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________________ १३० जैनहितैषी। .. [भाग १५ तीर्थोके झगडाका रहस्य । . हलोसे दूर, निर्जन और शान्त स्थानों में रहनेकी प्रेरणा करती है। मुनि और (ऐतिहासिक दृष्टिसे विचार ।) साधुजन ऐसे ही स्थानोंको पसन्द करते [ लेखक--श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमी।] थे और उन्हीकी स्मृतिकी रक्षाके लिए अब समय आ गया है कि हम लोग स्मारकस्वरूप-ये सब तीर्थ स्थापित अपने दिगम्बरी और श्वेताम्बरीभाइयों के हुए थे। ३-इन स्मारकोंके दर्शन करने के बीचके झगड़ोंके सम्बन्धमें कुछ गहराई लिए और अपने भक्तिभावोंको चरितार्थ के साथ विचार करें और जाँच करें करने के लिए बहुत दूर दूरके भक्तजन कि इनकी असलियत क्या है, ये क्यों पाया करते थे, परन्तु फिर भी किसीके शुरू हुए, कब से शुरू हुए और आगे द्वारा इन स्थानोंकी एकान्त शान्तता नष्ट कभी इनका अन्त भी होगा या नहीं। करनेका प्रयत्न नहीं किया जाता था; .१-पूर्व कालके तीर्थक्षेत्रों और वर्त- क्योंकि इन एकान्त स्थानों में संसारमानके तीर्थों में जमीन आसमानका अन्तर त्यागी और शान्ति-प्रयासी साधुजन रहते पड़ गया है । साधारण लोग तो उस थे और ध्यान अध्ययन किया करते थे। अन्तरकी कल्पना भी नहीं कर सकते । गृहस्थजन इन बातोंको जानते थे और शत्रुजय और सोनागिरि पर्वत इस समय इस कारण वे भक्तिपूरित होनेपर भी जिस तरह नीचेसे ऊपर तक मन्दिरोंसे तीर्थों की इस शान्तिमें बाधा डालना बैंक गये हैं, पहले इनकी यह दशा नहीं उचित नहीं समझते थे। थी। ये सब मन्दिर बहुतही अर्वाचीन हैं। ४-परन्तु आगे यह बात न रही। जिस तरह अनेक तीर्थोपर इस समय भी भगवद्गुणभद्राचार्य के शब्दोंमें साधुजन एक एक दो दो मन्दिर ही देखे जाते हैं. स्वयंही मृगोंके समान भयभीत होकर उसी तरह आन पड़ता है. पहले सभी बनोंको छोड़कर गाँवोंके समीप आकर तीर्थोका लगभग ऐसा ही हाल था। पहले रहने लगे और गृहस्थोंके साथ उनको इन पर्वतोपर बहुत करके चरण-चिह्नोंकी सन्निकटता बढ़ने लगी। धीरे धीरे चैत्यही सापना थी। उन्हींकी सब लोग घासकी जड़ जमी और अन्तमें मुनिमार्ग भक्तिभावसे पूजा वन्दना करते थे और शिथिल होकर मठवासी भट्टारको या इस कारण जुदा जुदा सम्प्रदायोंके बीचमें महन्तोंके रूपमें परिणत हो गया। साधुझगड़ेका कोई कारण ही उपस्थित नहीं . ओकी इस शिथिलताने चैत्यों और होता था। दिगम्बर-श्वेताम्बर ही क्यों, मन्दिरोंका प्रभाव बहुत बढ़ा दिया और दूसरे भावुक अजैनोंको भी अपनी श्रद्धा- जैन धर्मकी प्रभावनाका सबसे बड़ा द्वार भक्ति चरितार्थ करनेके लिए वहाँ कोई यही करार दिया गया। भगवान समन्तरुकावट नहीं थी। भद्रके प्रभाषनांगके इस श्रेष्ठ लक्षणको २-प्रायः जितने जैन तीर्थ हैं, वे सब लोग एक तरहसे भूल ही गये कि "प्रज्ञाविपुलजनाकीर्ण नगरों और सब प्रकार- नांधकारको जैसे बने, वैसे हटाकर जैनके कोलाहलसे दूर, ऊँचे पर्वतोपर और शासनके माहात्म्यको प्रकट करना ही वनोंके बीच स्थापित हैं। इस धर्मकी सच्ची प्रभावना है।" इसके बदलेमें यह प्रकृतिही ऐसी है कि वह संसारके कोला- उपदेश दिया जाने लगा कि इमलोक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522888
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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