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________________ देवस्तुति अहो जगत् गुरु सुनो। | लूट में अंतर कर ल दोय, पायायो दुःख पंडित भूधरदास जी अहो जगत गुरु देव, सुनिये अरज हमारी। शब्दार्थ- अनाथ = अकेला, घनेरे-समूह, बेहाल बुरा हाल, तुम प्रभु दीन दयाल, मैं दुखिया संसारी।। साहिब= प्रभु। शब्दार्थ- अरज= विनती, दीनदयाल = दीनों पर दया करने | अर्थ - हे प्रभु! मैं तो एक अकेला हूँ, और ये कर्म बहुत एकत्र वाले। हो गये हैं, इन्होंने मेरा बुरा हाल कर दिया है। हे भगवन्! मेरी विनती अर्थ - हे तीनों लोगों के गुरु भगवन, आप तो दीनों पर दया | सुना सुनो। करने वाले हैं। मैं संसार का दुखी प्राणी हूँ। आप हमारी विनती को ज्ञान महानिधि लूटि, रंक निबलकरि डार्यो। इनकी तुम मुझ माहिं, हे जिन, अंतर पार्यो। इस भव वन के माहि, काल अनादि गमायो। . शब्दार्थ- पार्यो - डाल दिया है। भ्रम्यो चहूँगति माहि, सुख नहिं, दुख बहु पायो।। अर्थ - हे प्रभु! इन कर्मो ने हमारे ज्ञानरूपी उत्कृष्ट खजाने को शब्दार्थ - भव= संसार, भ्रम्यो = घूमता हूँ। लूट कर मुझे कमजोर बना दिया है, और इन कर्मों ने ही हममें और अर्थ - इस संसार रूपी वन में अनादि काल से मैं घूम रहा | हूँ और चारों गति में सुख नहीं, दुःख बहुत पाया है। पाप-पुण्य मिल दोय, पायनि बेड़ी डारी। कर्म महारिपु जोर, एक न कान करें जी। तन कारागृह माहिं, मोहि दियो दुःख भारी।। मन माने दुख देहि, काहूँसों नाहिं डरै जी।। शब्दार्थ- पायनि= पैरों में, बेड़ी= जंजीर, डारी=डाल रखी है। शब्दार्थ- महारिपु = बलवान शत्रु, कान= सुनना, मनमाने= अर्थ - हे प्रभु! पाप और पुण्य इन दोनों ने मेरे पैरों में जंजीर अनेक प्रकार के। डाल रखी हैं एवं शरीररूपी जेल में रोककर मुझे बहुत दुःख दिया ___ अर्थ - हे प्रभु!ये कर्म मेरे बहुत बलवान शत्रु हैं, एक भी बात 'नहीं सुनते हैं। ये कर्म अनेक प्रकार से दुखों को देते हैं। और ये किसी इनको नेक बिगार, मैं कछु नाहिं कियो जी। से भी डरते नहीं हैं। विन कारन जगवंद्य! बहुविधि बैर लियो जी।। कबहूँ इतर निगोद, कबहूँ नर्क दिखावै। शब्दार्थ- नेक = रंच मात्र भी। सुर-नर-पशुगति माहि, बहुविधि नाच नचावै।। अर्थ - हे प्रभु! इन कर्मों का मैंने रंच मात्र भी बुरा नहीं किया शब्दार्थ- नाच नचावै= भटकाते हैं। है। हे जगत् पूज्य भगवन्! बिना कारण के ही ये कर्म अनेक प्रकार अर्थ - (ये कर्म) कभी इतर निगोद में, कभी नरक में, कभी | से हमारे शत्रु बने हुए हैं। देव, तिर्यच और मनुष्य पर्याय में अनेक प्रकार से भटका रहे हैं। अब आयो तुम पास, सुनकर सुजस तिहारो। प्रभु इनको परसंग, भव भव माहिं बुरो जी। . नीतिनिपुण महाराज, कीजै न्याय हमारो।। जे दुःख देखे देव! तुमसों नाहिं दुरो जी।। शब्दार्थ- सुजस = ख्याति, तिहारो = आपकी। शब्दार्थ- परसंग= पराधीनता, बुरो= कष्ट सहन, दुरो= छिपा। अर्थ - हे प्रभु! आपकी ख्याति सुनकर मैं यहाँ आपके पास अर्थ - हे प्रभ! इन कर्मों की पराधीनता के कारण ही संसार | आया हूँ। हे नीति-न्याय करने वाले प्रभ हमारा न्याय कीजिए। में कष्ट सहन कर रहा हूँ। हे प्रभु! मैंने जो दुःख सहे हैं वे आपसे दुष्टन देहु निकार, साधुन को रख लीजै। छिपे नहीं हैं। आप सब जानते हैं। विनवै 'भूधरदास' हे प्रभु! ढील न कीजै।। एक जन्म की बात, कहि न सको सुनि स्वामी। शब्दार्थ - ढील = देरी, देहु = दीजिए। .. तुम अनन्त पर जाय, जानत अन्तरयामी।। अर्थ - हे प्रभु! दुष्ट कर्मरूपी शत्रुओं को हमारे अंदर से निकाल अर्थ - हे अन्तर्यामी! मैं तो अपने एक पर्याय के दुखों को भी | | कर, अच्छे गुण रूपी साधुओं को मुझमें रहने दें। मैं (भूधरदास) आप नहीं कह सकता, लेकिन आप तो त्रिकालवर्ती अनंत पर्यायों को जानते | से विनती करता हूँ कि हे प्रभु! इस कार्य में बिलकुल देरी न कीजिए। मैं तो एक अनाथ, ये मिल दुष्ट घनेरे। ब्र. महेश कियो बहुत बेहाल, सुनियो साहिब मेरे।। श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर (जयपुर) - अक्टूबर 2001 जिनभाषित 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524256
Book TitleJinabhashita 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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