दुख से विचलित होकर कहा- 'महाराज जी! आप स्थितप्रज्ञ वीतरागी है। सुख-दुख. राग-द्वेष से निर्विकार । मेरी वेदना से आप जुड़ जाते हैं, मैं अन्तर तक भीग जाता हूँ।' मुनि जी की बात कभी नहीं भूलता। कितनी संवेदना, कितनी परदुखकातरता, कितना निजत्व ! कहा- हम मुनि और संत बाद में है, पहले मनुष्य हैं। इस शरीर में जो मन है, बुद्धि है, परम चैतन्य आत्मा है, वह कैसे पत्थर जैसा संवेदनहीन हो जायेगा ? मानवीय संवेदना सर्वोपरि है। हममें अगर वही न रह पायी तो संत होकर क्या करेंगे? पर सब संत ऐसा कहाँ सोच पाते हैं, कर पाते हैं। आत्मरति या आत्ममुक्ति के ही बंधन में बंधे रहते हैं। गुरु के प्रति मुनि जी की कैसी आस्था है, कैसी भक्ति है, कैसा विश्वास है, उनके प्रति कितने भावुक हैं, यह एक प्रसंग में मैंने सुना। मुनि जी सुना रहे थे एक बार सागर For Private & Personal Use Only में आचार्य श्री विद्यासागर जी का चातुर्मास पड़ा, पर संयोग ऐसा कि वर्षा न होने से पानी का संकट । एक सज्जन हाथ जोड़कर बुन्देलखण्डी में बोले - 'महाराज जी ! चातुर्मास तो इते हो गव पै पानी तो हैई नइयाँ' आचार्यश्री कुछ बोले नहीं धीरे से मुस्कुराए और आगे बढ़ गए। दोपहर बाद जो बादल घिरे तो ऐसे बरसे, ऐसे बरसे कि सब ताल तलैयाँ उमड़ पड़ीं। दूसरे दिन सबेरे फिर वे सज्जन आये । हाथ जोड़कर अभिभूत होकर बोले- 'महाराज जी! पानी तो चाने तो पै इत्तो नई। आचार्यश्री की वही सदाबहार मुस्कुराहट । बोले कुछ नहीं । बादल छूट चुके थे, आकाश निर्मल हो चुका था। मुनि जी यह प्रसंग सुनाते हुए आचार्य श्री के प्रति इतने भावुक हो गए कि उनका गला भर आया। कहने लगे- यह कौन सा विज्ञान था, मैं नहीं जानता । सुनकर मैं भी भाव-विभोर हो गया। मेरे अन्तर्मन ने कहा यह विज्ञान तर्क का नहीं, श्रद्धा का है, विश्वास का है। यह आत्म विज्ञान है। उस परम चैतन्य को, अनन्त सत्ता को किसी ने नहीं देखा है, पर वह है, भक्ति भावना ने जगती को मूर्तिमान भगवान दे दिये । उसका होना हमारे विश्वास और श्रद्धा का फल है। आपने भी तो लिखा है ईश्वर मेरे/ मेरी श्रद्धा मुझे तुम्हारे होने का अहसास कराती है / सचमुच अब तुम्हारा होना / मेरी श्रद्धा के लिये कितना जरूरी है। कई बार मुनि जी को प्रवचन करते मैंने देखा है, सुना है। देखने में भले ही लगता है कि वे श्रोताओं से अलग उच्चासन पर बैठकर प्रवचन कर रहे हैं, पर सुनते हुए ऐसा लगता है कि वे श्रोताओं के बीच उन्हीं में से एक अपने विचार प्रकट कर रहे हैं, उपदेश आदेश न देकर वार्ता कर रहे हैं। सब को अपने साथ लेकर चल रहे हैं, सबके साथ चल रहे हैं। उनके प्रवचनों के केन्द्र में मानव जीवन का विकास तथा कल्याण रहता है। मुझे मुनि जी के प्रवचन में यही केन्द्र ध्वनि सुनाई देती हैसर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग् भवेत् ॥ सब सुखी हों, सब नीरोग हों, सब की दृष्टि मंगलमय हो, कोई दुखी न हो । मैं बड़भागी हूँ जो एक सुविचारक सहृदय, निःस्पृह, मानवीय संवेदनाओं से सराबोर संत का सान्निष्य तथा उनसे निजता का अनुभव करता हूँ। पी-10, नवीन शाहदरा, दिल्ली-11032 'अक्टूबर 2001 जिनभाषित 21 www.jainelibrary.org
SR No.524256
Book TitleJinabhashita 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy