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________________ १४४ ( नवें वर्ष में) उसने दिये.. . पल्लव युक्त जैनहितैषी । पंक्ति 8 - कल्पवृक्ष, सारथी सहित हय-गज- रथ और सबको श्रग्निवेदिका सहित गृह, आवास और परिवलन । सब दानको ग्रहण कराए जानेके लिए उसने ब्राह्मणोंकी जातिपंक्ति ( जातीय संस्थाओं) को भूमि प्रदान की । श्रर्हत् .forer (?) ...व.. पंक्ति १० - [क][f] मानै: ( १ ) उसने महाविजय - प्रासाद नामक राजसन्निवास, ३= सहस्रकी लागतका बनवाया । दसवें वर्ष में उसने पवित्र विधानों द्वारा युद्धकी तैयारी करके देश जीतने की इच्छा से, भारतवर्ष ( उत्तरी भारत ) को प्रस्थान किया । -क्लेश ( ? ) से रहित ...... उसने श्राक्रमण किये गये लोगोंके मणि और रत्नोंको पाया । पंक्ति ११ - ( ग्यारहवें वर्ष में ) पूर्व राजाओंके बनवाये हुए मण्डपमें, जिसके पहिये और जिसकी लकड़ी मोटी, ऊँची और विशाल थी, जनपद से प्रतिष्ठित तेरहवें वर्ष पूर्व में विद्यमान केतुभद्रकी तिक (नीम ) काष्ठकी श्रमर मूर्तिको उसने उत्सवसे निकाला । बारहवें वर्ष में.. उसने उत्तरापथ (उत्तरी पञ्जाब और सीमान्त प्रदेश ) के राजाओं में त्रास उत्पन्न किया । पंक्ति १२.. और मगधके निवासियों में विपुल भय उत्पन्न करते हुए उसने अपने हाथियोंको गंगा पार कराया और मगध के राजा बृहस्पतिमित्र से अपने चरणोंकी बन्दना कराई... ( वह ) कलिंग - जिनकी मूर्त्तिको जिसे नन्दराज ले Jain Education International भाग १५ गया था, घर लौटा लाया और अंग और मगधकी अमूल्य वस्तुओं को भी ले आया। पंक्ति १३ - उसने ............ जठरोल्लिखित ( जिनके भीतर लेख खुदे हैं ) उत्तम शिखर, सौ कारीगरोंको भूमिप्रदान करके, बनवाए और यह बड़े आश्चर्य की बात है कि वह पाण्ड्य । जसे हस्तिनाव में भराकर श्रेष्ठ हय, हस्ति, माणिक और बहुतसे मुक्ता और रत्न नजराने लाया । पंक्ति १४ - उसने... वश में किया । फिर तरहवें वर्ष में व्रत पूरा होने पर ( खारवेलने ) उन याप - ज्ञापकों को जो पूज्य कुमारी पर्वतपर, जहाँ जिनका चक्र पूर्ण रूप से स्थापित है, समाधियों पर याप और क्षेमकी क्रियाओं में प्रवृत्त थे; राजभृतियोंको वितरण किया । पूजा और अन्य उपासक कृत्योंके क्रमको श्रीजीवदेवकी भाँति क्षारवेलने प्रचलित रखा । पंक्ति १५ - सुविहित श्रमणों के निमित्त शास्त्र नेत्रके धारकों, ज्ञानियों और तपोबल से पूर्ण ऋषियोंके लिए ( उसके द्वारा ) एक संघायन ( एकत्र होने का भवन ) बनाया गया । श्रर्हत्की समाधि ( निषद्या) के निकट, पहाड़की ढालपर, बहुत योजनोंसे लाये हुए, और सुन्दर खानोंसे निकाले हुए पत्थरोंसे, अपनी सिंहप्रस्थी रानी 'धृष्टी' के निमित्त वि भामागार For Personal & Private Use Only पंक्ति १६ - और उसने पाटालिकाश्रमे रत्न जटित स्तम्भोंको पचहत्तर लाख पणों (मुद्राओं) के व्ययसे प्रतिष्ठापित किया । वह (इस समय ) मुरिय कालके १६४वें वर्ष को पूर्ण करता है । www.jainelibrary.org
SR No.522888
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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