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________________ जैनहितैषी। [भाग १५ ली गई है। जान पड़ता है, पं० कलाप्पा था, पं० नाथूरामजी प्रेमीने तत्वार्थाधि. निटवेने, सर्वार्थसिद्धिकी प्रस्तावनामें,जो गम भाष्यकी प्रस्तावनामें जो यह सूचित कथा कर्णाटक भाषाकी टीकाके हवालेसे किया था कि 'श्रीविद्यानन्द स्वामी वि० दी है और जिसे पं० नाथूरामजी प्रेमीने. सं० ६८१ के लगभग हुए हैं। और 'महातत्वार्थाधिगमकीभाष्य अपनी प्रस्तावनामें वीर संवत् ५०० के अनुमान श्रीसिद्धसेन दिया था, उसीको कुछ शब्दोंके परिवर्तन- दिवाकरका स्वर्गवास हुआ था', उसीको के साथ यहाँ उक्त प्रस्तावना परसे अनु- बैरिस्टर साहबने उक्त रूपसे अनुवादित वादित कर दिया है । परन्तु निटवे कर दिया है ! किसी संवत्के लगभग साहबने उक्त कथाको देते समय यह होनेको आपने उस संवत्में ही पैदा लिख दिया था कि इ समय उस होन होना और अनुमानसे किसी सब पस्तकका अभाव होनेसे, जैसा हमको करीबकी मृत्युको उस खास संवतमें ही याद है, उसके अनुसार हम कथाको मृत्युका होना समझ लिया है! उदाहृत करते हैं।। और इसके अनुसार इस पुस्तकके तैयार करने में तत्त्वाथ ही उनके कहनेका वजन था। परन्तु सूत्रादिके हिन्दी संस्करणोंपरसे बहुत बैरिस्टर साहबने ऐसा कुछ भी नहीं कुछ सहायता ली गई है। पुस्तकका किया जिससे वह कथा सचमुच ही कितना ही भाग हिन्दीपरसे अनुवादित किसी ग्रन्थमें कही हुई समझी जाती है। है; और कुछ भाग ऐसा भी है जो ज्योंका वास्तवमें उक्त कथा कर्णाटक टीकामें दी त्यों उठाकर रक्खा गया है। जैसे कि हुई कथासे बहुत कुछ भिन्न है जैसा कि दिगम्बर और श्वेताम्बरानायके सूत्रहमने 'पुरानी बातोकी खोज' नामके पाठोंका भेदप्रदर्शक कोष्ठक, जो रामचन्द्रलेखमें 'तत्वार्थसूत्रकी उत्पत्ति' शीर्षक जैनशास्त्रमालामें प्रकाशित सभाष्यतत्त्वानोटके द्वारा सूचित किया है। । खेद है र्थाधिगमसूत्रके (हिन्दी) संस्करणपरसे कि इसी तरह पर गलतियाँ प्रचलित हो लिया गया है। परन्तु यह सब कुछ होते जाती हैं और अनेक प्रकारके भ्रम फैल हुए भी पुस्तकमें एक शब्दद्वारा भी किसीजाते हैं । तत्वार्थ सूत्रकी टीकाओंका का आभार प्रकट नहीं किया गया और परिचय देते हुए, एक स्थानपर लिखा है न उन पुस्तकों अथवा उनके लेखकोंका कि श्लोक वार्तिकके कर्ता 'श्रीविद्यानन्दी' नाम ही दिया है जिनसे इस पुस्तकके शक सं०६८१ में पैदा हुए थे और दूसरे प्रस्तुत करनेमें खास सहायता ली गई स्थानपर सिद्धसेन दिवाकरकी मृत्यु वीर है। बैरिस्टर साहबकी यह अनुदारता संवत् ५०० में बतलाई है। परन्तु इनके बहुत ही खटकती है। अच्छा होता, यदि लिए कोई प्रमाण नहीं दिया। इन दोनों वे उन पुस्तकादिकोंके, कमसे कम, नाम विद्वानोंके जन्म तथा मृत्युके ऐसे निश्चित दे देते। ऐसा करनेसे, हमारे ख़यालमें, संवत् अभीतक कहीं भी देखनेमें नहीं उनकी इस पुस्तकका गौरव जरा भी कम आये और न पबलिकमें प्रकट हुए । न होता, बल्कि उससे उलटा उनके सिरजान पड़ता है, आजसे १५ वर्ष पहले जब का भार बहुत कुछ हलका हो जाता । कि अनुसन्धान बहुत कुछ बाल्यावस्थामें प्रस्तु; पुस्तककी छपाई, सफाई, कागज * साम्प्रतं तत्पुस्तकाभावाद्यथास्मृतमत्रोदाहरिष्यामः। और जिल्द सब उत्तम है और वह पढ़ने * देखो जैनहितैषीका गनांक नं० ३.--४ पृष्ट ८० तथा संग्रह किये जानेके योग्य है। Jain Education lifternational For Personal & Private Use Only www.jainelibdry.org
SR No.522888
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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