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________________ १३६ वेदिका में थीं। अभी ५-७ वर्ष पहले दोनों के बीचमें एक दीवार बनवा दी गई है। जैनहितैषी । * ५- पूना शहर में एकही अहातेके भीतर दिगम्बर और श्वेताम्बर मन्दिर अब तक हैं । ६ - ग्वालियर राज्य के शिवपुरकलाँ नामक स्थानमें एक दिगम्बर मन्दिर ऐसा है जिसमें S- श्वेताम्बर मूर्तियाँ हैं; और एक श्वेताम्बर मन्दिर ऐसा है जिसमें s - = दिगम्बरी मूर्तियाँ हैं। पहले दोनों मन्दिरों में दोनों सम्प्रदायके लोग जाते थे; परन्तु अब केवल भादों सुदी १० को धूप खेने के लिए जाया करते हैं । तलाश करनेसे इस तरह के और भी अनेक प्रमाण मिल सकते हैं। इनसे मालूम होता है कि पहलेके लोगोंमें श्राजकल के समान धर्मयुद्धों की प्रवृत्ति नहीं थी; बल्कि दोनों हिल मिलकर रहना चाहते थे । Jain Education International १३ – अकसर दिगम्बरी भाइयोंकी ओरसे यह आक्षेप किया जाता है कि श्वेताम्बरी भाई दिगम्बरी मन्दिरों और प्रतिमानोंपर अधिकार कर लिया करते हैं; और यही आक्षेप श्वेताम्बरियोंकी श्रोरसे दिगम्बरियों पर किया जाता है । यह आक्षेप बहुत अंशोंमें सच्चा है; परन्तु इसके पात्र दोनोंही सम्प्रदायवाले हैं । इस विषय में कोई सम्प्रदाय निर्दोष नहीं ठहर सकता । सम्प्रदाय-मोह चीज ही ऐसी है कि वह भिन्न सम्प्रदायवालोंके साथ उदारताका व्यवहार करनेमें संकुचित हुए बिना नहीं रह सकती। इसके सम्बन्धमें भी अनेक उदाहरण मिल सकते हैं । क –श्रद्धेय मुनि जिनविजयजी से मालूम हुआ कि सुप्रसिद्ध तीर्थ रिखबदेवका मुख्य मन्दिर दिगम्बर सम्प्रदायका है; परन्तु उसपर अधिकार श्वेताम्बरी [ भाग १५ भाइयोंका है । ख- रोशन मुहल्ला आगरेके सुप्रसिद्ध श्वेताम्बर मन्दिर ( चिन्तामणि पार्श्वनाथ ) की मूलनायककी मूर्ति दिगम्बर सम्प्रदायकी है। (देखो जैनशासन वर्ष १ ) । ग - बैराट ( जयपुर ) का पार्श्वनाथका मन्दिर वास्तवमें श्वेताम्बर सम्प्रदायका है: परन्तु इस समय वह एक खण्डेलवाल श्रावकके अधिकारमें है । डा० देवदत्त रामकृष्ण भाण्डारकर एम० ए०ने इस मन्दिरका निरीक्षणकरके वेस्टर्न सर्किल के श्राश्रालोजि - कल सर्वेकी सन् १९१० की रिपोर्ट में एक विस्तृत लेख लिखा है । यह मन्दिर शक सं० २५०६ में बादशाह अकबर के समय में बना है । अकबरने शकमणगोत्रीय इन्द्रराज श्रीमालीको बैराटका अधिकारी बनाया था । इसी इन्द्रराजका बनवाया हुआ यह महोदय प्रसाद या इन्द्र विहार नामका मन्दिर है । देवालय के अहातेकी दीवारमें इस विषयका विस्तृत शिलालेख लगा हुआ है। हीरविजयसूरिके शिष्य कल्याणविजयके हाथसे इस मन्दिरकी प्रतिष्ठा हुई थी और इस काम में इन्द्रराज ४० हज़ार रुपया खर्च किया था । १४ - जब कोई मुझसे पूछता है कि अमुक तीर्थ पर वास्तविक अधिकार किसका है, तो मैं कह दिया करता हूँ कि दोनोंका है। दोनोंमेंसे चाहे जो पीछेका हो, पर उसका अधिकार पहलेवालेसे कम नहीं ठहराया जा सकता। बल्कि उसपर तो ऐसे जैनेतर लोगोंका भी अधिकार है जो जिनदेवपर श्रद्धा रखते हैं और उनका भक्तिभाव से पूजन वन्दन करते हैं । जब दोनोंही सम्प्रदायवाले जिनदेवों और सिद्धोंके उपासक हैं और उपासना करना किसीकी जमींदारीका कोई खेत जोतना या फसल काट लेना नहीं है, तब उनका अधिकार कम या ज्यादा ठहर For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522888
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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