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________________ . १५४ ... जैनहितैषी। भाग १५ के परिचयमें उन्हें कर्णाटक देशनिवासी, ममास्मिन्वैस्मित्यं, यदयमरलुःश्रेष्ठितिलकः । 'कीर्ति' नामके पिता और 'गुम्मटा' कवीनां कल्पदुर्भवति महिलानां च मदनः॥ नामकी मातासे उत्पन्न, अर्हद्भक्त, श्रेष्ठि- गुणैयूंढस्तुंगः सुरभिरपिकात्या धवलया । तिलक, कवियों के लिये कल्पद्रुम, स्त्रियोंके कलावान् भद्रश्रीरनुतलमशोकश्च सरलः ॥ लिये कामदेव, महा गुणवान् , निर्मल तत्प्रियाय तनोतीमा टीकां हि कवि देवरः । कीर्तिसे शोभित, कलावान. अशोक और सरल प्रकट किया है । और अपना परि परवादिवरदृस्य रामभट्टस्य नन्दनः ॥" चय सिर्फ इतना ही दिया है कि अपनेको यह टीका भी माणिकचन्द्र-ग्रन्थमाला'रामभट्ट' का पुत्र बतलाया है जो कि में निकल जानी चाहिए। इसका नाम 'परवादि घरट्ट' थे, अर्थात् अपनी युक्तियों किसी दूसरे प्रसिद्ध भण्डारकी सूचीमें द्वारा अन्य वादियों को पीस डालनेवाले अभीतक हमारे देखने में नहीं आया। थे। इससे कवि देवरके पिता एक नैया- २४-औदार्यचिन्तामणि। , यिक विद्वान् थे, ऐसा पाया जाता है। . - 'औदार्यचिन्तामणि' नामका एक - मङ्गलाचरण और परिचयादि-विष ग्रन्थ श्रुतसागर सूरिका बनाया हुआ है। __यक वे पद्य इस प्रकार हैं: यह संस्कृतमें प्राकृत भाषाका व्याकरण "आरी (?) प्सितान्या रचयत्ववन्द्या ग्रन्थ है। श्रीहेमचन्द्र और त्रिविक्रमके न्याराधकानामयमादि देवः । प्राकृत व्याकरणोंसे यह व्याकरण बड़ा आरात्रिकायन्त यदीश्वराया है और अधिक व्याख्याको लिये हुए है। इसमें छः अध्याय हैं। प्रत्येक अध्यायके ___ मास्थायिकायाममरेन्द्रनट्यः ॥१॥ शुरू और अन्तमें मङ्गलाचरणादि-विषयक नरेन्द्रार्चितपादाय नमोस्त्वमरकीर्तये ।। . जो पद्य इस ग्रन्थमें दिये हैं, उनमेंसे यस्तपःशिखिभीतेव ययौ कीर्तिः सुरापगांil ऐतिहासिक तत्त्वको लिये हुए कुछ पद्य सिंहनन्दिमुनीन्द्रस्य स्मरामि पदयो संम्। इस प्रकार हैं:श्रीः स्पर्धयेव दासीत्वं श्रायिता यत्तपः श्रिया॥ अथ प्रणम्य सर्व विद्यानन्द्यास्पदप्रदम् । धर्मभूषणदेवस्य दधे चरण रेखया । पूज्यपाद प्रवक्ष्यामि प्राकृत व्याकृति सतां ।। रत्नत्रयनिधानाप्ररोचमान लिपिच्छविः ॥ श्रीपूज्यपादसूरिविद्यानन्दी समन्तभद्रगुरुः। जिगाय भुवनं येन तेनैव धनुषास्मरः । श्रीमदकलंकदेवो जिनदेवो मंगलं दिशतु ।। जितः श्रीवर्धदेवेन चकार तृणचुम्बितां(?)। श्रीकुन्द कुन्दसूरेविद्यानन्दिप्रभोश्च पदकंजम्! भट्टारकमुनेः पादावपूवकमले स्तुमः । न त्वा च पूज्यपादं संयुक्तमतः परं वक्ष्ये ॥ यदने मुकुली भावं यांति राजकराः परं ॥ श्रीपूज्यपादमकलंक समन्तभद्र आसीत्कर्णाटभूमध्यमध्यासीनो वणिग्वरः। श्रीकुन्दकुन्दजिनचन्द्रविशाखसंज्ञाः । मूर्तेव जिनधर्मस्य कीर्तिः कीर्तिसमाह्वयः ॥ श्रीमाधनन्दिशिवकोटि शिवायनाख्या, तस्य जाया जयासत्यं मात्राधिक्यमनीषिणे(?) विद्यादिनन्दि गुरवः शम मीदिशंतु ।। गुम्मटेति भुविख्याता नामतश्चार्थतश्च या।। श्रीसर्वज्ञमदोषं तदुक्तवचनानि नन्दयन् विदुषां वृन्दं तयोरजनिनन्दनः। निखिलसुखभवनं । अर्हत्सलीन चित्तत्वादरनष्ठिसंज्ञया । नत्वा विद्यानन्दं स्वाद्यध्यायं प्ररचयामि ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522888
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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