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पन्द्रहवाँ भाग ।
अंक ५
हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः ।
Chen 454
जैनहितैषी ।
দ: सुलभ,
जैन धर्म |
(ले० पं० नाथूरामजी प्रेमी । ).
न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी । बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी 'हितैषी' ॥
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फागुन २४४७ मार्च १६२१
कहाँ वह जैन धर्म भगवान् !
जाने जगको सत्य सुझायो, दालि अटल अज्ञान ।
वस्तु-तत्त्वपै कियो प्रतिष्ठित, अनुपम निज विज्ञान || कहाँ० १
.
साम्यवादको प्रकृत प्रचारक, परम अहिंसावान | नीच ऊँच निर्धनी धनी पै, जाकी दृष्टि समान ॥ कहाँ० २ देवतुल्य चाण्डाल बतायो, जो है समकितवान । शद्र, स्लेच्छ, पशुहूने पायो समवसरण में स्थान || कहाँ० ३
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सती-दाह गिरिपात जीवबलि, मांसाशन, मदपान । देवमूढ़ता श्रादि मेटि सब, कियो जगत्कल्यान ॥ कहाँ० ४ कट्टर बैरीहूपै जाकी, क्षमा दयामय बान ।
हठ तजि कियो अनेक मतनको, सामंजस्यविधान || कहाँ० ५. अब तौ रूप भयो कछु औरहि, सकहिं न हम पहिचान । समता सत्यप्रेमने इक सँग, याते कियो पयान || कहाँ० ६
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