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________________ २२ . जैनहितैषी। [भागः १५ । इस कारण दोनों एकत्र होकर अपनी रीय पेथड़ शाह बोले कि भगवान् आभउपासना-वृत्तिको चरितार्थ करते थे। रणादि सहन नहीं कर सकते, इसका उस समय तक लड़ने-झगड़नेका कोई कारण यह है कि उनकी कीर्ति १२ योजन कारण ही नहीं था । परन्तु अब तो दोनों तक फैली हुई है। आमके वृक्षपर तोरणकी प्रतिमाओं और उपासना-विधिमें की और लंकामें लहरोकी चाह नहीं होती। इतना अन्तर पड़ गया है कि उसपर जिस तरह फलोधी (मारवाड़ )में प्रतिविचार करनेसे आश्चर्य होता है। पाठक माधिष्ठित देव आभूषणापहारक हैं, उसी यह जानकर आश्चर्य करेंगे कि गुजरातके तरह यहाँ भी हैं। यदि यह तीर्थ महारा कई प्रसिद्ध शहरोंमें जिनेन्द्र भगवानके है, तो शैवोंका भी हो सकता है ; क्योंकि विम्ब कोट-कमीज तक पहनते हैं और यह पर्वत लिंगाकार है और गिरिवारिहमारे एक मित्रने तो एक भगवानको धारक है। इस तरह वादविवाद हो रहा जेब-घड़ीसे भी सुशोभित देखा है ! वोत- था कि कुछ वृद्धजनोंने श्राकर कहा, इस राग भगवानकी उनके भक्तों द्वारा झगड़ेको छोड़ दो और यात्राको चलकर इससे अधिक विडम्बना और क्या हो वहाँ इन्द्रमाला (फूलमाल ) लेते समय सकती है? . इसका निर्णय कर लेना । उस मालाको __-श्वेताम्बराचार्य रत्नमण्डनगणि- जो सबसे ज्यादा धन देकर ले सकेगा, कृत सुकृतसागर नामक ग्रन्थके-'पेथड़ उसीका यह तीर्थ सिद्ध हो जायगा। तीर्थयात्राद्वय प्रबन्ध में जो कुछ लिखा निदान दोनों संघ पर्वतपर गये और दोनोहै उसका सारांश यह है कि-"सुप्रसिद्ध ने अभिषेक, पूजन, ध्वजारोपण, नृत्य, दानी पेथड़शाह. शश्रृंजयकी यात्रा करके स्तुत्यादि कृत्य किये। जब इन्द्रमालाका संघसहित गिरिनारमें पहुँचे। उनके समय आया तब श्वेताम्बर भगवानके पहले वहाँ दिगम्बर संघ अाया हुआ था। दाहिने ओर और दिगम्बर बाई ओर उस संघका स्वामी पूर्ण (चन्द्र ) नामका बैठे। इसीसे निश्चय हो गया कि कौन अग्रवालवंशी धनिक था । वह देहलीका हारेगा और कौन जीतेगा! इन्द्रमालाकी रहनेवाला था। उसे 'अलाउद्दीनशाखीन बोली होने लगी। परस्पर बढ़ते बढ़ते मान्य' विशेषण दिया है जिससे मालूम अन्तमें श्वेताम्बरोंने ५६ धड़ी सोना देकर होता है कि वह कोई राजमान्य पुरुष था। माला लेनेका प्रस्ताव किया । दिगम्बरी उसने कहा कि पर्वतपर पहले हमारा अभी तक तो बराबर बढ़े जाते थे; परन्तु संघ चढ़ेगा; क्योंकि एक तो हम लोग अब वे घबराये और सलाह करने लगे। पहले आये हैं और दूसरे यह तीर्थ भी लोगोंने संघपतिसे कहाहमारा है। यदि यह तीर्थ तुम्हारा है, तो लण्ठितरिव भूत्वा च फलं किंतीर्थवालने । इसका सबूत पेश करो। यदि भगवान नेमिनाथकी प्रतिमापर अंचलिका और इमं नहि समादाय शैलेशं यास्यते गृहे ॥ कटिसूत्र प्रकट हो जाय, तो हम इसे अर्थात् इस तरह लुटकर तीर्थ लेनेसे तुम्हारा तीर्थ मान लेंगे। भगवान भव्य क्या लाभ होगा? क्या इस पर्वतराजको जनोंके दिये हुए आभरण सहन नहीं कर उठाकर घर ले चलना है ? अन्तमें पूर्णसकते, इसलिए इसमें कोई सन्देह नहीं चन्द्रजीने कह दिया कि आप ही माला कि यह तीर्थ हमारा है। इसपर श्वेताम्ब- पहन लीजिए। इससे दिगम्बरी मुरझा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522888
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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