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________________ आचार्य श्री विद्यासागर के सुभाषित सरोवर के बीच बैठा हुआ व्यक्ति जिस तरह दावानल से घिरे रहने पर भी उसकी दाह से बच जाता है ठीक उसी तरह भगवान् के मंदिर में पहुँचने पर भक्त पुरुष बाहरी विषय कषायों के दावानल से भली भाँति बच जाता है। इधर-उधर की पंचायत में मत रमो किन्तु पंच परमेष्ठी की भक्ति में लीन हो जाओ, वह भक्ति तुम्हारी मुक्ति का कारण बनेगी। स्तुति करने का प्रयोजन मात्र रागात्मक क्षणों की प्राप्ति नहीं है बल्कि चित्त में शांति वैराग्य और संयम में वृद्धि भी होनी चाहिए। भक्ति या गुणानुवाद आन्तरिक भावों के साथ होना चाहिए, वह मात्र दिखावा या प्रदर्शन नहीं हो। हे रसना! तुने आज तक राग भरे गीत-संगीत में ही रस लिया है अब उसमें रस ना ले। अध्यात्मभरी भक्ति वीतराग विज्ञान में रस ले। * भक्ति, मुक्ति के लिये कारण है और भुक्ति संसार के लिये। पहले दासोऽहं फिर उदासोऽहं बाद में सोऽहं और अन्त में अहं, भक्त से भगवान् बनने का क्रम यही है। * भक्ति कभी भी हेय बुद्धि से नहीं होती बल्कि उसे तो उपादेय बुद्धि से गद्गद् होकर करनी चाहिए। भक्ति तो ठीक है किन्तु अन्धभक्ति ठीक नहीं। बंधुओ! भक्ति को विवेक की डोर से बाँधे रखना। सच्चे दिगम्बर गुरुओं की हमें मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करनी चाहिए, साथ ही इस जिव्हा को यह शिक्षा देनी चाहिए कि हे! रसना जब तक तुझमें शक्ति है तब तक गुरु की महिमा गाती रह तेरे लिये ये सौभाग्य के क्षण हैं। * पंच परमेष्ठी की भक्ति एवं ध्यान से विशुद्धि बढ़ेगी, संक्लेश घटेगा, वात्सल्य बढ़ेगा। ‘सागर बूंद समाय' से उद्धृत आर.के. मार्बल्स लि. किशनगढ़ (राजस्थान) के सौजन्य से स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-1, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524256
Book TitleJinabhashita 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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