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जैन
बाल- शिक्षा
भाग तीन
उपाध्याय अमर मुनि
सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा
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सन्मति साहित्य - रत्नमाला का चौथा रत्न
जैन बाल- शिक्षा
तीसरा भाग
उपाध्याय अमरमुनि
सन्मति ज्ञान पीठ, आगरा
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| विषय-सूची
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is
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१. विनय २. जीव और अजीव ३. प्रभात-गायन (कविता) ४. महासती सीता ५. भारतवर्ष ६. कुछ तो सीखो (कविता) ७. पाँच इन्द्रियाँ ८. बड़ों का आदर ९. दया (कविता) १०. दिवाली ११. राजा मेघरथ १२. गुरु-वन्दना १३. बोलो (कविता) १४. जैन-धर्म १५. सीख की बातें १६. मंगल पाठ १७. रात्रि-भोजन १८. नल-दमयन्ती १९. जैन-गान
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वन्दना
।
।
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जय जय सन्मति, वीर हितंकार ! जय जय वीतराग, जय शंकर !
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विनय
सच बोलें, सच बात विचारें,
भले काम कर जन्म सँवारें । रक्खें देश जाति का मान,
ऐसी मति होवे भगवान ।
बीते
झगड़ों को विसरावें, आगे के हित नेह बढ़ावें ।
करें बढ़े सन्मान, ऐसी मति होवे भगवान !
एका
भारत-वासी सब मिल जावें,
गिरे हुओं को तुरंत उठावे । भूलें कभी न अपनी आन,
ऐसी मति होवे भगवान !
(
२
)
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मन से वैर विरोध निकालें,
सब जन हितकर रीति निकालें । सेवा का ही हरदम ध्यान, - ऐसी मति होवे भगवान !
जैन-धर्म की जय नित गावें,
सदाचार पर बलि-बलि जावें । भारत माँ की हम सन्तान,
__ ऐसी मति होवे भगवान !
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२
जीव- अजीव
बालक था।
जितेन्द्र बड़ा बुद्धिमान् और विनयी गुरुजी उस पर बड़े प्रसन्न थे। वे एक दिन बोले— 'बेटा जितेन्द्र ! बताओ, जीव किसे कहते
हैं ?'
जितेन्द्र ने विनयपूर्वक उत्तर जीव किसे कहते हैं ? यह तो आप ही ही बताएँ !
!
दिया— 'गुरुजी मुझे पता नहीं,
'अच्छा हम आज तुम्हें जीव किसे कहते हैं ? और जीव से जीव से विपरीत अजीव किसे कहते हैं ? यह अच्छी तरह समझायेंगे। परन्तु पहले जरा अपनी दवात और कलम को तो आवाज दो कि वे यहाँ आएँ, कुछ थोड़ा-सा लिखना है।'
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'आप क्या बात कहते हैं ? कलम के कान थोड़े ही हैं, जो मेरी लें और चली आएँ। बिना पैरों के सकती हैं ?'
दवात और आवाज सुन आ भी कैसे
'अच्छा दवात और कलम बिना कान के हैं, इस लिए सुन नहीं सकती। और बिना पैर के हैं, इसलिए चल भी नहीं सकती। इसी तरह आँख के बिना देख. नहीं सकतीं और नाक के बिना · सूंघ भी नहीं सकतीं न ?'
और
'जी हाँ, देख भी नहीं सकतीं नहीं सकतीं । दवात और कलम नाक कहाँ हैं ?' ।
सूंघ भी आँख तथा
के
'ठीक है, परन्तु रबड़ की बनी हुई आवाज दो, वह दवात
देखो, वह सामने मेज पर गुड़िया खड़ी है, उसे ही और कलम दे जायेगी ।'
"गुरुजी, आज आप भी कैसी बातें कर रहे हैं ! वह तो खिलौना है, भला कैसे सुन सकती है, और कैसे आ सकती है ?' ..
___ 'बेटा - जितेन्द्र !
अच्छी तरह सोच-समझ कर
बोलो।'
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खिलौना है तो क्या हुआ ? जब इनके कान मौजूद हैं, तब सुन क्यों नहीं सकती ? क्या बहरी हो गयी है ? जब पैर मौजूद हैं—तो चल-फिर क्यों नहीं सकती ? क्या पैरों में दर्द है ? इसके आँख, कान, नाक, हाथ, पैर सभी कुछ तो मौजूद
हैं।'
'अजी कान हैं तो क्या हुआ ? बनावटी कानों से सुना थोड़े ही जाता है। पैर भी बनावटी हैं, इसलिए इनसे चला-फिरा भी नहीं जा सकता। इसकी आँख, नाक, बगैरह सब बनावटी हैं।
'अच्छा यह बताओ-तुमने कभी कोई मरा हुआ बिल्ली का बच्चा, या मरा हुआ कुत्ते का पिल्ला देखा है ? ___'हाँ, देखा है।'
___ 'वह तो सुन सकता होगा, देख सकता होगा? चल-फिर सकता होगा, और खा-पी सकता होगा ?'
'भला कहीं मुर्दा भी ऐसा कर सकता है ? मुर्दा न सुन सकता है, न देख सकता है, न चल-फिर सकता है, और न खा-पी सकता है।'
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'क्यों नहीं कर सकता ! उसके तो आँख, कान, मुँह आदि असली हैं, बनावटी नही हैं।' . - 'आँख-कान आदि असली हैं, बनावटी नहीं हैं,
आपकी यह बात ठीक है परन्तु जो मुर्दा हो जाता है, उसमें जान नहीं रहती, इसलिए वह आँख-कान आदि के होते हुए भी उनसे काम नहीं ले. सकता। बेजान चीज, जानदारों की तरह काम नहीं कर सकती।'
जितेन्द्र ! अब की बार तूने पते की बात कही है। बेजान चीज जानदारों की तरह हरकत नहीं कर सकती, यह बात बिल्कुल सही है। बेटा तब तो रबड़ की गुड़िया भी बेजान होने से ही देखना-सुनना आदि नहीं कर सकती। बनावटी और असली आँख-कान आदि का तो अब कोई प्रश्न नहीं रहा और यही बात तुम्हारी दवात और कलम की बाबत भी है। वे भी बेजान हैं, इसलिए देख, सुन, चल-फिर नहीं सकतीं।
'जी हाँ, आपका कहना बिल्कुल सही है ।'
तो अब तुम अपने आप ही समझ गये हो। देखो जिनमें, जान हैं, जो जानदार हैं, वे 'जीव' कहलाते हैं।
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इसके विपरीत जिनमें जान नहीं है, जो जानदार __ नहीं हैं, वे 'अजीव' कहलाते हैं।'
(१) जिनमें जान हो, जानने और समझने की ताकत हो, जिन्हें सुख-दुःख का अनुभव होता हो उन्हें 'जीव' कहते हैं; जैसे-आदमी, घोड़ा, गाय, बिल्ली, कबूतर आदि।
(२) जिनमें न जान हो, न जानने और समझने की ताकत हो जिन्हें सुख-दुःख का अनुभव न होता
हो, उन्हें 'अजीव' कहते हैं; जैसे-दवात, कलम, __ मेज, कुर्सी आदि।
अभ्यास
१. जीव किसे कहते हैं ? २. अजीव किसे कहते हैं ? ३. गधा, घोड़ा, कबूतर जीव हैं या अजीव ? ४. कुर्सी, मेज, स्लेट जीव हैं या अजीव ? ५. नीचे लिखे पदार्थों में से जीव और अजीव
को अगल-अलग बताओ:
कुत्ता, हिरन, ईंट, गधा, चौकी, पुस्तक, मनुष्य, तोता, घड़ी, गाय, मोटर, भैंस, मुर्गी, कलम, दवात, बिल्ली, हाथी आदि।
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प्रभात-गायन
उठ
जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहाँ जो सोवत है।
जो
जागत है जो सोवत
सो है
पावत है, सो खोवत
है
॥
नींद से अँखियाँ खोल जरा, अरु अपने प्रभु से ध्यान लगा ।
यह प्रीति
प्रभु
करन जागत
की रीति नहीं, है तू सोवत
है ॥
जो
कल करना वह जो आज करो
आज करो, वह अब कर
।
लो।
जब चिड़ियों ने चुग
तब पछताये
खेत लिया, क्या होवत
है
?
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-
महासती सीता
बहुत पुराने समय की बात है, हमारे यहाँ भारतवर्ष में एक बड़े विद्वान राजा थे। उनका नाम जनक था। वे मिथिला के राजा थे। उनके एक बड़ी सुन्दर, सुशील लड़की थी। उसका नाम 'सीता' था।
सीता का विवाह करने के लिए राजा जनक ने बहुत से राजकुमारों को बुलाया । उन्होंने कहा कि जो युवक हमारे इस विशालकाय भारी धनुष को उठाकर तान देगा, उसी के साथ सीता का विवाह होगा।
सब राजकुमारों ने कोशिश की, मगर धनुष किसी से उठा तक नहीं । अन्त में अयोध्या के राजकुमार श्री रामचन्द्र जी ने धनुष को झटपट उठा लिया और तान दिया । सीता का विवाह रामचन्द्र जी के साथ हो गया।
( १० )
.
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( ११ ) कुछ दिनों बाद रामचन्द्र जी को अपनी सौतेली माता कैकेयी के आग्रह पर अपने छोटे भाई लक्ष्मन के साथ वन में जाना पड़ा। सीता भी उसके साथ ही गई। जंगल में बहुत ही भयानक कष्ट थे, परन्तु वह अपने पति रामचन्द्र जी के साथ बहुत खुश थीं।
एक बार लंका का राजा रावण, रामचन्द्र जी की गैर-मौजूदगी में--अकेले में सीताजी को चुरा कर ले गया। सीताजी बहुत रोईं, पर वहाँ कोई छुड़ाने वाला नहीं था। रावण ने सीताजी को' लंका में छिपा दिया । सीताजी वहाँ पर भी अपने नियमों में बड़ी दृढ़ रहीं।
रामचन्द्र जी ने वानरवंशी वीरों की मदद से सीताजी का पता लगा लिया। वानर जाति के महान वीर युवक हनुमान जी लंका में गये और सीता जो की खबर ले आये। फिर राम वानरवंशी युवकों की बड़ी भारी सेना लेकर लंका में पहुँचे और रावण से लड़े।
बड़ी भयंकर लड़ाई हुई । अन्त में रावण मारा गया। सीता जी फिर रामचन्द्र जी के पास आ गईं।
अब रामचन्द्र जी का वन में रहने का समय पूरा हो गया था। इसलिए वे सबके साथ अयोध्या को लौट गये।
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( १२ ) अयोध्या पहुँचने पर लोगों ने रामचन्द्र जी को अपना राजा और सीताजी को अपनी महारानी बनाया।
इसी तरह बहुत दिनों तक सीता जी रामचन्द्र जी के साथ सुख से रहीं और उनकी सेवा करती रहीं।
सीता जी अपने धर्म में इतनी मजबूत थीं कि उन्होंने राजा रावण की रानी बनना मंजूर नहीं किया। रावण ने . सीता जी को अपनी रानी बनाने की भरसक कोशिश की, किन्तु सीता जी अपने धर्म से नहीं डिगीं। . यही कारण है कि, लोग आज भी बड़े आदर से उनका नाम लेते हैं और उनकी प्रशंसा करते हैं।
__जैन धर्म में सोलह सती मुख्य मानी जाती हैं। सीता जी की गिनती भी उन सोलह सतियों में है।
अभ्यास
१. सीता जी के पिता कहाँ के राजा थे ? २. सीता जी का विवाह कैसे हुआ ? ३. रामचन्द्र जी की मदद किन लोगों ने की ? .४. क्या हनुमान जी बन्दर थे ? ५. रावण के. यहाँ से सीता जी कैसे छुटी ? ६. सीता जी के जीवन से क्या शिक्षा मिलती
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भारतवर्ष
जिस देश में हम सब रहते हैं, उस देश का नाम भारतवर्ष है। हमारा देश स्वतन्त्र है। वह गणतन्त्र है । गणतन्त्र का अर्थ है कि यहाँ के हर बालिग नागरिक को वोट देने का अधिकार है
और हर एक पर देश की उन्नति की जिम्मेदारी है और हर एक को अपनी उन्नति करने का पूरा अधिकार . और अवसर है। बिना किसी भेद-भाव के देश का हर कोई व्यक्ति योग्य हो तो वह देश का प्रधानमन्त्री और राष्ट्रपति तक बन सकता है।
भारतवर्ष हमारी जन्मभूमि है। इसी की मिट्टी, पानी और हवा में हम पैदा हुए हैं और इन्हीं से हम बढ़ते हैं। सच पूछो तो हमारी जन्मभूमि, माता के समान, हमारा लालन-पालन करती है। हमारे ऊपर इसके बहुत से उपकार हैं। इसलिए ही माता की तरह हमारी · जन्मभूमि हमें प्राणों से भी प्यारी
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( १४ ) लगती है। अगर हमारी प्यारी जन्मभूमि पर कभी कोई मुसीबत पड़े तो हमें उसको दूर करने के लिए · अपने प्राणों की परवाह नहीं करनी चाहिए।
. इस देश की जनसंख्या लगभग ६८ करोड़ है। ये सभी हमारी इसी जन्मभूमि के पुत्र और पुत्रियाँ हैं । ये सभी हमारे भाई और बहिन हैं। इसलिए हमें सब के साथ प्रेम का व्यवहार करना चाहिए
और कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे हमारे दूसरे भाइयों को कष्ट हो।
हमें निम्नलिखित बातों का सदा ध्यान रखना चाहिए१. कभी किसी को गाली न दो।। २. कभी किसी के साथ लड़ाई मत करो। ३. सड़क पर कभी केले आदि का छिलका मत
डालो। ४. हर एक जगह मत थूको। ५. गलियों और सड़कों पर कूड़ा मत फेंको। ६. नालियों में टट्टी, पेशाब मत करो।
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( १५ ऐसा करने से दूसरों बीमारियाँ फैलती हैं।
) को कष्ट होता है
और
तुम जानते हो, हमारे देश का नाम भारतवर्ष क्यों पड़ा ?
आज से लाखों वर्ष पहले यहाँ ऋषभदेव भगवान् हुए थे। उन्होंने ही सारी दुनिया को आत्मरक्षा के लिए शस्त्र चलाना, लिखना-पढ़ना, कृषि करना आदि अनेक प्रकार की विद्याएँ, व्यापार और शिल्प सिखाया था। उनके बड़े पुत्र का नाम भरत था। भरत बड़े प्रतापी चक्रवर्ती सम्राट थे। उन्हीं के नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा है।
अभ्यास
१. हमारा देश गणतन्त्र हैं, इसका क्या अर्थ है? २. जन्मभूमि किसे कहते हैं ? ३. जन्मभूमि के लिए हमें क्या करना चाहिए ? ४. हमें क्या-क्या कार्य नहीं करने चाहिए ? ५. हमारा देश भारतवर्ष क्यों कहलाता है ?
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कुछ तो सीखो
चन्दा - से मुस्काना सीखो, हँसना और हँसाना सीखो । जग में छवि छिटकाना सीखो, सबका मन बहलाना सीखो ।
फूलों से तुम हँसना सीखो, भौरों से नित गाना सीखो । तरु की झुकी डालियों से तुम, सादर शीश झुकाना सीखो ।
दूध तथा पानी से बच्चो, मिलना और मिलाना सीखो । लता तथा पेड़ों से बच्चो, संबको गले लगाना सीखो ।
( १६ )
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( १७ )
कभी नहीं तुम लड़ना सीखो, ਸੀਤੀ बातें करना सीखो । पेड़ तथा पत्तों से बच्चो, मिल-जुलकर तुम रहना सीखो ।
अभ्यास
१. दूध और पानी क्या शिक्षा देते हैं ? २. शीश झुकाना किससे सीखोगे ?
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७
पाँच इन्द्रिय
'इन्द्र' जीव को कहते हैं। जिसके द्वारा इन्द्र को यानी जीव को ज्ञान होता है, उसे इन्द्रिय कहते हैं। जीव आँख के द्वारा देखता है और देखता है और कान के द्वारा सुनता है, इसलिए आँख और कान इन्द्रिय हैं। इस प्रकार कुल इन्द्रिय पाँच हैं- ( १ ) स्पर्शन इन्द्रिय, (२) रसन इन्द्रिय, (३) घ्राण इन्द्रिय, (४) चक्षुष् इन्द्रिय, और (५) श्रोत्र इन्द्रिय । श्रोत्र इन्द्रिय को कर्ण इन्द्रिय भी कहते हैं।
१- स्पर्शन इन्द्रिय
'क्या तुमने कभी बर्फ खाई है ?'
'जी हाँ, कितनी ही बार
'कैसी होती है
? गर्म होती है न
(
१८ >
-?'
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( १९ >
'जी नहीं, ठण्डी होती है ।' 'अच्छा, आग कैसी होती है ?'
'आग गर्म होती है
।'
'लोहा और रुई कैसे
'लोहा भारी और रुई
'कभी ईंट और शीशे पर
होते हैं ?'
होते हैं ?'
हल्की होती है।'
जी हाँ. कितनी ही बार। होता है।
हाथ फेरा है,
'ईंट खुरदरी और शीशा चिकना होता है।' कभी गले पर सोये सोये हो ?'
'क्या तुम
गदेला बड़ा
कैसे
?'
'अच्छा, यह बाताओ, पत्थर कैसा होता है 'अजी, पत्थर तो बहुत कड़ा होता हैं हो। अच्छा, एक बात
।'
'तुम बहुत समझदार
और बताओ। बर्फ को ठण्डा, आर्ग को गर्म लोहे को भारी-रुई को हल्की, ईंट को खुरदरी, शीशे को चिकना, गदेले को नरम और पत्थर को कड़ा तुमने कैसे जाना ? किस चीज से जाना ?'
.
नरम
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( २० शरीर
) से
'हाथ-पाँव
और
छूकर ।'
‘बहुत ठीक। आज से याद रखना, जिनके द्वारा किसी चीज को छूकर ठण्डा, गर्म, हल्का, भारी, वगैरह जाना · जाता है, उसे स्पर्शन इन्द्रिय कहते हैं। स्पर्शन का अर्थ शरीर की त्वचा है।'
२-रसन इन्द्रिय
'क्या तुमने कभी पेड़ा खाया है।' 'जी हाँ, कितनी बार ।' 'बता सकते हो, कैसा स्वाद होता है ?' 'बहुत मीठा ।' 'अच्छा नीबू कैसा होता है ?' 'नीबू खट्टा होता है।' 'नीम और मिर्च का स्वाद बताओ ?' 'नीम कडुआ और मिर्च चरपरी होती है।' - 'और ऑवला ?' ।
'आँवला खाया तो है, स्वाद का पता है, परन्तु उसके नाम का पता नहीं। आँवला न खट्टा,
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__ ( २१ ) न मीठा, न कडुआ और न . चरपरा उसका स्वाद कुछ और ही तरह का
ही होता है। है।'
'तुम ठीक कहते हो। आँवले का स्वाद कुछ अलग ही तरह का होता है। उसका नाम कषाय या कषैला है।'
'अच्छा, अब यह बताओ, तुमने पेड़ा, नीम, मिर्च और आँवले का स्वाद कैसे जाना ? किस चीज से जाना ?'
"जीभ से चख कर जाना ।'
'बस, याद रक्खो कि, जिसके द्वारा किसी चीज को चख कर उसका खट्टा, मीठा, आदि स्वाद जाना जाता है, उसे रसन इन्द्रिय कहते हैं। रसन का अर्थ जीभ है।'
३-घाण इन्द्रिय
'क्या कभी तुमने गुलाब या चमेली आदि का कोई फूल देखा और सूंघा है ? यदि सूंघा है तो बता सकते हो, कैसा होता है ?'
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( २२ ) 'क्यों नहीं बता सकते । गुलाब और चमेली का फूल खुशबूदार होता है। उसमें से बहुत भीनी-भीनी सुगन्ध आती है ।'
'और कभी तुमने मिट्टी का तेल भी देखा है।' 'अजी, मिट्टी के तेल में तो बहुत बदबू आती है।'
'अच्छा, बताओ-तुमने गुलाब की खुशबू और मिट्टी के तेल की बदबू को कैसे जाना ? किस चीज से जाना ।'
'नाक से
सूंघ
कर
जाना ।'
- 'ठीक कहा ! आज से याद रखना कि जिसके द्वारा किसी चीज को सूंघ कर उसकी खुशबू या बदबू को जाना जाय, उसे घ्राण इन्द्रिय कहते हैं। घ्राण का अर्थ नाक है।'
४-चक्षुष् इन्द्रिय
'कोयला या काजल का रंग कैसा होता है?' 'कोयला और काजल का रंग काला होता है।' 'सोना और चाँदी का रंग कैसा होता है ?'
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२३ >
'सोना पीला और चाँदी सफेद होती है ।'
कैसा होता है ?'
'खून का रंग 'खून का रंग लाल होता है
'और कबूतर की
गर्दन गर्दन का रंग
?'
'कबूतर की गर्दन
का रंग नीला
होता है ।'
'कच्चे आम का रंग बता सकते हो ?' हरा होता है।'
'जी हाँ, कच्चे आम का
रंग
'अच्छा बताओ, तुमने यह कैसे, किस चीज सोना पीला, चाँदी
नीली और
से जाना कि काजल
सफेद,
कच्चा आम
काला,
खून खून लाल, कबूतर की गंर्दन है।' हरा होता
'आँख से देख देख कर जाना
'अच्छा, याद रक्खों कि कि जिसके द्वारा किसी चीज को देखकर उसके रूप को यानी रंग को चक्षुष् इन्द्रिय कहते हैं। चक्षुष् का
जाना जाय, उसे अर्थ आँख है । '
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( २४ ) ५-श्रोत्र इन्द्रिय
'घोड़ा कैसे बोलता है ?' 'घोड़ा हिनहिनाता है । 'गधा कैसे बोलता है ?' 'गधा रैकता है ।' 'कुत्ता कैसे बोलता है ।' 'कुत्ता भौंकता है ।'
'अच्छा यह बताओं; घोड़े का हिनहिनाना, गधे का रैंकना, कुत्ते का भौंकना कैसे जाना ? किस चीज से जाना ?'
'कान
से
सुन कर
जाना ।'
'बस' आज से याद रखना कि जिसके द्वारा आवाज सुनाई दे, किसी भी तरह का शब्द सुनाई दे, उसे श्रोत्र इन्द्रिय कहते हैं। श्रोत्र का अर्थ कान
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१. 'इन्द्र'
२. इन्द्रिय
( २५ )
अभ्यास
किसे कहते हैं ? कहते हैं ?
किसे
कितनी हैं ? उनके नाम बताओ।
३. इन्द्रिय ४. स्पर्शन इन्द्रिय किसे कहते हैं ?
५. रसन इन्द्रिय से क्या जाना जाता है ?
६. चक्षुष् इन्द्रिय किसे कहते हैं ?
जानी जाती है ?
७. आवाज किस इन्द्रिय से ८. घ्राण किसे कहते हैं ? इससे क्या जाना जाता
है ?
९. कर्ण इन्द्रिय का १०. बहरे की कितनी
दूसरा नाम क्या है ? इन्द्रियाँ हैं ?
११. क्या अन्धा चार इन्द्रियों वाला है ?
नोट- अन्धा, बहरा, गूँगा आदमी ही माना जाता है। इन्द्रियाँ तो हैं, पर नष्ट हो गई है।
को को पंचेन्द्रिय उनकी शक्ति
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बड़ों का
८
चाची, ताऊ और ताई
उनका आदर और सत्कार
माता, पिता, चाचा, आदि सब तुमसे बड़े हैं, करना तुम्हारा कर्तव्य हैं। जो लड़के अपने बड़ों का आदर करते हैं, वे संसार में सब ओर से प्रशंसा पाते हैं और खुद बड़े होने पर आदर की दृष्टि से देखे जाते हैं।
जब कभी तुमसे कोई बड़ा आकर मिले, तो झटपट खड़े हो जाओ, हाथ जोड़कर प्रणाम करो, जिनेन्द्र ' कहो । उनको
और आदर के साथ बैठने के लिए आसन आदि की पूछो।
पीने के
लिए जल
दो।
नम्रतापूर्वक उत्तर
बड़ो से कपट रखना
आदर
'जय
दो.
वे जब कोई बात पूछें, बड़े ध्यान से सुनकर उत्तर साफ हो, सच्चा हो।
ठीक नहीं होता।
(
२६ )
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( २७ ) बड़ों के सामने मुँह करके छींकना ठीक नहीं होता। छीक आये तो दूसरी ओर मुँह करके छींको। छींकते समय मुँह पर रुमाल या हाथ लगा लेना चाहिए।
जब बड़े खड़े हों और जाने लगें तो उनके खड़े होते ही तुम भी खड़े हो जाओ, कुछ दूर पहुँचाने के लिए साथ जाओ, और फिर 'जय जिनेन्द्र' करने के साथ प्रणाम करके लौटो।
___ बड़े लोगों से प्रश्न करते समय मत हँसो। और प्रश्न करने में अपना अहंकार भी मत दिखलाओ। जो कुछ पूछना हो, विनय के साथ पूछो। बड़े जब उत्तर दें, तो बीच में व्यर्थ ही . इधर-उधर की दलीलें मत करो। व्यर्थ विवाद बढ़ा कर अपनी बुद्धिमानी दिखाना, ठीक नहीं है। यदि बड़ों के उत्तर में कुछ भूल हो, तो हँसो मत। बड़ों के सामने हँसना, उनकी भूल का मजाक करना, बड़ी खराब आदत है। भगवान महावीर इसे बहुत बड़ा पाप बतलाते हैं। उनका कहना है कि- “विनयहीन आदमी किसी भी धर्म का पालन नहीं कर सकता।"
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( २८ ) और देखो, बड़ों की पीठ पीछे कभी बुराई मत करो। बड़ों की निन्दा करने से उनकी निन्दा नहीं होती, वरन् तुम्हारी ही निन्दा होती है।
जब तुम दूसरों के सामने अपने घर की निन्दा करो और कभी बड़े सुन पाएँ, उनको कितना दु:ख होगा। हमेशा गम्भीर बनने की कोशिश करो।
पाठशाला में जितने अध्यापक हों, चाहे वे तुम से नीचे दर्जे को पढ़ाते हों, चाहे ऊँचे दर्जे को, जब वे तुमसे मिलें तो सबसे हाथ जोड़ कर 'जय जिनेन्द्र' करो। और जब वे विदा हों, या तुम उनके पास से जाना चाहो, तब भी 'जय जिनेन्द्र' करो। इसी प्रकार जो बालक तुमसे बड़े हों, ऊँचे दर्जे में पढ़ते हों, उनको, और अपने से छोटों को भी, “जय जिनेन्द्र' कहकर आदर देना चाहिए।
अभ्यास १. बड़ों के आने पर क्या करना चाहिए ? २. बड़ों से कैसे बोलना चाहिए ? ३. बड़ों के सामने कैसे रहना चाहिए ? ४. बड़ों को विदाई कैसे देना चाहिए ? ५. अध्यापक तथा अध्यापिकाओं के साथ कैसे
बरतना चाहिए ?
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दया
जानवर
जो
है बुद्धि
आदमी,
बढ़कर
में
न
हो।
बुद्धि
भी जो
क्या बुद्धि है, धर्म में तत्पर न
हो ।
धर्म
भी क्या धर्म जिसमें नहीं हैं
है, . सत्य कुछ।
सत्य वह किसी काम का,
उपकार जो तिलभर न हो
॥
कर
सके है
उपकार वही
केवल, बस
आदमी।
(
२९
)
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यों
तो कहने आदमी,
के लिए हो बन्दर न हो ॥
बुद्धि में, बल में, विभव में,
__ लाख बढ़कर हो मनुज।।
जानवर
यदि
समझो दया असर दिल
का न
पर
हो।।
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| १०
दिवाली
दिवाली का त्यौहार भारत का प्रमुख त्यौहार माना जाता है, यह खुशी का त्यौहार है। इसे दीपावली भी कहते हैं। दीपावली का अर्थ है—दियों की पंक्ति अर्थात् जिस त्यौहार पर दीपकों की पंक्ति जलाकर लगाई जाय।
दिवाली की तैयारियाँ बहुत पहले से प्रारम्भ हो जाती हैं। दशहरा बीतते ही लोग अपने घरों की सफाई, लिपाई और पुताई कराने लगते हैं। धनतेरस के दिन स्त्रियाँ अपने घर का कूड़ा-करकट साफ करके, बाहर फेंकती हैं उनका कहना है कि कूड़ाकरकट बाहर फेंकने से लक्ष्मी आती है। इसलिए अपने घर की, शरीर की, कपड़ों की सफाई रखनी चाहिए।
. ( ३१ )
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( ३२ )
कार्तिक कृष्णा चौदस को छोटी दिवाली होती है और अमावस्या को बड़ी दिवाली मनाई जाती है। छोटी दिवाली की रात को एक-दो मामूली दीपक जलाये जाते हैं, किन्तु बड़ी दिवाली को खूब रोशनी की जाती है।
दिवाली को खील, बताशे,
मिठाइयाँ, खिलौने और पकवानों की भरमार रहती है। घरों और दुकानों को भी खूब सजाया जाता है।
तुम जानते हो, दिवाली क्यों मनाई जाती है ? नहीं जानते तो लो सुनो। आज से ढाई हजार वर्ष पहले महावीर भगवान हुए थे। उन्होंने दुनिया में फैले हुए पापों को दूर किया और धर्म का उपदेश दिया। वे वर्ष की अवस्था में बिहार प्रान्त के पावापुरी नामक स्थान पर कार्तिक कृष्णा अमावस्या की रात्रि के अन्तिम के अन्तिम पहर में मोक्ष पधारे थे।
७२
चूँकि वे तीर्थंकर भगवान थे, इसलिए उस समय उनके दर्शन के लिए इन्द्र लिए इन्द्र देवता, राजा और प्रजा के लाखों लोग वहाँ आये। अन्धकार के
उन्होंने
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कारण उस रात को रोशनी की और भगवान के
मोक्ष पाने के बाद अगले वर्ष, निर्वाण की स्मृति ___ में उन्होंने भारी समारोह मनाया और खूब रोशनी की।
बस, तभी से सब लोग प्रतिवर्ष कार्तिक कृष्णा अमावस्या को दिवाली मनाने लगे। व्यापारी लोग दिवाली से ही अपना नया साल मानते हैं। वे इस दिन अपने बहीखाते भी बदलते हैं। दिवाली से ही वीर सम्वत् बदलता है। इसे महावीर सम्वत् भी कहते हैं। बहुत से व्यापारी अपने बहीखातों पर महावीर सम्वत् डालते हैं। जैसे ईसा के नाम पर ईस्वी सन् चलता है, इसी तरह महावीर भगवान् के नाम पर महावीर सम्वत् या वीर सम्वत् चलता है।
बहुत से बच्चे दिवाली के दिन पटाखे वगैरह चलाते हैं। इससे कई बार आग लग जाती है। कई बच्चों को चोट भी आ जाती है। इसलिए पटाखे, बम, चटचटिया-ये सब नहीं बलाने चाहिए।
कुछ लोग दिवाली की रात को जुआ खेलते हैं। जुआ से बड़ी हानियाँ होती हैं। जुआ से नल,
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( ३४ )
युधिष्ठिर जैसे बड़े-बड़े सम्राट भी विपत्ति में पड़ गए। इसीलिए जुआ कभी नहीं खेलना चाहिए।
अभ्यास
१. दिवाली क्यों कहलाती है ? २. सफाई रखने से क्या लाभ हैं ? ३. दिवाली किस दिन मनाई जाती है ? ४. दिवाली के दिन क्या होता है ? ५. दिवाली क्यों मनाई जाती है ? ६. पटाखे चलाने से और जुआ खेलने से क्या-क्या
हानियाँ होती हैं ?
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राजा
११
मेघरथ
बात
पुराने समय की बहुत पुराने है— मेघरथ नाम के एक बड़े दयालु राजा थे। किसी भी दुःखी को देखकर उनका कोमल हृदय दया से भर जाता था। वे दीन दुःखी की सेवा करने में किसी प्रकार की कमी नहीं रखते थे। यहाँ तक कि सेवा और दया के मार्ग में वे अपना सब कुछ निछावर करने को तैयार हो जाते थे।
अच्छे लोगों का यश इस लोक में ही नहीं
पहुँचता है। राजा
पहुँच गया। एक
ने
रहता वह दूसरे लोकों में भी जा का यश भी स्वर्ग लोक तक की है कि बात कि स्वर्ग के राजा अपनी देव-सभा में में मेघरथ के दया भाव भारी प्रशंसा की, सब देवताओं ने सुनकर
समय
(
३५ >
इन्द्र
की बड़ी
प्रसन्नता
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( ३६ ) प्रकट की। परन्तु दो देवताओं को वह बात कुछ रुची नहीं; उन्होंने परीक्षा की ठानी।
देवों में एक देव कबूतर बना, और दूसरा बहेलिया। कबूतर उड़ता हुआ राजा के पास पहुँचा। वह भय के मारे थर-थर काँप रहा था। राजा ने बड़े प्रेमपूर्वक दयाभाव से कबूतर की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा- "अरे भाई, डरता क्यों है ? अब तुझे कोई मार नहीं सकेगा।"
इतने में पीछे-पीछे बहेलिया भी आ पहुँचा। वह बोला- "महाराज यह मेरा कबूतर है। मैंने खाने के लिए इसे पकड़ा था। देखो, यह मेरा बाज भी भूखा है। मेरा कबूतर मुझे मिलना चाहिए।"
राजा ने कहा- "भाई, अब तो यह मेरी शरण में आ गया है। मैं तुम्हें मारने के लिए भला कैसे दे सकता हूँ ! हाँ, इसके बदले में जो कहो, दिला दूं. बताओ, क्या चाहिए ?"
बहेलिए. ने कहा- “महाराज, यह अन्याय है। मेरी चीज मुझे लौटा दीजिए। अगर नही लौटा
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- ( ३७ ) सकते, तो किसी अन्य जीवित प्राणी, का कबूतर जितना माँस दिला दें। मुझे ताजा मांस चाहिए, बासी
नहीं।"
राजा ने कहा-"यह कैसे हो सकता है कि कबूतर बचाऊँ और दूसरे किसी जीव को मारूँ ! और जो चाहो, ले लो, किन्तु किसी दूसरे प्राणी का मांस नहीं दे सकता। जानते हो, किसी जीव को मारना और मांस खाना, कितना बुरा है। अगर मांस ही लेना है तो मैं अपनी देह का मांस दे सकता हूँ।"
__ बहेलिए ने कहा- “महाराज यह क्या करते हो? जरा से कबूतर के लिए अपना मांस देना चाहते हो ? जरा विचार कर काम कीजिए।"
राजा को मन्त्रियों ने और प्रजा के लोगों ने भी बहुत समझाया। परन्तु वह दयावीर कब मानने वाला था। बहेलिया मांस की अड़ लगाये रहा, और राजा ने किसी दूसरे जीव का मांस देना न चाहा। कबूतर की रक्षा के लिए राजा अपने प्राणों पर खेलने को तैयार हो गया।
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( ३८ ) राजा ने झटपट अपनी तराजू मंगा ली। तराजू के एक पलड़े में कबूतर को बिठाया और दूसरे पलड़े में अपना मांस काट-काट कर रखने लगा। पलड़ा मांस से भर गया, परन्तु कबूतर के बराबर न हुआ। देवता की माया जो ठहरी। राजा मेघरथ
भी पीछे हटने वाले नहीं थे। अन्त में बड़े आनन्द ___ के साथ स्वयं ही हँसते हुए तराजू के पलड़े में ___ बैठ गए, और कहा कि-'लो भाई अब तो कबूतर
के बराबर हुआ।'
राजा का तराजू में बैठना था कि आकाश में देव-दुन्दुभि बज उठी। फूलों की वर्षा होने लगी। 'जय-जय की ध्वनि से वायुमण्डल दूर-दूर तक गूंजने लगा। दोनों देवताओं ने प्रसन्न भाव से राजा के चरणों में झुक कर वन्दना की और क्षमा माँगी। राजा का शरीर क्षण भर में फिर पहले जैसा स्वस्थ हो गया।
- बच्चो, जैन इतिहास में राजा मेघरथ का बहुत गुणगान किया गया है। दया-धर्म के लिए राजा मेघरथ का उदाहरण अलौकिक है। तुम जानते हो, भगवान शान्तिनाथ कौन से तीर्थंकर थे ? राजा
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मेघरथ की दयालु आत्मा ही आगे चलकर जैन धर्म के सोलहवें तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ जी के रूप में अवतरित हुई।
तुमने देखा, दया का फल कितना सुन्दर मिलता है ! दया के प्रभाव से तीर्थंकर जैसा महान् पद मिलता है, जिनके चरणों में स्वर्ग के इन्द्र भी मस्तक झुकाते हैं।
अभ्यास
१. राजा मेघरथ कैसा राजा था ? . २. उसके पास दो देवता क्यों आये ? ३. राजा और बहेलिए में क्या बातें हुईं ? ४. मेघस्थ कौन से तीर्थकर हुए ? ५. इस कहानी से तुम्हें क्या शिक्षा मिलती है?
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गुरु-वन्दना
तिक्खुत्तो
करेमि।
वंदामि,
आयाहिणं, पयाहिणं नमंसामि, सक्कारेमि, मंगलं,
सम्माणेमि।
कल्लाणं
देवयं,
चेइयं।
पज्जुवासामि,
मत्थएण
वंदामि।
यह पाठ गुरुदेव की वन्दना करने के समय बोला जाता है। जैन साधु और जैन साध्वी, जैन । धर्म में गुरु माने गये हैं। जैन धर्म में खाली कंठी बाँध कर भेंट-पूजा और चढ़ावा लेने वाले को गुरु नहीं मानते।
( ४० )
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. ( ४१ ) जैन धर्म में गुरु वही माना जाता है, जो किसी प्रकार का लोभ-लालच न करे, रुपया, पैसा, धन कुछ भी न रक्खे, ताँगा, मोटर, रेल आदि किसी भी सवारी पर न बैठे, जहाँ जाना हो, नंगे पैरों चले, कच्चा पानी न पीवे, आग का स्पर्श न करे, हरी साग-सब्जी न खावे, न कभी झूठ बोले, न कभी चोरी करे, साधु किसी औरत को न छूवे, साध्वी किसी मर्द को न छूवे, न रात में भोजन करे और न रात में पानी पीवे। जैन साधु बन जाना कुछ आसान काम नहीं है।
संसार में सच्चे गुरु का दर्जा बहुत ऊँचा माना गया है। संसार के झंझटों में फंसे हुए अज्ञानी जीवों को धर्म का सच्चा उपदेश, गुरु से ही मिलता है। गुरुदेव हमारे मन में से अज्ञान का
अन्धकार दूर कर सच्चे ज्ञान का प्रकाश कर देते हैं। ऐसे गुरुदेव के चरणों में वन्दना करना, नमस्कार करना, तुम्हारा सबसे पहला कर्तव्य है। गुरुदेव की सच्चे प्रेम के साथ वन्दना करने से आत्मा को बहुत बड़ी शान्ति प्राप्त होती है।
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जैन-स्थानक में जब गुरुदेव के दर्शन करने के लिए जाओ, तो दोनों हाथ जोड़ कर यह तिक्खुत्तो' का पाठ पढ़ो और जब आखरी हिस्सा ‘मस्थएण वंदामि' आवे, तब जमीन पर घुटने टेककर सिर झुका कर नमस्कार करो। यह 'तिक्खुत्तो' का पाठ तीन बार पढ़ा जाता है, और तीनों ही बार घुटने टेक कर नमस्कार किया जाता है।
ककर सिर
न
जाता है. यह तिक्स
अगर कभी गुरुदेव रास्ते में आहार-पानी लाते हुए या विहार करते हुए मिलें तो वहाँ 'मत्थएण वन्दामि' बस इतना कहकर ही वन्दना करना ठीक है।
वन्दना करते समय स्त्रियाँ साध्वी जी के चरणों को छू सकती हैं, साधुओं के चरणों को नहीं और पुरुष साधु जी के चरणों को छू सकते हैं, साध्वी जी के चरणों को नहीं।
अभ्यास .
१. जैनधर्म में गुरु किसे कहते हैं ? २. वन्दना कैसे करनी चाहिए ? ३. वन्दना करते समय तिक्खुत्तो कितनी बार पढ़ना
चाहिए ? ४. रास्ते में वन्दना किस पाठ से करनी चाहिए? ५. कौन किसके चरण छू सकता हैं ?
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१३
बोलो !
जब बोलो, तब सच-सच बोलो, कभी न बातें रच-रच बोलो।
जब बोलो तब हँस कर बोलो, बातों में मिसरी-सी घोलो।
झुक कर बोलो,
जब बोलो तब सोच समझ कर रुक कर बोलो।
जब बोलो तब खुल अपने मन की बातें
कर बोलो,
कर
खोलो।
जब
बोलो तब हितकर
मन में आदर भर कर
( ४३ )
बोलो,
बोलो।
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जब बोलो तब कम ही बोलो, बिन अवसर मत मुँह खोलो।
जब बोलो तब मीठा बोलो, कभी न कुछ भी कडुआ बोलो।
कभी किसी का भेद न खोलो, घर की बात न बाहर बोलो।
द्वेष, कपट रख कभी न बोलो, निन्दा, चुगली का मल धोलो।
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१४
जैनधर्म - दयाधर्म
हमें कोई दुःख दे, हमें कोई मारे, हमें कोई गाली दे तो हमें कैसा लगता है ? बुरा लगता या अच्छा लगता है है ? बुरा लगता
न !
अब विचार कीजिए। अगर हम किसी दुःख दें, किसी जीव को मारें, दें, तो उसे कैसा लगेगा ? बुरा लगेगा ? बुरा लगेगा न !
जीव को
या गाली
अच्छा
सताएँ लगेगा या
हाँ, तो जो बात हमें पसन्द नहीं है, हमें खराब लगती है, वह दूसरों को किस तरह आ सकती है ? किस तरह अच्छी लगती है ?
पसन्द
भगवान महावीर ने इसीलिए तो कहा है---कि जो बात तुम अपने लिए पसन्द नहीं
करते, वह
(
४५)
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दूसरों के लिए भी मत करो। संसार के सब जीव अपने लिए भी सुख चाहते हैं, दु:ख कोई भी नहीं चाहता। सबको अपने समान ही समझो।
अच्छा तो भगवान महावीर के उपदेश का क्या सार निकला ? भगवान महावीर के उपदेश का सार यह है कि, हम न कसी को मारें, न सताएँ, न दुःख दें, न गाली दें, न किसी प्रकार का बैर-भाव रक्खें। हम सब जीवों से प्रेम-भाव रक्खें। जहाँ तक हम . से बन सके, दूसरे जीवों को सुख-शान्ति पहुँचाएँ। यही अहिंसा है, यही दया है। एक प्रकार से जैन धर्म का प्राण दया ही है। तभी जैन धर्म का दूसरा नाम दया धर्म है।
__ भगवान महावीर के शासन में दयाधर्म की बहुत बड़ी महिमा है। भगवान महावीर को भगवान का पद भी उनकी अपार दया के कारण ही मिला था। भगवान महावीर ने खुद भायंकर कष्ट उठाकर भी संसार के सब जीवों को सुख-शान्ति का मार्ग बताया।
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दूसरों के दुःख को को छोड़ने के लिए
सच्ची दया है।
८७ )
करने के लिए अपने सुख
नाम
दूर
तैयार हो जाना, इसी का
फिर
जाता
दया धर्म का का मूल है। मूल जड़ को कहते हैं। अगर वृक्ष की जड़ सूख जाए तो वह हरा-भरा नहीं रह सकता, उसी समय सूख है। इसी इसी प्रकार दया का नाश होते ही ही धर्म का वृक्ष भी हरा-भरा नहीं रह सकता, उसी समय सूख जाता है। जो साधक सच्चा दयालु होगा, उसमें दूसरे सद्गुण अपने आप आ जायेंगे। दया के होने पर ही आदमी सच बोल सकता है, ईमानदार रह सकता है, अच्छा चाल-चलन बना सकता है, है, सन्तोषी सन्तोषी रह सकता है, और दान देने वाला उदार हृदय का हो सकता है।
दया बड़े से बड़ा धर्म है। दया के बराबर दूसरा कोई भी धर्म नहीं है। जैन धर्म में तो सब जीवों पर दया भाव रखना, को ही मुख्य धर्म माना गया है, पर इसे दूसरे धर्म वाले भी मानते हैं। परन्तु विचार और आचरण जैनों की दया, सारी
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( ४८ )
दुनिया में श्रेष्ठ मानी गई है। इसलिए हम सब को अधिक से अधिक दयालु होना चाहिए। हम सब जीवों को प्रेम की आँखों से ही देखें, किसी प्रकार का भी बैर-विरोध और द्वेष न रक्खें।
'अमर'
जीवन
दया भाव
मन
जगत में मनुज का,
है
अनमोल ।
की
'अमर'
रात - दिवस
बिना
धर्म
रखना
सदा,
कुंडी खोल ||
२
दयामय
जय
दया का
नहीं
है,
:
धर्म
धर्म
की,
बोल |
भी,
पोल ॥
अभ्यास
१. हमें कोई दुःख देता है तो कैसा लगता है? २. भगवान महावीर का क्या उपदेश है ? क्या है ?
३. धर्म का मूल
४. जैन धर्म का
दूसरा नाम क्या है कहते हैं ?
५. दया किसे
?
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-
सीख की बातें
बड़ों को सदा आप कहकर बोलो, तुम या __ तू मत कहो। तू कहना तो बहुत ही भद्दा है। 'आप' बड़ों के लिए आदर-भाव का सूचक है।
(२)
जब किसी से बोलना हो तो बड़े आदर के साथ पिता जी, चाचा जी, भाई जी तथा.. अम्मा जी, ताई जी, बहन जी; आदि यथा योग्य विशेषण लगाकर बोलना चाहिए।
(३)
अपने से बड़ों के साथ चलना हो तो उनसे दो कदम पीछे रहो। वे पीछे हों तो मार्ग
एक
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देकर, उनको आगे हो जाने दो। दरवाजे के अन्दर जाना हो तो पहले उनको जाने दो। दरवाजा बन्द हो तो आगे बढ़ कर उसे खोल दो।
अपने से बड़े या अतिथि मेहमान के आने पर उनका स्वागत खड़े होकर करना चाहिए और जब वे जाने लगे तब भी खड़े हो जाना चाहिए।
और हो सके तो दरवाजे तक या गाड़ी तक उनकी विदा करने के लिए जाना चाहिए।
लिखते समय अंगुलियों में स्याही मत लगने दो। यदि भूल से लग जाय, तो तुरन्त उसे साफ कर डालो। स्याही से भरे हुए काले और लाल हाथ ठीक नहीं होते।
कलम से जमीन पर स्याही न छिड़को। और न उसको सिर के बालों से पोंछो। जमीन पर स्याही
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और बालों से
डालने से फर्श गन्दा होता है, पोंछने पर सिर गन्दा होता है।
हर जगह थूकने की आदत बुरी है। इससे बीमारी फैलती है। हर जगह नाक भी नहीं सिनकना चाहिए। इसके लिए रुमाल रखो।
लिफाफा थूक लगाकर नहीं बन्द करना चाहिए। और न पुस्तक के पन्ने थूक लगाकर उलटने चाहिए। - कपड़े कभी मत चबाओ।
(९)
किसी को कोई चीज देनी हो तो बायें हाथ से मत दो। और लेनी हो तो बायें हाथ से मत लो। देने-लेने में दाहिने हाथ का व्यवहार करना ही ठीक है। बायें हाथ से देना-लेना अनादर का सूचक है।
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________________
( ५२ )
(१०) सभ्य समाज में डकार लेना, जीभ निकालना, . नाक में अंगुली डालना, अंगुली चाटना, जमुहाई लेना, आपस में कानाफूसी करना, अंगड़ाई लेना, जोर से हँसना, जोर से बोलना इत्यादि बुरा समझा जाता है।
(११)
जब भी किसी अपने से बड़े या छोटे से मिलो तो प्रसन्नता के साथ हाथ जोड़कर 'जय जिनेन्द्र' करो। और जब विदा हो तब भी 'जय जिनेन्द्र' करके विदा होना चाहिए, या दूसरे को विदा देनी चाहिए।
.
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________________
मंगल-पाठ
१६
:
अरिहन्त
जय
सिद्ध प्रभु जय साधु-जन जय
जिन धर्म
जय
१
अरिहन्त
सिद्ध.
जय,
जय ।
मंगल,
मंगल।
साधु-जन
मंगल,
जिन धर्म मंगल T
( ५३
)
प्रभु
· जय,
जय।।
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( ५४ )
अरिहन्त उत्तम, सिद्ध प्रभु उत्तम। साधु-जन उत्तम, जिन धर्म. उत्तम,
अरिहन्त सिद्ध प्रभु साधु-जन जिन धर्म
शरण, शरण। शरण, शरण।।
चार शरण अघ-हरण जगत में,
और न शरणा हितकारी। जो जन ग्रहण करें वे होते,
अजर-अमर पद के धारी।।
यह मंगल-पाठ सुबह पालथी आसन से बैठ कर, पूर्व की ओर मुँह कर, दोनों हाथ जोड़ कर
।
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| १७ रात्रि भोजन
मारवाड़ में एक , आदमी था। वह रात्रि में भोजन किया करता था। मिलने वाले लोगों ने उसे बहुत समझाया कि “रात में ' मत खाया करो, खाने
के लिए दिन के बारह घण्टे क्या कुछ कम _है ? दिन को छोड़कर रात में खाना, अन्धों का
खाना है।''
- वह आदमी बड़ा जिद्दी था। नहीं माना। "मैं जैन धर्म की बात क्यों मानें ।'यह भी उसके .
मन में घमंड था। वह रात में ही रसोई बनवाता __ और खाता।
एक बार उसने अपने नौकर से रात में रसोई बनवाई। रसोई में पूरी समूची भिंडी की तरकारी छौंकीtion गईnaticथी। For Private & Personal use Only
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( ५६ ) अचानक एक छिपकली ऊपर से तरकारी में गिर गई। रात के अंधेरे में वह दिखाई नहीं दी। भिंडी के साथ वह भी पका दी गई।
वह आदमी जब भोजन करने बैठा तो पहले ही कौर में छिपकली आ गई। वंह रसोई करने वाले नौकर पर गुस्सा होकर बोला- “क्यों रे नालायक, इस भिंडी का डंठल भी नहीं तोड़ा !'
नौकर घबराकर बोला- "हुजूर, मैंने तो सभी __भिंडियों के डंठल तोड़े हैं, यह एक कैसे रह गई ?"
- अब तो भोजन करने वाले ने ज्यों ही उसे तोड़ने के लिए रोटी का टुकड़ा, उस पर रगड़ा तो चार पैर दिखाई दिये। वह चिल्ला उठा-अरे यह क्या है ?"
अँधेरा था, अच्छी तरह साफ नहीं दिखाई दे रहा था। नौकर . से झटपट लालटेन लाने को कहा।
नौकर जल्दी लालटेन ले आया। लालटेन के उजाले में देखा तो एक दम हक्का-बक्का रह गया। उसके मुँह से अचानक चीख निकली-“अरे यह तो
:
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( ५७ ) छिपकली है। बहुत बचा, नहीं तो आज मर गया होता।"
उस दिन से उसने रात में खाना छोड़ दिया। वह कहने लगा--"रात का खाना बहुत बुरा है। अब भूल करके भी कभी रात में खाना नहीं खाऊँगा।"
रात का खाना बहुत खराब है। रात में उल्लू . और चमगादड़ खाते हैं। हंस और तोता रात को नहीं खाते। जो अच्छे और भले हैं, वे रात के खाने से परहेज करते हैं। रात का खाना अन्धा है। मक्खी, मच्छर, चींटी आदि अनेक सूक्ष्म जीव खाने में पड़ जाते हैं। हिंसा भी होती है और उससे स्वास्थ्य भी खराब होता है। इसलिए भूल कर भी रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए।
अभ्यास १. यह घटना कहाँ और कैसे बनी ? । २. जैन धर्म में रात्रि-भोजन कैसा बताया है ? । ३. रात में कौन पक्षी खाते हैं ? कौन नहीं ।
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१८
नल-दमयन्ती
आजकल की नहीं, हजारों वर्ष पहले है, कि भारतवर्ष की अयोध्या नगरी में, के एक बहुत बलवान, गुणी और विद्वान राजा नल अपनी प्रजा से बड़ा प्रेम
अतएव उनका यश दूर-दूर तक
की बात
नल
नाम
राजा थे।
करते थे,
फैला हुआ था।
विदर्भ देश के राजा भीम की पुत्री दमयन्ती भी उस युग की बहुत सुन्दर सुशील लड़की थी। उसकी प्रशंसा भी दूर-दूर तक फैली हुई थी । राजा नल ने ने दमयन्ती दमयन्ती के के और दमयन्ती ने राजा नल के रूप और गुण की बहुत प्रशंसा सुनी। दोनों एक-दूसरे को चाहने लगे। सौभाग्य से जब दमयन्ती दमयन्ती ने अन्य सब राजाओं को
स्तरांतर हुआ तो
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( ५९ )
छोड़कर नल को ही वरमाला पहनाई। बड़े आनन्द के साथ दोनों का विवाह हो गया।
राज नल में और तो सारे गुण बहुत अच्छे थे, परन्तु जुआ खेलने की बहुत बुरी आदत थी। राजा नल चन्द्रमा थे, तो दुर्गुण उनमें कलंक था। नल का छोटा भाई कूबर बड़ा ही दम्भी और ईर्ष्यालु प्रकृति का व्यक्ति था। एक बार राजा नल ने कूबर के साथ जुआ खेला, राज-पाट सब हार गया। आखिर, शर्त के अनुसार नल को वनवास स्वीकार करना पड़ा।
दमयन्ती ने कहा कि 'मैं भी आपके साथ चलूँगी।' नल ने बहुत समझाया कि 'वन में बड़े कष्ट हैं, इसलिए तुम अपने पिता के यहाँ चली जाओं।' परन्तु दमयन्ती ने कहा-'जब पति पर संकट आया हो, तब स्त्री को उसका साथ देना चाहिए। वह स्त्री ही क्या, जो संकट में पति को छोड़ दे।'
आखिर, दोनों वन में जाकर रहने
लगे।
एक दिन राजा नल दमयन्ती को सोती छोड़कर
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( ६० )
पिता के यहाँ चली मेरे कारण वन में दुःख पा रही
न पावेगी तो अपने व्यर्थ ही मेरे
जायगी ।
है । '
राजा नल के चले जाने पर दमयन्ती की नींद खुली। वह जंगल में अकेली नल को खोजती फिरी और तरह-तरह के कष्ट उठाती रही। वह बड़ी साहस वाली स्त्री थी। आखिर जब उसके पिता भीम को मालूम हुआ तो उसने दमयन्ती को बड़े प्रेम से अपने पास बुला लिया।
.
उधर राजा नल दधिपर्ण राजा के यहाँ गुप्तरूप से सारथी बनकर रहने लगा। उस युग में नल के समान दूसरा कोई घोड़ों को तेज चलाने में निपुण नहीं था, नल को प्रकट करने के लिए दमयन्ती का फिर से जाली स्वयंवर रचा गया। जानबूझ कर समय इतना थोड़ा रक्खा गया कि नल कें समान चतुर सारथी ही वहाँ इतनी जल्दी पहुँच सकता था। आखिर, राजा नल दमयन्ती के लिए प्रकट हो गए · अयोध्या में आकर राज्य करने लगे। बाद की अवस्थ
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में नल और दमयन्ती ने मुनि-दीक्षा ग्रहण की। धर्म साधना के बाद सद्गति प्राप्त की। जैन धर्म की सोलह सतियों में दमयन्ती का भी प्रमुख स्थान है।
अभ्यास
१. दमयन्ती की कहानी बताओ ? २. नल में क्या दुर्गुण था ? ३. जाली स्वयंवर क्यों रचा गया ?
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जैन-गान
सन्मति युग-निर्माता
शिवपुर-पथ परिचायक जय हे ! सन्मति युग-निर्माता!
गंगा कल-कल स्वर से गाती, तब गुण गौरव-गाथा । सुन-नर-किन्नर तब पद यग में, नित नत करते माथा ।।। हम भी तब यश गाते सादर शीश झुकाते ।
हे सद्बुद्धि प्रदाता ! दुःखहारक सुखदायक जय हे सन्मति युग-निर्माता ! जय हे ! जय हे ! जय हे ! जय जय जय जय हे !
मंगलकारक दया प्रचारक, खग पशु नर उपकारी भविजनतारक कर्मविदारक, सब जग तब आभारी
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( ६३ ) जब तक रवि · शशि तारे, तब तक गीत तुम्हारे !
विश्व रहेगा गाता ॥ चिरसुख-शान्ति विधायक, जय हे सन्मति युग-निर्माता! जय हे ! जय हे ! जय हे ! जय जय जय जय हे !
भ्रातृ-भावना भुला परस्पर, लड़ते हैं जो प्राणी। उनके उर में विश्व-प्रेम फिर, भरे तुम्हारी वाणी ॥ - सब में करुणा जागे, जग से हिंसा भागे।
पायें सब सुख-गाता ॥ हे दुर्जय ? दु:ख-त्रायक, जय हे सन्मति युग-निर्माता ! जय हे ! जय हे ! जय हे ! जय जय जय जय हे !
नोट- सन्मति' भगवान महावीर का नाम है।
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