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________________ जैनहितैषी। / [भाग १५ प्रतिमा मंगवा ली । उसके दर्शन १०-जान पड़ता है, गिरिनार पर्वत. करके राजा प्रतिज्ञामुक्त हो गये ! इसके . पर दिगम्बरों और श्वेताम्बरों के बीच वह बाद एक महीने तक दिगम्बरियोंसे विवाद विवाद कभी न कभी अवश्य हुमा हुआ और अन्तमें अम्बिकाने 'उजितसेल है जिसका उल्लेख धर्मसागर उपाध्यायने सिहरे। श्रादि गाथाएँ कहकर विवादकी किया है। यह कोई ऐतिहासिक घटना समाप्ति कर दी । (इन गाथाओंमें यह कहा अवश्य है; क्योंकि इसका उल्लेख दिगगया है कि जो स्त्रियोंकी मुक्ति मानता है, म्बर-साहित्यमें भी मिलता है। नन्धिसंघवही सच्चा जैन मार्ग है और उसीका यह की गुर्वावलीमें लिखा है:तीर्थ है ) इस तरह तीर्थ लेकर, दिगम्बर पदमनन्दीगुरुर्जातो* बलात्कारगणाप्रणी। श्वेताम्बरोंकी प्रतिमाओंमें नग्नावस्था और पाषाण घटितायेन वादिता श्रीसरस्वती।।३६॥ अञ्चलिकाका भेद कर दिया। उज्जयन्तगिरौ तेन गच्छः सारस्वतोभवेत्। उक्त शवतरणसे दो बातें मालूम होती हैं । एक तो यह कि पहले दोनोंको अतस्तस्मै मुनीन्द्राय नमः श्रीपग्रनन्दिने३७ प्रतिमाओंमें कोई भेद नहीं था; और दूसरी और भी कई जगह + इस घटनाका यह कि इस घटनाके पहले गिरनार पर जिक्र है कि गिरनारपर दिगम्बरों और ५० वर्ष तक दिगम्बरियोका अधिकार था। श्वेताम्बरोंका शास्त्रार्थ हुआ था और -इसी उपदेशतरङ्गिणी (पृष्ठ उसमें सरस्वतीकी मूर्तिमेसे ये शब्द २४७) में वस्तुपाल मंत्रीके सँघका वर्णन निकलनेले कि सत्य मार्ग दिगम्बरोंका है, है जो उन्होंने सं. १२८५ में निकाला .श्वेताम्बर पराजित हो गये थे । इस सरथा। उसमें २४ दन्तमय देवालय, १२० स्वतीकी मूर्तिको वाचाल करनेवाले पत्रकाष्ठ देवालय, ५५०० गाड़ियाँ, १८०० नन्दि भट्टारक थे जिनका समय उक्त डोलियाँ, ७०. सुखासन, १०० पालकियाँ, गुर्वावलीमें विक्रम संवत् १३-५ से १४५० ७०० श्राचार्य, २००० श्वेताम्बर साधा लिया है । इनके शिष्य शुभचन्द्र और ११०० दिगम्बर, १६०० श्रीकरी, ४००० प्रशिष्य जिनचन्द्र थे। वेताम्बर प्रन्यों में घोड़े, २००० ऊँट और ७ लाख मनुष्य थे। यही घटना इस रूपमें वर्णित है कि यद्यपि यह वर्णन अतिशयोक्तिपर्ण है. तो अम्बिकादेवीने श्वेताम्बरोंकी विजय यह भी इससे यह मालूम होता है कि उस - - आचार्य कुन्दकुन्दका भी एक नाम पदनन्दि है; समय तीर्थ-यात्रा, पूजनार्चा आदि कार्यो अतएव पीछेके लेखकोने इस शास्त्रार्थ और विजयका में दिगम्बरों और श्वेताम्बरों में इतनी मुकुट कुन्दकुन्दको भी पहना दिया है; परन्तु यह बड़ा विभिन्नता नहीं थी, जितनी कि अब है; भारी भ्रम है। ये पचनन्दि १४वीं शताब्दिके एक भट्टारक हैं। और इसी कारण इस संघमें श्वेताम्ब- +कविवर मृन्दावन ने लिखा है:रियोंके साथ ११०० दिगम्बर भी गये संघम हित श्रीकृन्द कुन्द (पप्लनन्दि ?) थे। दोनों में आजकलके समान वैरभाव गुरु, बन्दन हेत गए गिरनार । नहीं होगा। और दिगम्बर श्वेताम्बरोकी बाद पस्यौ तहँ मंशयमति मों, साखी बदी अंबिकाकार । मूर्तियों में यदि अन्तर होता तो दिगम्ब 'सत्यपन्थ निग्रंथ दिगम्बर, रियोंके लिए वस्तुपालने दिगम्बर देवा कही सुरी तहँ प्रगट पुकार । लयोंकी भी व्यवस्था की होती और उनकी सो गुरुदेव बसौ उर मेरे, भी संख्या दी होती। बिधन हरन मंगल करतार ।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522888
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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