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तीर्थोके झगड़ोका रहस्य। एक पत्तेके बराबर मन्दिर बनाकर उसमें तो पहले तीर्थों पर तीर्थंकरों या सिद्धोंके सरसोंके दानेके बराबर भी प्रतिमा चरणों की पूजा होती थी और वे चरण स्थापन करनेवाले गृहस्थके पुण्यका दोनोको समान रूपसे पूज्य थे। दूसरे वर्णन नहीं किया जा सकता! इसका फल इस बातके भी प्रमाण मिलते हैं कि पहले यह हुआ कि मन्दिरों और प्रतिमाओंके दिगस्वरी और श्वेताम्बरी प्रतिमानों में बनवाने और स्थापन कराने की बाबत कोई भेद न था। दोनों ही मन प्रतिमाओंलोगोंपर एक प्रकारका खत सवार को पूजते थे। जैनहितैषी भाग १३ अंक हो गया । लोग आँख बन्द करके इसी ६ में इस विषयपर एक श्वेताम्बर-विद्वानकामकी ओर झुक पड़े । इतिहास साक्षी का लेख प्रकाशित हुआ है जो अवश्य है कि पिछले ५००-६०० वर्षों में जैन- पठनीय है। उसमें बतलाया है कि मथुरासम्प्रदायके अनुयायियोंने अपने धर्मके के कंकाली टीलेमें जो लगभग दो हजार नामसे यदि कुछ किया है तो वह बहुत वर्षकी प्राचीन प्रतिमाएँ मिली हैं, वे नग्न करके मन्दिरों और प्रतिमाओंकी वृद्धि हैं और उन पर जो लेख हैं, वे श्वेताम्बर करनेका ही काम है।
स्थघिरावली के अनुसार हैं। इसके सिवा ५-ये चैत्यवासी और मठवासी १७ वीं शताब्दीमें श्वेताम्बर विद्वान् , पं० साध दोनों ही सम्प्रदायोंमे हो गये थे. धर्मसागर उपाध्यायने अपने 'प्रवचन बल्कि श्वेताम्बर सम्प्रदायमें तो यह शिथि- परीक्षा' नामक ग्रन्थमें लिखा है कि "गिरलता और भी पहलेसे प्रविष्ट होगई थी। नार और शत्रुजय पर एक समय दोनों इन साधुजनोंके उपदेशसे तीर्थों में भी सम्प्रदायोंमें झगड़ा हुआ, और उसमें मन्दिर बनाये जाने लगे और नये नये शासन देवताकी कृपाले दिगम्बरोंका तीर्थ-अतिशयक्षेत्र आदि नामोंसे-स्थापित पराजय हुआ। जब इन दोनों तीर्थोपर होने लगे। इन मन्दिरों और तीर्थों के व्यय- श्वेताम्बर सम्प्रदायका अधिकार सिद्ध निर्वाहके लिए धन-संग्रह किया जाने हो गया. तब आगे किसी प्रकारका झगड़ा । लगा, धन-संग्रह करनेकी नई नई तरकीबे न होने पावे, इसके लिए श्वेताम्बर संघने निकाली गई और प्रबन्धके लिए कोठियाँ यह निश्चय किया कि आगे जो नई प्रतितक खुल गई! बहतसीकोठयोको मालिकी माएँ बनवाई जायें, उनके पादमूल में वना. भी धीरे धीरे भट्रारको और महन्तोंके का चिह्न बना दिया जाय। यह सुनकर अधिकारमें आ गई और अन्त में उसने दिगम्बरियोको क्रोध आ गया और उन्होंने एक प्रकारसे धार्मिक दुकानदारीका रूप अपनी प्रतिमाओंको स्पष्ट नग्न बनाना धारण कर लिया। यदि इस बीचमें दिग- शुरू कर दिया । यही कारण है कि संप्रति म्बर सम्प्रदायमें तेरह पंथका और श्वेता. राजा (अशोक पौत्र) आदिकी बन. म्बर सम्प्रदायमें संवेगी साध ओंका उदय वाई हुई प्रतिमाओपर वस्त्र-लांछन नहीं न होता तो यह दुकानदारी कौनसा रूप है और आधुनिक प्रतिमाओंपर है। पूर्व धारण कर लेती, इसकी कल्पना करना की प्रतिमाओंपर वस्त्र-लांछन भी नहीं है भी कठिन है।
और स्पष्ट नग्नत्व भी नहीं है।" इससे ६-यह सब हो गया था, तोभी तीर्थों- कमसे कम यह बात अच्छी तरह सिद्ध के लिये दिगम्बरी और श्वेताम्बरी झगड़ों- होती है कि दोनों के विवादके पहले दोनोंका सूत्रपात नहीं हुआ था। क्योंकि एक की प्रतिमाओं में भेद नहीं होता था और
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