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________________ क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय इच्छाओं के रहते परिणामों में स्थिरता स्वप्न | वार्तालाप में विषमता आ जाती है। यह हैं, इनमें क्रोध से क्षमा, मान से मार्दव, माया में भी नहीं आ सकती। जब इच्छाएँ घट | विषमता पाप का कारण है। वार्तालाप के से आर्जव और लोभ से शौचगुण तिरोहित जावेंगी, तब उसके फलस्वरूप त्याग स्वतः समय वक्ता या श्रोता किसी को यह भाव नहीं हैं। ये चार कषाय निकल जावें और उनके हो जावेगा। भोजन करते-करते जब भोजन होना चाहिए कि हमारी प्रतिष्ठा में बट्टा न लग बदले क्षमा आदि गुण आत्मा में प्रकट हो विषयक इच्छा दूर हो जाती है, तब भोजन जावे, समताभाव से सत्य बात को स्वीकार जावे तो आत्मा का उद्धार हो जावें, क्योंकि का त्याग करने में देर नहीं लगती। क्षुधित करना चाहिए और समता भाव से ही असत्य मुख्य में यह चार गुण ही धर्म हैं। आगे जो अवस्था में यह भाव होता था कि पात्र में बात का निराकरण करना चाहिए। यहाँ भाद्रपद सत्य आदि छः धर्म कहे हैं, वे इन्हीं के भोजन जल्दी आवे और क्षुधाविषयक इच्छा शुक्ल 10 के दिन पण्डितगणों में परस्पर कुछ विस्तार हैं- इन्हीं के अंग हैं। क्रोध को वही दूर हो जाने पर भाव होता है कि कोई बलात् वार्तालाप की विषमता हो गई। विषमता का जीत सकता है, जिसने मान पर विजय प्राप्त पात्र में भोजन न परोस दे। त्याग के बाद कारण ‘परमार्थ से हमारी प्रतिष्ठा में कुछ बट्टा कर ली हो। हम कहीं गये, किसी ने सत्कार आकिञ्चन्य दशा का होना स्वाभाविक है। जब न लगे' यह भाव था। तत्त्व से देखो तो नहीं किया, हमारी बात पूछी नहीं, हमें क्रोध पुरातन परिग्रह का त्याग कर दिया और इच्छा आत्मा निर्विकल्प है उसमें यशोलिप्सा ही आ गया। हमने किसी से कोई बात कही, के अभाव में नूतन परिग्रह अंगीकृत नहीं व्यर्थ है। यश तो नामकर्म की प्रकृति है। यश उसने नहीं मानी, हमें क्रोध आ गया कि इसने | किया तब आकिञ्चन्य दशा स्वयमेव होने की से कुछ मिलता-जुलता नहीं है। जिस वक्ता हमारी बात नहीं मानी, इस प्रकार देखते हैं । है ही और जब अपने पास आत्मातिरिक्त ने शास्त्रप्रवचन में यश की लिप्सा रखी, कि हमारे जीवन में जो क्रोध उत्पन्न होता है, | किसी पदार्थ का अस्तित्त्व नहीं रहा- उसमें उसका 2 घंटे तक गले की नसें खींचना ही उसमें मान प्रायः कारण होता है। इसी प्रकार ममता परिणम नहीं रहा, तब आत्मा का हाथ रहा, स्वाध्याय के लाभ से वह दूर रहा, माया की उत्पत्ति लोभ से होती है। हमें आपसे उपयोग आत्मा में ही लीन होगा, यही ब्रह्मचर्य इसी प्रकार जिस श्रोता ने वक्ता की परीक्षा किसी वस्तु की आकांक्षा है, तो उसे पाने के है, इस प्रकार यह दश धर्मों का क्रम है। दश का भाव रखा या अपनी बात जमाने का लिये हम इच्छा न रहते हुए भी आपके प्रति | धर्मों का यह क्रम जीवन में उतर जावे तो अभिप्राय रखा, उसने अपना समय व्यर्थ ऐसी चेष्टा दिखलावेंगे कि जिससे आपके आत्मा का कल्याण हो जावे। विचार कीजिए, | खोया। वक्ता का भाव तो यह होना चाहिये हृदय में यह प्रत्यय हो जावे कि यह हमारे क्षमा, मार्दव आदि धर्म किसके हैं, और कहाँ कि हम अज्ञानी जीवों को वीतराग जिनेन्द्र की अनुकूल है। जब अनुकूलता का प्रत्यय आपके हैं? विचार करने पर ये आत्मा के हैं और वाणी सुनाकर सुमार्ग पर लगावें और श्रोता हृदय में दृढ़ हो जावेगा, तभी तो अपनी वस्तु आत्मा में ही हैं, परन्तु यह जीव अज्ञानवश का भाव यह होना चाहिए कि वक्ता के श्रीमुख देने का भाव होगा। इस तरह यह किसी का इतस्ततः भ्रमण करता-फिरता है। लाखों का से जिनवाणी के दो शब्द सुन अपने विषयकहना ठीक है कि 'मानात्क्रोधः प्रभवति माया धनी व्यक्ति जिस प्रकार अपनी निधि को भूल कषाय को दूर करें। लोभात्प्रवर्तते' अर्थात् मान से क्रोध उत्पन्न दर-दर का भिखारी हो भ्रमण करता है, ठीक पर्व के बाद आश्विन प्रतिपदा क्षमावाणी होता है। और लोभ से माया प्रवृत्त होती है। उसी प्रकार हम भी अपनी निधि को भूल का दिन था, परन्तु जैसा उसका स्वरूप है, जब आत्मा से क्रोध, लोभ भीरुत्व तथा | उसकी खोज में इतस्ततः भ्रमण कर रहे हैं। वैसा हुआ नहीं। केवल प्रभावना होकर हास्य की परिणति दूर हो जाती है, तो सत्य | परम धर्म को पाय कर सेवत विषय कषाय। समाप्ति हो गई। परमार्थ से, अन्तरङ्ग से, वचन में प्रवृत्ति अपने आप होने लगती है।। ज्यों गन्ना को पाय कर नीमहि ऊँट चबाय।। शान्तिभाव की प्राप्ति हो जाना यही क्षमा है, असत्य बोलने के कारण दो हैं - 1. अज्ञान जिस प्रकार ऊँट गन्ना को छोड़कर सो इस ओर तो लोगों की दृष्टि है नहीं, केवल और 2. कषाय। इनमें अज्ञानमूलक असत्य | नीम को चबाता है, उसी प्रकार संसार के प्राणी ऊपरी भाव से क्षमा माँगते हैं, एक-दूसरे के आत्मा का घातक नहीं, क्योंकि उसमें परिणाम | परमधर्म को छोड़कर विषय-कषाय का सेवन गले लगते हैं। इससे क्या होने वाला है? और मलिन नहीं रहते, परन्तु कषायमूलक असत्य | करते हैं। उनसे सुख मानते हैं। मोहोदय से खासकर जिससे बुराई होती है, उसके पास आत्मा का घातक है, क्योंकि उसमें परिणाम | इस जीव की दृष्टि स्वोन्मुख न हो, पर की भी नहीं जाते, उससे बोलते भी नहीं, इसके मलिन रहते हैं। जब आत्मा से क्रोधादि कषाय | ओर हो रही है। विपरीत जिससे बुराई नहीं, उसके पास जाते निकल गई तब असत्य बोलने में प्रवृत्ति नहीं पर्व के समय प्रवचन होते हैं। वक्ता | हैं, उसके गले लगते हैं, उसे क्षमावाणी पत्र हो सकती। इंद्रियों के विषयों से निवृत्ति हो अपने क्षायोपशमिक ज्ञान के आधार पर पदार्थ लिखते हैं आदि। यह सब क्या क्षमावाणी गई है, यही संयम है। यह निवृत्ति तभी हो का निरूपण करता है। यहाँ वक्ता से यदि कुछ उत्सव का प्राणशून्य ढाँचा नहीं है? सकती है जब लोभ कषाय की निवृत्ति हो जाय विरुद्ध कथन भी होता है, तो अन्य समझदार चाहत जो मन शान्ति-सुख, तजहु कल्पना-जाल। तथा यह प्रत्यय हो जाये कि आत्मा में सुख व्यक्ति को समताभाव से उसका सुधार करना व्यर्थ भरम के भूत में, क्यों होते बेहाल।।1।। की उत्पत्ति विषयाभिमुखी प्रवृत्ति से नहीं, चाहिए, क्योंकि शास्त्रप्रवचन धर्मकथा है, यह जगत की माया विकट, जो न तजोगे मित्र। किन्तु तन्निवृत्ति से है। मानसिक विषयों की | विजिगीषुकथा नहीं। धर्मकथा का सार यह है, निवृत्ति हो जाना - इच्छाओं पर नियंत्रण हो | कि दश आदमी एकत्र बैठकर पदार्थ का तो चहुँगति के बीच में, पाओगे दुख चित्र।।2।। जाना, सो तप है। जब तक मन स्वाधीन नहीं | निर्णय कर रहे हैं, इसमें किसी के जय-पराजय मेरी जीवन गाथा (द्वितीय भाग) होगा, तब तक उसमें इच्छाएँ उठा करेंगी और | का भाव नहीं है। जहाँ यह भाव है, वहाँ से साभार -अक्टूबर 2001 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524256
Book TitleJinabhashita 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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