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________________ सम्पादकीय विवाह एक धार्मिक अनुष्ठान जिनागम में मोक्ष की साधना के लिये दो धर्म बतलाये गये | है और उसे स्वीकार करने का प्रयोजन है विषयों को धर्म के संस्कार हैं : मुनिधर्म और गृहस्थधर्म। इनमें मुनिधर्म उत्सर्ग मार्ग है और | से शोधित-परिष्कृत कर ओषधि के रूप में सेवन करते हुए विषयरोग गृहस्थधर्म अपवादमार्ग। अर्थात् मोक्षाभिलाषी पुरुष को मुनिधर्म ही | की तीव्रता को शान्त करना और ज्ञान, वैराग्य तथा संयम को दृढ़ अंगीकार करना चाहिए, गृहस्थधर्म नहीं। गृहस्थधर्म तभी ग्राह्य है जब करते हुए विषयों के सर्वथा परित्याग की शक्ति अर्जित करना। विवाह वह चारित्रमोह के तीव्र उदय से मुनिधर्म अंगीकार करने में असमर्थ वह धार्मिक संस्कार है, जिससे विषय शोधित और परिष्कृत होकर हो। और गृहस्थधर्म अंगीकार करने का उद्देश्य भी अपने को मुनिधर्म औषधि का रूप धारण कर लेते हैं। उदाहरणार्थ, इसके द्वारा की साधना के योग्य बनाना ही होता है। पुरुषार्थसिद्धयपाय में कहा परदारनिवृत्ति हो जाने से कामप्रवृत्ति मर्यादित हो जाती है और स्वस्त्रीगया है कि मोक्षाभिलाषी पुरुष को सर्वप्रथम मुनिधर्मग्रहण करने का स्वपुरुष भी केवल नर-मादा की आदिम भूमिका में नहीं रहते, अपितु ही उपदेश दिया जाना चाहिए। जब बार-बार उपदेश देने पर भी उसे सहधर्मी और सहधर्मिणी के पद पर प्रतिष्ठित हो जाते हैं। यह वह ग्रहण न कर सके, तभी पापों से देशविरतिरूप गृहस्थधर्म का उपदेश पद है जिसमें पति-पत्नी एक-दूसरे के लिये गौणरूप से विषयौषधि दिया जाए। जो गुरु पहले मुनिधर्म ग्रहण करने का उपदेश न देकर बनते हुए भी मुख्यरूप से पारस्परिक धर्मसाधना और धर्मवृद्धि में गृहस्थधर्म अंगीकार करने का उपदेश देता है, उसे आगम में दण्डनीय सहयोगी बनते हैं। इसीलिए विवाह एक धार्मिक संस्कार या धार्मिक बतलाया गया है, क्योंकि ऐसा करने से शिष्य मुनिधर्म के पालन में अनुष्ठान है। इसी कारण उसका सम्पादन विनायक यंत्र के समक्ष समर्थ होते हुए भी हीनस्तर के गृहस्थधर्म में सन्तुष्ट होकर अपनी णमोकारमंत्र, मंगलाष्टक एवं मंत्रों का उच्चारण करते हुए नवदेवों शक्ति के सदुपयोग से वंचित रह जाता है। इसका वर्णन निम्नलिखित (पंचपरमेष्ठी, जिनधर्म, जिनागम, जिनबिम्ब और जिनालय) के श्लोकों में किया गया है पूजन-हवनपूर्वक किया जाता है। यह ध्यान रखा जाता है कि बहुशः समस्तविरतिं प्रदर्शितां यो न जातु गृहणाति। विवाहविधि में वैषयिकता की तनिक भी आँच न आने पावे। यद्यपि तस्यैकदेशविरतिः कथनीयानेन बीजेन।।17।। विवाह का गौण लक्ष्य विषयेच्छा की संतुष्टि होता है, तथापि यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः। विवाहविधि पूर्णतः धार्मिक और सात्त्विक होती है। वह वैषयिकता तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम्।।18।। की हवा से अछूती रखी जाती है। उसमें शृंगाररसात्मक गीतादि के अक्रमकथनेन यतः प्रोत्सहमानोऽतिदूरमपि शिष्यः। लिये स्थान नहीं होता। शहनाई जैसे वाद्ययन्त्र भी मंगलध्वनि ही अपदेऽपि सम्प्रतृप्तः प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना।।19।। विकीर्ण करते हैं। यह इस बात का सूचक है कि विवाहोत्सव में यदि सागारधर्मामृतकार पं. आशाधर जी कहते हैं कि जिनेन्द्रदेव के कोई नृत्यगीत होता है तो वह भी सात्त्विक भावों को ही उभारने वाला उपदेशानुसार विषयों को निरन्तर त्याज्य समझते हुए भी, जो पुरुष | होना चाहिए। चारित्रमोह के उदय से उनका त्याग करने में समर्थ नहीं होता उसे | धार्मिक अनुष्ठान का बीभत्सीकरण गृहस्थधर्म धारण करने की अनुमति दी गई है किन्तु इस धार्मिक अनुष्ठान को आजकल अत्यंत बीभत्स बना त्याज्यानजस्रं विषयान्पश्यतोऽपि जिनाज्ञया। दिया गया है। हमने इसे परम्परया मोक्ष की साधना का माध्यम नहीं मोहात्त्यक्तुमशक्तस्य गृहिधर्मोऽनुमन्यते।।2/11 रहने दिया, अपितु दहेज नामक दानवी प्रथा के खूनी शिकंजे में कसकर पण्डितजी ने यह भी बतलाया है कि मुनिधर्म धारण करने में हराम के धन से कुबेर बनने का साधन बना लिया है। वर के चुनाव असमर्थ होते हुए भी जो उसमें (मुनिधर्म में) अनुराग रखता है, वही में अब चरित्र पर ध्यान नहीं दिया जाता, अपितु उसकी धन कमाने गृहस्थधर्म की दीक्षा का पात्र होता है की क्षमता देखी जाती है,भले ही वह न्याय पर आधारित हो या अन्याय अथ नत्वाऽर्हतोऽक्षूणचरणान् श्रमणानपि। पर। और अब तो वधू में भी धन कमाने की योग्यता तलाशी जाने तद्धर्मरागिणां धर्मः सागाराणं प्रणेष्यते।।1/1|| लगी है, अन्य गुणों को गौण कर दिया जाता है। तात्पर्य यह कि विषयों से विरक्ति हो जाने पर भी यदि मुनिधर्म ___चूँकि विवाहसंस्कार अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रतधारी के आचरण की सामर्थ्य नहीं है, तो गुरु से गृहस्थधर्म की दीक्षा अवश्य श्रावकों का संस्कार है इसलिये उसमें परिग्रहपरिमाण एवं भोगोपभोलेनी चाहिए। ऐसा न करने पर पूर्ण अविरति का दोष लगता रहता गपरिमाण व्रतों की झलक दिखाई देनी चाहिए। किन्तु हमने इसे है, जिससे कर्मों का न देशसंवर होता है न देशनिर्जरा। वैभवप्रदर्शन का निर्लज्ज साधन बना लिया है। इस प्रयोजन से बेहद इस प्रकार गृहस्थधर्म का महल वैराग्य की नींव पर खड़ा होता कीमती, चमकदमकवाले, भारीभरकम निमंत्रण पत्र छपवाये जाते हैं। 2 अक्टूबर 2001 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524256
Book TitleJinabhashita 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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