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________________ रक्षाबन्धन और पर्युषण स्व. क्षुल्लक श्री गणेशप्रसादजी वर्णी श्रावण शुक्ला पूर्णिमा सं. 2007 को | दूसरे के विषय में ही यह चिन्ता करता हो, | बचो। अनादिकाल से यही उपद्रव करते रहे, रक्षाबन्धन पर्व आया। यह पर्व सम्यग्दर्शन सो बात नहीं, अपने आपके प्रति भी यही | पर सन्तुष्ट नहीं हए। आत्मपरिणति को स्वच्छ के वात्सल्य अंङ्ग का महत्त्व दिखलाने वाला भाव रखता है। सम्यग्दर्शन के निःशङ्कित रखो, सो तो करता नहीं, संसार का ठेका लेता है। सम्यग्दृष्टि का स्नेह धर्म से होता है और आदि आठ अङ्ग जिस प्रकार पर के विषय है। जो मनुष्य आत्मकल्याण से वंचित हैं, वे धर्म के बिना धर्मी रह नहीं सकता, इसलिये में होते हैं, उसी प्रकार स्व के विषय में भी ही संसार के कल्याण में प्रयत्न करते हैं। संसार धर्मी के साथ उसका स्नेह होता है। जिस प्रकार होते हैं। रक्षाबन्धन रक्षा का पर्व है, पर की में यदि शांति चाहते हो, तो सबसे पहले पर गौ का बछड़े के साथ जो स्नेह होता है, उसमें रक्षा वही कर सकता है, जो स्वयं रक्षित हो। में निजत्व की कल्पना त्यागो, अनन्तर गौ को बछड़े की ओर से होने वाले प्रत्युपकार जो स्वयं आत्मा की रक्षा करने में असमर्थ अनादि काल से जो यह परिग्रह-पिशाच के की गन्ध भी नहीं होती, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि है, वह क्या पर का कल्याण कर सकता है? आवेश में अनात्मीय पदार्थों से आत्महित का धर्मात्मा से स्नेह करता है, तो उसके बदले रक्षा से तात्पर्य आत्मा को पाप से पृथक् करो, संस्कार है, उसे त्यागो। हम आहारादि संज्ञाओं वह उससे किसी प्रत्युपकार की आकांक्षा नहीं पाप ही संसार की जड़ है। जिसने इसे दूर कर से आत्मा को तृप्त करने का प्रयत्न करते हैं, करता। कोई माता अपने शिशु से स्नेह दिया, उसके समान भाग्यशाली अन्य कौन यह सर्व मिथ्या धारण है, इसे त्यागो। संतोष इसलिये करती है कि यह वृद्धावस्था में हमारी का कारण त्याग है, उस पर स्वत्व कल्पना रक्षा करेगा, पर गौ को ऐसी कोई इच्छा नहीं आज जैन समाज से वात्सल्य अङ्ग का करो। प्रतिदिन जल्पवाद से जगत् को रहती, क्योंकि बड़ा होने पर बछड़ा कहीं जाता महत्त्व कम होता जा रहा है, अपने स्वार्थ के सुलझाने की जो चेष्टा है, उसे त्यागो, और है, और गौ कहीं। फिर भी गौ बछड़े की रक्षा समक्ष आज का मनुष्य किसी के हानि-लाभ अपने आपको सुलझाने का प्रयत्न करो। के लिये अपने प्राणों की भी बाजी लगा देती | को नहीं देखता। हम और हमारे बच्चे आनन्द संसार में धर्म और अधर्म तथा खान और पान है। सम्यग्दृष्टि यदि किसी का उपकार करे और से रहें, परन्तु पड़ौसी की झोपड़ी में क्या हो यही तो परिग्रह है। लोक में जिसे पुण्यशब्द उसके बदले उससे कुछ इच्छा रखे, तो यह रहा है, इसका पता लोगों को नहीं। महल में | से व्यवहृत करते हैं, वह धर्म तुम्हारा स्वभाव एक प्रकार का विनिमय हो गया, इसमें धर्म रहने वालों को पास में बनी झोपड़ियों की भी | नहीं, संसार में ही रखने वाला है। का अंश कहाँ रहा? धर्म का अंश तो निरीह रक्षा करनी होती है, अन्यथा उनमें लगी आग धीरे-धीरे पर्युषण पर्व आ गया। चतुर्थी होकर सेवा करने का भाव है। विष्णुकुमार मुनि उनके महल को भी भस्मसात् कर देती है। के दिन श्री पंडित झम्मनलालजी आ गये। पं. ने सात सौ मुनियों की रक्षा करने के लिये एक समय तो वह था कि जब मनुष्य बड़े कमलकुमारजी यहाँ थे ही, इसलिये प्रवचन अपने आपको एकदम समर्पित कर दिया, | की शरण में रहना चाहते थे, उनका ख्याल का आनन्द रहा। वृद्धावस्था के कारण हमसे अपनी वर्षों की तपश्चर्या पर ध्यान नहीं दिया रहता था कि बड़ों के आश्रय में रहने से हमारी अधिक बोला नहीं जाता और न बोलने की और धर्मानुराग से प्रेरित हो, छल से वामन रक्षा रहेगी, पर आज का मनुष्य बड़ों के इच्छा ही होती है। उसका कारण यह है कि का रूप धर बलि का अभिमान चूर किया। आश्रय से दूर रहने की चेष्टा करता है, क्योंकि जो बात प्रवचन में कहता हूँ, तदनुरूप मेरी यद्यपि पीछे चलकर इन्होंने भी अपने गुरु के उसका ख्याल बन गया है कि जिस प्रकार एक चेष्टा नहीं। मैं दूसरों से तो कहता हूँ कि पास जाकर छेदोपस्थापना की, अर्थात् फिर बड़ा वृक्ष अपनी छाँह में दूसरे छोटे पौधे को | रागादिक दुःख के कारण है, अतः इनसे से नवीन दीक्षा धारण की, क्योंकि उन्होंने जो नहीं पनपने देता है, उसी प्रकार बड़ा आदमी बचो, पर स्वयं उनमें फँस जाता हूँ। दूसरों कार्य किया था, वह मुनि पद के योग्य कार्य समीपवर्ती - शरणागत अन्य मनुष्यों को नहीं | से कहता हूँ कि सर्व प्रकार से विकल्प त्यागो, नहीं था, तथापि सहधर्मी मुनियों की उन्होंने पनपने देता। अस्तु, रक्षाबन्धन पर्व हमें सदा | पर स्वयं न जाने कहाँ-कहाँ के विकल्पों में उपेक्षा नहीं की। किसी सहधर्मी भाई को यही शिक्षा देता है कि 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' फँसा हुआ हूँ। भोजन, वस्त्रादि की कमी हो, तो उसकी पूर्ति अर्थात् सब सुखी रहें। पर्युषण पर्व साल में तीन बार आता हो जाए, ऐसा प्रयत्न करना चाहिए। यह मैं कहने के लिये तो यह सब कह गया, | है- भाद्रपद, माघ और चैत्र में, परन्तु भाद्रपद लौकिक स्नेह है, सम्यग्दृष्टि का पारमार्थिक पर सामायिक के बाद अन्तरंग में जब विचार | के पर्युषण का प्रचार अधिक है। पर्व के समय स्नेह इससे भिन्न रहता है। किया, तब यही ध्वनि निकली कि पर की | प्रत्येक मनुष्य अपने अभिप्राय को निर्मल सम्यग्दृष्टि मनुष्य हमेशा इस बात का समालोचना त्यागो, आत्मीय समालोचना | बनाने का प्रयास करता है, और यथार्थ में विचार रखता है कि यह हमारा सहधर्मी भाई करो। समालोचना में काल लगाना भी उचित | पूछा जाय तो अभिप्राय की निर्मलता ही धर्म सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप जो आत्मा का नहीं, प्रस्तुत वह काल उत्तम विचार में | है। आत्मा की यह निर्मलता क्रोधादिक कषायों धर्म है, उससे कभी च्युत न हो जाय तथा लगाओ। आत्मा का स्वभाव ज्ञाता-द्रष्टा है, | के कारण तिरोहित हो रही है, इसलिये इन अनन्त संसार के भमण का पात्र न बन जाए। वही रहने दो, इसमें इष्ट-अनिष्ट कल्पना से | कषायों को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। 4 अक्टूबर 2001 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524256
Book TitleJinabhashita 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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