Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay
Catalog link: https://jainqq.org/explore/522888/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवर्द्धमानाय नमः। अंक ५ भाग १५ जैनहितैषी More ___ फाल्गुन सं० २४४७ । मार्च सन् १६२१ विषय-सूची। १-जैनधर्म (ले. पं० नाथूरामजी प्रेमी) २-तीथोंके झगड़ोंका रहस्य (ले० पं० नाथूरामजी प्रेमी ) ३-हाथी गुफाका शिलालेख (ले० स्व० कुमार देवेन्द्र प्रसाद ) ४-सनातनी हिन्दू (म० गांधीके एक लेखका अनुवाद ) ५--दुष्प्राप्य और अलभ्य जैनग्रन्थ ( सम्पादक) ६-सेठ चिरंजीलालका दान (ले० पं. नाथूरामजी प्रेमी) ७-देवेन्द्र वियोग (सम्पादक) ८-पुस्तक परिचय १३० १३८ १४६ १५२ १५८ १५६ प्रार्थनाएँ। १ जनहितैषी किसी स्वार्थबुद्धि से प्रेरित होकर निजी लाभके लिये नहीं निकाला जाता है । इसके लिये समय, शक्ति और धनका जो व्यय किया जाता है वह केवल निष्पक्ष और ऊँचे विचारोंके प्रचारके लिये; अतः इसकी उन्नतिमें हमारे प्रत्येक पाठकको सहायता देनी चाहिए। २ जिन महाशयोको इसका कोई लेख अच्छा मालूम हो उन्हें चाहिए कि उस लेखको वे जितने मित्रोको पढ़कर सुना सके, अवश्य सुना दिया करें। ____३ यदि कोई लेख अच्छा न मालूम हो अथवा विरुद्ध मालूम हो तो केवल उसीके कारण लेखक व सम्पादकले द्वेषभाव धारण न करने के लिये सविनय निवेदन है। ४ लेख भेजने के लिये सभी सम्प्रदायके लेखकोंको आमंत्रण है। सम्पादक। सम्पादक, बावू जुगुलकिशोर मुख्तार । श्रीलक्ष्मीनारायण प्रेस, काशीर For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमावली। - सुखदास। १ जनहितैषीका वार्षिक मूल्य ३) जार्ज-ईलियटके सुप्रसिद्ध उपन्यास तीन रुपया पेशगी है। _ 'साइलस मारनर' का हिन्दी रूपान्तर । २ ग्राहक वर्षके प्रारम्भसे किये जाते इस पुस्तकको हिन्दीके लब्धप्रतिष्ठ उपहैं और बीचमें ७वें अंकसे । आधे वर्षका न्यास-लेखक श्रीयुत् प्रेमचन्दजीने लिखा मल्य १॥) है। बढ़िया एण्टिक पेपर पर बड़ो ही ३ प्रत्येक अंकका मूल्य ।) चार पाने। सुन्दरतासे छपाया गया है। उपन्यास ४ लेख, बदलेके पत्र, समालोचनार्थ बहुत ही अच्छा और भावपूर्ण है । मूल्य ॥ पुस्तक आदि नये ग्रंथ। __ 'बाबू जुगुलकिशोरजी मुख्तार, १ स्वाधीनता-जान स्टुअर्ट मिलसरसावा (सहारनपुर )" के पास की 'लिबर्टी'का अनुवाद । यह ग्रन्थ बहुत भेजना चाहिए । सिर्फ प्रबन्ध और मल्य दिनोंसे मिलता नहीं था, इसलिये फिरसे आदि सम्बन्धी पत्रव्यवहार इस पतेसे छपाया गया है। 'स्वाधीनता'की इतनी किया जायः अच्छी तात्विक पालोचना श्रापको कहीं न मैनेजर मिलेगी। प्रत्येक विचारशीलको यह ग्रन्थ जैन ग्रंथ-रत्नाकर कार्यालय, पढ़ना चाहिए । मूल्य २) सजिल्दका २॥) २ ज्ञान और कर्म-हिन्दीमें अपूर्व हीराबाग, पो० गिरगाँव, बम्बई। तात्विक ग्रन्थ । कलकत्ता हाईकोर्ट के जज स्वर्गीय सर गुरुदास बन्धोपाध्यायके पुष्पलता। लिखे हुए सुप्रसिद्ध ग्रन्थका अनुवाद । इसमें मनुष्यके इहलोक और परलोकहिन्दीमें एक नये लेखककी लिखी हुई सम्बन्धी सभी विषयोंकी बड़ी विद्वत्ताअपूर्व गल्पे। प्रत्येक गल्प मनोरंजक,शिक्षाप्रद और भावपूर्ण है । सभी गल्पं स्वतन्त्र पूर्ण श्रालोचना की गई है। बहुत बड़ा हैं और हिन्दीसाहित्यके लिये गौरवकी प्रन्थ है । मूल्य ३) सजिल्दका ॥) चीज है। जो लोग अनुवाद ग्रन्थोंसे अरुचि : ३ जान स्टुअर्ट मिल-स्वाधीनतारखते हैं उन्हें यह मौलिक गल्पग्रन्थ के मूल लेखकका अतिशय शिक्षाप्रद और अवश्य पढ़ना चाहिए। -- चित्रोंसे पढ़ने योग्य जीवनचरित । अबकी बार पुस्तक और भी सुन्दर हो गई है। हिन्दी यह जुदा छपाया गया है । मूल्य ॥ प्रन्ध-रत्नाकर-सीरीजका यह ४१वाँ प्रन्थ दक्षिण अफ्रिकाके सत्याग्रहका है । मूल्य १) सजिल्दका १॥) इतिहास-लेखक, पं० भवानीदयालजी, ३५ चित्रोंसे युक्त । मूल्य ३॥) आनंदकी पगडंडियाँ। खसकी राज्यक्रान्ति-लेखक, पं. जेम्स एलेन अँगरेजीके बड़े ही प्रसिद्ध रमाशंकर अवस्थी । २३ चित्रोंसे सुशीमाध्यात्मिक लेखक हैं। उनके ग्रन्थ बड़े भित । मू०२॥) ही मार्मिक और शान्तिप्रद गिने जाते हैं। तमाखसे हानि-पं० हनुमत्प्रसा. अँगरेजीमें उनका बड़ा मान है । यह ग्रन्थ दजी वेधकृत । मू० उन्हींके 'Byways of Blessedness' मलावरोध-चिकित्सा -,,, मू० ) नामक ग्रन्थका अनुवाद है । प्रत्येक विवे- फिजीमें भारतीय प्रतिज्ञाबद्धकी और विचारशील पुरुषको यह ग्रन्थ कलीप्रथा-लेखक, एक भारतीय हृदय । पढ़ना चाहिए । मूल्य १) सजिल्दका ॥) मूल्य १) For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ भाग । अंक ५ हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः । Chen 454 जैनहितैषी । দ: सुलभ, जैन धर्म | (ले० पं० नाथूरामजी प्रेमी । ). न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी । बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी 'हितैषी' ॥ ANG DA फागुन २४४७ मार्च १६२१ कहाँ वह जैन धर्म भगवान् ! जाने जगको सत्य सुझायो, दालि अटल अज्ञान । वस्तु-तत्त्वपै कियो प्रतिष्ठित, अनुपम निज विज्ञान || कहाँ० १ . साम्यवादको प्रकृत प्रचारक, परम अहिंसावान | नीच ऊँच निर्धनी धनी पै, जाकी दृष्टि समान ॥ कहाँ० २ देवतुल्य चाण्डाल बतायो, जो है समकितवान । शद्र, स्लेच्छ, पशुहूने पायो समवसरण में स्थान || कहाँ० ३ For Personal & Private Use Only सती-दाह गिरिपात जीवबलि, मांसाशन, मदपान । देवमूढ़ता श्रादि मेटि सब, कियो जगत्कल्यान ॥ कहाँ० ४ कट्टर बैरीहूपै जाकी, क्षमा दयामय बान । हठ तजि कियो अनेक मतनको, सामंजस्यविधान || कहाँ० ५. अब तौ रूप भयो कछु औरहि, सकहिं न हम पहिचान । समता सत्यप्रेमने इक सँग, याते कियो पयान || कहाँ० ६ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैनहितैषी। .. [भाग १५ तीर्थोके झगडाका रहस्य । . हलोसे दूर, निर्जन और शान्त स्थानों में रहनेकी प्रेरणा करती है। मुनि और (ऐतिहासिक दृष्टिसे विचार ।) साधुजन ऐसे ही स्थानोंको पसन्द करते [ लेखक--श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमी।] थे और उन्हीकी स्मृतिकी रक्षाके लिए अब समय आ गया है कि हम लोग स्मारकस्वरूप-ये सब तीर्थ स्थापित अपने दिगम्बरी और श्वेताम्बरीभाइयों के हुए थे। ३-इन स्मारकोंके दर्शन करने के बीचके झगड़ोंके सम्बन्धमें कुछ गहराई लिए और अपने भक्तिभावोंको चरितार्थ के साथ विचार करें और जाँच करें करने के लिए बहुत दूर दूरके भक्तजन कि इनकी असलियत क्या है, ये क्यों पाया करते थे, परन्तु फिर भी किसीके शुरू हुए, कब से शुरू हुए और आगे द्वारा इन स्थानोंकी एकान्त शान्तता नष्ट कभी इनका अन्त भी होगा या नहीं। करनेका प्रयत्न नहीं किया जाता था; .१-पूर्व कालके तीर्थक्षेत्रों और वर्त- क्योंकि इन एकान्त स्थानों में संसारमानके तीर्थों में जमीन आसमानका अन्तर त्यागी और शान्ति-प्रयासी साधुजन रहते पड़ गया है । साधारण लोग तो उस थे और ध्यान अध्ययन किया करते थे। अन्तरकी कल्पना भी नहीं कर सकते । गृहस्थजन इन बातोंको जानते थे और शत्रुजय और सोनागिरि पर्वत इस समय इस कारण वे भक्तिपूरित होनेपर भी जिस तरह नीचेसे ऊपर तक मन्दिरोंसे तीर्थों की इस शान्तिमें बाधा डालना बैंक गये हैं, पहले इनकी यह दशा नहीं उचित नहीं समझते थे। थी। ये सब मन्दिर बहुतही अर्वाचीन हैं। ४-परन्तु आगे यह बात न रही। जिस तरह अनेक तीर्थोपर इस समय भी भगवद्गुणभद्राचार्य के शब्दोंमें साधुजन एक एक दो दो मन्दिर ही देखे जाते हैं. स्वयंही मृगोंके समान भयभीत होकर उसी तरह आन पड़ता है. पहले सभी बनोंको छोड़कर गाँवोंके समीप आकर तीर्थोका लगभग ऐसा ही हाल था। पहले रहने लगे और गृहस्थोंके साथ उनको इन पर्वतोपर बहुत करके चरण-चिह्नोंकी सन्निकटता बढ़ने लगी। धीरे धीरे चैत्यही सापना थी। उन्हींकी सब लोग घासकी जड़ जमी और अन्तमें मुनिमार्ग भक्तिभावसे पूजा वन्दना करते थे और शिथिल होकर मठवासी भट्टारको या इस कारण जुदा जुदा सम्प्रदायोंके बीचमें महन्तोंके रूपमें परिणत हो गया। साधुझगड़ेका कोई कारण ही उपस्थित नहीं . ओकी इस शिथिलताने चैत्यों और होता था। दिगम्बर-श्वेताम्बर ही क्यों, मन्दिरोंका प्रभाव बहुत बढ़ा दिया और दूसरे भावुक अजैनोंको भी अपनी श्रद्धा- जैन धर्मकी प्रभावनाका सबसे बड़ा द्वार भक्ति चरितार्थ करनेके लिए वहाँ कोई यही करार दिया गया। भगवान समन्तरुकावट नहीं थी। भद्रके प्रभाषनांगके इस श्रेष्ठ लक्षणको २-प्रायः जितने जैन तीर्थ हैं, वे सब लोग एक तरहसे भूल ही गये कि "प्रज्ञाविपुलजनाकीर्ण नगरों और सब प्रकार- नांधकारको जैसे बने, वैसे हटाकर जैनके कोलाहलसे दूर, ऊँचे पर्वतोपर और शासनके माहात्म्यको प्रकट करना ही वनोंके बीच स्थापित हैं। इस धर्मकी सच्ची प्रभावना है।" इसके बदलेमें यह प्रकृतिही ऐसी है कि वह संसारके कोला- उपदेश दिया जाने लगा कि इमलोक For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थोके झगड़ोका रहस्य। एक पत्तेके बराबर मन्दिर बनाकर उसमें तो पहले तीर्थों पर तीर्थंकरों या सिद्धोंके सरसोंके दानेके बराबर भी प्रतिमा चरणों की पूजा होती थी और वे चरण स्थापन करनेवाले गृहस्थके पुण्यका दोनोको समान रूपसे पूज्य थे। दूसरे वर्णन नहीं किया जा सकता! इसका फल इस बातके भी प्रमाण मिलते हैं कि पहले यह हुआ कि मन्दिरों और प्रतिमाओंके दिगस्वरी और श्वेताम्बरी प्रतिमानों में बनवाने और स्थापन कराने की बाबत कोई भेद न था। दोनों ही मन प्रतिमाओंलोगोंपर एक प्रकारका खत सवार को पूजते थे। जैनहितैषी भाग १३ अंक हो गया । लोग आँख बन्द करके इसी ६ में इस विषयपर एक श्वेताम्बर-विद्वानकामकी ओर झुक पड़े । इतिहास साक्षी का लेख प्रकाशित हुआ है जो अवश्य है कि पिछले ५००-६०० वर्षों में जैन- पठनीय है। उसमें बतलाया है कि मथुरासम्प्रदायके अनुयायियोंने अपने धर्मके के कंकाली टीलेमें जो लगभग दो हजार नामसे यदि कुछ किया है तो वह बहुत वर्षकी प्राचीन प्रतिमाएँ मिली हैं, वे नग्न करके मन्दिरों और प्रतिमाओंकी वृद्धि हैं और उन पर जो लेख हैं, वे श्वेताम्बर करनेका ही काम है। स्थघिरावली के अनुसार हैं। इसके सिवा ५-ये चैत्यवासी और मठवासी १७ वीं शताब्दीमें श्वेताम्बर विद्वान् , पं० साध दोनों ही सम्प्रदायोंमे हो गये थे. धर्मसागर उपाध्यायने अपने 'प्रवचन बल्कि श्वेताम्बर सम्प्रदायमें तो यह शिथि- परीक्षा' नामक ग्रन्थमें लिखा है कि "गिरलता और भी पहलेसे प्रविष्ट होगई थी। नार और शत्रुजय पर एक समय दोनों इन साधुजनोंके उपदेशसे तीर्थों में भी सम्प्रदायोंमें झगड़ा हुआ, और उसमें मन्दिर बनाये जाने लगे और नये नये शासन देवताकी कृपाले दिगम्बरोंका तीर्थ-अतिशयक्षेत्र आदि नामोंसे-स्थापित पराजय हुआ। जब इन दोनों तीर्थोपर होने लगे। इन मन्दिरों और तीर्थों के व्यय- श्वेताम्बर सम्प्रदायका अधिकार सिद्ध निर्वाहके लिए धन-संग्रह किया जाने हो गया. तब आगे किसी प्रकारका झगड़ा । लगा, धन-संग्रह करनेकी नई नई तरकीबे न होने पावे, इसके लिए श्वेताम्बर संघने निकाली गई और प्रबन्धके लिए कोठियाँ यह निश्चय किया कि आगे जो नई प्रतितक खुल गई! बहतसीकोठयोको मालिकी माएँ बनवाई जायें, उनके पादमूल में वना. भी धीरे धीरे भट्रारको और महन्तोंके का चिह्न बना दिया जाय। यह सुनकर अधिकारमें आ गई और अन्त में उसने दिगम्बरियोको क्रोध आ गया और उन्होंने एक प्रकारसे धार्मिक दुकानदारीका रूप अपनी प्रतिमाओंको स्पष्ट नग्न बनाना धारण कर लिया। यदि इस बीचमें दिग- शुरू कर दिया । यही कारण है कि संप्रति म्बर सम्प्रदायमें तेरह पंथका और श्वेता. राजा (अशोक पौत्र) आदिकी बन. म्बर सम्प्रदायमें संवेगी साध ओंका उदय वाई हुई प्रतिमाओपर वस्त्र-लांछन नहीं न होता तो यह दुकानदारी कौनसा रूप है और आधुनिक प्रतिमाओंपर है। पूर्व धारण कर लेती, इसकी कल्पना करना की प्रतिमाओंपर वस्त्र-लांछन भी नहीं है भी कठिन है। और स्पष्ट नग्नत्व भी नहीं है।" इससे ६-यह सब हो गया था, तोभी तीर्थों- कमसे कम यह बात अच्छी तरह सिद्ध के लिये दिगम्बरी और श्वेताम्बरी झगड़ों- होती है कि दोनों के विवादके पहले दोनोंका सूत्रपात नहीं हुआ था। क्योंकि एक की प्रतिमाओं में भेद नहीं होता था और For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ . जैनहितैषी। [भागः १५ । इस कारण दोनों एकत्र होकर अपनी रीय पेथड़ शाह बोले कि भगवान् आभउपासना-वृत्तिको चरितार्थ करते थे। रणादि सहन नहीं कर सकते, इसका उस समय तक लड़ने-झगड़नेका कोई कारण यह है कि उनकी कीर्ति १२ योजन कारण ही नहीं था । परन्तु अब तो दोनों तक फैली हुई है। आमके वृक्षपर तोरणकी प्रतिमाओं और उपासना-विधिमें की और लंकामें लहरोकी चाह नहीं होती। इतना अन्तर पड़ गया है कि उसपर जिस तरह फलोधी (मारवाड़ )में प्रतिविचार करनेसे आश्चर्य होता है। पाठक माधिष्ठित देव आभूषणापहारक हैं, उसी यह जानकर आश्चर्य करेंगे कि गुजरातके तरह यहाँ भी हैं। यदि यह तीर्थ महारा कई प्रसिद्ध शहरोंमें जिनेन्द्र भगवानके है, तो शैवोंका भी हो सकता है ; क्योंकि विम्ब कोट-कमीज तक पहनते हैं और यह पर्वत लिंगाकार है और गिरिवारिहमारे एक मित्रने तो एक भगवानको धारक है। इस तरह वादविवाद हो रहा जेब-घड़ीसे भी सुशोभित देखा है ! वोत- था कि कुछ वृद्धजनोंने श्राकर कहा, इस राग भगवानकी उनके भक्तों द्वारा झगड़ेको छोड़ दो और यात्राको चलकर इससे अधिक विडम्बना और क्या हो वहाँ इन्द्रमाला (फूलमाल ) लेते समय सकती है? . इसका निर्णय कर लेना । उस मालाको __-श्वेताम्बराचार्य रत्नमण्डनगणि- जो सबसे ज्यादा धन देकर ले सकेगा, कृत सुकृतसागर नामक ग्रन्थके-'पेथड़ उसीका यह तीर्थ सिद्ध हो जायगा। तीर्थयात्राद्वय प्रबन्ध में जो कुछ लिखा निदान दोनों संघ पर्वतपर गये और दोनोहै उसका सारांश यह है कि-"सुप्रसिद्ध ने अभिषेक, पूजन, ध्वजारोपण, नृत्य, दानी पेथड़शाह. शश्रृंजयकी यात्रा करके स्तुत्यादि कृत्य किये। जब इन्द्रमालाका संघसहित गिरिनारमें पहुँचे। उनके समय आया तब श्वेताम्बर भगवानके पहले वहाँ दिगम्बर संघ अाया हुआ था। दाहिने ओर और दिगम्बर बाई ओर उस संघका स्वामी पूर्ण (चन्द्र ) नामका बैठे। इसीसे निश्चय हो गया कि कौन अग्रवालवंशी धनिक था । वह देहलीका हारेगा और कौन जीतेगा! इन्द्रमालाकी रहनेवाला था। उसे 'अलाउद्दीनशाखीन बोली होने लगी। परस्पर बढ़ते बढ़ते मान्य' विशेषण दिया है जिससे मालूम अन्तमें श्वेताम्बरोंने ५६ धड़ी सोना देकर होता है कि वह कोई राजमान्य पुरुष था। माला लेनेका प्रस्ताव किया । दिगम्बरी उसने कहा कि पर्वतपर पहले हमारा अभी तक तो बराबर बढ़े जाते थे; परन्तु संघ चढ़ेगा; क्योंकि एक तो हम लोग अब वे घबराये और सलाह करने लगे। पहले आये हैं और दूसरे यह तीर्थ भी लोगोंने संघपतिसे कहाहमारा है। यदि यह तीर्थ तुम्हारा है, तो लण्ठितरिव भूत्वा च फलं किंतीर्थवालने । इसका सबूत पेश करो। यदि भगवान नेमिनाथकी प्रतिमापर अंचलिका और इमं नहि समादाय शैलेशं यास्यते गृहे ॥ कटिसूत्र प्रकट हो जाय, तो हम इसे अर्थात् इस तरह लुटकर तीर्थ लेनेसे तुम्हारा तीर्थ मान लेंगे। भगवान भव्य क्या लाभ होगा? क्या इस पर्वतराजको जनोंके दिये हुए आभरण सहन नहीं कर उठाकर घर ले चलना है ? अन्तमें पूर्णसकते, इसलिए इसमें कोई सन्देह नहीं चन्द्रजीने कह दिया कि आप ही माला कि यह तीर्थ हमारा है। इसपर श्वेताम्ब- पहन लीजिए। इससे दिगम्बरी मुरझा For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थोके झगड़ोंका रहस्य । गये और अपनासा मुँह लिये यात्रा करके तुरंगमाणाम् ७शतानि गजानाम् ,विंशतिनीचे उतर गये।" सहस्त्राणि श्रावककुलानाम्, ३२ उपवासैः यह कथा यद्यपि श्वेताम्बरियों की उदा- स्तम्भतीर्थे प्राप्तः। राज्ञः शरीरं खिन्नम् । रता और गिरिनारपर श्वेताम्बराधिकार गुरुभिराम्बिका प्रत्यक्षीकृत्य अपापसिद्ध करनेके मुख्य अभिप्रायसे लिखी मठात् प्रतिमैका श्रानीता । नृपाभिगई है, तो भी इसमें बहुत कुछ ऐतिहा. ग्रहो मुत्कलोजातः । मासमेकं दिगम्बरैः सिक सत्य जान पड़ता है; और इससे सह वादः, पश्चादम्बिकया 'उर्जित सैलयह बात अनायास ही सिद्ध हो जाती है सिहरे' ति गाथया विवादो भग्नः, तीर्थ. . कि उस समय दिगम्बर और श्वेताम्बर लात्वा दिगम्बरश्वताम्बरजिनार्चानांनग्नादोनों एक ही मन्दिर में उपासना करते थे वस्थाश्चलिकाकरणेत विभेदः कृतः । इति और इन्द्रमालाकी बोली दोनोंके एकत्र यात्रोपदेशः।" इसका अभिप्राय यह समूहमें बोली जाती थी। इसके सिवा है कि सुराष्ट्र देशके गोमण्डल नामक यह भी मालूम होता है कि उस समय गाँवके निवासी धाराक नामके संघपति गिरनारकी मूलनायक नेमिनाथकी प्रति- थे। उनके पुत्र, ७०० योद्धा,' १३०० मा आभूषणोंसे सुसजित और कटिसूत्र गाड़ियाँ और १३ करोड़ अशर्फियाँ थीं। तथा अंचलिकासे भी लांछित नहीं थी। वे शत्रुजयकी यात्रा करके जब गिरनार इसी तरह उदाहरण के तौर पर जो फलोधी तीर्थकी यात्राको गये जो कि ५० वर्षसे तीर्थको प्रतिमाओं के विषयमें कहा है कि दिगम्बरोंके अधिकारमें था, तब वहाँ उन्हें वहाँका प्रतिमाधिष्ठित देव भूषणापहारक स्वजार नामक किलेदारसे लड़ना पड़ा और है, सो जान पड़ता है कि वहाँ भी उस उसमें उनके सातों पुत्र और सारे योद्धा । समय प्रतिमाओंको आभूषणादि नहीं मारे गये। उसी समय जब उन्होंने पहनाये जाते थे। वीतराग प्रतिमाओंकी सुना कि गोपगिरि अर्थात् ग्वालियरके ये सब विडम्बनाएँ बहुत पीछे की गई हैं। राजा आम हैं और उन्हें वप्पभट्टि नामक -श्रीरत्नमन्दिरगणिकृत उपदेश-तरं- श्वेताम्बराचार्यने प्रतिबोधित कर रक्खा. गिणी (पृ० २४८) में लिखा है कि-"सुरा- है, तब वे ग्वालियर आये। उस समय मायाँ गोमण्डलग्रामवास्तव्यः सप्तपुत्रः वप्पभट्टिका व्याख्यान हो रहा था ।राजा सप्तशतसुभटः १३ शतशकट संघः १३ कोटि- बैठे थे और = श्रावक थे। धाराकने दिगस्वर्णपतिः सं धाराकः श्रीशत्रुजय यात्रां म्बरगृहीत गिरनारतीर्थकी हालत सुनाई। कृत्वा ५० वर्षावधि दिगम्बराधिष्ठित रैवत- गुरुने तीर्थकी महिमाका वर्णन किया। यात्रावसरे खङ्गारदुर्गपसैन्यैः सह युद्ध इस पर श्राम राजा प्रतिज्ञा कर बैठे कि ७ पुत्र ७ सुभटक्षये श्रीवप्पभट्टिप्रतिबोधितं गिरनारके नेमिनाथकी बन्दना किये बिना गोपगिरौ श्रीश्रामभूपति ज्ञात्वा तस्याऽs मैं भोजन ग्रहण नहीं करूँगा। १००० मनृपस्य सूरिपार्षे व्याख्यानोपविष्टाष्ट- श्रावकोंने भी यही प्रतिज्ञा की। तब राजा श्राद्धः समं सं० धाराकः समागतः। तेन एक बड़े भारी संघके साथ चल पड़े। दिगम्बरगृहीत तीर्थस्वरूपं कथितम् । गुरु- ३२ उपवास करके स्तंभतीर्थ अर्थात् भिस्तन्महिमोक्तौ श्रामनृपेण गिरिनारने- खंभातमें पहुँचे। राजाका शरीर बहुत मिवन्दनं विना भोजनाभिग्रहो गृहीतस्ततः खिन्न देखकर गुरुने अम्बिकाको बुलाया संघश्वचाल । १ लक्षं पौष्टिकानाम् एकलक्षं और उसके द्वारा अपापमठ (१) से एक For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। / [भाग १५ प्रतिमा मंगवा ली । उसके दर्शन १०-जान पड़ता है, गिरिनार पर्वत. करके राजा प्रतिज्ञामुक्त हो गये ! इसके . पर दिगम्बरों और श्वेताम्बरों के बीच वह बाद एक महीने तक दिगम्बरियोंसे विवाद विवाद कभी न कभी अवश्य हुमा हुआ और अन्तमें अम्बिकाने 'उजितसेल है जिसका उल्लेख धर्मसागर उपाध्यायने सिहरे। श्रादि गाथाएँ कहकर विवादकी किया है। यह कोई ऐतिहासिक घटना समाप्ति कर दी । (इन गाथाओंमें यह कहा अवश्य है; क्योंकि इसका उल्लेख दिगगया है कि जो स्त्रियोंकी मुक्ति मानता है, म्बर-साहित्यमें भी मिलता है। नन्धिसंघवही सच्चा जैन मार्ग है और उसीका यह की गुर्वावलीमें लिखा है:तीर्थ है ) इस तरह तीर्थ लेकर, दिगम्बर पदमनन्दीगुरुर्जातो* बलात्कारगणाप्रणी। श्वेताम्बरोंकी प्रतिमाओंमें नग्नावस्था और पाषाण घटितायेन वादिता श्रीसरस्वती।।३६॥ अञ्चलिकाका भेद कर दिया। उज्जयन्तगिरौ तेन गच्छः सारस्वतोभवेत्। उक्त शवतरणसे दो बातें मालूम होती हैं । एक तो यह कि पहले दोनोंको अतस्तस्मै मुनीन्द्राय नमः श्रीपग्रनन्दिने३७ प्रतिमाओंमें कोई भेद नहीं था; और दूसरी और भी कई जगह + इस घटनाका यह कि इस घटनाके पहले गिरनार पर जिक्र है कि गिरनारपर दिगम्बरों और ५० वर्ष तक दिगम्बरियोका अधिकार था। श्वेताम्बरोंका शास्त्रार्थ हुआ था और -इसी उपदेशतरङ्गिणी (पृष्ठ उसमें सरस्वतीकी मूर्तिमेसे ये शब्द २४७) में वस्तुपाल मंत्रीके सँघका वर्णन निकलनेले कि सत्य मार्ग दिगम्बरोंका है, है जो उन्होंने सं. १२८५ में निकाला .श्वेताम्बर पराजित हो गये थे । इस सरथा। उसमें २४ दन्तमय देवालय, १२० स्वतीकी मूर्तिको वाचाल करनेवाले पत्रकाष्ठ देवालय, ५५०० गाड़ियाँ, १८०० नन्दि भट्टारक थे जिनका समय उक्त डोलियाँ, ७०. सुखासन, १०० पालकियाँ, गुर्वावलीमें विक्रम संवत् १३-५ से १४५० ७०० श्राचार्य, २००० श्वेताम्बर साधा लिया है । इनके शिष्य शुभचन्द्र और ११०० दिगम्बर, १६०० श्रीकरी, ४००० प्रशिष्य जिनचन्द्र थे। वेताम्बर प्रन्यों में घोड़े, २००० ऊँट और ७ लाख मनुष्य थे। यही घटना इस रूपमें वर्णित है कि यद्यपि यह वर्णन अतिशयोक्तिपर्ण है. तो अम्बिकादेवीने श्वेताम्बरोंकी विजय यह भी इससे यह मालूम होता है कि उस - - आचार्य कुन्दकुन्दका भी एक नाम पदनन्दि है; समय तीर्थ-यात्रा, पूजनार्चा आदि कार्यो अतएव पीछेके लेखकोने इस शास्त्रार्थ और विजयका में दिगम्बरों और श्वेताम्बरों में इतनी मुकुट कुन्दकुन्दको भी पहना दिया है; परन्तु यह बड़ा विभिन्नता नहीं थी, जितनी कि अब है; भारी भ्रम है। ये पचनन्दि १४वीं शताब्दिके एक भट्टारक हैं। और इसी कारण इस संघमें श्वेताम्ब- +कविवर मृन्दावन ने लिखा है:रियोंके साथ ११०० दिगम्बर भी गये संघम हित श्रीकृन्द कुन्द (पप्लनन्दि ?) थे। दोनों में आजकलके समान वैरभाव गुरु, बन्दन हेत गए गिरनार । नहीं होगा। और दिगम्बर श्वेताम्बरोकी बाद पस्यौ तहँ मंशयमति मों, साखी बदी अंबिकाकार । मूर्तियों में यदि अन्तर होता तो दिगम्ब 'सत्यपन्थ निग्रंथ दिगम्बर, रियोंके लिए वस्तुपालने दिगम्बर देवा कही सुरी तहँ प्रगट पुकार । लयोंकी भी व्यवस्था की होती और उनकी सो गुरुदेव बसौ उर मेरे, भी संख्या दी होती। बिधन हरन मंगल करतार ।' For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तीर्थोंके झगड़ोंका रहस्य । १३५ कहकर कराई थी कि जिस मार्ग स्त्री... १२-ऐसा मालूम होता है कि दिगको मोक्ष माना है वही सच्चा है। जीत म्बर और श्वेताम्बर प्रतिमाओंमें भेद चाहे किसीकी हुई हो-क्योंकि शास्त्रा- हो जानेके बाद भी बहुत समय तक थोंमें तो हम आजकल भी यही देखते हैं दिगम्बरों और श्वेताम्बरों में मित्रता बनी कि दोनोंही पक्षवाले अपनी अपनी जीत- रही है। बहुत समय तक इस खयालके का डंका पीटा करते हैं-परन्तु यह लोग दोनों सम्प्रदायोंमें बने रहे हैं कि निश्चित है कि उक्त विवाद हश्रा था और एक दूसरेके धर्मकार्यों में बाधा नहीं डालउसी समयसे दिगम्बरों और श्वेताम्ब- नी चाहिए। दोनों को अपने अपने विश्वास. रोंमें विद्वेषका यह बीज विशेष रूपसे के अनुसार पूजा-अर्चा करने देनाही बोया गया था जिसने आगे चलकर सजनता है। अनुसन्धान करनेसे इसके बड़े बड़े विषमय फल उत्पन्न किये। अनेक प्रमाण मिल सकते हैं। . पिछले दिगम्बर-श्वेताम्बर साहित्यका शत्रुजय और पाबूके पहाड़ोंमें श्वेतापरिश्रमपूर्वक परिशीलन करनेसे इस म्बर मन्दिरोंके बीचों बीच दिगम्बर घटनाका निश्चित समय भी मालूम हो मन्दिरोंका अस्तित्व अब भी इस बातकी सकता है और हमारा अनुमान है कि साक्षी दे रहा है कि उस समयके वैभव. दोनों ओरके प्रमाणोंसे वह समय भी सम्पन्न और समर्थ श्वेताम्बरी भी यह एक ही ठहरेगा। * नहीं चाहते थे कि इन तीर्थोपर हमही ११-मुग़ल बादशाह अकबरके समय- हम रहे, दिगम्बरी नहीं पाने पावें। में हीरविजय सूरि नामके एक सुप्रसिद्ध २-गन्धार (भरोंच ) एक प्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्य हुए हैं। अकबर उन्हें बन्दरगाह था। वहाँ एक पुराना दिगगुरुवत् मानता था। संस्कृत और गुज- म्बर मन्दिर था। जब वह गिर गया रातीमें उनके सम्बन्धमें बहुतसे ग्रन्थ और उसकी जगह नया श्वेताम्बर मन्दिर लिखे गये हैं। इन ग्रन्थों में लिखा है कि बनवाया गया, तब वहाँके श्वेताम्बर "हीरविजयजीने मथुरासे लौटते हुए भाइयोंने दिगम्बर प्रतिमाओंको एक गोपाचल (ग्वालियर ) की बावन-गजी जुदा देवकुलिका (देहली) में स्थापित भज्याकृति मूर्तिके दर्शन किये।” और कर दिया । यह देवकुलिका अब भी यह मूर्ति दिगम्बर सम्प्रदायकी है, इसमें मौजूद है। कोई सन्देह नहीं । इससे मालूम होता है ३-बिहारमें अबसे १२-१३ वर्ष कि बादशाह अकबरके समय तक भी पहले एक जैन मन्दिर हमने स्वयं देखा दोनों सम्प्रदायोंमें मूर्ति-सम्बन्धी विरोध है जिसके अधिकारी श्वेताम्बर हैं । उसमें नहीं था। उस समय श्वेताम्बर सम्प्रदाय- एक ओर दिगम्बरी वेदिका भी है और के प्राचार्य तक नग्म मूर्तियोंके दर्शन उसमें जो मूर्तियाँ है, उनका दर्शन पूजन किया करते थे। दिगम्बरी भाई किया करते हैं। ४-ओरिएण्टल कालेज लाहौरकेप्रो० • पूर्वोक्त पद्मनन्दिकी ही शिष्य-परम्परामें एक पक्षनन्दि भट्टारक और हुए हैं जिन्होंने शत्रंजय पर्वतके दिग- बनारसीदास जी एम० ए० से मालम स्बर मन्दिरकी प्रतिष्ठा सम्बत् १६८६ में कराई थी। देखो। जैन मित्र भाग २२ अंक १५ । सम्प्रदायोंकी मूर्तियाँ दो पृथक् पृथक् For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ वेदिका में थीं। अभी ५-७ वर्ष पहले दोनों के बीचमें एक दीवार बनवा दी गई है। जैनहितैषी । * ५- पूना शहर में एकही अहातेके भीतर दिगम्बर और श्वेताम्बर मन्दिर अब तक हैं । ६ - ग्वालियर राज्य के शिवपुरकलाँ नामक स्थानमें एक दिगम्बर मन्दिर ऐसा है जिसमें S- श्वेताम्बर मूर्तियाँ हैं; और एक श्वेताम्बर मन्दिर ऐसा है जिसमें s - = दिगम्बरी मूर्तियाँ हैं। पहले दोनों मन्दिरों में दोनों सम्प्रदायके लोग जाते थे; परन्तु अब केवल भादों सुदी १० को धूप खेने के लिए जाया करते हैं । तलाश करनेसे इस तरह के और भी अनेक प्रमाण मिल सकते हैं। इनसे मालूम होता है कि पहलेके लोगोंमें श्राजकल के समान धर्मयुद्धों की प्रवृत्ति नहीं थी; बल्कि दोनों हिल मिलकर रहना चाहते थे । १३ – अकसर दिगम्बरी भाइयोंकी ओरसे यह आक्षेप किया जाता है कि श्वेताम्बरी भाई दिगम्बरी मन्दिरों और प्रतिमानोंपर अधिकार कर लिया करते हैं; और यही आक्षेप श्वेताम्बरियोंकी श्रोरसे दिगम्बरियों पर किया जाता है । यह आक्षेप बहुत अंशोंमें सच्चा है; परन्तु इसके पात्र दोनोंही सम्प्रदायवाले हैं । इस विषय में कोई सम्प्रदाय निर्दोष नहीं ठहर सकता । सम्प्रदाय-मोह चीज ही ऐसी है कि वह भिन्न सम्प्रदायवालोंके साथ उदारताका व्यवहार करनेमें संकुचित हुए बिना नहीं रह सकती। इसके सम्बन्धमें भी अनेक उदाहरण मिल सकते हैं । क –श्रद्धेय मुनि जिनविजयजी से मालूम हुआ कि सुप्रसिद्ध तीर्थ रिखबदेवका मुख्य मन्दिर दिगम्बर सम्प्रदायका है; परन्तु उसपर अधिकार श्वेताम्बरी [ भाग १५ भाइयोंका है । ख- रोशन मुहल्ला आगरेके सुप्रसिद्ध श्वेताम्बर मन्दिर ( चिन्तामणि पार्श्वनाथ ) की मूलनायककी मूर्ति दिगम्बर सम्प्रदायकी है। (देखो जैनशासन वर्ष १ ) । ग - बैराट ( जयपुर ) का पार्श्वनाथका मन्दिर वास्तवमें श्वेताम्बर सम्प्रदायका है: परन्तु इस समय वह एक खण्डेलवाल श्रावकके अधिकारमें है । डा० देवदत्त रामकृष्ण भाण्डारकर एम० ए०ने इस मन्दिरका निरीक्षणकरके वेस्टर्न सर्किल के श्राश्रालोजि - कल सर्वेकी सन् १९१० की रिपोर्ट में एक विस्तृत लेख लिखा है । यह मन्दिर शक सं० २५०६ में बादशाह अकबर के समय में बना है । अकबरने शकमणगोत्रीय इन्द्रराज श्रीमालीको बैराटका अधिकारी बनाया था । इसी इन्द्रराजका बनवाया हुआ यह महोदय प्रसाद या इन्द्र विहार नामका मन्दिर है । देवालय के अहातेकी दीवारमें इस विषयका विस्तृत शिलालेख लगा हुआ है। हीरविजयसूरिके शिष्य कल्याणविजयके हाथसे इस मन्दिरकी प्रतिष्ठा हुई थी और इस काम में इन्द्रराज ४० हज़ार रुपया खर्च किया था । १४ - जब कोई मुझसे पूछता है कि अमुक तीर्थ पर वास्तविक अधिकार किसका है, तो मैं कह दिया करता हूँ कि दोनोंका है। दोनोंमेंसे चाहे जो पीछेका हो, पर उसका अधिकार पहलेवालेसे कम नहीं ठहराया जा सकता। बल्कि उसपर तो ऐसे जैनेतर लोगोंका भी अधिकार है जो जिनदेवपर श्रद्धा रखते हैं और उनका भक्तिभाव से पूजन वन्दन करते हैं । जब दोनोंही सम्प्रदायवाले जिनदेवों और सिद्धोंके उपासक हैं और उपासना करना किसीकी जमींदारीका कोई खेत जोतना या फसल काट लेना नहीं है, तब उनका अधिकार कम या ज्यादा ठहर For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५] तीर्थोंके झगड़ोंका रहस्य । १३७ राया ही कैसे जा सकता है ? कुछ लोग ताराइ बुद्धदेवीइ मंदिरं, पुराने दस्तावेज और तमस्सुक पेश करके तेण . कारियं पुवं । अपना अधिकार सिद्ध करनेका प्रयत्न किया करते हैं; और सम्भव है; उनसे .. आसन्न गिरम्मि तओ, उनका अधिकार सिद्ध भी होता हो, परन्तु भन्नइ ताराहरंति इभो ॥ क्या उनसे यह प्रश्न नहीं किया जा तेणेव तत्थ पच्छा, सकता कि उन दस्तावेजोसे पहले भी तो ये दोनों सम्प्रदाय थे। तब क्या इनसे भवणं सिद्धाइयाइ कारवियं। पहलेके प्रमाणपत्रोंका तुम्हारे प्रतिपक्षीके तं पुण कालवसेण, पास होना सम्भव नहीं है? और यह ___दियंवरेहिं परिग्गहियं ॥ सिद्ध करना तो बाकी ही रह जायगा तस्थ ममाएसेणं, कि उनके लिखनेवाले शासकोंको वैसे किसी सार्वजनिक धर्मस्थानके सम्बन्धमें अजिय जिणिंदस्स मंदिरं तुगं। दस्तावेज लिख देनेका अधिकार था या दंडाहिव अभएणं नहीं। यह संभव और स्वाभाविक है कि जसदेव सुएण निम्मवियं ॥ किसी समय पर किसी सम्प्रदायवालोंका ऐहिक वैभव और प्रभाव बढ़ गया इन गाथाओंका अभिप्राय है किहो और उस समय उनके समीपके तीर्थ- "पहले उसने तारा*नामकी बौर देवीका का प्रबन्ध उनके हाथमें आ गया हो और मंदिर पर्वतके समीप बनवाया; इस कारण किसी समय उनके बदले दसरोके इस तीर्थको तारापुर कहते हैं । इसके बाद पास चला गया हो। परन्तु इससे उसीने फिर वहीं पर सिद्धायिका (जैनयह सिद्ध नहीं हो सकताकि उस तीर्थका देवी) का मन्दिर बनवाया। परन्तु कालवास्तविक अधिकारी श्रमक सम्प्रदाय ही वशसे उसे दिगम्बरियोंने ले लिया । अब था। ऊपर उपदेश-तरंगिणी ग्रन्थका जो वहीं पर (कुमारपाल राजा कहते हैं) मेरे अवतरण दिया है, उससे मालूम होता है आदेशसे उस देवके पुत्र दंडाधिप अभयकिसंघवी धाराकके समय में गिरनार तीर्थ की देखरेख में अजित | जिनेन्द्रका ऊँचा पर ५० वर्षसे दिगम्बरियोंका अधिकार मन्दिर बनवाया गया है।" इससे मालूम था और पीछे आम राजाकी कृपासे वह होता है कि कुमारपाल राजाके समय अधिकार श्वेताम्बरियोंके हाथमें चला तक समूचे तारंगा तीर्थ पर या कमसे गया होगा। इसी तरहका एक उल्लेख कम सिद्धायिका देवीके मन्दिरपर तारंगा सिद्धक्षेत्रके सम्बन्धमें कुमारपाल दिगम्बरियोका अधिकार था। प्रतिबोध नामक श्वेताम्बर प्रन्थमें मिलता तारंगा पर्वत पर कोटिशिला पर एक है । यह प्रन्थ सोमप्रभ सूरिका बनाया हमा है और 'गायकाड़ श्रोरिएण्टल . तारंगा पर्वतकी तलैटीसे उत्तरकी ओर लगभग डेढ़ सीरीज' में हालमें ही प्रकाशित हुआ है। मीलकी दूरी पर तारादेवीकी मूर्ति अब भी मौजूद है और इसकी रचनाका समय विक्रम संवत् उस पर बौद्धोंकी एक प्रसिद्ध गाथा लिखी हुई है। १२४१ है। इसमें प्रार्य स्खपुटाचार्यकी कुमारपाल महाराजका यह विशाल मन्दिर भव कथामें लिखा है कि भी वर्तमान है। For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। [भाग १५ - - घेदी है। उसकी एक प्रतिमा पर अब भी हैं कि किसी तरह इनका अन्त हो संवत् ११६० की वैशाख सुदी ६ का, 'जाय, इस लेखका बहुत कुछ उपयोग हो सिद्धराज जयसिंहके समयका लेख है * सकता है। जिससे मालूम होता है कि उस समय . परम वीतराग भगवानका शान्तिप्रद अर्थात् कुमारपाल महाराजके मन्दिर. शासन दोनों पक्षके मखियोंको सद्धि निर्माणके पहले, वहाँ पर दिगम्बरियोंके दे कि वे इस जैन धर्मको कलंकित मन्दिर और प्रतिमाएँ थीं और कुमारपाल करनेवाले व्यवसायसे शीघ्र ही पराङ्मुख • प्रतिबोधके कथनानुसार संभव है कि हो जायँ । पर्वत पर दिगम्बरियोंका ही अधिकार वीतराग मार्गकी रक्षा तीर्थों या हो । इसी तरह पावागढ़ सिद्धक्षेत्र पर मन्दिरोंको अपनी अपनी सम्पत्ति बना इस समय सम्पूर्ण अधिकार दिगम्बरियों- लेनेसे नहीं होगी, किन्तु उन तीर्थों और का है; परन्तु पर्वतके ऊपर कई ऐसे मन्दिरों से घर घर और घट घटमें मन्दिरोंके खण्डहर पड़े हुए हैं जो शान्ति, दया, क्षमाके सन्देश पहुँचानेसे श्वेताम्बर सम्प्रदायके हैं और जिनसे होगी । इस बातको हमें घड़ी भरके लिए मालूम होता है कि वहाँ पर श्वेता. भी न भूलना चाहिए । म्बरी भाई भी जाते थे और उनके मन्दिर थे । कदम्बवंशी राजाओंके जो ताम्रपत्र प्रकाशित हुए हैं, उनमेसे दूसरे हाथीगुफाका शिलालेख । ताम्रपत्रमें श्वेताम्बर महाश्रमणसंघ और दिगम्बर महाश्रमणसंघके उपभोगके लिए जैन सम्राट् खारवेलका इतिहास। कालवङ्ग नामक ग्रामके देनेका उल्लेख है। [लेखक-कुमार देवेंद्रप्रसाद, पारा। ] यह स्थान कनाटक प्रदेशम धारवाड़ (गतांकसे आगे।) जिलेके आस पास कहीं पर है। अवश्य ही उस समय वहाँ पर कोई श्वेताम्बर __हाथीगुफाका वह म्ल शिलालेख संघका भी स्थान, तीर्थादि होगा। परन्तु जिसे श्रायुत कु० पा० जाय जिसे श्रीयुत के० पी० जायसवालने पर्वत बहुत समयसे उस ओर श्वेताम्बरी परसे पुनः जाँच द्वारा संशोधित करके भाइयोंका एक तरहसे प्रभाव ही है, इस 'दि जर्नल आफ दि बिहार ऐंड उड़ीसा कारण उक्त स्थान या तो नष्टभ्रष्ट हो गया रिसर्च सोसाइटीके, दिसम्बर सन् १६१८ होगा या दिगम्बरियों के अधिकारमें होगा। के अंकमें, संस्कृत छायानुवाद सहित आशा है कि पाठकगण उक्त प्रमाणों प्रकाशित कराया था और जिसका से दिनम्बर-श्वेताम्बरोंके झगड़ेकी अस परिचय गतांकमें दिया गया है, अपने उस संशोधित रूपमें, संस्कृतानुवाद लियतको बहुत कुछ समझ जायँगे। इस समय जब किदोनों सम्प्रदायके समझदार मोरे (ब्लैक) टाइपमें छापे गये हैं। सहित, निम्न प्रकार है। इसमें जो अक्षर लोग इन झगड़ोंसे ऊब गये हैं और चाहते इस बातको सूचित करनेके लिए हैं कि -देखो जैनमित्र भाग २२ अंक १२ । शिलालेखमें उन खास खास शब्दोंसे + इन ताम्रपत्रों का विवरण देखो जैनहितैषी भाग १४ पहले उन्हें गौरवके साथ उच्चारण करनेके मंक ७-८ में । वास्ते, कुछ स्थान खाली छोड़ा हुआ है। For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५] हाथीगुफाका शिलालेख । । १३॥ ॥ प्राकृतम् ॥ ॥ संस्कृतम् ॥ . । पहली पंक्ति नमो अरहंतानं [1] नमो सवसि- ___नमोऽर्हद्भ्यः [0] नमःसर्वसिद्धेभ्यः धानं [0] ऐरेन महाराजेन महामेघवाहनेन [३] ऐलेन महाराजेन महामेघवाहनेन चेतराजवल-वधनेन पसथसुभलखनेन चैत्रराजवंशवर्धनेन प्रशस्तशुभलक्षणेचतुरंतल थुन-गुनोपहितेन कलिंगाधि- न चतुरंतरस्थूणगुणोपहितेन कलिङ्गाधिपतिना सिरि खारवेलेन । पतिना श्रीक्षारवेलेन । दूसरी पंक्ति पन्दरसवसानि सिरि कडार-सरीर- पञ्चदशवर्षाणि श्री-कडारशरीर-वता क्रीवता कीडिता कुमारकीडिका ततो डिताः कुमारक्रीडाः [] ततो लेखरूपगणलेखरूपगणना-ववहार-विधिविसारदेन स- नाव्यवहारविधिविशारदेन सर्वविद्याववविजावदातेन नववसानि योवरजं पसा. दातेन नववर्षाणि यौवराज्यं प्रशासितम् सितं [1] संपुण-चतुवीसति-घसो तदानि [1] सम्पूर्णचतुर्विंशतिवर्षस्तदानीं वर्धवधमानसेसयोवे(व) नाभिविजयोततिये मानशेषयौवनाभिविजयस्तृतीये तीसरी पंक्ति . कलिंगराजवंसे पुरिसयुगे महारजा कलिङ्गराजवंशे पुरुष-युगाय* महाराज्या भिसेचनं पापुनाति [] अभिसितमतो च भिषेचनं प्राप्नोति [३] अभिषिक्तमात्रश्च * पधमे वसे वात-विहत-गोपुर-पाकार-निवे- प्रथमे वर्षे वातविहतं गोपुर-प्राकार-निसनं पटिसंखारयति [0] कलिनगरि ] वेशनं प्रतिसंस्कारयति [1] कलिङ्गनगर्याम् ख-बीरं इसि-तालं तडाग-पाडियो च उक्षिका-बिल्लं इषितल्लं तडागपालीश्च बन्धापयति [1] सवुयान-पतिसंठपनं च बन्धयति [0] सर्वोद्यानप्रतिसंस्थापनश्च चौथी पंक्ति कारयति [1] पनतीसाहि सतसहसेहि कारयति [0] पञ्चत्रिंशच्छतसहस्रः प्रकपकतियो च रंजयति [] दुतिये च पसे तीश्च रम्जयति [0] द्वितीयेच वर्षे अचि. अचितयिता सातकर्णि पछिमदिसं हय- न्तयित्वा सातकर्णि पश्चिमदेश, हय-गजगज-नर-रध-बहुलं दंडं पथापयति [1] कराह- नर-रथ-बहुलं दण्डं प्रस्थापयति [] कृष्णबेनांगताय च सेनाय वितापति * मुसि- वेणां गतया च सेनया वितापयति मूषिकनगरं [0] ततिये पुन बसे कनगरम् [] तृतीये पुनर्वर्षे •वितापितं इति वा। -पुरिसयुगे इति निमित्ते सप्तमी। कम्मकरणनिमिसस्थेमु सत्तमो इति काचायनः (३. १.४०) + पञ्चत्रिंशच्छत-सहस्रः प्रकृतीः परिच्छिद्य परिगणग्या इत्येतदर्थे तृतीया। दिक्शम्दः पालीप्राकृते विदेशाथोंऽपि । For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहितैषी। [भाग १५ प्राकृतम्॥ ॥संस्कृतम् ॥ पाँचवीं पंक्ति. गंधव-वेदबुधो दंत-नत-गीत-वादितसंदस- गन्धर्ववेदबुधो दम्प*-नृत्त-गीत-वादित्रनाहि उसव-समाज-कारापनाहिच कीडा- सन्दर्शनैरुत्सव समाज-कारणैश्च क्रीडयति. पयति नगरिं ] तथा चवुथे वसे विजा-. नगरीम् [0] तथा चतुर्थे वर्षे विद्याधराधराधिवासं अहत-पुवं कलिंगपुवराजनि- धिवासम् अहतपूर्व कलिङ्गपूर्वराजनिवेघेसितं............वितध-मकटे स-बिलम' शितं..........वितथ-मकुटान् सार्धितबिहिते च निखित-छत ल्मांश्च निक्षिप्त-छत्र'छठी पंक्ति भिंगारे हित-रतन-सापतेये सव-रठिक भृङ्गारान् हत-रत्न-स्वापतेयान् सर्वराष्ट्रिक मोजके पादे चंदापयति [1] पंचमे च भोजकान् पादावभिवादयते [1] पञ्चदानी वसे नंदराज-ति-वससत-श्रोघामे चेदानीं वर्षे नन्दराजेन त्रि-शत-वर्षीटितं तनसुलिय-वाटा पनाडि नगरं पवेस याम् अवघट्टितांतनसुलियवाटात् प्रणाली [य] ति [] सो [पि च वसे ] छडम' नगरं प्रवेशयति [1] सो [ऽपिच वर्षे ] भिसितो च राजसुय[] सन्दसयंतो सव- षष्ठेऽभिषिक्तश्च राजसूयं सन्दर्शयन सर्व कर-घणं कर-पणम् सातवी पंक्ति अनुगह-अनेकानि सतसहसानि विस- अनुग्रहाननेकान् शतसहस्रं विसृजति पौ. जति पोरं जानपदं [0] सतमंच वसं पसा- राय जानपदाय [0] सप्तमं च वर्ष प्रशासतो वजिरघरवि धुसि ति घरिमी स. सतो वज्रगृहवती धृष्टिरितिगृहिणी सन्मतुक-पद-पुंना सकुमार [7]............ मातृकपद-पूर्णा सकुमार [7] ........... .........[0] भठमे च वसे महतिसेनाय [0] अष्टमे च वर्षे महत्या सेनया महामह [त-भित्ति]-गोरधगिरिं . [भित्ति] गोरथगिरि पाठवीं पंक्ति घातापयिता राजगह उपपीडापयति घातयित्वा राजगृहमुपंपीडयति [1] [0] एतिना च कंम' पदान-पनादेन संवित एतेन च कर्मावदान-प्रणादेन संवीतां सेन-वाहिनीं विपमुंचितुं मधुरां अपया- सैन्यवाहिनीं विप्रमोक्तुं मथुरामपयात तो येव नरिदो [ नाम ]................ एव नरेन्द्रो [नाम]...............[मो?]+ ......[ मो?] यति [विछ ]........... यच्छति [विछ].................पल्लवभृ. .........पलवभरे तानि नधी पंक्ति कल्परुले हय-गज-रध-सह-यंते सव-घरा- कम्पवृक्षान् हयगजरथान् सयन्तन् सर्ववास-परिवसने स-अगिणठिये [1] सव- गृहावास-परिवसनानि साग्निष्ठिकानि [] गहनं च कारयितुं बम्हणानं जाति-पतिं सर्वप्रहणं च कारयितुं ब्राह्मणानां जातिपरिहारं ददाति- [0] अरहत............व पङ्क्य परिहारं ददाति [0] अहत्......... .........न............गिय ..................न.........गिया (१) • दम्प = दम्पति ? * नबमे वर्ष इत्येतस्य मूलपाठो नष्टोन्तहिताक्षरेषु । For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५] ॥ प्राकृतम् ॥ दसवीं पंक्ति ...[क]. [मा] नेहि रा [ज] संनि वासं महाविजयं पासादं कारापयति श्रठतिलाय सत· सहसेहि [] दसमे च वसे महोत' भिसमयो भरध-वस- पथानं महिजयनं ... ति कारापयति.. .. [निरि तय] उयातानं च मणि-रतना [ नि ] उप लभते [1] ग्यारहवीं पंक्ति राजानो बारहवीं पंक्ति हाथीगुफाका शिलालेख । .. मंडे च पुव- राजनिवेसित-पीडग-द []भ-नंगले ने कासयति जनपदभावनं च तेरस-वस-सत-केतु भद-तित मर-देह संघातं [] वार-समे च वसे .. .सेहि वितासयति उत्तरापथ ........... .. मगधानं च विपुलं भयं जनेतो हथिसु गंगाय पाययति [] मागधं च राजानं वहसतिमित* पादे वंदापति [i] नंदराज - नीतं च कालिंग - जिन-संनि वेसं ... ....... गहरतनान पडिहारेहि अंगमागध-वसुं च नेयाति [1] तेरहवीं पंक्ति ....... त जठर- लिखिल-बरानि सिहिरानि नीवेसयति सत - विसिकनं परिहा रेन [i] अभुतमछरियं च हथि - नावन परीपुरं उ [प] देणह हय- हथी - रतना - [म] निकं पंडराजा पदानि अनेकानि मुतमणिरतनानि अहरापयति दूध सत[] [] चौदहवीं पंक्ति * वहसतिमित्रं इति वा । ....सिनो वसीकरोति [[] तेरसमे च वसे सुपवत-विजयि-चके कुमारी पवते अरहिते य[[] प-स्लिम व्यसंताहि ॥ संस्कृतम् ॥ :..[क] [] मानैः (१) राजसन्निवासं महाविजयं प्रासादं कारयति अष्टात्रिशता शत सहस्रैः [] दशमे च वर्षे महधृताभिलमयो भारतवर्ष- प्रस्थानं महीजयनं ... ति कारयति [ निरित्या ? ] उद्यातानां च मणि रत्नानि उपलभते [1] ૪૨ . मण्डे च पूर्वराजनिवेशिते पृथूदग्र-दल्भ-लाङ्गले निष्कासयति जनपदभावनञ्च त्रयोदश शत- वर्षीयस्य केतुभद्रस्य तिक्तामर - देह- संघातम् [ । ] द्वादशे च वर्षे.. .भिः वित्रासयति उत्त रापथराजान् .......... .... मगधानाञ्च विपुलम्भयं जनयन् हस्तिषु गङ्गायां प्राययति [] मागथञ्च राजानं वृहस्पतिमित्रं पादावभिवादयते [] नन्दराजनीतञ्च कालिङ्ग - जिनसन्निवेशं गृहरत्नानां प्रतिहारैरङ्गमागध- वसूनि च नाययति [1] त जठरोल्लिखितानि वराणि शिखराणि निवेशयति शत-वैशिकानां परिहारेण [] अद्भुतमाश्चर्यश्च हस्ति-नावां परिपूरम् उपदेयं हय- हस्तिरत्न- माणिक्यं पाण्ड्य राजात् इदानीमनेकानि मुक्तामणिरत्नानि श्राहारयति इह शत [शः] [] ..सिनो वशीकरोति [1] त्रयोदशे च वर्षे सुप्रवृत्त - विजयिश्चक्रे कुमारी पर्वते ऽर्हिते याप-क्षेम-व्यसद्द्भ्यः का * एकादशे वर्षे इत्येतस्य मूलपाठो नष्टो गलितशिलायाम् । For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૨ ॥ प्राकृतम् ॥ . काय्यनिसीदीयाय यापञावकेहि राजभितिनि चिनवतानि वोसासितानि [] पूजानि कत- उवासा खारवेल - सिरिना जीवदेव- सिरि-कल्पं राखिता [] पन्द्रहवीं पंक्ति जैनहितैषी । .. [ता] सुकतं समण - सुविहितानं (नुं ?) च सात- दिसानं (नुं ?) ञातानं तपस - इसिनं संघायनं (नुं ?) [;] अरहत निसीदिया समीपे पभारे वराकर - समुथपिताहि अनेक योजनाहिताहि.. सिलाहि सिंहपथ-रात्रियधुसिय निसयानि सोलहवीं पंक्ति. . पटालिकोचतरे च वेडूरियगभे थं पतिठापयति [,] पानतरिया सतसहसेहि [] मुरिय—कालं वोल्छिनं (ने?) च चोयठि-अगस-तिकंतरियं उपादायति [1] खेमराजा स वढराजा स भिखुराजा धमराजा पसंतो सुनंतो अनुभवतो कलाणानि सत्रहवीं पंक्ति . गुण - विसेस - कुसलो सव पाखंड - पूजको सव - देवायतन-संकारकारको [ अ ] पति-हत-चकि- वाहिनिबलो चकधुर - गुतयको पवत - चको राजसिबस - कुल-विनिश्रितो महा-विजयो राजा खार-वेलसिरि * रानिस वा इति हरननन्दनपाण्डेयाः । ॥ संस्कृतम् ॥ यिकनिषीद्यां यापज्ञापकेभ्यः राज-भृतीश्रीर्णव्रताः व्यवशासिताः [1] पूजाः कृतोपासाः क्षारवेलेन श्रीमता श्रीजीवदेवकल्पं रक्षिताः [1] [ भाग १५ . [ता] सु कृतं श्रमणेभ्यः सुवि हितेभ्यः शास्त्रदृग्भ्यः ज्ञातृभ्यः तपऋषिभ्यः संघायनम् [1] श्रभिषीद्याः समीपे प्राग्भारे वराकरसमुत्थापिताभिरने योजनाहृताभिः शिलाभिः सिंहप्रस्थीयायै राज्ञ्यै घृष्ट्यै निःश्रयाणि .पाटालिकावचत्वरे च वैदूर्य्यगर्भान् स्तम्भान् प्रतिष्ठापयति [,] पञ्चसप्तत्या शतसहस्रैः [1] मुरिय-कालं व्यवच्छि नञ्च चतुःषष्ठ्याप्रशतिकान्तरीय-मुपादापयति + [1] क्षेमराजः स वर्द्धराजः स भिक्षुराजो धर्मराजः पश्यन् शृण्वन्ननुभवन् कल्याणानि ... गुण - विशेष - कुशलः सर्वपाषण्डपूजकः सर्व - देवायतन - संस्कारकारकः [अ] प्रतिहत - चक्रि-वाहिनी - बलः चक्र धुर-गुप्तचक्रः प्रवृत्त चक्रो राजर्षिवंश - कुल - विनिःसृतो महाविजयो राजा चारवेलश्रीः 物 श्रमणेषु वा । + दीड़ क्षये णिचि दापयति । For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाथीगुफाका शिलालेख । १४३ शिलालेखका हिन्दी अनुवाद।। ___उत्सव और समाजके द्वारा नगरीका शिलालखका हिन्दा अनुवाद मनोरञ्जन किया। .. पंक्ति १-अर्हतोको नमस्कार । सर्व- और चौथे वर्ष में, विद्याधर निवासिद्धोंको नमस्कार। ऐल-महाराज महा सोको, जो पहले कभी नष्ट नहीं हुए थे मेघवाहन, चैत्रराजवंशवर्धन, प्रशस्तशुभ और जो कलिंगके पूर्व राजाओं के निर्माण लक्षणसम्पन्न, अखिल-देश-स्तम्भ, कलि- किय किये हुए थे......... माधिपति श्रीखारवेलने। ___ उनके मुकुटोंको व्यर्थ करके और पंक्ति २-पन्द्रह वर्ष तक,श्रीसम्पन्न उनके लोहेके टोपोके दो खंड करके और' और फडार (गन्दुमी) रंगवाले शरीरसे उनके छत्र, कुमार क्रीड़ाएँ की। बाद में लेख, रूप पंक्ति ६-और शृंगारों (सुवर्णगणना, व्यवहार-विधिमें उत्तम योग्यता कलशो) को नष्ट करके तथा गिराकर, प्राप्त करके और समस्त विद्याओंमें प्र और उनके समस्त बहुमूल्य पदार्थों तथा वीण होकर उसने नौ वर्षोंतक युवराज रत्नोंका हरण करके, उसने समस्त राकी भाँति शासन किया। ष्ट्रिकों और भोजकोंसे अपने चरणोंको जब वह पूरा चौबीस वर्षका हो चुका बन्दना कराई। तब उसने, जिसका शेष-यौवन विजयोसे ___ इसके बाद पाँचवें वर्ष में उसने तन उत्तरोत्तर वृद्धिंगत हुआ,-तृतीय मुलिय मार्गसे नगरीमें उस प्रणाली - पंक्ति ३-कलिंगराजवंशमें, एक पु (नहर ) का प्रवेश किया जिसको नन्द राजने तीन सौ वर्ष पहले खुदवाया था। रुषयुगके लिए महाराज्याभिषेक पाया। अपने अभिषेकके पहलेही वर्ष में उसने छठे वर्षमें उसने राजसूय यज्ञ करवातविहत (तूफान के बिगाड़े हुए ) गोपुर के सब करोंको क्षमा कर दिया, (फाटक) प्राकार (चहारदीवारी) और पंक्ति ७-पौर और जानपद (संस्था. भवनोंका जीर्णोद्धार कराया; कलिंग ओं) पर अनेक शतसहस्र-अनुग्रह वितनगरीके फव्वारेके कुण्ड, इषितल्ल (१) रण किये। और तड़ागोंके बाँधोंको बँधवाया; समस्त सातवें वर्ष राज्य करते हुए, वज्र उद्यानोंका प्रतिसंस्थापन कराया और घरानेकी धृष्टि (प्राकृत-धिसि) नानी पैंतीस लक्ष प्रजाको सन्तुष्ट किया। गृहिणीने मातृक पदको पूर्ण करके सकुमार पंक्ति ४-दूसरे वर्ष में, सातकर्णि- ()...(0) की चिन्ता न करके उसने पश्चिम देशको आठवें वर्ष में उसने (खारवेलने) बहुतसे हाथी, घोड़ों, मनुष्यों और रथोंकी बड़ी दीवारवाले गोरथगिरि पर एक एक बड़ी सेना भेजी। कृष्णवेण नदी पर बड़ी सेनाके द्वारा सेना पहुँचते ही, उसने उसके द्वारा पंक्ति-आक्रमण करके राजगृहमूषिक-नगरको सन्तापित किया। तीसरे को घेर लिया। पराक्रमके कार्योंके इस घर्ष में फिर समाचारके कारण नरेन्द्र [नाम]...अपनी पंक्ति ५-उस गन्धर्व-वेदमें निपुण- घिरी हुई सेनाको छुड़ाने के लिये मथुरामतिने दम्प, नृत्य, गीत, वाद्य, सन्दर्शन, को चला गया। For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ( नवें वर्ष में) उसने दिये.. . पल्लव युक्त जैनहितैषी । पंक्ति 8 - कल्पवृक्ष, सारथी सहित हय-गज- रथ और सबको श्रग्निवेदिका सहित गृह, आवास और परिवलन । सब दानको ग्रहण कराए जानेके लिए उसने ब्राह्मणोंकी जातिपंक्ति ( जातीय संस्थाओं) को भूमि प्रदान की । श्रर्हत् .forer (?) ...व.. पंक्ति १० - [क][f] मानै: ( १ ) उसने महाविजय - प्रासाद नामक राजसन्निवास, ३= सहस्रकी लागतका बनवाया । दसवें वर्ष में उसने पवित्र विधानों द्वारा युद्धकी तैयारी करके देश जीतने की इच्छा से, भारतवर्ष ( उत्तरी भारत ) को प्रस्थान किया । -क्लेश ( ? ) से रहित ...... उसने श्राक्रमण किये गये लोगोंके मणि और रत्नोंको पाया । पंक्ति ११ - ( ग्यारहवें वर्ष में ) पूर्व राजाओंके बनवाये हुए मण्डपमें, जिसके पहिये और जिसकी लकड़ी मोटी, ऊँची और विशाल थी, जनपद से प्रतिष्ठित तेरहवें वर्ष पूर्व में विद्यमान केतुभद्रकी तिक (नीम ) काष्ठकी श्रमर मूर्तिको उसने उत्सवसे निकाला । बारहवें वर्ष में.. उसने उत्तरापथ (उत्तरी पञ्जाब और सीमान्त प्रदेश ) के राजाओं में त्रास उत्पन्न किया । पंक्ति १२.. और मगधके निवासियों में विपुल भय उत्पन्न करते हुए उसने अपने हाथियोंको गंगा पार कराया और मगध के राजा बृहस्पतिमित्र से अपने चरणोंकी बन्दना कराई... ( वह ) कलिंग - जिनकी मूर्त्तिको जिसे नन्दराज ले भाग १५ गया था, घर लौटा लाया और अंग और मगधकी अमूल्य वस्तुओं को भी ले आया। पंक्ति १३ - उसने ............ जठरोल्लिखित ( जिनके भीतर लेख खुदे हैं ) उत्तम शिखर, सौ कारीगरोंको भूमिप्रदान करके, बनवाए और यह बड़े आश्चर्य की बात है कि वह पाण्ड्य । जसे हस्तिनाव में भराकर श्रेष्ठ हय, हस्ति, माणिक और बहुतसे मुक्ता और रत्न नजराने लाया । पंक्ति १४ - उसने... वश में किया । फिर तरहवें वर्ष में व्रत पूरा होने पर ( खारवेलने ) उन याप - ज्ञापकों को जो पूज्य कुमारी पर्वतपर, जहाँ जिनका चक्र पूर्ण रूप से स्थापित है, समाधियों पर याप और क्षेमकी क्रियाओं में प्रवृत्त थे; राजभृतियोंको वितरण किया । पूजा और अन्य उपासक कृत्योंके क्रमको श्रीजीवदेवकी भाँति क्षारवेलने प्रचलित रखा । पंक्ति १५ - सुविहित श्रमणों के निमित्त शास्त्र नेत्रके धारकों, ज्ञानियों और तपोबल से पूर्ण ऋषियोंके लिए ( उसके द्वारा ) एक संघायन ( एकत्र होने का भवन ) बनाया गया । श्रर्हत्की समाधि ( निषद्या) के निकट, पहाड़की ढालपर, बहुत योजनोंसे लाये हुए, और सुन्दर खानोंसे निकाले हुए पत्थरोंसे, अपनी सिंहप्रस्थी रानी 'धृष्टी' के निमित्त वि भामागार For Personal & Private Use Only पंक्ति १६ - और उसने पाटालिकाश्रमे रत्न जटित स्तम्भोंको पचहत्तर लाख पणों (मुद्राओं) के व्ययसे प्रतिष्ठापित किया । वह (इस समय ) मुरिय कालके १६४वें वर्ष को पूर्ण करता है । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ हाथीशुफाका शिलालेख। - १४५ वह क्षेमराज, वर्द्धराज, भिक्षुराज और रथ और जिसकी सेनाको कभी कोई धर्मराज है और कल्याणको देखता रहा रोक न सका, जिसका चक्र (सेना) है, सुनता रहा है और अनुभव करता । चक्रपुर ( सेना-पति) के द्वारा सुरक्षित रहता है, जिसका चक्र प्रवृत्त है और जो . पक्ति १७---गुणविशेष-कुशल, राजर्षिवंश कुलमें उत्पन्न दुभा है, ऐसा सर्व मतोकी पूजा करनेवाला, सर्व देवा. महाविजयी राजा श्रीखावेरल है। लयोंका संस्कार करानेवाला, जिसके केतु भद्र परिशिष्ट । शिलालेखकी प्रसिद्ध घटनाओंका तिथिपत्र । बी. सी. (ईसा के पूर्व) , १५६० (लगभग) ... , ४६० (लगभग) कलिंगमें नन्द-शासन ...६२३० अशोककी मृत्यु] [२२० (लगभग) ...। कलिंगके तृतीय-राजवंशका स्थापन] सारवेलका जन्म [१- ... ... मौर्यवंशका अन्त और पुष्पमित्रका राज्य प्राप्त करना] खारवेलका युवराज होना [१८० (लगभग) सातकर्णि प्रथमका राज्य प्रारम्भ सारवेलका राज्याभिषेक मूषिक-नगरपर आक्रमण राष्ट्रिकों और भोजकोंका पराजय राजस्य-यब मगधपर प्रथम बार आक्रमण उत्तरापथ और मगधपर आक्रमण, पाएडवराज से प्रदेय (नजराने की प्राप्ति शिलालेखकी तिथि For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जैनहितैषी । सनातनी हिन्दू | महात्मा गाँधी के एक लेखका अनुवाद | मुझसे लोग अकसर पूछा करते हैं कि आप अपनेको चुस्त 'सनातनी हिन्दू' और' वैष्णव' क्यों कर कहलवाते हैं ? मैं समझता हूँ कि इस समय मुझे इस प्रश्नका उत्तर दे डालना चाहिए । इस उत्तर में सनातनी हिन्दू की व्याख्या और वैष्णवकी पहचान श्रा जायगी । जो व्यक्ति हिन्दुस्तान में हिन्दू कुल में जन्म लेकर, वेद उपनिषद् पुराणादि ग्रन्थोंको धर्मग्रन्थ के रूप में मानता है; जो सत्य, अहिंसादि पाँच यमों पर श्रद्धा रखता है और उनका यथाशक्ति पालन करता है: जो मानता है कि आत्मा है, परमात्मा है, आत्मा अजर और अमर है, फिर भी देहाभ्यास के कारण अनेक योनियोंमें श्रावागमन करता रहता है, उसे मोक्ष मिल सकता है और मोक्ष परम पुरुषार्थ है जो वर्णाश्रम और गोरक्षाधर्मको मानता है, वह हिन्दू है । ऐसी मेरी मान्यता है । और जो मनुष्य इन सब बातोंको माननेके अतिरिक्त वैष्णव सम्प्रदायको माननेवाले कुलमें उत्पन्न हुआ हो और उसका जिसने त्याग न किया हो; जिसमें नरसिंह मेहताके 'वैष्णव जन' *यह भजन ५ दिसम्बर के 'नवजीवन' में प्रकाशित हुआ है। उसके अनुसार वैष्णव में नीचे लिखे २० गुण होने चाहिएँ-१ परदुःख भंजन करनेवाला हो, २ फिर भो निरभिमानी हो, ३ सबकी बन्दना करे, ४ किसकी निन्दा न करे, ५-६ वचनका और काछ (कच्छ) का दृढ़ हो, ७ निश्चल मन हो, ८ समदृष्टि हो, ह तृष्णात्यागी हो, १० एकपत्नीव्रत पालनेवाला हो, ११-१२ सत्य और अचौर्य पालता हो, ११ मायातीत हो, १४ वीतराग हो, १५ रामभक्त हो, १६ पवित्र हो, १७२० लोभ-कपट काम कोष रहित हो, । -- अनुवादक । [ भाग १५ नामक भजनमें वर्णन किये हुए गुण थोड़े बहुत अंशों में मौजूद हों और जो उन गुणोंको पूर्ण करने के लिए प्रयत्न करता हो, वह वैष्णव है । मेरा पूरा विश्वास है कि मुझमें ऊपर बतलाए हुए चिह्न अनेक अंशोंमें मौजूद हैं और उन्हें अधिक दृढ़ीभूत करनेके लिए मैं निरन्तर प्रयत्नशील रहता हूँ । इसलिए मैं बड़ी नम्रता परन्तु दृढ़ता के साथ अपने आपको चुस्त (पक्का) सनातनी हिन्दू और वैष्णव कहलाने में संकोच नहीं करता । मेरी समझ में हिन्दू धर्मका स्थूल बाह्य स्वरूप गोरक्षा है । इस गोरक्षा के कार्य में सारी हिन्दू जनता असमर्थ बन गई है । इससे मैं हिन्दुओं को 'नपुंसक' मानता हूँ और उन नपुंसकों में मैं अपने आपको घटियाले घटिया नपुंसक समझता हूँ । मैं नहीं समझता कि मैंने जो तपश्चर्या गोरक्षा के लिए की है और कर रहा हूँ, उससे अधिक तपश्चर्या और कोई करता है, और गो-वंशके प्रति मेरी जो सहानुभूति है उससे अधिक सहानुभूति किसी दूसरेमें है । इसके लिए मेरे बराबर तपश्चर्या ज्ञानपूर्वक तो शायद ही किसीने की होगी । जबतक हिन्दू गायपर दया नहीं रखते, पशुओंको हिन्दू स्वयं ही अनेक तरहके दुःख देते हैं, जबतक वे मुसलमानोंकी प्रीति सम्पादन करके उनसे प्रेमकी ख़ातिर गोबध नहीं छुड़ा सकते हैं, जबतक अँगरेज़ लोग हिन्दुस्तान में गोवध करते हैं, और उसको सहन करते हुए हिन्दू अँगरेज़ी सल्तनतकी सलामी बजाते हैं तबतक मैं समझता हूँ कि हिन्दू धर्ममेंसे ब्राह्मण और क्षत्रिय धर्मका लोप हो गया है और इस कारण में जन्म से वैश्य होनेपर भी उक्त दोनों धर्मोका पालन करने के लिए निरन्तर प्रयत्न कर रहा हूँ । For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ है। अङ्क ५ सनातनी हिन्दू। मेरी समझमें हिन्दू-धर्मका अन्तर- मुझे शास्त्रोंको पढ़ने और समझनेकी स्वरूप सत्य और अहिंसा है। मैंने अपनी कुंजी मिल गई है। जो शास्त्रवचन सत्यजान पहचानके लोगोंमें ऐसा एक भी का, अहिंसाका, ब्रह्मचर्यका विरोधी हो, आदमी नहीं देखा जो सत्यका सेवन वह चाहे जहाँसे मिला हो, अप्रमाण है। उतनी सूक्ष्मतासे करता हो जितना मैं शास्त्र बुद्धिसे परे नहीं हैं। जो शास्त्र बचपनसे अबतक कर रहा हूँ। अहिंसा- बुद्धिग्राह्य न हों, उन्हें हम रह कर सकते का जीता जागता लक्षण प्रेम-अवैर है। हैं। उपनिषदोको मैं पढ़ गया हूँ। मैंने मुझे दृढ़ विश्वास है कि मेरे हृदयमें प्रेम ऐसे भी उपनिषत् पढ़े हैं, जो मुझे बुद्धिछलक रहा है-भीतर समाता नहीं है। ग्राह्य नहीं अँचे। इससे मैंने उन्हें आधारमुझे स्वप्नमें भी किसीके प्रति वैरभाव भूत नहीं माना। यह बात अनेक कवियोंउत्पन्न नहीं हुआ। डायरके दुष्कृष्य जान- ने कही है कि जो शास्त्रोंके अक्षरोसे कर भी उसके प्रति मुझे वैर उत्पन्न नहीं चिमटा रहता है-वह 'वेदिया ढोर, होता। जहाँ जहाँ मैंने दुःख देखे हैं, या वेदज्ञ पशु है । शङ्कर आदि प्राचार्योंने अन्याय देखे हैं, वहाँमेरा अात्मा व्याकुल शास्त्रोंका दोहन बहुत थोड़े वाक्यों में कर दिया है। और उन सबका तात्पर्य यह है हिन्दधर्मका तत्त्व मोक्ष है। मैं मोक्ष- कि हमें ईश्वरभक्ति करके ज्ञान और उस के लिए तड़फड़ा रहा हूँ। मेरी सारी ज्ञानके द्वारा मोक्ष प्राप्त करना चाहिए । प्रवृत्तियाँ मोक्षके लिए हैं। मुझे जितना मुजरातके 'अखा भगत ने कहा है:विश्वास अपने शरीरके अस्तित्व और सूतर श्रावे त्यभ तुं रहे, ज्यभ त्यभ उसकी क्षणिकताके विषयमें है, उतना करीने हरिने लहे। ही आत्माके अस्तित्व और उसके अमृ. जो शास्त्र मदिरापान, मांसभक्षण, तत्त्वके विषयमें है। पाखण्ड इत्यादि सिखलाते हैं वे शास्त्र इन सब कारणोंसे जब कोई मुझसे नहीं कहला सकते। 'चुस्त सनातनी हिन्दू' कहता है तब स्मृतियोंके नामसे भी बड़ा अधर्म मुझे प्रसन्नता होती है। फैल रहा है। स्मृति श्रादि ग्रन्थोके- यदि कोई मुझसे पूछे कि तुमने अक्षरोंमें उलझकर हम नरककी योग्यता शास्त्रोका गहरा अभ्यास किया है ? तो प्राप्त कर रहे हैं । स्मृतियोंसे भ्रमित होकर मैं उससे कहूँगा कि नहीं, मैंने नहीं किया। हिन्दू कहलानेवाले लोग व्यभिचार करते और यदि किया भी है तो विद्वान्की हैं और बाल-कन्याओंके ऊपर बलात्कार दृष्टिसे नहीं किया। मेरा संस्कृत-ज्ञान करने-करानेके लिए तैयार रहते हैं। बहुत थोड़ा है। संस्कृतके भाषानुवाद अब यह एक बड़ा भारी प्रश्न उठता भी मैंने थोड़े ही पढ़े हैं। यह दावा भी है कि शास्त्र अनेक हैं। उनमेंसे हम किसे मैं नहीं कर सकता कि मैंने कोई एक क्षेपक समझे, किसे ग्राम गिनें और वेद भी पूरा पूरा पढ़ा है। फिर भी मैंने किसे त्याज्य मानें। यदि आज ब्राह्मण. शास्त्रोको धर्मदृष्टिसे जान लिया है। धर्मका लोप न हुआ होता, तो हम किसी उनका रहस्य मैं समझ गया हूँ और ऐसे ब्राह्मण को खोजकर उससे उक्त मेरी समझमें वेदोंको पढ़े बिना भी प्रश्नका समाधान कर लेते जो. यम-निय मनुन्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है। मादिके पालनसे शुद्ध होता और जिसने For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। भाग १५ उत्तम ज्ञान प्राप्त किया होता । ऐसे पर दूसरे धर्मवाले समा गये हैं, परन्तु ब्राह्मणों के अभावसे ही इस समय भक्ति- वे उसी जन्ममें हिन्दू नहीं कहलाये। मार्ग प्रधान हो रहा है। जब हम पाखण्ड, हिन्दू-जगत् एक समुद्र है। उसके पेटमें दम्भ, मद, माया आदि पापोंके साथ सारा कूड़ा-कर्कट आकर साफ़ हो जाता असहकार करके जो कि आधुनिक सर- है-शान्त हो जाता है। ऐसा बराबर कारमें अनेक रूपोंमें प्रकट हो रहे हैं, होता रहा है। इटली, ग्रीस आदि देशों आत्मशुद्धि करेंगे, उस समय शायद हमें के लोग आकर हिन्दूधर्ममें समा गये हैं, कोई शास्त्रदोहन करनेवाला संस्कृत . परन्तु उन्हें किसीने हिन्दू बनाया नहीं। पुरुष मिल जाय । तबतक हमें सरल कालान्तरमें ऐसी घटती बढ़ती होती ही भावसे मूल तत्त्वोंको पकड़े हरिभक्त रही है। हिन्दूधर्म ईसाई और मुसलमान होकर विचरना चाहिए । इसके सिवा धर्मोंके समान दूसरे धर्मवालोको यह और कोई मार्ग नहीं है। निमन्त्रण नहीं देता कि तुम हमारे धर्ममें ___ "गुरु बिना ज्ञान नहीं होता ।" इसमें आकर मिल जाओ। उसका आदेश है सन्देह नहीं कि यह एक सुवर्णमय वाक्य कि सबको अपने अपने धर्मका ही पालन है। परन्तु इस समय तो गुरु मिलना करना चाहिए। सिस्टर निवेदिता जैसी ही कठिन हो रहा है। सद्गुरुके अभावमें विदुषी हिन्दूधर्ममें आ गई, फिर भी हम चाहे जिसको गुरु बनाकर संसारसागर. उसे हिन्दूके रूपमें नहीं पहचानते । साथ के बीचमें डूब मरना बुद्धिमानीका कार्य ही उसका बहिष्कार या तिरस्कार भी नहीं है। जो तारे वही गुरु है। जो स्वयं ही नहीं करते। हिन्दूधर्ममें किसीके लिए तरना नहीं जानता वह दूसरोंको क्या 'पानापन्त' नहीं है। परन्तु उस धर्मका तारेगा? ऐसे तारनेवाले यदि कहीं हो पालन सब कोई कर सकता है। भी तो वे सुलभ नहीं हैं। ___वर्णाश्रम एक 'कायदा' (कानून) है। अब ज़रा वर्णाश्रम पर आइये । चार उसका व्यावहारिक रूप जाति है। वर्णोके सिवा और कोई वर्ण नहीं है। जातियों में बढ़ती घटती होती रहती है। मेरी मानता यही है कि वर्ण जन्मसे है। जातियोंकी उत्पत्ति और नाश हुश्रा ही जो ब्राह्मण कुलमें जन्मा है वह ब्राह्मण करता है। हिन्दूधर्मके बाहर यदि कोई रहकर ही मरेगा। गुणसे वह भले ही होना चाहे तो स्वयं ही हो सकता है, अब्राह्मण हो जाय, परन्तु उसका ब्राह्मण किसी दूसरेके करनेसे नहीं। परन्तु वह शरीर ब्राह्मण ही रहेगा। जो ब्राह्मण 1 जातिसे बाहर किया जा ब्राह्मण-धर्मका पालन नहीं करता, वह सकता है । जाति-बहिष्कार एक प्रकारअपने गुणों के अनुसार शुद्र योनिमें और का दण्ड है और यह सब जातियोंके पशु योनिमें भी जन्म लेता है। मेरे सदृश - ब्राह्मण और क्षत्रिय-धर्म पालन करने- हाथमे होना चाहिए। वाले वैश्यको यदि फिर जन्म लेना पड़े, पानी-भोजन-व्यवहार और बेटी. तो दूसरे भवमें भले ही ब्राह्मण या क्षत्रिय व्यवहार ये हिन्दूधर्मके आवश्यक चिह्न जन्म मिले, परन्तु इस जन्ममें तो वैश्य नहीं हैं। परन्तु हिन्दूधर्ममें संयमको प्रधान ही रहना पड़ेगा। और यह बात है भी पद दिया गया है। इस कारण उसके यथार्थ । यद्यपि हिन्दूधर्ममें समय समय पालनेवालोंके लिए पानी-भोजम-विवाह ना जा For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५] सनातनी हिन्दू । आदि के सूक्ष्म प्रतिबन्ध रख दिये गये हैं। आश्रम (साबरमतीका सत्याग्रहाश्रम) उन्हें मैं बुरा नहीं समझता । परन्तु साथ संन्यासियों जैसा धर्म पालता है। उसमें ही जो उनका पालन नहीं करता उसे मैं हिन्दूधर्मके अनुसार, इस युगके योग्य, धर्मभ्रष्ट भी नहीं समझता । भोजन-पान एक नई जातिका नया व्यवहार चल रहा और विवाह-व्यवहार चाहे जहाँ म करना, है। इस कार्यको मैं एक प्रयोग या परीक्षाइसे मैं शिष्टाचार समझता हूँ। इसमें के रूपमें कर रहा हूँ। यदि वह फलीभूत प्रारोग्य और पवित्राकी रक्षा समाई हुई हुआ तो अनुकरणीय गिना जायगा और है। परन्तु तिरस्कारके रूपमें किसीके यदि निष्फल होगा तो उससे किसीकी भोजन-पानका त्याग करना हिन्दुधर्मके कोई हानि न होगी। प्रयोग करनेवालेको विरुद्ध है, ऐसा मैं मानता हूँ। मैंने अपने भी कोई हानि नहीं होगी। क्योंकि इस अनुभवसे निश्चय किया है कि परवर्णीयों परीक्षाका मूल संयम है । इसमें मेरा हेतु और परधर्मियोंके साथ बेटी-व्यवहार यह है कि सेवाधर्मका बिना कठिनाईके और रोटी-व्यवहारका प्रतिबन्ध हिन्दूधर्म- पालन हो और जहाँ पर धर्मका समावेश की संस्कृतिकी एक श्रावश्यक बाड़ केवल खाने पीने में कर लिया गया है वहाँ (परिधि) है। इस रिवाजको उसके योग्य और गौण यदि ऐसा है तो फिर मैं मुसलमानों- स्थान दिया जाय। . के यहाँ भोजन क्यों करता हूँ ? इसलिए कि अब रही अस्पृश्यता या छूआछूत। उनके यहाँ भोजन करते हुए भी मैं संयम अस्पृश्यताको उत्पत्ति कैसे हुई, इसको धर्मका पूरा पूरा सेवन कर सकता हूँ। कोई नहीं समझ सकता । मैंने इसके पकाई हुई चीजों में डबल रोटी तक खाता सम्बन्धमें अनुमान ही किये हैं। वे सत्य है। क्योंकि डबलरोटीके पकानेकी क्रिया हो या असत्य, परन्तु यह तो अन्धा भी बिलकुल शुद्ध है और जिस तरह पोहे देख सकता है कि अस्पृश्यता है। बहुत तथा फुटाने चाहे जहाँ भुने हुए खाये समयका अभ्यास जिस तरह हमें अपने जाते हैं, उसी तरह डबल रोटी (रोटी या प्रात्माको नहीं पहचानने देता, उसी चपाती नहीं) भी चाहे जहाँकी पकी हुई . तरह हमारा बहुत पुराना अभ्यास अस्पृ. खाई जा सकती है।* फिर भी मेरे साथी श्यताके अधर्मको भी नहीं देखने देता। इतना प्रतिबन्ध नहीं पालते और मुसल- किसीको भी पेटके बल चलाना, जुदा मान तथा अपनेसे इतर वर्णवालोंके रखना, गाँवसे बाहर निकाल देना, वह यहाँ शुद्ध रीतिसे पकाये हुए अन्य खाद्य मरता है या जीता, इसकी परवाह न भी खा लेते हैं। ऐसा करके वे अपने करना, उसे जूठा भोजन खिलाना ये सिरपर जाति-बहिष्कारकी जोखिम उठाते सब बातें कभी धर्म नहीं हो सकतीं। है; परन्तु उनका हिन्दूपना नहीं मिटता। पंजाबक जिस प्रोडायर-डायरशाही अत्या चारोंके विरुद्ध हम पुकार मचा रहे हैं, * समझमें नहीं पाया कि महात्माजीका यह विचार उनसे भी अधिक अन्याय और अत्याचार किस दृष्टिको लिये हुए है, कैसे उन्होंने साधारण रोटीकी भषेक्षा डबल रोटीके पकानेकी क्रियाको बिलकुल शुद्ध माना हम अन्त्यजों (भंगी, चमार आदि जातियों) है और क्योंकर डबल रोटीकी, चाहे जहाँकी पकी हुई होने पर कर रहे हैं। अन्त्यज पड़ोसमें नहीं पर भी ग्राम प्रतिपादन किया है-दोनों में तात्विक दृष्टिसे रह सकता, अन्त्यजको अपनी मालिकी क्या विशेषता है। जमीन नहीं मिल सकती, अन्त्यजको हमें For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितेषी। [भाग १५ देखते ही चिल्लाकर कहना चाहिए कि महात्मा गान्धीके विचार कैसे हैं, यह "दूर रहना, मुझे छूना नहीं," अन्त्यजको लेख प्रकट किया जाता है। अनेक लोगोंगाड़ी में साथ बैठनेकी आज्ञा नहीं । ने उन्हें जैनधर्मानुयायी समझ रक्खा यह हिन्दूधर्म नहीं है-यह तो डायरशाही है। कभी कभी सार्वजनिक सभाओं और है। अस्पृश्यतामें संयम नहीं है। अस्पृ- पत्रों तकमें ऐसी बातें प्रकाशित हो जाती श्यताको पालना चाहिए, इसके लिए हैं। अभी कुछ ही समय पहले पूने के यह उदाहरण दिया जाता है कि माता 'झानप्रकाश' में नागपुरके देशभक्त डा० बच्चेका मैला उठाकर तब तक किसीको मंजेका एक संवाद प्रकाशित हश्रा था। नहीं छूती है जबतक वह स्नान नहीं कर . उसमें डा० मुंजेने स्पष्ट शब्दों में यह लेती। परन्तु इसमें तो माता स्वयं ही नहीं प्रकट किया था कि म. गान्धी इस छूना चाहती। और यदि इस नियमका आन्दोलनके द्वारा जैनधर्मका प्रचार कर हम भंगियोंके सम्बन्धमें पालन करावें रहे हैं और यह बड़े दुःखकी बात है। तो उससे कोई इन्कार नहीं कर सकता। असहकार आन्दोलन दाक्षिणात्योंकी और ( अर्थात् जिस समय भंगी मैला उठाकर शिवाजी आदिकी राजनीतिके बिलकुल पाया हो उसने न स्नान किया हो, उस विरुद्ध है । परन्तु किया क्या जाय, समय वह स्वयं ही हम लोगोंको न छूए । दक्षिणमें कोई बड़ा नेता नहीं रहा । स्नान कर चुकनेपर छूनेकी रोक-टोक इत्यादि । स्वनामधन्य स्वर्गीय लोकमान्य नहीं होनी चाहिए।) भंगी आदि जातियों- तिलकके साथ महात्मा गान्धीका एक को अस्पृश्य गिनकर हम गन्दगीको सहन सिद्धान्तके सम्बन्धमें जो थोड़ा सा करते हैं और रोगोंको उत्पन्न करते हैं। विवाद हुआ था, उससे भी लोगोंने यदि अस्पृश्यको स्पृश्य गिनने लगेंगे तो यही समझा था कि म० गान्धी जैनधर्मअपने उस अङ्गको (भंगी आदि जातियों के अनुयायी हैं । लोकमान्यका कथन था को) साफ रखना सीख जायँगे। कि 'शठं प्रति शाठ्यं कुर्यात्' (जैसेके __ बहुतसे भंगियोके घरोंको मैंने वैष्णव- साथ तैसा होनेकी नीति ठीक है) और के घरोसे भी उजला देखा है। उनमेंसे महात्मा गान्धी कहते थे कि बुरेके साथ कितनोंकी ही सत्यवादिता, सरलता, भी भलाई करनी चाहिए । 'अक्रोधेन दया आदि देखकर तो मैं चकित हो गया जयेत् क्रोधं (क्रोधको क्षमासे जीतना हूँ । मेरा विश्वास है कि हिन्दूधर्ममें चाहिए ।) इस नीतिको गान्धीजी अपने अस्पृश्यता (श्राबूत) रूपी कलिके प्रवेश व्याख्यानों में अक्सर बतलाया करते हैं करनेसे ही हम पतित बन गये हैं और और यह नीति जैनधर्मकी ओर बहत इसीसे गोमाताकी रक्षा करनेके लिए अधिक झुकी हुई मालूम होती है। उनकी वीर्यहीन हो गये हैं। जबतक हम इस जीवनचर्या, उनके व्रत-नियम, उनकी डायरशाहीसे मुक्त नहीं होते, तबतक अपरिग्रहशीलता और उनकी परम अँगरेज़ी डायरशाहीसे मुक्त होनेका हमें अहिंसा-वृत्ति भी लोगों के इस विचारको कोई अधिकार नहीं है ।* पुष्ट करती है कि वे जैनधर्मानुयायी हैं। नोट । सिर्फ यह बतलानेके लिए कि परन्तु इस लेख में पाठक देखेंगे कि वे अपनेको चुस्त सनातनी हिन्दु और • फरवरी १६२१ के 'नव जीबन से अनुवादित वैष्णव प्रकट करते हैं। For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ५] सनातनी हिन्द। १५१ यह सच है कि महात्माजीके जीवन इसी बातको पुष्ट करती है। परन्तु इस पर जैनधर्मकी बहुत बड़ी छाप पड़ी है। एक सिद्धान्तको छोड़कर उन्होंने अपने सुप्रसिद्ध जैनतत्वज्ञ स्वर्गीय रायचन्दजी. लेख में जो अन्य बातें प्रकट की हैं, वे को वे बहुत बड़ा आदर्श पुरुष मानते ऐसी नहीं हैं जिनका जैनधर्मके साथ हैं । वे यह भी स्वीकार करते हैं कि मेरे सामंजस्य न हो सके। चरित्र पर उनके जीवनका सबसे अधिक म. गान्धी जैनी नहीं हैं और वे प्रभाव है। जैनधर्मके परम अहिंसा तत्त्व- अपने श्रापको 'चुस्त सनातनी हिन्द को जितने व्यापक और विशाल रूपमें कहते हैं। परन्तु इस लेखसे उनका सनाउन्होंने व्यवहारयोग्य बनाकर दिखलाया तन हिन्दुधर्म कुछ विलक्षण सा मालूम है, उतना पिछले हजार वर्षोंमें शायद ही होता है। क्योंकि वे वेद, पुराण, स्मृति किसीने दिखलाया हो। उनका चरित्र आदि धर्मग्रन्थोंकी उतनी ही बात माननेएक सवेसे सच्चे जैनीके लिए भी अनु- के लिए तैयार हैं जो बुद्धिग्राह्य हो, करणीय है; और इस दृष्टि से उन्हें 'जैन' अर्थात उनकी सदसद्विवेक बुद्धि जिनके कहना अनुचित नहीं हो सकता। फिर माननेसे इन्कार न करती हो। वे धर्मभी वे अपनेको 'जैन' न कहकर 'सना- ग्रन्थोंके अक्षरों और शब्दोंसे चिमटे तनी हिन्दू' और 'वैष्णव' मानते है और रहनेको-उनके अर्थों पर लड़ मरने कोउनके इस कथनपर अविश्वास करनेका भी ठीक नहीं समझते । स्मृतियोके कोई कारण नहीं देख पडता। प्रति तो उनके हृदय में बहुत ही कम उनके अनेक व्याख्यानों और लेखोसे व्याख्याना श्रार लखास आदर-बुद्धि जान पड़ती है। अनेक उपप्रकट होता है कि वे कट्टर ईश्वरवादी निषदोंको भी वे बुद्धिग्राह्य नहीं मानते। हैं। अर्थात् उनका जैनोंके समान अनेक इन सब बातोंको दूसरे शब्दों में कहा जाय परमात्माश्री या सिद्धाम नही, किन्तु एक तो यों कहना चाहिए कि वे 'श्रागमपरब्रह्म परमात्मामें विश्वास है। जैन प्रामाण्य को बहुत अधिक महत्त्व नहीं धर्मके साथ उनके विश्वासमें जो बड़ा देते। इससे यह ध्वनित होता है कि वे भारी अन्तर है वह यही जान पड़ता वेदोक्त हिंसाको, बलिदानकी प्रथाको है*। और तात्त्विक दृष्टि से यह अन्तर और मांसभक्षण आदिको सर्वथा अप्र. साधारण नहीं है। उनकी वेद, उपनिषत्, माण मानते होंगे। उन्होंने लिखा भी है पुराण आदि धर्मग्रन्थोकी मान्यता भी कि "जो शास्त्रवचन सत्य, अहिंसा और * महात्मा गान्धीके ईश्वरविषयक इस विश्वाससम्बन्ध- ब्रह्मचर्यका विरोधी हो वह चाहे जहाँसे में अभी हमें बहुत सन्देह है। सम्भव है कि इस विषयमें मिला हो, मान्य नहीं हो सकता।" उनका विचार उस विचारसे विभिन्न न हो जिसे श्रीमद्राजचन्द नामके तत्त्वज्ञानीने, जिनको महात्माजी अपना उनके सामाजिक विचार भी सनाआदर्शपुरुष मानते और अपने हृदयपर जिनकी छाप तनी हिन्दुओंके लिए विलक्षण मालूम स्वीकार करते हैं, उन्हें उनके प्रश्नोंके उत्तरमें सुझाया हुए बिना न रहेंगे । अस्पृश्यता और था। वे तदनुसार श्रात्माको ही ईश्वर समझते हों। और छूनाछूतके 'अधर्म' को नष्ट कर देनेके इसलिए उनका ईश्वरविषयक शब्दप्रयोग उसी आत्मदृष्टि अथवा किसी नयविवक्षाको लिये हुए हो। परन्तु इन सब लिए तो उन्होने कमर ही कस रक्खी गातोंका निर्णय और स्पष्टीकरण स्वयं महात्माजीके द्वारा है। रहा वाश्रम, सो उसकी कठोरता ही हो सकता है और होना चाहिए। सम्पादक। और कट्टरताको भी उन्होंने बहुत कुछ For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जैनहितैषी। [भाग १५ कम कर दिया। संयमकी पालनामें जहाँ दुष्पाप्य और अलभ्य कोई बाधा न आती हो, वहाँ खाने पीने- दुधाप्य आर अलभ्य में वे धर्मभ्रष्ट होना नहीं मानते । एक वर्ण जैन ग्रन्थ । की विविध जातियोंके बीच बेटी-व्यवहार होना भी उनकी समझमें बुरा नहीं है। २३ द्विसन्धान काव्यकी टीकाएँ। निदान उनके विचारोंका सार सोमदेव सत्कविशिरोमणि विद्वद्रत धनञ्जयसरिके शब्दोंमें यही हो सकता है कि का बनाया हुआ 'द्विसन्धान' नामका "जिनके करनेसे व्रत या संयमका घात एक सप्रसिद्ध महाकाव्य ग्रन्थ है। अपने न होता हो और विश्वासमें अन्तर न साहित्य तथा काव्यकी दृष्टिसे यह ग्रन्थ प्राता हो, वे सब लौकिक विधियाँ हमको बड़े ही महत्त्वका और उच्च कोटिका माननीय हैं।" प्राचीन ग्रन्थरत्न है। इसका दूसरा नाम हमारी समझमें गान्धीजीका हिन्दू 'राघवपाण्डवीय' भी है। इसमें रचनाधर्म एक संस्कार किया हुआ हिन्दूधमे कौशलके द्वारा श्रीरामचन्द्र और पाण्डव है। उसे उन्होंने अपनी परम शान्त, दोनोंकी कथाओका सम्मेलन किया गया निष्पक्ष और अहिंसक वृत्तिके अनुकूल है-एक ही शब्द-रचना परसे दोनों संस्कृत कर लिया है और उस संस्कार- कथाओंका अर्थावबोध होता है। एक में उनके जीवन पर जैनधर्मका जो प्रभाव प्रकारसे अर्थ करने पर यह ग्रन्थ 'रामापड़ा है, उसकी छाया स्पष्टतया लक्षित यण' मालूम होता है और दूसरे प्रकारसे होती है। इसी कारण वे जैनधर्मको अर्थ करने पर इसमें 'महाभारत' का हिन्दूधर्मसे जुदा नहीं समझते । उन्होंने आनन्द आने लगता है। यही इस ग्रन्थअहमदाबादमें महावीर जयन्तीके अव में सबसे बड़ी खूबी है और इसीसे सर पर यह कहा भी था कि "जो सञ्चा इसका सार्थक नाम 'द्विसन्धान' रक्खा द्विन्ट है वह जैन है: और जो सञ्चा जैन गया है। ऐसे महत्वके ग्रन्थकी जितनी है वह हिन्दू है।" अच्छी और विस्तृत टीका उपलब्ध हो, ____ कोई माने या न माने और समझे उतना ही अच्छा है। अभीतक इस ग्रन्थ या न समझे, परन्तु महात्मा गान्धीके पर हमें दो संस्कृत टीकाएँ उपलब्ध हुई उपदेशों और प्रभावने अलक्षित रूपसे हैं। एक टीका श्रीनेमिचन्द्रकी बनाई हुई जैनधर्मका असीम उपकार किया है; और है जिसका नाम 'पदकौमुदी' है। यह उन नवयुवकोके विचारोंमें तो आश्चर्य- टीका पाराके जैनसिद्धान्त भवनमें मौजद जनक परिवर्तन कर दिया है जो जैन- है। इसकी पत्रसंख्या २५३ और श्लोकधर्मके अहिंसा-तत्त्वको भारतका गारत संख्या प्रायः नौ हज़ार है । टीकाके करनेवाला बहुत प्रधान कारण समझ मङ्गलाचरणका प्रथम पद्य इस प्रकार है:रहे थे । अहिंसामें भी कोई महती शक्ति श्रीमान् शिवानन्दनयीशवन्धो है और वह ऐसी शक्ति है जिसके आगे एक बड़े भारी साम्राज्यकी शक्ति भी भूयाद्विभूत्यै मुनिसुव्रतो वः । तुच्छ है । यह उन्हींके आन्दोलनने ___ सद्धर्मसंभूति नरेन्द्र पूज्यो | विश्वास कराया है। भिन्नेन्द्रनीलोल्लसदंग कान्तिः ॥१॥ नाथूराम प्रेमी। यह टीका जिन नेमिचन्द्रकी बनाई For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५] दुष्प्राप्य और अलभ्य जैनग्रन्थ। १५३ . हुई है वे 'देवनन्दी के शिष्य और 'विनय- सभंगाभंगश्लेषप्रधानतया कथा द्वयचन्द्र' के प्रशिष्य थे, ऐसा उक्त मङ्गला- वर्णकस्य तस्य चास्य महाकाव्यस्य टीकाचरणके पद्यों और सन्धियों परसे पाया पि विनयचन्द्रान्तेवासि (?) नेमिचन्द्रेण जाता है। साथ ही यह भी मालूम होता महती वृत्तासीत् । तस्याश्चातीव विस्तृत. है कि 'त्रैलोक्यरीति' भी उनके कोई गुरु त्वात्ततः सारमुद्धृत्य श्रीबदरीनाथेनेव अथवा समकालीन विद्वान् थे । यथाजीयान्मृगेन्द्रो विनयेन्दुनामा सकलसुमनोभूषितेन दाधीच जयपुर ___ संवित्सदाराजित कंठपीठः । संस्कृतपाठशालाध्यापक विद्वद्वर बदरीनाथे नेयं सुधारूपा प्रकाशिता। प्रक्षीववादीभकपोलभित्तिं । ___ऐसी हालतमें नेमिचन्द्रकी उक्त प्रमाक्षरैः स्वैर्नखरैर्विदार्य ।।२।। विस्तृत टीकाके उद्धारकी बड़ी ज़रूरत तस्याथ शिष्योऽजनि देवनन्दी है । वह ज़रूर माणिकचन्द्र ग्रन्थमालामें सद्ब्रह्मचयव्रत दवनन्दा । . प्रकाशित हो जानी चाहिए, जिससे पदाम्बुज द्वन्द्वमनिन्द्यमर्य विद्वान् लोग उसकी विशेषताओंसे लाभ . ___ तस्योत्तमांगेन नमस्करोमि ॥३॥ उठा सके और एक विद्वानकी अच्छी . त्रैलोक्यकीर्तेश्चरणारविन्द कृति सुरक्षित हो जाय । पारे नयार्णोदाध सम्प्रणम्य । दूसरी टीका .. पिपासतां राघवपाण्डवीयां टीकां करिष्ये पदकौमुदीं तां ॥४॥ कवि 'देवर' की बनाई हुई है, जिसे "इति निरवद्यविद्यामण्डनमण्डित- की प्रेरणासे रचा था, जैसा कि उसके उन्होंने 'अरलु' नामके एक प्रधान सेठपण्डितमण्डलीडितस्य षट्तकंचक्रवर्तिनः प्रत्येक सर्गके अन्तमें दिये हुए निम्न श्रीमद्विनयचन्द्रपण्डितस्य गुरोरन्तेवासिनो वाक्यसे प्रकट है:- . देवनन्दिनाम्नः शिष्येण सकलकलोद्भव. __ अकारयदिमां टीकामरलुः श्रेष्ठिपुंगवः । चारुचातुरीचन्द्रिकाचकोरेण नेमिचन्द्रेण अकरोदमृताशिष्ट वचनः कविदेवरः ।। विरचितायां द्विसन्धानकवेर्धनञ्जयस्य इस टीकाका नाम 'राघवपांडवीय राघवपाण्डवीयाभिधानस्य महाकाव्यस्य प्रकाशिका' है और यह भी पाराके जैनपदकौमुदी नामदधानायां टीकायां नाय. सिद्धान्त भवनमें मौजूद है। परन्तु यह काभ्युदयरावणजरासन्धवधवर्णनं नामा- टीका ताड़पत्रोंपर कर्णाटकी अक्षरों में है ष्टादशः सर्गः ॥ और इसकी अवस्था अत्यन्त जीर्णशीर्ण २५ वर्ष हुए, सन १८६५ में, बम्बईके है, ऐसा हमें पं० शान्तिराजजीके पत्रसे निर्णयसागर प्रेसने, अपनी काव्यमालामें मालूम हुआ है। सूची में इसकी पत्रसंख्या 'द्विसंधान' को प्रकाशित किया था। ५२ और श्लोक-संख्या १२०० दी है। कवि उसके साथ पं० बदरीनाथ (अजैन) की देवरने टीकाके शुरूमें अमरकीर्ति, सिंहबनाई हुई जो टीका लगी हुई है, वह इसी नन्दि, धर्मभूषण,श्रीवर्धदेव, भट्टारक मुनि, पदकौमुदी नामकी विस्तृत टीकाका सार इन प्राचार्योका स्मरण तथा स्तवन किया लेकर बनाई गई है, जैसा कि उसकी है; और इसके बाद अरलु सेठका तथा भूमिकाके निम्न वाक्योंसे प्रकट है:- अपना कुछ परिचय दिया है। अरलु सेठ For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १५४ ... जैनहितैषी। भाग १५ के परिचयमें उन्हें कर्णाटक देशनिवासी, ममास्मिन्वैस्मित्यं, यदयमरलुःश्रेष्ठितिलकः । 'कीर्ति' नामके पिता और 'गुम्मटा' कवीनां कल्पदुर्भवति महिलानां च मदनः॥ नामकी मातासे उत्पन्न, अर्हद्भक्त, श्रेष्ठि- गुणैयूंढस्तुंगः सुरभिरपिकात्या धवलया । तिलक, कवियों के लिये कल्पद्रुम, स्त्रियोंके कलावान् भद्रश्रीरनुतलमशोकश्च सरलः ॥ लिये कामदेव, महा गुणवान् , निर्मल तत्प्रियाय तनोतीमा टीकां हि कवि देवरः । कीर्तिसे शोभित, कलावान. अशोक और सरल प्रकट किया है । और अपना परि परवादिवरदृस्य रामभट्टस्य नन्दनः ॥" चय सिर्फ इतना ही दिया है कि अपनेको यह टीका भी माणिकचन्द्र-ग्रन्थमाला'रामभट्ट' का पुत्र बतलाया है जो कि में निकल जानी चाहिए। इसका नाम 'परवादि घरट्ट' थे, अर्थात् अपनी युक्तियों किसी दूसरे प्रसिद्ध भण्डारकी सूचीमें द्वारा अन्य वादियों को पीस डालनेवाले अभीतक हमारे देखने में नहीं आया। थे। इससे कवि देवरके पिता एक नैया- २४-औदार्यचिन्तामणि। , यिक विद्वान् थे, ऐसा पाया जाता है। . - 'औदार्यचिन्तामणि' नामका एक - मङ्गलाचरण और परिचयादि-विष ग्रन्थ श्रुतसागर सूरिका बनाया हुआ है। __यक वे पद्य इस प्रकार हैं: यह संस्कृतमें प्राकृत भाषाका व्याकरण "आरी (?) प्सितान्या रचयत्ववन्द्या ग्रन्थ है। श्रीहेमचन्द्र और त्रिविक्रमके न्याराधकानामयमादि देवः । प्राकृत व्याकरणोंसे यह व्याकरण बड़ा आरात्रिकायन्त यदीश्वराया है और अधिक व्याख्याको लिये हुए है। इसमें छः अध्याय हैं। प्रत्येक अध्यायके ___ मास्थायिकायाममरेन्द्रनट्यः ॥१॥ शुरू और अन्तमें मङ्गलाचरणादि-विषयक नरेन्द्रार्चितपादाय नमोस्त्वमरकीर्तये ।। . जो पद्य इस ग्रन्थमें दिये हैं, उनमेंसे यस्तपःशिखिभीतेव ययौ कीर्तिः सुरापगांil ऐतिहासिक तत्त्वको लिये हुए कुछ पद्य सिंहनन्दिमुनीन्द्रस्य स्मरामि पदयो संम्। इस प्रकार हैं:श्रीः स्पर्धयेव दासीत्वं श्रायिता यत्तपः श्रिया॥ अथ प्रणम्य सर्व विद्यानन्द्यास्पदप्रदम् । धर्मभूषणदेवस्य दधे चरण रेखया । पूज्यपाद प्रवक्ष्यामि प्राकृत व्याकृति सतां ।। रत्नत्रयनिधानाप्ररोचमान लिपिच्छविः ॥ श्रीपूज्यपादसूरिविद्यानन्दी समन्तभद्रगुरुः। जिगाय भुवनं येन तेनैव धनुषास्मरः । श्रीमदकलंकदेवो जिनदेवो मंगलं दिशतु ।। जितः श्रीवर्धदेवेन चकार तृणचुम्बितां(?)। श्रीकुन्द कुन्दसूरेविद्यानन्दिप्रभोश्च पदकंजम्! भट्टारकमुनेः पादावपूवकमले स्तुमः । न त्वा च पूज्यपादं संयुक्तमतः परं वक्ष्ये ॥ यदने मुकुली भावं यांति राजकराः परं ॥ श्रीपूज्यपादमकलंक समन्तभद्र आसीत्कर्णाटभूमध्यमध्यासीनो वणिग्वरः। श्रीकुन्दकुन्दजिनचन्द्रविशाखसंज्ञाः । मूर्तेव जिनधर्मस्य कीर्तिः कीर्तिसमाह्वयः ॥ श्रीमाधनन्दिशिवकोटि शिवायनाख्या, तस्य जाया जयासत्यं मात्राधिक्यमनीषिणे(?) विद्यादिनन्दि गुरवः शम मीदिशंतु ।। गुम्मटेति भुविख्याता नामतश्चार्थतश्च या।। श्रीसर्वज्ञमदोषं तदुक्तवचनानि नन्दयन् विदुषां वृन्दं तयोरजनिनन्दनः। निखिलसुखभवनं । अर्हत्सलीन चित्तत्वादरनष्ठिसंज्ञया । नत्वा विद्यानन्दं स्वाद्यध्यायं प्ररचयामि ।। For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अङ्क ५ ] विद्याविरोधं नोधनिधिसाधुनिरस्तवादः श्रीमानुमाप्रभुरनन्तर पूज्यपादः । शं वो ददातु सदयः शुभदानदक्षो विद्यादिनन्दिगुरुरात्मविदां मुमुक्षुः ॥ समन्तभद्रैरपि पूज्यपादै कलंकमुक्तैर कलंकदेवैः । सेठ चिरंजीलालजीका दान । यदुक्तम प्राकृतमर्थसारं तत्प्राकृतं च श्रुदसागरेण || प्रत्येक अध्यायके अन्त में जो सन्धि दी है वह इस प्रकारकी है : “इत्युभयभाषाकविचक्रवर्ति-व्याक रणकमलमार्तंड-तार्किक बुधशिरोमणि पर मागमप्रवीण- सूरि श्रीदेवेन्द्र कीर्तिप्रशिष्य मुमुक्षुश्रीविद्यानन्दिप्रिय शिष्य श्रीमूल संघपरमात्मविदुष-सूरि श्रीश्रुतसागर विरचिते, औदार्यचिन्तामणि नाम्नि (स्वोपज्ञवृत्तिनि) प्राकृत व्याकरणे' יין: १५५ सुनिश्चित समय विक्रमकी १६वीं शताब्दी है । उनका यह व्याकरण यशस्तिलककी टीकासे पहले बन चुका था । हमारी रायमें यह ग्रन्थ १६ वीं शताब्दी के मध्य भागका बना हुआ है । यह ग्रन्थ बङ्गाल - की एशियाटिक सोसायटीकी लाइब्रेरीमें मौजूद है। दूसरे किसी प्रसिद्ध भण्डार की सूची में इस ग्रन्थका नाम अभीतक हमारे देखनेमें नहीं श्राया । इस ग्रन्थका भी उद्धार होनेकी बड़ी ज़रूरत है। यह भी माणिकचन्द्र-ग्रन्थमाला में प्रकाशित होना चाहिए जिसमें प्राकृत भाषा के शिक्षण में अच्छी सहायता मिल सके। इसकी जो प्रति उक्त लाइब्रेरीमें मौजूद है उसके छठे अध्यायका अन्तिम भाग कुछ खण्डित है । इस लिए और जहाँ कहीं के भण्डार में यह ग्रन्थ मौजूद हो. वहाँके भाइयोंको उसकी सूचना देनी चाहिए ।* इस परिचयसे स्पष्ट है कि इस ग्रन्थके कर्त्ता वे ही श्रुतसागर हैं जो पट् सेठ चिरंजीलालजीका दान । प्राभृत, तत्त्वार्थसूत्र और यशस्तिलक चम्पू नामक ग्रन्थोंकी टीकाओंके कर्त्ता हैं; क्योंकि इन टीका ग्रन्थोंमें इनके कर्त्ता श्रुतसागरका भी ऐसा ही परिचय पाया जाता है। बल्कि यशस्तिलककी टीकामें 'प्राकृत व्याकरणाद्यनेक शास्त्ररचनाचंचुना' इस विशेषणके द्वारा यह साफ़ तौर से उल्लेख भी किया गया है कि आपने प्राकृत व्याकरण श्रादि अनेक शास्त्रोंकी रचना की है। श्रुतसागर मल्लिभूषण के गुरुभाई और मल्लिभूषण के प्रशिष्य ब्रह्मनेमिदत्तके समकालीन विद्वान् थे । ब्रह्मनेमिदत्त ने श्रीपालचरित्र नामका एक ग्रन्थ वि० सं० १५८५ में बनाकर समाप्त किया है; और इस ग्रन्थके एक उल्लेख से ऐसा मालूम होता है कि श्रुतसागर उस समय मौजूद थे । इसलिए श्रुतसागरका पं० उदयलालजीके विवाह के समय वर्धानिवासी सेठ चिरंजीलालजी बड़जात्याने १०० ) का दान इस उद्देश्यसे दिया था कि उन रुपयोंके द्वारा स्त्रीसमाजमें विदेशी वस्तु- बहिष्कार और असहकारका प्रचार किया जाय । खण्डेलवाल हितेच्छुके सम्पादक महाशयने इस विषय पर ७ पेजका एक 'गूढ़ गवेषणात्मक' लेख लिखनेका कष्ट उठाया है * औदार्य चिन्तामणि सम्बन्धी इस नोटके लिखने में हमें श्रीयुत एस० पी० वी० रङ्गनाथ स्वामी आर्यवर गुरु, विजगापट्टम के एक अँगरेजी लेखपर से बहुत कुछ सहायता मिली है, जिसके लिए हम उनके बहुत आभारी हैं। इस व्याकरणके प्रथम तीन अध्यायोंका सूत्रपाठ भी हमें छपा हुआ मिला है। परन्तु उसे कहाँ और किसने छपाया है, यह मालूम नहीं हुआ । सम्भव है कि उक्त रङ्गनाथस्वामीका हो वह पाया हुआ हो । सम्पादक । For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ और उसमें अनेक अनुमान प्रमाणोंसे यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि नहीं, उक्त रुपये विधवा-विवाह के प्रचारके लिये दिये गये हैं । इस लेख में हमपर यह इलाज़म लगाया है कि सेठ चिरंजीलालजी हमारे मित्र हैं और इस कारण हमने उन्हें श्रापत्ति से बचानेके लिये झूठमूठ ही उनके दानके उद्देश्यको बदल दिया है । परन्तु सम्पादक महाशयके इस लेख का कोई मूल्य नहीं है । क्योंकि वे स्वयं तो वहाँ उपस्थित न थे जो उनकी देखी सुनी बात पर कुछ विश्वास किया जय । रहे उनके अनुमान प्रमाण, सो वे एक सत्य बातको सत्य सिद्ध करनेके लिए लिखे गये हैं । उनके द्वारा तर्कपद्धतिका केवल दुरुपयोग किया है। मैं स्वयं उक्त विवाहमें उपस्थित था और वक्ता बहुत ही निकट था । श्रतएव मुझे उक्त असत्य अनुमान प्रमाणोंके वाग्जाल में फँसने की आवश्यकता नहीं । मैं फिर भी जैनहितैषीमें प्रकाशित समाचारको दुहराता हूँ कि चिरंजीलालजीका दान स्त्रीसमाजमें विदेशी वस्तु- बहिष्कार और असहयोग प्रचारके लिए ही दिया गया है । इसके सम्बन्धमें बम्बई के और भी अनेक जैन, श्रजैन प्रतिष्ठित सज्जन - जैनहितैषी । वहाँ उपस्थित थे - साक्षी दे सकते हैं; और उनकी साक्षी उन लोगोंके वचनों से निस्सन्देह बहुमूल्य है जिन्होंने सम्पादक महाशयको उक्त समाचार सुनाया और जो विवाह में शामिल तो हुए थे उत्साहसे, परन्तु पंचायतके डरके मारे जिन्होंने अपना नाम तमाशगीरों में लिखा देनेमें ही कुशल समझी थी ! साँझ वर्तमान में और उसके आधारसे दैनिक हिन्दुस्थानमें विवाहका जो समाचार प्रकाशित हुआ है, उसमें भी यह नहीं लिखा है कि उक्त दान विधवा [ भाग १५ विवाह के प्रचारके लिए दिया गया है । उसमें केवल यही प्रकाशित हुआ है कि इससे स्त्रीसमाजकी उन्नतिके लिए स्त्रीउपदेशिकाएँ तैयार की जायँगी । बात यह है कि उस समय सेठीजीका जो व्याख्यान हुआ था, उसमें उन्होंने यह भी कहा था कि एक ऐसी संस्थाकी बहुत श्रवश्यकता है जिससे स्त्रीसमाजकी उन्नति के लिए कुछ उपदेशिकाएँ तैयार की जायें। जान पड़ता है, रिपोर्टरने इसी बातको आगे पीछे करके उसका सम्बन्ध दानके साथ जोड़ दिया है । रिपोर्टर ने सेठीजीका जितना व्याख्यान लिखा है, उससे वह अधिक नहीं तो आठ दस गुणा श्रवश्य बड़ा था । उसमें उन्होंने अनेक विषयोंकी चर्चा की थी । राजनैतिक चर्चा तो उनके स्वभाव में ही दाखिल हो गई है । उनका चाहे जो व्याख्यान सुन लीजिये, उसमें राजनीतिक चर्चा श्राये बिना नहीं रहती । अतः उस दिन भी उन्होंने असहकार और विदेशी वस्तु - बहिष्कार के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा था । हिन्दुस्थानकी जरा सी रिपोर्ट परसे यह निर्णय कर लेना कि असहकार - की चर्चाका वहाँ कोई प्रसंग ही नहीं था, बड़े भारी साहसका काम है । क्या हितेच्छुके सम्पादक महाशय यह समझते हैं कि दैनिक पत्रोंके रिपोर्टर ऐसी सभाओं की रिपोर्टें अक्षरशः लिखा करते हैं ? उन्हें यहाँके किसी पत्रके रिपोर्टर के साथ कुछ दिनों घूमकर अपनी इस भद्दी भूलको सुधार लेना चाहिए । सम्पादक महाशयने 'असहकार ' शब्द के लिखने में मेरा हृद्रत अभिप्राय क्या था, उसे बतलाने में अपना अपूर्व शब्दपाण्डित्य प्रकट किया है और लिखा है कि मैंने इस शब्द के लिखनेमें चालाकीले काम लिया है। वास्तव में मेरा अभिप्राय For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५] सेठ चिरंजीलालजीका दान। १५७ यह है कि विधवाएँ अपने संरक्षकोंके में कह देना चाहिए कि मैं विधवा-विवाहसाथ असकार करें, उनकी श्राज्ञासे न के साथ सहानुभूति रखता हूँ और उसका रहे,श्रादि । पण्डितजीके उपजाऊ मस्तक. प्रचार चाहता हूँ। उन्हें इस वाग्वितण्डाकी इस नई ईजादकी जितनी प्रशंसा की में पड़ना ही न चाहिए कि वह रुपया जाय, थोड़ी है । सुसंस्कृत मस्तकोंको अमुक कार्य के लिए दिया गया है और ही ऐसी बातें सूझ सकती हैं, मेरे जैसे अमुकके लिए नहीं। यदि उनकी इस अपण्डितोकी पहुँच इतनी दूर तक कहाँ वाचनिक सहानुभूतिको भी खण्डेलवाल हो सकती है ! पंचायत अपराध समझती है तो समझे; ____सेठ चिरंजीलालजीने जब एक पर उन्हें अपने हृदयको सबके सामने विधवा-विवाहके अवसर पर उक्त दान खोलकर रख देना चाहिए। यदि खण्डेलकिया है, तब यह स्पष्ट है कि वे विधवा- वाल जातिमें कुछ सोचने समझनेकी विवाहसे सहानुभूति रखते हैं; और यह शक्ति बाकी होगी और उसे जातिके सहानुभूति ही उन्हें दण्डित करनेके लिए वास्तविक कल्याणकी इच्छा होगी तो काफ़ी है । दान चाहे असहकारके प्रचार. वह केवल विचारोंके कारण जाति-च्युत के लिए किया गया हो और चाहे विधवा- करनेकी मूर्खता न करेगी । और यदि वह विवाहके पोषणके लिए, दोनों ही ऐसा करे, मनुष्यकी जन्मसिद्ध विचारहालतोंमें वे विधवा-विवाहके पोषक स्वाधीनता पर भी हमला करने में प्रागा- . सिद्ध होते हैं। फिर समझमें नहीं आता पीछा न करे, तो हमारी समझमें मनुष्यताकि मेरे लिखनेसे सेठ चिरंजीलालजी का अपमान करनेवाली ऐसी जातिको ही पंचायती आपत्तिसे कैसे बच जाते। दूरसे नमस्कार कर लेना अच्छा है। और जब मैं झूठ लिखकर भी उन्हें थोड़ी देरके लिए मान लीजिये कि विधवा-विवाहके अनुयायी बननेसे न सेठजीने उक्त दान विधवा-विवाहके बचा सका, तो मैंने वह झूठ लिखा ही प्रचारके लिए ही दिया था। परन्तु जब क्यों ? इसके सिवा यह भी समझना वे स्वयं उससे इन्कार करते हैं और कठिन है कि सम्पादक महाशय इस इन्कार करके एक तरहसे अपनी जातिके विषयको लेकर इतना अकाण्ड-ताण्डव अधीन रहना स्वीकर करते हैं, तब क्या क्यों कर रहे हैं। विधवाविवाहके समयके खण्डेलवाल पंचायत इतनेसे सन्तुष्ट नहीं दानमात्रसे भी तो वर्धाकी पंचायती हो सकती ? क्या उसे तभी चैन मिलेगा, उन्हें दण्डित करनेके लिए दबाई जा जब इस व्यर्थके वितण्डासे तङ्ग आकर सकती है; और इसीके लिए उनका यह एक उत्साही और कार्यतत्पर पुरुष खुले सब उद्योग मालूम होता है। उन्हें यह भी तौर पर उसकी मर्यादाके बन्धनको तोड़सोचना चाहिए कि जब मैं स्वयं अपने । महापर आनेवाली आपत्तियोंसे सभाके सूत्रधार इसी नीतिसे अपनी हूँ, तब चिरंजीलालजीके लिए क्यों डरने जातिका कल्याण करना चाहते हैं ? देशलगा ? इसके विरुद्ध मेरा तो यही चाहना की नौकरशाहीके समान क्या निग्रह और अधिक स्वाभाविक है कि वे विधवा- दमनको ही वे अपने शासनमें प्रतिष्ठित विवाहके खुल्लमखुल्ला अनुयायी बन जायँ। करनेकी इच्छा करते हैं ? नाथूराम प्रेमी। मेरी समझमें तो अब भी उन्हें स्पष्ट शब्दों अपने कर फेंक देगा?क्या खराडेल For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जैनहितैषी। [ भाग १५ । - घटा ! देवेन्द्रकी प्यारी मूर्ति सामने आ . देवन्द्र-वियाग! आकर अदृश्य हुई जाती है ! उसके गुणोंअाज हमें अपने पाठकोपर यह के चिन्तवनसे हृदय विदीर्ण होता है दुःसमाचार प्रकट करते हुए अत्यन्त और छाती भर भर आती है ! ऐसे दुःख होता है कि, जैनसमाजका वह उत्साही, कार्यकुशल, धर्मात्मा और गुणबहुमूल्य रत्न, उसका वह सच्चा सेवक ग्राही नवयुवकका समाजसे एकदम उठ जो रात दिन समाजकी हितकामनासे जाना समाजके लिए निःसन्देह बड़े ही व्यग्र रहता था और उसके विपुल दुर्भाग्यकी बात है ! कुमार साहबका साहित्यका उद्धार तथा प्रचार करनेके यह देहावसान कलकत्तमें सेठ रामजीवन लिए सारे भारतवर्षमें दौडधूप किया फूलचन्दजी जैनके मकान पर हुश्रा है। करता था, जिसने जैनधर्मके अच्छे अच्छे उक्त फर्मके मालिकोंने शीतला रोगसे ग्रन्थोंको अंग्रेजी अनुवाद सहित प्रका- पीड़ित कुमार साहबकी उपचर्या में कोई शित करके उनके द्वारा विदेशोंमें भी बात उठा नहीं रक्खी । कलकत्तेके श्रच्छे जैनधर्मके प्रचारका बीड़ा उठाया था, अच्छे वैद्यों (कविराजों) से इलाज कराया जो आराके प्रेममन्दिरका पुजारी था गया और उसमें बहुत सा धन खर्च और जिसने अपने घरपर उक्त मन्दिरकी किया गया। परन्तु अफसोस ! श्राप स्थापना करके उसके द्वारा हिन्दीमें नई लोगोंकी यह सब सेवा कुछ भी काम न नई अच्छी पुस्तकोंका प्रकाशित करना आई और भावीके आगे सबको हार प्रारम्भ किया था, वह समाजका हितैषी, माननी पड़ी! कुमार साहबकी अवस्था देशका शुभचिन्तक, स्त्रीशिक्षाका अनन्य इस समय ३० वर्ष के लगभग थी। उनके भक्त, पुरातत्व और इतिहासका प्रेमी, इस असामयिक वियोगसे जैनसमाजको सौम्यमूर्ति कुमार देवेन्द्रसाद आज इस जो भारी क्षति पहुँची है वह अवर्णनीय संसारमें नहीं है ! फाल्गुण शुक्ला म्मी- है और उसे समाज सहजमें शीघ्र पूरा को सन्ध्याके समय निर्दय कालने उसे नहीं कर सकेगा। कुमार साहब अपनी अपने गालमें रख लिया; अथवा यो कहिये माताके इकलौते पुत्र थे, आपके पिताका कि प्रायः २१ दिनतक शीतलाके बहाने देहान्त बहुत पहले हो चुका था, आपके गालमें रखकर अन्तको उस दिन उसे कोई सन्तान नहीं है और आपकी नव चबा डाला और निगल लिया !!! हा! विवाहिता स्त्री एक १३-१४ वर्षकी देवेन्द्र कितना विनयी, परोपकारी, सरल निरी अबोध बालिका है, ये सब बातें प्रकृति और गुणी था, इस बातका उस आपके वियोगजन्य दुःखको और भी दुष्टको जरा भी खयाल नहीं आया; और उत्तरोत्तर बढ़ानेवाली हैं ! इस वियोगमें न उनकी उस नवविवाहिता स्त्रीपर ही दुःख और समवेदना प्रकट करनेके उसने तरस खाया जिसके विवाहको सिवाय समझमें नहीं पाता कि हम किस अभी १० महीने भी पूरे नहीं हुए थे और प्रकारसे आपकी वृद्धा माता और असजो बेचारी अच्छी तरहसे चार महीने हाया विधवाको धैर्य बँधावे अथवा भी अपने पत्तिके सङ्ग नहीं रह सकी! दिलासा दें । संसार और कमौकी हाय ! यह कैसी भयङ्कर दुर्घटना है ! गति बड़ी ही विचित्र है: कुछ भी कहते कैसा वज्रपात ! शोककी कैसी काली नहीं बनता : श्रीजैनधर्मके प्रतापसे इन For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५] पुस्तक-परिचय! १५६ अनाथ अबलाओंको धैर्य तथा शान्तिकी कोष्ठक* और साधारण अनुक्रमणिका प्राप्ति हो और कुमार साहबकी आत्मा लगाकर उसे विशेष उपयोगी बनाया. सद्गति पावे, यही हमारी आन्तरिक गया है । इसमें सन्देह नहीं कि पुस्तकके भावना है। तय्यार करने में बहुत कुछ परिश्रमसे काम लिया गया है, जिसके लिए बैरि स्टर साहब और ब्रह्मचारीजी दोनों पुस्तक-परिचय। धन्यवादके पात्र हैं। बैरिस्टर साहबकी इस कृतिसे अब अँग्रेजी संसारके लिए भी १-तत्वार्थसूत्र, अंग्रेजी अनुवाद तत्वार्थसूत्रका दर्वाजा खुल गया है । सहित। यह पुस्तक विद्यार्थियोंके विशेष कामकी है, और शायद ज्यादातर उन्हींको लक्ष्य प्राराकी 'दि सेक्रेड बुक्स आफ दि करके तय्यार भी की गई है । इसके शुरूजैन्स'-अर्थात् , जैनियोंके पवित्र ग्रन्थ' में पाँच पंजीकी एक, ऐतिहासिक प्रस्तानामकी ग्रन्थमालाका द्वितीय ग्रन्थ । वना भी दी हुई है जो बहुत साधारण प्रकाशक कुमार देवेन्द्रप्रसादजी पारा। है। अच्छा होता, यदि इस प्रस्तावनाके पृष्ठसंख्या सब मिलाकर २४० और मूल्य लिखने में कुछ विशेष परिश्रम और अनुकपड़ेकी जिल्द सहित, साढ़े चार रुपये। सन्धानसे काम लिया जाता । इसमें ___ यह श्री उमास्वाति आचार्यके सुप्र- कितनी ही बातें आपत्तिजनक भी हैं। सिद्ध तत्वार्थ सूत्रका अंग्रेजी अनुवाद एक स्थानपर यह बतलाया गया है कि है जिसे मिस्टर जे. एल० जैनी साहब ग्रन्थकर्ताका नाम दिगम्बरोंके अनुसार बैरिस्टरने ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीकी उमाखामी और श्वेताम्बरोंके अनुसार सहायतासे तय्यार किया है। यद्यपि इस 'उमास्वाति है। परन्तु यह बात इतिसारे अनुवादको देखनेका हमें अवसर हासकी दृष्टि से ठीक नहीं है। दिगम्बरोंनहीं मिला तो भी हमने जहाँतक देखा के अनुसार भी ग्रन्थकर्ताका नाम प्रायः है, उससे ऐसा मालूम होता है कि अनु- 'उमास्वाति' ही पाया जाता है-दिगवाद प्रायः अच्छा है और अच्छे ढंगसे म्बर सम्प्रदायके बीसियों प्राचीन शिला. किया गया है। सूत्रोंके अनुवादके बाद लेख इसी बातकी शिक्षा दे रहे हैं। कुछ बहुधा नोट्स और टीकासे पुस्तकको थोड़ेसे आधुनिक उल्लेख ऐसे जरूर हैं अलंकृत किया गया है। मूल सूत्रोंको जिनमें उमास्वामी नाम भी पाया जाता सबसे पहले देवनागरी अक्षरोंमें, और है। तत्वार्थ सूत्रके रचे जानेकी जो कथा उसके बाद अँग्रेजी अक्षरोंमें दिया है। दी है उसके सम्बन्धमें यह नहीं लिखा अनुवादादि करते समय खास खास कि वह कौनसे ग्रन्थसे अथवा कहाँसे शब्दोंको भी दोनों अक्षरोंमें जाहिर किया -------- है, जिससे वे लोग पूरा लाभ उठा सके * यह कोष्ठक वही है जो रायचन्द्र जैनशास्त्र-मालामें प्रकाशित 'सभाष्यतत्वार्थाधिगम सत्र' के साथ लगा हुभा जो 'देवनागरी' का एक अक्षर भी नहीं है। वहींसे उठाकर और उन्हीं देवनागरी अक्षरोंमें यह जानते । पुस्तकमें तत्वार्थसूत्रका सार, यहाँ ज्योंका त्यो रवखा गया है । ग्रन्थका विषयविभाग, दिगम्बर और + यथा-श्रीमानुमास्वातिरयं यतीशस्तत्वार्थ सूत्रं श्वेताम्बरानायके सूत्रपाठोंका भेदप्रदर्शक प्रकटीचकार----श्रवणवेल्गोस्थ शि० ले० नं० १०५ । For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। [भाग १५ ली गई है। जान पड़ता है, पं० कलाप्पा था, पं० नाथूरामजी प्रेमीने तत्वार्थाधि. निटवेने, सर्वार्थसिद्धिकी प्रस्तावनामें,जो गम भाष्यकी प्रस्तावनामें जो यह सूचित कथा कर्णाटक भाषाकी टीकाके हवालेसे किया था कि 'श्रीविद्यानन्द स्वामी वि० दी है और जिसे पं० नाथूरामजी प्रेमीने. सं० ६८१ के लगभग हुए हैं। और 'महातत्वार्थाधिगमकीभाष्य अपनी प्रस्तावनामें वीर संवत् ५०० के अनुमान श्रीसिद्धसेन दिया था, उसीको कुछ शब्दोंके परिवर्तन- दिवाकरका स्वर्गवास हुआ था', उसीको के साथ यहाँ उक्त प्रस्तावना परसे अनु- बैरिस्टर साहबने उक्त रूपसे अनुवादित वादित कर दिया है । परन्तु निटवे कर दिया है ! किसी संवत्के लगभग साहबने उक्त कथाको देते समय यह होनेको आपने उस संवत्में ही पैदा लिख दिया था कि इ समय उस होन होना और अनुमानसे किसी सब पस्तकका अभाव होनेसे, जैसा हमको करीबकी मृत्युको उस खास संवतमें ही याद है, उसके अनुसार हम कथाको मृत्युका होना समझ लिया है! उदाहृत करते हैं।। और इसके अनुसार इस पुस्तकके तैयार करने में तत्त्वाथ ही उनके कहनेका वजन था। परन्तु सूत्रादिके हिन्दी संस्करणोंपरसे बहुत बैरिस्टर साहबने ऐसा कुछ भी नहीं कुछ सहायता ली गई है। पुस्तकका किया जिससे वह कथा सचमुच ही कितना ही भाग हिन्दीपरसे अनुवादित किसी ग्रन्थमें कही हुई समझी जाती है। है; और कुछ भाग ऐसा भी है जो ज्योंका वास्तवमें उक्त कथा कर्णाटक टीकामें दी त्यों उठाकर रक्खा गया है। जैसे कि हुई कथासे बहुत कुछ भिन्न है जैसा कि दिगम्बर और श्वेताम्बरानायके सूत्रहमने 'पुरानी बातोकी खोज' नामके पाठोंका भेदप्रदर्शक कोष्ठक, जो रामचन्द्रलेखमें 'तत्वार्थसूत्रकी उत्पत्ति' शीर्षक जैनशास्त्रमालामें प्रकाशित सभाष्यतत्त्वानोटके द्वारा सूचित किया है। । खेद है र्थाधिगमसूत्रके (हिन्दी) संस्करणपरसे कि इसी तरह पर गलतियाँ प्रचलित हो लिया गया है। परन्तु यह सब कुछ होते जाती हैं और अनेक प्रकारके भ्रम फैल हुए भी पुस्तकमें एक शब्दद्वारा भी किसीजाते हैं । तत्वार्थ सूत्रकी टीकाओंका का आभार प्रकट नहीं किया गया और परिचय देते हुए, एक स्थानपर लिखा है न उन पुस्तकों अथवा उनके लेखकोंका कि श्लोक वार्तिकके कर्ता 'श्रीविद्यानन्दी' नाम ही दिया है जिनसे इस पुस्तकके शक सं०६८१ में पैदा हुए थे और दूसरे प्रस्तुत करनेमें खास सहायता ली गई स्थानपर सिद्धसेन दिवाकरकी मृत्यु वीर है। बैरिस्टर साहबकी यह अनुदारता संवत् ५०० में बतलाई है। परन्तु इनके बहुत ही खटकती है। अच्छा होता, यदि लिए कोई प्रमाण नहीं दिया। इन दोनों वे उन पुस्तकादिकोंके, कमसे कम, नाम विद्वानोंके जन्म तथा मृत्युके ऐसे निश्चित दे देते। ऐसा करनेसे, हमारे ख़यालमें, संवत् अभीतक कहीं भी देखनेमें नहीं उनकी इस पुस्तकका गौरव जरा भी कम आये और न पबलिकमें प्रकट हुए । न होता, बल्कि उससे उलटा उनके सिरजान पड़ता है, आजसे १५ वर्ष पहले जब का भार बहुत कुछ हलका हो जाता । कि अनुसन्धान बहुत कुछ बाल्यावस्थामें प्रस्तु; पुस्तककी छपाई, सफाई, कागज * साम्प्रतं तत्पुस्तकाभावाद्यथास्मृतमत्रोदाहरिष्यामः। और जिल्द सब उत्तम है और वह पढ़ने * देखो जैनहितैषीका गनांक नं० ३.--४ पृष्ट ८० तथा संग्रह किये जानेके योग्य है। Jain Education lifternational For Personal & Private Use Only www.jainelibdry.org Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतके प्राचीन राजवंश । उत्तमोत्तम जैन ग्रन्थ । हिन्दी में इतिहासका एक अपूर्व ग्रन्थ । नीचे लिखी आलोचनात्मक पुस्तके इस देशमें पहले जो अनेक वंशोके बड़े विचारशीलोंको अवश्य पढ़नी चाहिएँ । बड़े प्रतापी, दानी और विद्याव्यवसनी राजा महाराज हो गये हैं उनके सच्चे साधारण बुद्धि के गतानुगतिक लोग इन्हें इतिहास हम लोग बिलकुल नहीं जानते। न मँगावें। बहुलोंके विषयमें हमने तो झूठी, ऊटपटांग १ ग्रंथपरीक्षा प्रथम भाग । इसकिम्वदन्तियाँ सुन रक्खी हैं और बहतोको में कुन्दकुन्द श्रावकाचार, उमास्वातिहम भूल ही गये हैं । इस ग्रन्थक्षत्रपवंश, श्रावकाचार और जिनसेन त्रिवर्णाचार इन हैहयवंश (कलचुरि) परमारवंश (जिसमें तीन ग्रन्थोंकी समालाचना है। अनेक राजा भोज, मुंज, सिन्धुल आदि हुए हैं), प्रमाणोंसे सिद्ध किया है कि ये असली चौहानवंश (जिसमें प्रसिद्ध महाराज H ' जैनग्रन्थ नहीं हैं-भेषियोंके बनाये हुए पृथ्वीराज हुए हैं ), सेनवंश और पाल- है । मूल्य ।) वंश तथा इन वंशोकी प्रायः सभी शाखा- २ ग्रंथपरीक्षा द्वितीय भाग । ओंके राजाओंका सिलसिलेवार और यह भद्रबाहुसंहिता नामक ग्रन्थकी सच्चा इतिहास प्रमाणों सहित संग्रह किया विस्तृत समालोचना है। इसमें बतलाया गया है। शिलालेखो, ताम्रपत्रो, ग्रन्थ- है कि यह परमपूज्य भद्रबाहु श्रृतकेवलीप्रशस्तियों, फारसी-अरबीकी तवारीखों का बनाया हश्रा ग्रन्थ नहीं है. किन्तु तथा अन्य अनेक साधनोंसे बड़े हो परि- ग्वालियरके किसी धूर्त भट्टारकने १६-१७ श्रमपूर्वक यह ग्रन्थ रचा गया है। प्रत्येक वीं शताब्दिमें इस जाली ग्रन्थको उनके इतिहासप्रेमीको इसकी एक पक प्रति नामसे बनाया है और इसमें जैनधर्मके . मँगाकर रखनी चाहिए। इसमें अनेक विरुद्ध सैंकड़ों बातें लिखी गई हैं। इन जैन विद्वानों तथा जैन धर्मप्रेमी राजाओंका दोनों पुस्तकों के लेखक श्रीयुक्त बाबू भी उल्लेख है । लगभग ४०० पृष्ठोका जुगुलकिशोरजी मुख्तार हैं । मूल्य ।) कपड़ेकी जिल्द सहित ग्रन्थ है। मूल्य ३) ३ दर्शनमार । प्राचार्य देवसेनका २० । आगेके भागों में गुप्त, राष्ट्रकूट आदि मल प्राकृत ग्रन्थ, संस्कृतच्छाया, हिन्दी घंशोके इतिहास निकलेंगे। अनुवाद और विस्तृत विवेचना। इतिनकली और असली धमात्मा। हासका एक महत्वका ग्रन्थ है। इसमें श्रीयुत बाबू सूरजभानुजी वकीलका श्वेताम्बर, यापनीय, काष्ठासंघ; माथुरलिखा हुआ सर्वसाधारोपयोगी सरल संघ, द्राविड़संघ श्राजीवक (अज्ञानमत) उपन्यास । ढोंगियोकी बड़ी पोल खोली और वैनेयिक आदि अनेक मतोकी उत्पत्ति गई है। मूल्य ॥) और उनका स्वरूप यतलाया गया है। नया सूचीपत्र। बड़ी खोज और परिश्रमसे इसकी रचना उत्तमोत्तम हिन्दी पुस्तकोंका ४२ हुई है। पृष्ठोंका नया सूचीपत्र छपकर तैयार है। आत्मानुशासन । पुस्तक-प्रेमियोको इसकी एक कापी मँगा भगवान् गुणभद्राचार्यका बनाया हुआ कर रखनी चाहिए। मैनेजर, यह ग्रन्थ प्रत्येक जनीके स्वाध्याय करने हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय, योग्य है । इसमें जैनधर्मके असली उद्देश्य हीराबाग, पो. गिरगाँव, बम्बई। शान्तिसुखकी ओर आकर्षित किया गया है । बहुत ही सुन्दर रचना है। आजकल. For Personal & Private Use Only www.jainelionergy Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Reg. No. A. की शुद्ध हिन्दीमे हमने न्यायतीर्थ न्याय के कथाग्रन्थों में इससे अच्छी और सुन्दर शास्त्री पं० वंशीधरजी शास्त्रीसे इसकी कविता श्रापको और कहीं न मिलेगी। टीका लिखवाई है और मूलसहित छप- विद्यार्थियों के लिये भी बहुत उपयोगी है। वाया है / जो जैनधर्मके जाननेकी इच्छा शास्त्रसभात्रों में बाँचने के योग्य है। बहुत रखते हैं, उन अजैन मित्रोंको भेटमें देने सुन्दरतासे छपा है / मूल्य सिर्फ 1) रु.। योग्य भी यह ग्रन्थ है। मूल्य 2) कथामें जैनसिद्धान्त। युक्त्यनुशासन सटीक। __एक मनोरंजक कथाके द्वारा जैनधर्ममाणिकचन्द्र-जैनग्रन्थमालाका 15 वाँ की गूढ़ कर्म-फिलासफीको सरलताले ग्रन्थ छपकर तैयार हो गया। इसके मूल समझना हो और एक बढ़िया काव्यका कर्ता भगवान् समन्तभद्र और संस्कृत आनन्द लेना हो तो श्राचार्य सिद्धर्षिको टीकाके कर्ता प्राचार्य विधानन्दि हैं / यह बनाये हुए 'उपमितिभवप्रपचाकथा' भी देवागमकी भाँति स्तुत्यात्मक है और नामक संस्कृत ग्रन्थके हिन्दी अनुवादको युक्तियोंका भाएडार है / अभी तक यह अवश्य पढ़िये। अनुवादक श्रीयुत नाथूराम . ग्रन्थ दर्लभ था। प्रत्येक भण्डारमे इसका प्रेमी / मल्य प्रथम भागका।।)ीर द्वितीय एक एक प्रति अवश्य रहनी चाहिए मू.॥) भागका / -) जैन साहित्यमें अपने ढंगका नियमसार। यही एक ग्रन्थ है। भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यका यह बिलकुल संस्कृत ग्रंथ / / ही अप्रसिद्ध ग्रन्थ है। लोग इसका नाम 1 जीवन्धर चम्बू-कवि हरिचन्द्रकृत। / ) भी नहीं जानते थे। बड़ी मुश्किलसे प्राप्त 2 गद्यचिन्तामणि-वादीभसिंहकृत / 2) करके यह छपाया गया है / नाटक समय ३जीवन्धरचरित-गुणभद्राचार्यकृत / 1) सार श्रादिके समान ही इसका भी प्रचार होना चाहिए / मूल प्राकृत, संस्कृतच्छाया, ४.क्षत्रचूड़ामणि-वादीभसिंहकृत। मू०१) 5 यशोधरचरित-वादिराजकृत। मू०॥) आचार्य पद्मप्रभमलधारि देवकी संस्कृत टीका और श्रीयुत शीतल प्रसादजी ब्रह्म चरचा समाधान / पं० भूधर मिश्र कृत। भाषाका नया ग्रन्थ / हालहीमें छपा चारीकृत सरल भाषाटीकासहित यह . है। मूल्य 2 // -) छपाया गया है। अध्यात्मप्रेमियोंको अवश्य मैनेजर, जैन ग्रथरताका कार्यालय, स्वाध्याय करना चाहिए / मूल्य 2) दो रु.। नयचक्र संग्रह। हीराबाग, पा० गिरगाँव बम्बई / यह उक्त ग्रन्थमालाका 16 वाँ ग्रन्थ बम्बईका माल / है। इसमें देवसेनसूरिकृत प्राकृत नयचक्र बम्बईका सब तरहका माल-कपड़ा, (संस्कृतच्छायासहित) और श्रालाप किराना, स्टेशनरी, पीतल, ताँबा, दवापद्धति तथा माइल धवलक्रत द्रव्यस्वभा. इयाँ, तेल, सावुन आदि-हमसे मंगाइये। वप्रकाश (छायासहित ) ये तीन ग्रन्थ माल दस जगह जाँचकर बहुत सावधानी छपे हैं / भूमिका पढ़ने योग्य है। तैयार और ईमानदारीके साथ भेजा जाता है। हो गया / मूल्य // 4) चौथाई रुपये के लगभग पेशगी भेजना चाहिए / एक बार व्यवहार करके देखिये। ण भाषा। कविवर भूधरदासजीका यह अपूर्व नन्हे हाल हेमचंद जैन, ग्रन्थ दूसरी बार छपाया गया है। इसकी कमीशन एजेण्ट, कविता बड़ी ही मनोहारिणी है। जैनियों- चन्दाबाड़ी, पो० गिरगाँव, बम्बई / Printed & Published by G.K. Gurjar at Sri Lakshini Narayan Press, Jatanbar, Benares City, for the Proprietor Nat 11 au Premi of Bombay 114-21. For Personal & Private Use Only