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________________ १४६ जैनहितैषी । सनातनी हिन्दू | महात्मा गाँधी के एक लेखका अनुवाद | मुझसे लोग अकसर पूछा करते हैं कि आप अपनेको चुस्त 'सनातनी हिन्दू' और' वैष्णव' क्यों कर कहलवाते हैं ? मैं समझता हूँ कि इस समय मुझे इस प्रश्नका उत्तर दे डालना चाहिए । इस उत्तर में सनातनी हिन्दू की व्याख्या और वैष्णवकी पहचान श्रा जायगी । जो व्यक्ति हिन्दुस्तान में हिन्दू कुल में जन्म लेकर, वेद उपनिषद् पुराणादि ग्रन्थोंको धर्मग्रन्थ के रूप में मानता है; जो सत्य, अहिंसादि पाँच यमों पर श्रद्धा रखता है और उनका यथाशक्ति पालन करता है: जो मानता है कि आत्मा है, परमात्मा है, आत्मा अजर और अमर है, फिर भी देहाभ्यास के कारण अनेक योनियोंमें श्रावागमन करता रहता है, उसे मोक्ष मिल सकता है और मोक्ष परम पुरुषार्थ है जो वर्णाश्रम और गोरक्षाधर्मको मानता है, वह हिन्दू है । ऐसी मेरी मान्यता है । और जो मनुष्य इन सब बातोंको माननेके अतिरिक्त वैष्णव सम्प्रदायको माननेवाले कुलमें उत्पन्न हुआ हो और उसका जिसने त्याग न किया हो; जिसमें नरसिंह मेहताके 'वैष्णव जन' *यह भजन ५ दिसम्बर के 'नवजीवन' में प्रकाशित हुआ है। उसके अनुसार वैष्णव में नीचे लिखे २० गुण होने चाहिएँ-१ परदुःख भंजन करनेवाला हो, २ फिर भो निरभिमानी हो, ३ सबकी बन्दना करे, ४ किसकी निन्दा न करे, ५-६ वचनका और काछ (कच्छ) का दृढ़ हो, ७ निश्चल मन हो, ८ समदृष्टि हो, ह तृष्णात्यागी हो, १० एकपत्नीव्रत पालनेवाला हो, ११-१२ सत्य और अचौर्य पालता हो, ११ मायातीत हो, १४ वीतराग हो, १५ रामभक्त हो, १६ पवित्र हो, १७२० लोभ-कपट काम कोष रहित हो, । -- अनुवादक । Jain Education International [ भाग १५ नामक भजनमें वर्णन किये हुए गुण थोड़े बहुत अंशों में मौजूद हों और जो उन गुणोंको पूर्ण करने के लिए प्रयत्न करता हो, वह वैष्णव है । मेरा पूरा विश्वास है कि मुझमें ऊपर बतलाए हुए चिह्न अनेक अंशोंमें मौजूद हैं और उन्हें अधिक दृढ़ीभूत करनेके लिए मैं निरन्तर प्रयत्नशील रहता हूँ । इसलिए मैं बड़ी नम्रता परन्तु दृढ़ता के साथ अपने आपको चुस्त (पक्का) सनातनी हिन्दू और वैष्णव कहलाने में संकोच नहीं करता । मेरी समझ में हिन्दू धर्मका स्थूल बाह्य स्वरूप गोरक्षा है । इस गोरक्षा के कार्य में सारी हिन्दू जनता असमर्थ बन गई है । इससे मैं हिन्दुओं को 'नपुंसक' मानता हूँ और उन नपुंसकों में मैं अपने आपको घटियाले घटिया नपुंसक समझता हूँ । मैं नहीं समझता कि मैंने जो तपश्चर्या गोरक्षा के लिए की है और कर रहा हूँ, उससे अधिक तपश्चर्या और कोई करता है, और गो-वंशके प्रति मेरी जो सहानुभूति है उससे अधिक सहानुभूति किसी दूसरेमें है । इसके लिए मेरे बराबर तपश्चर्या ज्ञानपूर्वक तो शायद ही किसीने की होगी । जबतक हिन्दू गायपर दया नहीं रखते, पशुओंको हिन्दू स्वयं ही अनेक तरहके दुःख देते हैं, जबतक वे मुसलमानोंकी प्रीति सम्पादन करके उनसे प्रेमकी ख़ातिर गोबध नहीं छुड़ा सकते हैं, जबतक अँगरेज़ लोग हिन्दुस्तान में गोवध करते हैं, और उसको सहन करते हुए हिन्दू अँगरेज़ी सल्तनतकी सलामी बजाते हैं तबतक मैं समझता हूँ कि हिन्दू धर्ममेंसे ब्राह्मण और क्षत्रिय धर्मका लोप हो गया है और इस कारण में जन्म से वैश्य होनेपर भी उक्त दोनों धर्मोका पालन करने के लिए निरन्तर प्रयत्न कर रहा हूँ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522888
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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