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अनकान्त
अगस्त १९५४
विषय-सूची
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सम्पादक-मण्डल श्री जुगलकिशोर मुख्तार
'युगवीर' बा० छोटेलाल जैन बा० जयभगवान जैन १ समन्तभद्रभारती-देवागम-[युगवीर एडवोकेट
२ मद्रास और मयिलापुरका जैन-पुरातत्व--[ छोटेलाल जैन पं० परमानन्द शास्त्री ३ श्री नेमिनाथाष्टक (स्तोत्र )
४ हिंसक और अहिंसक (कविता)-[ मुन्नालाल 'मणि' ५ सत्यवचन माहात्म्य (कविता)-[मुन्नालाल 'मणि' ६ निसीहिया या नशियाँ--[पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री ७ तीर्थ और तीर्थकर [पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री राजस्थान के जैन शास्त्रभण्डारों में उपलब्ध महत्वपूर्ण-साहित्य [कस्तूरचन्दजी एम० ए० सिंह-श्वान-समीक्षा--[पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री १० ग्रन्थोंकी खोजके लिये ६००) रुपयेके छह पुरस्कार
-[जुगलकिशोर मुख्तार : ११ वीरसेवामन्दिरको प्राप्त सहायता
१२ सकाम-धर्मसाधन- जुगलकिशोर मुख्तार अनेकान्त वर्ष १३१३ सखि ! पर्वराज पयूषण प्रार्य (कविता)-[ मनु 'ज्ञानार्थी'
१४ सम्पादकीय किरण २
६५ वीरसेवामन्दरको स्वीकृत सहायता १६ साहित्य परिचय और समालोचन -[परमानन्द जैन
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उत्तम शास्त्रदानका सुन्दर योग .. आप्त परीक्षाकी लूट !!
आप्तपरीक्षा हवीं शताब्दीके विद्वान श्री विद्यानन्दाचार्यकी स्योपज्ञ टीकासे युक्त अपूर्व कृति है प्राप्तोंकी परीक्षाद्वारा ईश्वर-विषयके सुन्दर सरस एवं सजीव विवेचनको लिये हुए है, न्याताचार्य पं. दरबारीलालके हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिसे युक्त है और पहली बार 'वीरसेवामन्दिर से प्रकाशित हुई है जिसका लागत मूल्य ८) रुपया है। हम चाहते हैं कि इस तत्त्वज्ञानपूर्ण महत्वके ग्रन्थका घर-घरमें प्रचार हो, कोई भी लायब्ररी इससे खाली न रहे और यह अजैन विद्वानोंको भी खास तौरसे पढ़नेके लिये दिया जाय । क्योंकि यह उनकी श्रद्धाको बदलकर अपने अनुकूल करनेमें बहुत कुछ समर्थ हैं । अतः प्रचारको दृष्टिसे हाल में यह योजना की गई है कि जो श्रुतभक्तिपरायण परोपकारी सज्जन दो प्रतियोंका मूल्य १६) रु. भेजेंगे उन्हें उतने हो मूल्यमें तीन प्रतियाँ दी जावेंगी, जिनमेंसे एक प्रति वे अपने लिये रखें और शेष दो प्रतियाँ किसी मन्दिर, लायनरी या अजैन विद्वानको अपनी ओरसे भेंट कर देखें और इस तरह सत्साहित्यके प्रचार एवं शास्त्रदानमें अपना सहयोग प्रदान करें । जो महानुभाव शास्त्रदानको इच्छासे २० प्रति एक साथ खरीदेंगे उन्हें वे प्रतियाँ १६०) की जगह १००) रु. में ही दी जावेंगी। आशा है सत्साहित्यक प्रचार में अपना सहयोग देनेके लिये उद्यमशील एवं शास्त्रदानके इच्छुक सज्जन शीघ्र ही अपना आर्डर भेजकर इस योजनासे लाभ उठाएँगे और इस तरह 'वीरसेवामन्दिरके' दूसरे महत्वपूर्ण ग्रन्थोंको अविलम्ब प्रकाशित करनेके लिये प्रोत्साहित करेंगे।
मैनेजर वीरसेवामन्दिर ग्रन्थमाला
दरियागंज, देहली अनेकान्तके ग्राहकोंको भारी लाभ अनेकान्तके पाठकोंके लाभार्थ हाल में यह योजना की गई हैं कि इस पत्रके जो भी ग्राहक, चाहे वे नये हों या पुराने, पत्रका वार्षिक चन्दा ६) रु. निम्न पते पर मनोआर्डरसे पेशगी भेजेंगे वे १०) रु० मूल्यके नीचे लिखे ६ उपयोगी ग्रन्थों को या उनमेंसे चाहे जिनको, वीरसेवामन्दिरसे अर्ध मूल्यमें प्राप्त कर सकेंगे
और इस तरह 'अनेकान्त' मासिक उन्हें १) रु० मूल्यमें ही वर्ष भर तक पढ़ने को मिल सकेगा। यह रियायत सितम्बरके अन्त तक रहेगी अतः प्राहकोंको शीघ्र ही इस योजनासे लाभ उठाना चाहिये। ग्रन्थोंका परिचय इस प्रकार है:१. रत्नकरण्डश्रावकाचारसटीक -पं० सदासुखजीकी प्रसिद्ध हिन्दीटीकासे युक्त, बड़ा
साइज, मोटा टाइप, पृ० ४२४, सजिल्द. मूल्य २. स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्रकी अनोखी कृति, पापोंको जीतनेकी कला, सटीक, हिन्दी
___टीकासे युक्त और मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी महत्वकी स्तावनासे अलंकृत, पृ. २०२ सजिल्द ॥) ३. अध्यात्मकमलमातोएड-पंचाध्यायीके कर्ता कविराजमल्लकी सुन्दर आध्यात्मिक रचना,
हिन्दी अनुवाद सहित और मुख्तार श्री जुगलकिशोरकी खोजपूर्ण ७८ पृष्ठ की प्रस्तावनासे भूषित, पृष्ठ २८०, ..
शा) ४. श्रवणबेल्गोल और दक्षिणके अन्य जैनतीर्थ-जैनतीर्थोका सुन्दर परिचय अनेक
चित्रों सहित पृष्ठ १२० ... ५. श्रीपुरपार्वश्नाथस्तोत्र-आचार्य विद्यानन्दकी तत्वज्ञानपूर्ण सुन्दर रचना, हिन्दी अनुवादादि
सहित, पृष्ठ १२५ . ६. अनेकान्त रस-लहरी-अनेकान्त जैसे गूढगम्भीर विषयको अतीव सरलतासे समझनेसमझाने की कुञ्जी
_, : ) मैनेजर 'अनेकान्त' वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज देहली।
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ॐ अहम
तत्त्व-सधातव
विश्व तत्त्व-प्रकाशक
HATHHTHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHit
एक किरण का मूल्य ॥)
वाषिक मूल्य ६)
HARHAALHHHHHHHH
नीतिविरोधष्यसीलोकव्यवहारवर्तक सम्प। |परमागमस्य बीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
वर्ष १३ । किरण २
वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, देहली भाद्रपद वीर नि० संवत् २४८०, वि. संवत २०११
अगस्त १९५४
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समन्तभद्र-भारती
देवागम स त्वमेवाऽसि निर्दोषो युक्ति-शास्त्राऽविरोधिवाक । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धन न बाध्यते॥६॥
..(हे वीर जिन !) वह निर्दोष-अज्ञान तथा रागादि दोषोंसे रहित वीतराग और सर्वज्ञ-श्राप ही हैं। क्योंकि श्राप युनि-शास्त्राऽविरोधिवाक् हैं-आपका वचन ( किसी भी तत्त्व-विषयमें) युक्ति और शास्त्रके विरोधको लिये हुए नहीं है।
और यह अविरोध इस तरहसे लक्षित होता है कि श्रापका जो इष्ट है-मोक्षादितत्त्वरूप अभिमतअनेकान्तशासन है-वह प्रसिद्धसे-प्रमाणसे अथवा पर-प्रसिद्ध एकान्तसे-बाधित नहीं है। जब कि दूसरोंका (कपिल-सुगतादिकका) जो सर्वथा नित्यवादअनित्यवादादिरूपएकान्त अभिमत (इष्ट) है वह प्रत्यक्षप्रमाणसे हो नहीं किन्तु पर-प्रसिद्ध अनेकान्तसे भी बाधित है और इसलिए उन सर्वथा एकान्तमतोंके नायकोंमेंसे कोई भी युक्रि-शास्त्राविरोधिवाक् न होनेसे निर्दोष एवं सर्वज्ञ नहीं है। त्वन्मताऽमृत-बायानां सर्वथैकान्त-वदिनाम् । प्राप्ताऽमिमान-दग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ॥७॥
'जो लोग आपके मतरूपी अमृतसे-अनेकान्तात्मक-वस्तु-तत्त्वके प्रतिपादक आगम (शासन) से, जो कि दुःखनिवृत्तिलक्षण परमानन्दमय मुनि-सुखका निमित्त होनेसे अमृतरूप है-बाह्य हैं-उसे न मान कर उससे द्वेष रखते हैं- 'सर्वथा एकांतवादी हैं-स्वरूप-पररूप तथा विधि-निषेधरूप सभी प्रकारोंसे एक ही धर्म नित्यत्वादिको मानने एवं प्रतिपादन करनेवाले हैं-और प्राप्ताऽभिमानसे दग्ध हैं-वस्तुतः श्राप्त-सर्वज्ञ न होते हुए भी 'हम प्राप्त हैं। इस अहंकारसे भुने हुए अथवा जले हुएके समान हैं, उनका जो अपना इष्ट है-सर्वथा एकान्तात्मक अभिमत है-वह प्रत्यक्ष प्रमाणसे बाधित है-प्रत्यक्षमें कोई भी वस्तु सर्वथा नित्य या अनित्यरूप, सर्वथा एक या अनेकरूप, सर्वथा भाव या अभावरूप इत्यादि नज़र नहीं आती-अथवा यों कहिये कि प्रत्यक्ष-सिद्ध अनेकान्तात्मक वस्तुतत्त्वके साथ साक्षात् विरोधको लिये हुए होनेके कारण अमान्य है।
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३४ ] अनेकान्त
[ वर्ष १३ कुशलाकुशल कम परलोकश्च न क्वचित् । एकान्त-ग्रह-रक्तेषु नाथ स्व-पर-वैरिषु ॥८॥
'जो लोग एकांतके ग्रहण-स्वीकरणमें प्रासक हैं, अथवा एकांतरूप ग्रहके वशीभूत हुए उसीके रंगमें रंगे हैं-सर्वथा एकान्त पक्षके पक्षपाती एवं भक्त बने हुए हैं और अनेकान्तको नहीं मानते, वस्तुमें अनेक गुण-धर्मों (अन्तों) उसे एक ही गुण धर्म (अन्त) रूप अंगीकार करते हैं:-(और इसीसे) जो स्व-परके बैरी हैं-दूसरोंके सिद्धान्तोंका विरोध कर उन्हींके शत्रु नहीं, किन्तु अपने एक सिद्धान्तसे अपने दूसरे सिद्धान्तोंका विरोध कर और इस तरह अपने किसी भी सिद्धान्तको प्रतिष्ठित करनेमें समर्थ न होकर अपने भी शत्रु बने हुए हैं उनमेंसे प्रायः किसीके भी यहां अथवा किसीके भी मतमें, हे वीर भगवान् ! न तो कोई शुभ कर्म बनता है, न अशुभ कर्म, न परलोक (अन्य जन्म बनता है और (चकारसे) यह लोक (जन्म) भी नहीं बनता, शुभ-अशुभ कर्मोंका फल भी नहीं बनता और न बन्ध तथा मोक्ष ही बनते हैं-किसी भी तत्त्व अथवा पदार्थकी सम्यक् व्यवस्था नहीं बैठतो । और इस तरह उनका मत प्रत्यक्षसे ही बाधित नहीं, बल्कि अपने इष्टसे अपने इष्टका भी वाधक है।'
भावकान्ते पदार्थानामभावानामपसवात् । सर्वात्मकमनाद्यन्तमस्वरूपमतावकम् ॥६॥ ___(हे वीर भगवन् ! ) यदि पदार्थोंके भाव (अस्तित्त्व) का एकान्त माना जाय-यह कहा जाय कि सब. पदार्थ सर्वथा सत् रूप ही हैं, असत् (नास्तित्व) रूप कभी कोई पदार्थ नहीं है तो इससे अभाव पदार्थोंका-प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभावरूप वस्तु-धोका--लोप ठहरता है, और इन वस्तु-धर्मोंका लोप करनेसे वस्तुतत्त्व (सर्वथा) अनादि, अनन्त, सर्वात्मक और अस्वरूप हो जाता है, जो कि आपको इष्ट नहीं है-प्रत्यक्षादिके विरुद्ध होनेसे आपका मत नहीं है।
(किस अभावका लोप करनेसे क्या हो जाता अथवा क्या दोष आता है, उसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है:-) कार्य-द्रव्यमनादि स्यात्प्रागभावस्य निन्हवे । प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत् ॥१०॥
'प्रागभावका यदि लोप किया जाय-कार्यरूप द्रव्यका अपने उत्पादसे पहले उस कार्यरूपमें अभाव था इस बातको न माना जाय तो वह कार्यरूप द्रव्य-घटादिक अथवा शब्ददिक-अनादि ठहरता है-और अनादि वह है नहीं, एक समय उत्पन्न हुआ यह बात प्रत्यक्ष है। यदि प्रध्वंस धर्मका लोप किया जाय-कार्यद्रव्यमें अपने उस कार्यरूपसे विनाशकी शक्रि है और इसलिए वह वादको किसी समय प्रध्वंसाभावरूप भी होता है, इस बातको यदि न माना जाय तो वह कार्यरूप द्रव्य-घटादिक अथवा शब्दादिक-अनन्तता-अविनाशताको प्राप्त होता है-और अविनाशी वह है नहीं, यह प्रत्यक्ष सिद्ध होता है, प्रत्यक्षमें घटादिक तथा शब्दादिक कार्योंका विनाश होते देखा जाता है। अतः प्रागभाव और प्रध्वंसाभावका लोप करके कार्यद्रव्यको उत्पत्ति और विनाश-विहीन सदासे एक ही रूपमें स्थिर (सर्वथा नित्य) मानना प्रत्यक्ष-विरोधके दोषसे दूषित है और इसलिए प्रागभाव तथा प्रध्वंसाभावका लोप किसी तरह भी समुचित नहीं कहा जा सकता । इन प्रभावोंको मानना ही होगा।' सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्याऽपोह-व्यतिक्रमे । अन्यत्र समवाये न व्यपदिश्येत सर्वथा ॥११॥
'यदि अन्याऽपोहका-अन्योन्याभावरूप पदार्थका-व्यतिक्रम किया जाय-वस्तुके एक रूपका दूसरे रूपमें अथवा एक वस्तुका दूसरी वस्तुमें प्रभाव है इस बातको न माना जाय-तो वह प्रवादियोंका विवक्षित अपना-अपना इष्ट एक तत्त्व (अनिष्टात्माओंका भी उसमें सद्भाव होनेसे) अभेदरूप सर्वात्मक ठहरता है और इसलिए उसकी अलगसे कोई व्यवस्था नहीं बन सकती। और यदि अत्यन्ताभावकासमलोप किया जाय-एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यमें सर्वथा अभाव है इसको न माना जाय-तो एक द्रव्यका दूसरे में समवाय-सम्बन्ध (तादात्म्य) स्वीकृत होता है और ऐसा होने पर यह चेतन है, यह अचेतन है इत्यादि रूपसे उस एक तत्त्वका सर्वथा भेदरूपसे कोई व्यपदेश कथन) नहीं बन सकता।' -युगवीर
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मद्रास और मयिलापुरका जैन-पुरातत्त्व
(छोटेलाल जैन )
अभी जब मूडबिद्रीकी सिद्धान्तवसतिमें सुरक्षित आगम इसके निकटके कई अंचल और आस-पासके अनेक ग्राम एक ग्रन्थ (धवलादि) की एक मात्र प्रतियोंके फोटो प्राप्त करने समय संस्कृति और धर्मोके केन्द्र रह चुके हैं। के उद्देश्यसे दक्षिणकी यात्रा करनी पड़ी थी, वहां का कार्य
कुरुम्ब-जाति समाप्त कर मैं 'सि तन्नवासल' सिद्धक्षेत्रके फोटो लेता हुश्रा
कर्नल मेकेन्जीने हस्तलिखित प्रन्थों और लेखोंका बहुत मद्रास गया था। वहां 'दक्षिणके जैनशिलालेखोंका संग्रह'
बड़ा संग्रह किया था, जो अब मद्रासके राजकीय पुस्तकालयमें नामका एक ग्रन्थ, जो कई वर्षोंसे वीरशासनसंघके लिए तैयार
सुरक्षित है। इनका परिचय और विवरण टेलर साहबने सन् कराया जा रहा था, उसको शीघ्र पूर्ण करानेके लिये मुझे
१८६२ में 'केटेलोगरिशोने अाफ़ अोरियन्टल मान्युस्कृप्ट्स वहां प्रायः एक मास ठहर जाना पड़ा। इस दीर्थ समयका
इन दि गर्वन्मेंट लायब्ररी' नामक वृहद ग्रन्थमें प्रकाशित उपयोग मैंने मद्रास और उसके निकटवर्ती स्थानोंके जैन पुरा
किया था। इनमें दक्षिण भारतके इतिहासकी प्रचुर सामग्री तत्त्वका अनुसन्धान करनेमें किया। उसीके फलस्वरूप जो
है। कुरुम्ब जातिके सम्बन्धमें भी अनेक विवरण इसमें उपकिंचित् इतिहास मद्रासका मैं प्राप्त कर सका उसे भाज पाठकोंके समक्ष प्रस्तुत करता हूँ।
लब्ध हैं, उन्हींके आधारसे हम यहां कुछ लिख रहे हैं :मद्रास नगरका इतिहास मात्र तीन शताब्दी जीवन- कुरुम्ब-जातिके लोग भारतके अति प्राचीन अधिवासी कालके क्रमिक विकास ( वृद्धि ) का है। वर्तमानका विस्तीर्ण हैं और वे अपनी द्रविड़ जातीय वल्लवोंसे भी पूर्व यहां बसे यह नगर, जो सन् १६३६ में स्थापित हश्रा था, अंग्रेजोंके हुए थे। किन्तु परवर्ती कालमें ये दोनों मातियाँ परस्पर आगमनके सैकड़ों वर्ष पूर्व विभिन्न छितरे हुए ग्रामोंके रूपमें मिश्रित हो गई थीं। था, 'मद्रास' शब्दकी उत्पत्ति इन्हीं ग्रामों में एक ग्रामके नामसे भारतीय इतिहासमें कुरुम्बोंने उल्लेखनीय कार्य किये हई है जो 'मदासपटम्' कहलाता था, और जो 'चीनपटम्' हैं। अति प्रसिद्ध 'टोन्डमण्डलम्' प्रदेशका नाम, जिसकी ( वर्तमानका फॉर्ट सेंट जार्ज दुर्ग) के निकट उत्तरकी अोर राजधानी एक समय कांचीपुरम् थी, 'कुरुम्ब-भूमि' या तथा सैनथामी' (मयिलापुर) के उत्तर तीन मील पर था।
'कुरुम्बनाडु' था। सर बाल्टर ईलियट (सहायकग्रन्थ १,५) यह नगर बंगोपसागरके तट पर अवस्थित है और उपकूलके
के अभिमतसे तो 'द्राविड़ देशके बहुभागका माम कुरुम्ब भूमि साथ साथ है मील लम्बा तथा तीन मील चौड़ा है, जिसका
था और जिसका विस्तार कोरोमण्डलसे मलाबार उपकूल तक क्षेत्रफल प्रायः ३० वर्ग मील है। इसको संस्थिति समुद्ध- इस सम्पूर्ण प्रायोद्वीपके किनारे तक था। इस प्रदेशके पूर्व तल (Sea-level ) के बराबर है और इसका सर्वोच्च
भागका नाम 'टोण्डमण्डलम्' तो तब पड़ा था जबकि चोलोंने प्रदेश समुद्रतटसे कुल २२ फीट ऊँचा है।
इसे विजित किया था। इनके अभिमतसे चोलवंशके नृपति किन्तु इसके चारों ओरके प्रदेशोंका अतीत गौरव और करिकालने कुरुम्बोंको जीता था। इस प्रान्तका चौवीस जिलों ऐतिहासिक गुरुत्व तथा इसके कुछ भागों (जैसे ट्रिप्लिकेन, (कोट्टम् ) में विभाजनका श्रेय कुरुम्बों को है।" मयिलापुर और तिरुभोट्टियूर) और पल्लवरम् जैसे उप- गस्टव प्रापर्ट ( स० ग्र.२) साहबने इनकी व्युत्पत्ति, नगरोंने भूतकालमें जो महत्व प्राप्त किया था वह वास्तवमें को (कु)= पर्वत शब्दके वर्धित रूप 'कुरु' से की है। अस्तु, अत्यन्त चित्ताकर्षक है। मद्रासके निकटके अंचलोंमें अनेक कुरुव या कुरुम्बका अर्थ होता है पर्वतवासी। प्रागैतिहासिक अवशेष, प्रस्तरयुगकी समाधियों, प्रस्तरनिर्मित मूलतः ये यादववंशी थे जिन्होंने कौरव पाण्डव (महाशवाधार (कब) और पत्थरकी चक्रिया और अन्य पुरातत्त्वकी भारत ) युद्ध में भाग लिया था । तत्पश्चात् इनके वंशधर सामग्री प्राप्त हुई है, जो इतिहास और मानव-विज्ञानके विभिन्न क्षेत्रोंमें तितर-बितर हो गए थे। अति प्राचीन कालसे अनुसन्धाताओंके लिए बहुत ही उपयोगी है।
ये नैनधर्मानुयायी थे। किसी समय कर्नाट देशसे इन ऐतिहासिक कालका विचार करने पर हम देखते हैं कि लोगोंने द्राविड देशमें 'टोएडमण्डलम्' तक विस्तार किया
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अनेकान्त
[ वर्ष १३ था (ये फैले थे) उस समय ये स्वतन्त्र थे। जब इनमें परस्पर सुख-शान्तिसे जीवन यापन करते हुए राज्य कर रहे थे तब मतभेद और द्वन्द होने खगे तब इन्होंने यह उचित समझा चोल और पाण्ड्य राजा इनपर बार-बार आक्रमण करने कि किसी प्रधानका निर्वाचन कर लिया जाय, जो उनमें लगे किन्तु वे कुरुम्बोंको परास्त करने में असमर्थ रहे, क्योंकि ऐक्य स्थापित कर सके । अतः अपनेमें से एक बुद्धिमान नेता- कुरुम्बं गण वीर थे और रणाणमें प्राण विसर्जन करने की को उन्होंने कुरुम्ब-भूमिका राजा मनोनीत किया, जो कमण्ड पर्वाह नहीं करते थे। अपनी स्वतन्त्रताको वे अपने प्राणोंसे कुरुम्ब-प्रभु या पुलल राजा कहलाने लगा।
अधिक मूल्यवान समझते थे। कई बार तो ऐसा हुआ है कि कुरुम्ब-भूमि (जो टोण्डमण्डलम्के नामसे प्रसिद्ध है) आक्रमणकारी राजा पकड़े जाकर पुरलदुर्गके सामने पद्.. प्रदेशमें वह क्षेत्र सम्मिलित है, जो नेल्लोरमें प्रवाहित नदी शृखलाओंसे काराबद्ध कर दिये गये। पेन्नार और दक्षिण भारकटकी नदी पेनारके मध्यकी भूमिका इन वीर कुरुम्बोंके इतिहासका अभी तक आवश्यक है। उस कुरुम्ब प्रभुने अपने राज्यको चौवीस कोट्टम् या
अनुसंधान नहीं हुआ है और इनके सम्बन्धमें अनेक विवरण जिलोंमें विभाजित किया, जिनमें प्रत्येकके मध्य एक-एक दुर्ग तामिलके संगम साहित्य और विशेषकर शैवमतके तामिल था और जो एक-एक राज्यपालक अधिकारमें था । इन ग्रंथों में उपलब्ध होते हैं। यद्यपि ये शैवग्रन्थ अपने मतकी कोहम् ( जिलों ) में ७६ नाडु या ताल्लुके (Taluks) अतिशयोक्कियोंसे ओत-प्रोत हैं तो भी इनमें ऐसी अनेक बनाए गए। एक-एक जिलेमें एकसे पांच तक नाडु थे। बातें मिलती हैं जिनसे इतिहासकी किसी अंश तक ' पूर्ति नाडुओंके भी नागरिक विभाग किये गए, जिनकी कुल संख्या होती है। अब हम पाठकोंको उस साहित्यके उपलब्ध एक हजार नौ सौ था। कुरुम्ब प्रभुने 'पुरलूर' (पुलल या विवरणोंसे प्राप्त संक्षिप्त तथ्यके अनुसार कुरुम्बोंकी आगेकी पुज्हलुरदुर्ग) को अपनी राजधानी बनाई । मदरासपटम् वार्ता बताते हैं :ग्राम (आधुनिक मद्रास) और अनेक अन्य ग्राम इसी कोट्टम् चोल और पाण्ड्य राजाओंके बार-बारके आक्रमण असफन या जिलेमें थे।
होते रहनेसे द्वषाग्नि और ईर्षा उत्तरोत्तर बढ़ती गई और उपरोक्न कोहम् या जिलोंमेंसे कुछके नाम ये हैं :- शैवमतके धर्मान्ध प्राचार्योंने जैन कुरुम्बोंके विरुद्ध पुरलूर (राजकीय दुर्ग,) कल्लटूर, आयूर, पुलियूर, चेम्बूर, द्वेषाग्निमें आहूति प्रदान करना प्रारम्भ कर दिया। उनके उतरीकाडु, कलियम् , वेनगुन, इकथूकोर्ट, पडुबूर, पट्टि- कथनसे अन्तमें 'श्राडोन्डई' नामक चोलनृपति, जो कुलोपुलम् , सालकुपम् , सालपाकम्, मेयूर, कडलूर, अलंपरि, सुग चोलराजाका औरसपुत्र था, उसने कुरुम्बराजधानी मरकानम् इत्यादि ।
'पुरलूर' पर एक बहुत बड़ी सेना लेकर आक्रमण किया। उस समय देश-विदेशके वाणिज्य पर विशेष ध्यान दोनों श्रोरसे घमासान युद्ध हुआ और अनेक वीर आहतदिया गया और विशेषकर पोतायन (जहाजों) द्वारा व्यवसाय- निहत हुए, किन्तु आडोन्डई राजाकी तीन चौथाई सेनाके की अभिवृद्धि बहुत की गई, जिससे कुरुम्ब अति समृद्धि- खेत अाजानेसे उसके पाँव उखड़ गए और उसने अवशिष्ट शाली हो गए।
सेनाके साथ भागकर निकटके स्थानमें आश्रय लिया (यह पुरलर राजनगरी में एक दि. जैन मुनिके पधारने और स्थान अब भी 'चोलनपेडू' के नामसे पुकारा जाता है)। उनके द्वारा धर्मप्रचार करनेकी स्मृतिमें एक जैन वसति शोकाभिभूत होकर उसने दूसरे दिन प्रातःकाल तंजोर लौट (मंदिर) उन कुरुम्बप्रभुने वहाँ बनवाई थी । सन् १८६० जानेका विचार किया। किन्तु रात्रिके एक स्वप्नमें शिवजीने के लगभग टेलर साहबने (ग्रन्थ ३) पुरलूरमें जाकर प्रगट होकर उन्हें आश्वासन दिया कि कुरुम्बोंपर तुम्हारी इस प्राचीन वसति और कई मन्दिरोंके भग्नावशेष देखे थे। पूर्ण विजय होगी। इस स्वप्नसे प्रोत्साहित हो वह पुनः उन्होंने लिखा है कि समय-समय पर अब भी जैनमूर्तियाँ रणक्षेत्रपर लौटा और कुरुम्बोंको परास्त कर कुरुम्ब नृपतिको धानके खेतोंसे उपलब्ध होती रहती हैं किन्तु जैनोंके विपक्षी तलवारके घाट उतार दिया और पुरलदुर्गके बहुमूल्य धातुके हिन्दू या तो उन्हें नष्ट कर देते हैं या उन्हें जमीन में पुनः कपाटोंको उखाड़कर तंजोर भेजकर वहांके शैवमन्दिरके गाड़ देते हैं।
गर्भगृहमें उन्हें लगा दिया गया। इसके बाद क्रमसे अन्य जब कुरुम्ब लोग उत्तरोत्तर समृद्धि प्राप्त करते तथा अवशिष्ट तेईस दुर्गोंको भी जीतकर और उनके शासकोंका
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किरण १ ] मद्ररास और मयिलापुरका जैन पुरातत्त्व
[३७ वध कर “सारी कुरुम्बभूमि पर अधिकार कर उसका नाम वह प्राचीन समझी जाती थी। दूसरा मन्दिर वैष्णव था, जो 'टोन्डमण्डलम्' रख दिया।
प्राचीन नहीं था और तीसरा शैव मन्दिर था उसे 'आडोन्डई' इस कथानकका बहुभाग 'तिरुमूलैवयल्पटिकम्' नामक चोलनृप द्वारा निर्मित कहा जाता था। पुज्हलूर मैं भी गत शैव ग्रन्थसे लिया गया है। टेलर साहबके अभिमतसे मई मासमें गया था। वहाँ अब भी एक प्राचीन विशाल (सं. ग्रं.३, पृ. ४५२) इस कथाका सारांश यह है कि हिंदुओंने दिगम्बर जैन मन्दिर है जिसमें मूलनायक प्रथम तीर्थकर कोलीरुन नदीके दक्षिणकी ओरके देश में तो उपनिवेश अति आदिनाथकी एक बहुत बड़ी पद्मासन प्रस्तर-मूर्ति है जो प्राचीनकालमें स्थापित कर लिया था और उपयुक युद्धके बड़ी मनोज्ञ है। मंदिरके चारों ओरका क्षेत्र बड़ा ही चित्तासमयसे मद्रासके चतुर्दिकवर्ती देशमें उन्होंने पदार्पण किया। कर्षक और प्राकृतिक सौन्दर्यको प्रदर्शित करता है। दिगम्बर राजनैतिकके साथ-साथ धर्मान्धता भी इस आक्रमणका कारण जैनोंमें यह रिवाज है, खासकर दक्षिणमें, कि प्रत्येक थी क्योंकि जैनधर्मके प्राधान्यको चूर्ण करना था। शैवमतका मन्दिरको किसी जैन दिगम्बर ब्राह्मण पुजारीके आधीन कर प्रभुत्व हो जाना ही इस युद्धका मुख्य परिणाम हुआ। दिया जाता है जो वहां दैनिक पूजा, आरती किया करता है यद्यपि लिङ्गायत मतमें अनेक कुरुम्बोंको परिणत कर दिया तथा उसकी देखभाल करता रहता है और मन्दिरका चढाबा गया, तो भी कुरुम्बोंसे जैनधर्म विहीन न हो सका। तथा उसके आधीन सम्पत्तिसे आयका किंचित् भाग उसे
चोल राजाओंका अब तक जितना इतिहास प्रगट हो पारिश्रमिकके रूपमें प्राप्त होता रहता है। ऐसे मन्दिरोंके चुका है उसमें 'श्राडोन्डई' नामके किसी भी नृपतिका नाम आस-पास जहां श्रावक नहीं रहे वहांके मन्दिरोंके पुजारी नहीं मिलता है। हां, कुलोत्तुज चोल राजाका इतिहास प्राप्त स्वयं सर्वेसर्वा बनकर उसकी सम्पत्तिको हड़प रहे हैं ऐसे है, उनका समय है सन् १०७० से १२०। इसी प्रकार कई क्षेत्र मैंने देखे हैं। जिन मन्दिरोंकी बड़ी-बड़ी जमीदारी करिकाल चोलराजाका भी थोड़ा इतिहास अवश्य प्राप्त है. थी उन्हें ये हड़प चुके हैं और दक्षिणका दिगंबर जैन समाज उनका समय पंचम शताब्दीसे पूर्वका है किन्तु यह युद्ध ध्यान नहीं दे रहा है, यह दुःख की बात है । इसी पुज्हलूर उनके समय नहीं हुआ था। मैं तो इस युद्धको १२ वीं (पुरल) दिगम्बर मन्दिरके पुजारीने भी ऐसा ही किया है। शताब्दीके बादका मानता हूँ। इसका अनुसंधान मैं कर उस प्राचीन दिगम्बर मन्दिरकी मूलनायक ऋषभदेवकी रहा हूँ।
मूर्तिपर चक्षु लगा दिये गए हैं। हमारे श्वेताम्बर भाई पुरल (पुरुलूर) में और इसके निकटवर्ती क्षेत्रमें अब दिगम्बर मन्दिरोंमें पूजा-पाठ करें यह बहुत ही सराहनीय है क्या-क्या बचा हुआ है इसका अनुसंधान करनेके लिये सन् और हम उनका स्वागत करते हैं; किन्तु यह कदापि उचित १८८७ के लगभग प्रापर्ट साहब भी (स.प्र२) वहाँ स्वयं गये नहीं कहा जा सकता है कि वे किसी भी दिगम्बरमूर्ति पर थे। उन्होंने लिखा है (पृ० २४८)-यह प्राचीन नगर मद्रास आभूषण और चचु लगावें। यह चक्षु और श्राभूषण नगरसे उत्तर-पश्चिम पाठ मील पर है और 'रेडहिल्स' नामक लगानेकी वृथा स्वयं श्वेताम्बरों में भी प्राचीन नहीं है। यह वृहत् जलाशय (जहां से मद्रासको अब पेयजल दिया जाता श्रृंगारकी प्रथा तो पढ़ौसी हिन्दुओंकी नकल है। बौद्धोंपर है) के पूर्वकी ओर अवस्थित है । इस क्षेत्र (Red Hills) इनका प्रभाव नहीं पड़ा, इसीलिये उनकी मूर्तियोंमें विकार के पल्ली नामक स्थानमें पुज्हलूर (पुरल) का प्राचीन दुर्ग था नहीं आया । समस्त परिग्रहत्यागी, निर्ग्रन्थ, वीतराग, उस स्थानको अब भी लोग दिखाते हैं और वहां उसकी बनवासी महात्माको यदि आभूषणसे शृंगारित कर दिया प्राचीरके कई भग्नावशेष विद्यमान हैं। मद्रासपर चढ़ाई जाय तो किसीको भी अच्छा नहीं लगेगा और उसके सच्चे करनेके समय हैदरअली यहीं ठहरा था । पुरलको 'वाण जीवनको भी वह कलंकित करेगा। क्या महात्मा गांधीजी पुलल' भी कहते हैं और उसके निकट 'माधवरम्' नामका की मूर्तिको श्राज कोई आभूषणोंसे सजानेका साहस करेंगे ? एकबोटा गाँव भी है। दक्षिण-पूर्वकी ओर एक मीलपर फिर तीर्थकर तो निग्रंथ थे। ऊपर जिस पुज्हलूर (पुरल) वर्तमान पुललग्राम है जिसमें आपर्ट साहबने तीन मन्दिर जिलेका वर्णन किया गया है उसी पुज्हलूर जिलेके अन्तर्गत देखे थे, "एक आदि तीर्थकरकी जैनवसति-जो उस समय मद्रास अवस्थित था। यद्यपि जीर्णावस्थामें थी, तो भी वहाँ पूजा होती थी और कुछ वर्ष हुए श्रीसीताराम पायर इन्जीनियरके नं०३०
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३८]
अनेकान्त
इस स्ट्रीट रायपेा (मनास) की जमीनसे ५ जैन मूर्तियाँ भवन के लिए नीव खोड़ते समय प्राप्त हुई थीं। श्री सीतारामने इनमेंसे ४ मूर्तियाँ तो किसी गाँवमें भेज दी थीं और एक मूर्ति अब भी उसी भवनके बाहरी आँगन में पड़ी हुई है जिसका फोटो मैंने अभी ता० ४ मईको लिया था । यह पद्मासन मूर्ति महावीर स्वामी की है, और प्रायः ३८ इंच ऊँची है (चित्र) ।
राजा सर अनमलाई चेट्टिवर रोड, महास, निवासी रायबहादुर एस. टी. श्रीनिवास गोपालाचारियर के पास दशबारह जैन मूर्तियाँ हैं। इसी प्रकार न जाने मद्रासके कितने ही अन्य स्थानोंमें जैन मूर्तियाँ पड़ी होंगी, जिनका हमें पता ही नहीं है और कितनी ही भूगर्भमें होंगी।
1
हम पाठकोंको मद्रासके ही एक विशिष्ट अंचलके सम्वन्धमें कुछ बताना चाहते हैं— वर्तमान पौर-सीमान्तर्गत 'मयिलापुर' नगरके दक्षिण भागमें अवस्थित है। इसकी प्राचीनता कमसे कम २० शताब्दी (द्विसहस्र) काल की है। और उस समयके उच्च श्रेणी 'ग्रीक-रोमन' भूगोलज्ञ और शिकों ने इस नगरकी महानताका उल्लेख किया है। ।
'मयिल' या 'मविले' का अर्थ है मयूरनगर तामिल भाषामें मोरको मयिल कहते हैं। सन् १६४० में ईस्ट इंडिया कंपनी (अंग्रेजों द्वारा फोर्ट सेंट जार्ज दुर्गके निर्माणसे महास का उत्पादन सम्भव हुआ, और मयिलापुर उस नूतन नगरके अन्तर्गत होकर उसमें मिल गया।
ई० पू० प्रथमशताब्दी के उत्तरार्ध के पवित्र 'तिरुकुरल' के अमर सृष्टा ( रचयिता) लोक प्रसिद्ध तामिल सन्त 'तिरुवल्लुवर' मयिलापुरके निवासी थे । ये जैनधर्मानुयायी थे (देखो. ए. चक्रवर्तीकी तिरुकुरल) । परम्परागत प्रवासे ज्ञात होता है कि प्राचीनकालमें समुद्रतट के किनारे Foreshore उस अंश पर जहां भाटाके समय जल नहीं रहता है), मापुरमें एक बड़ा मन्दिर था, जिसे समुद्रके वह आनेके कारण त्यक्त करना पड़ा था। इस घटनाका समर्थन जैन और कृश्चियन दोनों ही जन श्रुतियोंसे होता है ।
मथिलापुर कांचीके पल्लवराज्यका पोताश्रय (बन्दर) था। पल्लव नरेश मन्दिवर्मन तृतीयको मल्लविवेन्दन अर्थात् मल्लविया मामलपुरम् के नृपति और मयिलेलन् अर्थात् मथिलापुरके रक्षक और अभिभावकके विरुद दिए गए थे टोंटमण्डलम्के पुलियूरका यह एक भाग था। यह नगर जैनों और शैयोंकि धार्मिक कार्य-कलापका केन्द्र था और
।
[ अंक ७
सप्तमशताब्दी के प्रसिद्ध शेव सन्यासी 'तिरज्ञानसम्बन्ध' का यह भी कर्मक्षेत्र था । तिरज्ञानसम्बन्धने जैनों पर बहुत उत्पीडन किया था ।
१६ वीं १७ वीं शताब्दियों में मयिलापुरका अपने निकट के नगर सेगधामीले घनिष्ट सम्बन्ध था ऐसी जनश्रुति है कि ३३०० वर्ष पूर्व सेन्ट थामसने मयिलापुर और उसके निकटस्थ स्थानों में कृत्रियन धर्मका प्रचार किया था। मयि जापुरके सैनधामी गिरजाघरमें उनकी का है। उन्हींीकि नामसे उस अंचलका नाम सैनधामी पड़ा था । यह दुःखकी बात है कि गिरजाघरकी नींव प्राचीन मन्दिरोंके पत्थरोंका उपयोग किया गया है।
सन् १४० में प्रसिद्ध भूगोल डालेमीने दक्षिणभारतके पूर्व उपकूल पर स्थित जिस महत्वपूर्ण स्थानका मलियारफाके नामसे वन किया है वह और मयिलापुर दोनों श्रभिन्न हैं । मलियारफा, टामिल शब्द मयिलापुरका अनुवाद है।
१६वीं शताब्दी में हुआारेट वारवोसां नामक प्रसिद्ध समुद्र यात्रीने ऋष्टानोंके इस पूज्य स्थानको उजड़ा हुआ देखा था। सन् १९२२ में पुर्तगाल वासियोंने यहां उपनिवेश बनाया और कुछ ही समय बाद सेन्ट थामसकी कके चारों श्रोर एक दुर्गका निर्माण किया और उसका नाम रक्खा 'खैन थामी दी मेलियापुर' ।
प्राचीन कालमें मयिलापुर (अपर नाम वामनाथपुर ) जेनों का एक महान केन्द्र था, वहां २२वें तीर्थंकर श्रीनेमिनाथका प्राचीन मन्दिर था, यह मन्दिर उसी जगह पर था जहां अय सेनथामी गिर्वापर अवस्थित है। एक विवरणके अनुसार यह मन्दिर बढ़ते हुए समुद्र के उदरमें समा गया था और अन्य कई लोगोंके मतानुसार पुर्तगाल- वासियोंने धर्मद्वपके कारण इसका विध्यंसकर इसकी सारी सम्पत्तिका अप हरण कर लिया था ।
कहते हैं कि १२वीं शताब्दीके शेष भागमें समुद्र बदकर मन्दिरके निकट आ गया था और भय हुआ कि मन्दिर व जायगा, इससे वहाँ की मूल नायक प्रतिमा (नेमिनाथकी ) वहांसे हटाकर दक्षिण आरकट जिलान्तर्गत चित्तामूरके जैन मन्दिरमें विराजमान कर दी गई, जहां पर अब भी इस प्रतिमाकी पूजा होती है। उपयुक्त नेमिनाथ मंदिर तथा अन्य जैन मन्दिरोंके मथिलापुर में अस्तित्व साहित्यिक और पुरातात्विक प्रमाण भी उपलब्ध हैं।
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अनेकान्त -
वीर शासन संघ कलकत्ता से प्राप्त
जैन-मन्दिरका गोपुर-तिरुपट्टिकुत्रम । (जिनकांची)
सैन थामी अनाथालय (मयिलापुर) की
भूमि से प्राप्त तीर्थंकर मूर्ति
जैन-मन्दिर का शिखर-तिरुपरुट्रिकुत्रम (जिनकांची)
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अनेकान्त
महावीर, ३० लायड स्ट्रीट, रायपेटा (मद्रास)
मथिलापुर में नारियल के कुञ्ज से प्राप्त सुपार्श्वनाथ १० वीं शती
१२ वीं शताब्दी का शिला लेख, सैन थामी स्कूल मथिलापुर (मद्रास)
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वीर शासन संघ कलकत्ता से प्राप्त
१ ली पंक्ति-उटपड नेमिनाथ स्वामिकू [ कु] २ री पंक्ति-क्कुडुत्तोम इवइ पलनदीपरा
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किरण १ ]
सेन्ट थामी स्कूलके मुख्य द्वार पर ले जाने वाली अंतिम सोपानके दक्षिण की ओरसे एक खंडित शिलालेख कुछ समय पूर्व प्राप्त हुआ था । यह प्रस्तर खण्ड ३६४१२ इंचका है और इस पर तामिल भाषा में निम्न लेख अति । है... (देखो चित्र ) (प्रथम पक्ति) * "उटपड नेमिनाथ स्वामिक (कु) (द्वितीय पंक्ति "कदुत्तोम इथे पलन्दी परा अनुवादक... ( इन सबके ) सहित हम नेमिनाथ स्वामी को प्रदान करते हैं । ( यह हस्ताक्षर हैं ) पलन्दीपराके । (देखो ० ४ और २)
इससे स्पष्ट विदित होता है कि मयिलापुरमें नेमिनाथ स्वामीका मन्दिर था और शिलालेखकी प्राप्ति स्थानसे यह निश्चितरूपसे मालूम होता है कि ठीक इसी स्थानके आसपास कहीं राचीन जैन मन्दिर था। इसकी पुष्टि करने वाले अनेक साहित्यिक प्रमाण भी उपलब्ध हैं ।
१३ वीं शताब्दी के एक जैनकवि अविरोधि श्रज्हवरकी तामिलके १०३ पद्योंकी नेमिनाथकी स्तुति 'थिरुमुद्र अन्दथि' में उनके मविलापुर स्थित मन्दिरका प्रथम पथमें ही उल्लेख किया है। इस कविने 'नेमिनाथाष्टक' नामके एक संस्कृत स्तोत्रकी भी रचना की है।
१३ वीं शताब्दी के एक दूसरे ग्रन्थकार गुणवीर पंडितने 'सिम्मुख' नामक अपने तामिल व्याकरणको मथिलापुरके नेमिनाथको समर्पित करते हुए उसका नाम 'नेमिनाथम्' रखा 'था 'उधीसिपेवर' नामके एक जैन मुनिने अपने प्रत्य 'धिरुकलंचहम्' में मविलापुरका उल्लेख किया हैx |
"
इस मथिलापुरके नेमिनाथको 'मविजविनाथ' अर्थात् मयिलापुरके नाथ भी कहते हैं । तामिलभाषाके अतिप्राचीन और सुप्रसिद्ध व्याकरण ‘नन्नुल' पर एक टीका है जो दक्षिण भारतमें आज भी प्रति सम्मानाई है। उसके रचयिता मंदि लापुरके नेमिनाथ स्वामीके बड़े भक्त थे । उन्होंने भक्तिवश अपना नाम हो 'मयिलयिनाथ' रख लिया था ।
अंग्रेजी जैनगजटके भूतपूर्व सम्पादक मद्रास निवासी श्री सी. एस. मल्लिनाथके पास तामिल लिपि में लिखा हुआ एक प्राचीन ताडपत्रोंका गुटका (संग्रहग्रन्थ) है जिसकी * नोट सकी असावधानीसे वह शिलालेख उल्टा छप गया है।
x संस्कृत स्थविर शब्दके प्राकृतरूप थविर और थे होते हैं जिसका अपभ्रंश थेवर है । स्थविर वृद्ध साधुको कहते हैं।
मद्रास और मविलापुरका जैन पुरातत्व
-
[ ३६
कुल पत्रसंख्या २१३ है । प्रत्येक पत्र १४३४१ ३ इंच है । और प्रत्येक पत्र ७ पंक्रियां हैं। इस संग्रह के ६१ पत्र पर एक 'नेमि नाथाष्टक' संस्कृत स्तोत्र है उसमें ( देखो, परिशिष्ट पृ० ४१) इन मथिलापुर के नेमिनाथका और उस मन्दिरका सुन्दर वर्णन किया गया है। इस स्तोत्र में मन्दिरकी स्थिति भीमसागरके मध्य जिली है इससे यह विदित होता है कि समुहके उस भाग ( वंगोप सागर) का नाम भीमसागर था । किन्तु यह भी निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता; क्योंकि इसकी पुष्टि के लिये अन्य प्रमाणों के अनुसन्धानकी आवश्यकता है। या यह भी हो सकता है कि वह मन्दिर भीमसागर नामके किसी विशाल जलाशय के मध्य में स्थित रहा हो, जैसाकि पावापुर ( बिहार ) में भगवान महापोरका जलमन्दिर ( निर्वाणक्षेत्र ) है और कारक के निकट वरंगलका जैनमन्दिर । इम्पीरियल गजेटियर के जिल्द xvi में एक नक्शा है जिसमें कपलेश्वर स्वामी मन्दिरके पास भीमनपेट है। वहाँ एक बड़ा तलाब भी है । क्या भीमसागर यहाँ था ? इस प्रश्न पर भी विचार करना है ।
।
इस समय पश्चिम 'टिन्दिवनम्' तालुक 'चित्तामूर' ग्राम में नेमिनाथका एक मन्दिर है। जन ति है कि नेमिनाथ स्वामीकी वह मूर्ति मयिलापुरसे लाकर यहाँ विराजमान की गई थी क्योंकि समुदके बदधानेसे मन्दिर जलमग्न हो
चला था ।
1
दक्षिण धरकार जिलेका ( दिगम्बर जैनोंका मुख्य ) केन्द्रस्थान 'चित्तामूर' (सितामूर ) है वहां एक भव्य जैन मन्दिर है, और तामिल जैन प्रान्तके भट्टारकजीका मठ भी है मन्दिरके उत्तरभागमें नेमिनाथस्वामीकी वह मनोशमूर्ति विराजमान है । यह मूर्ति मयिलापुर से वहां लाई गई थी । इस घटनाको पुष्टि (ग्रं० ३,६) से भी होती है I प्रन्थ नं० २, से मालूम होता है कि एक वार किसी साधुझे स्वप्न हुआ कि वह नगर (मथिलापुर) शीघ्र समुद्रच्छन्न हो जायगा । अस्तु, यहांकी मूर्तियों को हटाकर समुद्रसे कुछ दूर मयिलमनगर में ले आये और वहाँ अनेक मन्दिरोंका निर्माण हुआ । कुछ कालबाद दूसरी वार सावधान वाणी हुई कि तीन दिनके भीतर मयिलमनगर जल-मग्न हो जायेगा, इसलिए जैनों द्वारा वे मूर्तियाँ और भी दूर स्थानान्तरित कर दी गई। मालूम होता है कि इसी समय नेमिनाथकी वह मूर्ति वित्तारमें पथराई गई थी। प्रथम प्राचीन नगर मयिलापुरके डूब जानेके बाद यह द्वितीय
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% 3D
भनेकान्त
[किरण १ मयिलमनगर उसीके निकट बसाया गया था ऐसा मालूम सैनथामी हाई रोडका था। ३८ वर्ष हुए उस स्थानसे धातुकी होता है और वर्तमान मयिलापुर वही दूसरा नगर है। एक जैन मूर्ति उन्हें प्राप्त हुई थी, किन्तु कुछ ही समय बाद
मुथु ग्रामनी स्ट्रीट और अप्पुमुडाली स्ट्रीट (मयिलापुर) वह चोरी चली गई। के सन्धिस्थलमें नारियल वृत्तोंके एक कुजमें पादड़ी एस.
इन उपयुक्त प्रमाणोंसे यह भली भांति सिद्ध हो जाता जेहास्टेनको सन् १९३१ में भूगर्भसे दो दिगम्बर जैन है कि मयिलापुरमें कई जैन मन्दिर थे। मूर्तियाँ प्राप्त हुई थीं। वे दोनों मूर्तियाँ अब श्री एस० धनपालके गृह नं० १८ चित्राकुलम् इष्टवर स्ट्रीट (मयिला
मद्रासके निकट कांजीवरम् एक अति प्राचीन नगर पुर) में हैं (चित्र) इनमें एक मूर्ति ४१ इंच ऊंची है जिसके पैर
है । पल्लव-नरेशोंकी यह राजधानी थी। चतुर्थ शताब्दीसे खंडित हैं । वह सातवें तीर्थकर सुपार्श्वनाथ की है । दूसरी
अष्टम शताब्दी तक दक्षिण भारतके इस प्रदेशमें पल्लवोंका
प्रचुर प्राबल्य था। कांजीवरम् 'मन्दिरोंका नगर' के नामसे ५३ इंच ऊँची छठे तीर्थकर पद्मप्रभ की है । दोनों ही १०वीं
प्रसिद्ध था और इससे जैनोंका सम्बन्ध अति प्राचीन कालसे ग्यारहवीं शताब्दी काल की हैं। इससे भी यह अनुमान होता
रहा है। इस नगरके तीन प्रधान विभाग थे- लघुकांजीवरम् है कि दशवीं शताब्दीमें उस स्थान पर कोई जैन मन्दिर
(विष्णुकांची), वृहत्कांजीवरम् (शिवकांची) और था। (स-ग्रन्थ १)
पिल्लयि पलयम् ( जिनकांची ) जो वस्त्रबपनका विशाल इस प्रकार हमें मयिलापुरमें १५वीं शताब्दीके पूर्वमें
केन्द्र है। कांचीके निकट पश्चिमकी ओर निरूपरूट्टिकुत्रम् दो जैनमन्दिरोंके अस्तित्वका पता चलता है। इनके अतिरिक
गाँव है जो एक समयके प्रसिद्ध जैन केन्द्रका स्मारक है। एक तीसरे मन्दिरका भी पता लगा है वह वर्तमानके
यहाँ दो भव्य जैन मन्दिर हैं-एक महावीर स्वामीका, दूसरा सैन्टथामी पारफनेज (अनाथालय) की भूमि पर था । वहाँ से
ऋषभदेवका । प्राचीन समयमें कौंजीवरम् जैन और हिन्दुओं कुछ वर्ष हुए एक मस्तक-विहीन दिगम्बरजैन मूर्ति प्राप्त
की उच्च शिक्षाओंका केन्द्र था। इसके सम्बन्धमें हम पूर्ण हुई थी जो 1८x१३॥ इंच है वह मूर्ति सन् १९२१ से
विवरण दूसरे लेखमें लिखेंगे। अभी तक विशप (पादड़ी) भवन (मयिलापुर) में है। चित्र । (स-ग्रन्थ ४, ५)
इसी प्रकार पल्लव कालमें,मामल्लपुरम् (महावल्लि एक समय पुर्तगाल-गवर्नर ( शासक ) का पुराना
पुरम् ) संस्कृति और धर्म जागृतिका केन्द्र था। महाबल्लिप्रासाद जहाँ था वहांकी सैनथामी अनाथालय की
पुरमकी एक प्राचीन जनश्रुतिसे यह निश्चयतः ज्ञात होता है अब भोजनशाला है । उसके ठीक पीछे की भूमिसे
कि यहांके अधिवासी कुरुम्ब जातिके लोग जैनधर्मानुयायी
थे। इस प्राचीन नगरके जैन ऐतिह्य पर भी मैं अनुसन्धान गत शताब्दीमें एक लेख युक्त श्वेत पाषाणकी जैनमूर्ति प्राप्त थे। इस हुई थी। जब यह जायदाद फ्रेनसिस्कन मिशनरीज ऑफ कर रहा हू। मैरीके अधिकारमें आई तब उन्होंने बह मूर्ति एक गड्ढे में इसी प्रकार महासके निकटके कई अन्य स्थानोंके दर्शन डाल दी थी। सन् १९२१ में फादर हास्टेनने इस मूर्तिके भी मैं कर पाया हूं जैसे-अकलंक वसति, पारपाक,म् असंअनुसन्धानके लिये उस स्थलको दो दो सप्ताह तक खनन कर- गलम्, और यहांके जैन मन्दिर और मूर्तियोंके फोटो भी मैंने वाया जिसमें एक सौ रुपये व्यय हुए और धनाभावके कारण लिये है। समय समय पर इनके सम्बन्धमें भी सचित्र लेख उस खुदाईको बन्द करना पड़ा।
प्रकट किये जायेंगे। सैनथामीचर्च के निकट जहाँ गूंगे-बहरोंका स्कूल है. वह नोट-मेरे लेखों में जो चित्र प्रगट किए जाते हैं वे सब मकान पहले श्री धनकोटिराज इंजीनियर विक्टोरिया वर्क्स, ब्लाक 'बीरशासनसंघ कलकत्ताके सौजन्यसे प्राप्त होते हैं।
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किरण २]
परिशिष्ट
Bibliograpy : सहायक ग्रन्थ
1. Annual Report of the Archaeological Survey of India for 1906-7 p. 221, n. 4 (Sir Walter Elliot)
2.
On the Original Inhabitants of Bharatavarsha or India. by Gustav Oppert, Madras. 1889 pp. 215, 217, 236, 244, 245, 246 to 248, 257, 258, 260. 3. Catalogue Raisonne of Oriental Manuscripts in the Govt . Library, By Rev. W. Taylor. Vol. III,Madras 1862. pp. 372 to 374,363,421,430, to 433. 4. Voices from the Dust by Rev. B. A. Figredo, Mylapore, 1953. 5. Antiquities of San Thome and Mylapore by Hosten pp. 170, 175. 6. Imperial Gazetteer of India Vol, XVI, pp. 235, 364, 368,369.
7. Tirukkural by. A. Chakravarti, Madras, 1953.
8. List of Antiquarian Remains in Madras Presidency, Vol. I. PP. 177, 190 9. Cathay And the Way Thither, Being a Collection of Medieval Notices of China. Translated and edited by Henry Yule. New edition, revised by Henri Cordier, Vol. III, London, 1914 pp. 261, n. 2.
10.
A History of the City of Madras by C. S. Srinivasachari, Madras, 1939. 11. Vestiges of Old Madras 1640-1800 by H. D. Love, London, 1913. Studies in South Indian Jainism.
12.
परिशिष्ट श्री नेमिनाथाष्टकम्
[ ४१
श्रीमद| कृतिभासुरं जिन पुंगवं त्रिदिवागतम्, वामनाधिपुरे गतं मयिलापुरे पुनरागतम् । हेम - निर्मित- मन्दिरे गगनस्थितं हितकारणम्, नेमिनाथमहं चिरं प्रणमामि नीलमहत्विषम् ॥ १॥ कामदेव - सुपूजितं करुणालयं कमलासनम्, भूमिनाथ - समर्चितं महनीयपादसरोरुहम् । भीमसागर - पद्ममध्य-समागतं मयिलापुरे, नेमिनाथमहं चिरं प्रणमामि नीलमहत्त्रिषम् ||२|| पापनाशकरं परं परमेष्ठिनं परमेश्वरम्, कोप-मोह - विवर्जितं गरुरुग्मणि विबुधार्चितम् । दीप-धूप- सुगन्धिपुष्प - जलाक्षतैर्मथिलापुरे, नेमिनाथमहं चिरं प्रणमामि नीलमहत्विषम् ॥३॥ नागराज-नरामराधिप-संगता शिवतार्चनैः, सागरे परिपूजिते सकलार्चनैः शममीश्वरम् । रागरोषमशोकिनं वरशासनं मयिलापुरे, नेमिनाथमहं चिरं प्रणमामि नीलमहत्विषम् ||४|| वीतरागभयादिकं विबुधार्यतत्व निरीक्षणम् जातबोध - सुखादिकं जगदेकनाथमलंकृतम् । भूतभव्यजनाम्बुजद्वयभास्करं मयिलापुरे, नेमिनाथमहं चिरं प्रणमामि नोलमहत्विषम् ॥५॥ वीर-वीरजनं विभुं विमलेक्षणं कमलास्पदम्, धीर-धीरमुनिस्तुतं त्रिजगदद्भुतं पुरुषोत्तमम् । सार-सारपदस्थितं त्रिजगद्भुतं मयिलापुरे, नेमिनाथमहं चिरं प्रणमामि नीलमहत्विषम् ॥ ६ ॥
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४२]
अनेकान्त
[वर्ष १३ चामरासन-भानुमण्डल-पिंण्डिवृष-सरस्वती, भीमदुन्दुभि-पुष्पवृष्टि-सुमण्डितातपवारणैः । धाम येन कृतालयं करिशोभितं मयिलापुरे, नेमिनाथमहं चिरं प्रणमामि नील महत्विषम् ॥७॥ नेमिनाथमनामयं कमनीयमच्युतमक्षयम् , घातिकर्म-चतुष्टय-जयकारणं शिवदायिनम् । वादिराज-विराजितं वरशासनं मयिलापुरे, नेमिनाथमहं चिरं प्रणमामि नीलमहत्विषम् ॥८॥
सानन्द-वन्दित-पुरन्दरवन्दमौलि-मन्दारफुन्ल-नवशेखरधूसरांघ्रिम् । आनन्दकन्दमतिसुन्दरमिन्दुकान्तम् , श्रीनेमिनाथ-जिननाथमहं नमामि ॥६॥ ___ हिंसक और अहिंसक
(पं० मुबालाल जैन 'मणि')
(षट्पद् )
विषय-कषायासक्त जीव ही परवध ठाने । करै वैर विद्रोह जगत को वैरी जाने ॥ रहै प्रमादी, दीन, व्यसन में लीन, भयातुर ।
करे पाप समरम्म समारंभ प्रारंभ कर कर ॥ हो मूर्खासे मूर्छित सदा जो नहिं निज-हित शुध करे। सो पर जीवन पर दया कर मणि कैसे यह दुःख हरे?
विषय-कषाय-विरक्त स्वयं पर दुख परिहारी । निष्प्रमाद, निरवद्य, अहिंसा - पंथ - प्रचारी॥ सब प्रवृत्तिमें समिति रूप ही दृष्टी राखे ।
गुप्ति रूप वा रहे सदा समतामृत चाखे । निज प्रात्म शौर्यसे धर्म वा संघ शौर्य दिशि दिश भरे। मणि वही अहिंसा धर्म-ध्वज विश्व शिखर पर फरहरे॥
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इन्द्रिय-सुखमें मग्न जीव निज सुख नहिं जाने। निज जाने बिन प्रास्म अहिंसा कैसे ठाने ॥
आत्म दया विन अन्य जीव की करुणा कैसी। करुणा दिखती वाह्य जानिये बगुला जैसी ॥ . हां विषय-विरत निज जानकर जिसने अपना हित किया। उस दयामूर्ति मरश्रेष्ठ ने पर हित भी कर यश लिया ॥
सत्यवचन - माहात्म्य
जल, शशि, मुक्ताहार, लेप चन्दन मलयागिर ।
सत्य बच्चन के अतिशयकर नहिं अग्नि जलावे । चन्द्रकांति मणि भी स्यों शीतल नहीं तापहर ॥ उदधि न सके दुबाय नदी पड़ती न बहावे ॥ ज्यों प्रिय मीठे सत्य वचन जगजन-हितकारी।
वन्दीग्रहमें पड़े व्यक्ति को सत्य छुडावे । वर्द्धन प्रीति, प्रतीति, शांतिकर, पातपहारी॥ चिर विछड़े प्रियवन्दुजनों को सत्य मिलावे ॥ 'मणि सत्यवचन समधर्म नहि संयम, जप तप व्रत नहीं। 'मणि' सत्यवचनसे वृद्धि हो देशविदेश प्रसिद्धि हो। है सत्याकर्षक शक्ति जहँ सब गुण खिंच श्रावे वहीं ॥ हो विश्व हितकर दिव्यध्वनि अन्तिम शिवसुख सिद्ध हो ।
(पं. मुन्नालाल जैन 'मणि')
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निसीहिया या नशियां
( पं० होरालालजी सिद्धान्तशास्त्री) जैन समाजको छोड़कर अन्य किसी समाजमें 'निसीहिया' क्या वस्तु है और इसका प्रचार कबसे और क्यों प्रारम्भ या 'नशियां' नाम सुननेमें नहीं पाया और न जैन साहित्य- हा? को छोड़कर अन्य भारतीय साहित्यमें ही यह नाम देखनेको
संन्यास, सल्लेखना या समाधिमरण-पूर्वक मरने वाले मिलता है। इससे विदित होता है कि यह जैन समाजकी
साधुके शरीरका अन्तिम संस्कार जिस स्थान पर किया जाता ही एक खास चीज़ है।
था उस स्थानको निसीहिया कहा जाता था। जैसा कि आगे जैन शास्त्रोंके आलोडनसे ज्ञात होता है कि 'नशियां'
सप्रमाण बतलाया जायगा-दिगम्बर-परम्पराके अति प्राचीन का मूलमें प्राकृत रूप 'णिसीहिया' या 'णिसीधिया' रहा है।
प्रन्थ भगवतीअाराधनामें निसोहियाका यही अर्थ किया गया इसका संस्कृत रूप कुछ श्राचार्योने निषीधिका और कुछने
है। पीछे-पीछे यह 'निसीहिया' शब्द अनेक अर्थोंमें प्रयुक्त निषिद्धिका दिया है। कहीं-कहीं पर निषोधिका और निषद्या
होने लगा, इसे भी आगे प्रगट किया जायगा। रूपभी देखनेमें आता है, पर वह बहुत प्राचीन नहीं मालूम देता । संस्कृत और कनड़ीके अनेक शिलालेखोंमें निसिधि,
जैन शास्त्रों और शिलालेखोंकी छानबीन करने पर हमें निसिदि, निषिधि, निषिदि, निसिद्धी. निसिधिग और निष्टिग इसका सबसे पुराना उल्लेख खारवेलके शिलालेखमें मिलता रूप भी देखनेको मिलते हैं। प्राकृत 'णिसीहिया' का ही है, जो कि उदयगिरि पर अवस्थित है और जिसे कलिंगअपभ्रंश होकर 'निसीहिया' बना और उसीका परिवर्तित रूप देशाधिपति महाराज खारवेलने पाजसे लगभग २२०० वर्ष निसियासे नसिया होकर आज नशियां व्यवहारमें बारहा है। पहले उत्कीर्ण कराया था। इस शिलालेखकी १४वीं पंक्रिमें
मालपा, राजस्थान, उत्तर तथा दक्षिण भारतके अनेक ".""कुमारीपवते अरहते पखीणसंसतेहि काय-निसीस्थानों पर निसिही या नसियां आज भी पाई जाती हैं। यह दियाय.." और १५वीं पंक्रिमें..."अरहतनिसीदियानगरसे बाहिर किसी एक भागमें होती है। वहां किसी साधु, समीपे पाभारे......' पाठ आया है । यद्यपि खारवेलके यति या भट्टारक आदिका समाधिस्थान होता है, जहां पर शिलालेखका यह अंश अभी तक पूरी तौरसे पढ़ा नहीं जा कहीं चौकोर चबूतरा बना होता है, कहीं उस चबूतरे के चारों सका है और अनेक स्थल अभी भी सन्दिग्ध हैं, तथापि कोनों पर चार खम्भे खड़े कर उपरको गुम्बजदार छतरी बनी उन दोनों पंक्तियों में 'निसीदिया' पाठ स्पष्ट रूपसे पढ़ा जाता पाई जाती है और कहीं-कहीं छह-पाल या पाठपालदार चबू- है जो कि निसीहियाका ही रूपान्तर है। तरे पर छह या आठ खम्भे खड़े कर उस पर गोल गुम्बज 'निसीहिया' शब्दके अनेक उल्लेख विभिन्न अर्थोंमें दि० बनी हुई देखी जाती है । इस समाधि स्थान पर कहीं चरण- श्वे० आगमोंमें पाये जाते हैं । श्वे० आचारांग सूत्र (२, २, चिन्ह, कहीं चरण-पादुका और कहीं सांथिया बना हुआ २) निसीहिया' की संस्कृत छाया 'निशीथिका' कर उसका दृष्टिगोचर होता है। कहीं कहीं इन उपयुक बातोंमेंसे किसी अर्थ स्वाध्यायभूमि और भगवतीसूत्र (१४-१०) में अल्पएकके साथ पीछेके लोगोंने जिन-मन्दिर भी बनवा दिए हैं कालके लिए गृहीत स्थान किया गया है । समवायांगसूत्रमें और अपने सुभीतेके लिए बगीचा, कुश्रा, बावड़ी एवं धर्म- 'निसीहिया' की संस्कृत छाया 'नषेधिकी' कर उसका अर्थ शाला आदि भी बना लिए हैं। दक्षिण प्रान्तकी अनेक स्वाध्यायभूमि, प्रतिक्रमणसूत्रमें पाप क्रियाका त्याग; स्थानांगनिसिदियों पर शिलालेख भी पाये जाते हैं। जिनमें समाधि. सूत्रमें व्यापारान्तरके निषेधरूप समाचारी प्राचार, वसुदेवमरण करने वाले महा पुरुषोंके जीवनका बहुत कुछ परिचय हिण्डिमें मुक्ति, मोक्ष, स्मशानभूमि, तीर्थकर या सामान्य लिखा मिलता है। उत्तर प्रान्तके देवगढ़ क्षेत्र पर भी ऐसी केवलीका निर्वाण-स्थान, स्तूप और समाधि अर्थ किया गया शिलालेख-युक्त निषीधिकाएँ आज भी विद्यमान हैं। इतना है । आवश्यकचूर्णिमें शरीर, वसतिका-साधुओंके रहनेका होने पर भी आश्चर्यकी बात है कि हम लोग अभी तक स्थान और स्थसिडल अर्थात् निर्जीव भूमि अर्थ किया इतना भी नहीं जान सके हैं कि यह निसीहिया या नशियाँ गया है।
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४४]
अनेकान्त
[वर्ष १३
गौतम गणधर-ग्रथित माने जाने वाले दिगम्बर प्रति- स्थित साधु तथा पंडितमरण जहाँ पर हुआ है, ऐसे क्षेत्र: क्रमणसूत्र में निसोहियाओंकी वन्दना करते हुए-
ये सब निषीधिकापदके वाच्य हैं। 'जाश्रो अण्णाश्रो कामोवि णिसीहियाओ जीवलोयम्मि' निषीधिकापदके इतने अर्थ करनेके अनन्तर आचार्य यह पाठ आया है-अर्थात् इस जीव-लोकमें जितनी भी प्रभाचन्द्र लिखते हैं :निषीधिकाएं हैं, उन्हें नमस्कार हो।
अन्ये तु 'णिसीधियाए' इत्यस्यार्थमित्त्थं व्याख्यानयन्ति___उक्त प्रतिक्रमण सूत्रके संस्कृत टीकाकार प्रा० प्रभाचन्द्रने णित्ति णियमेहिं जत्तो सित्तिय सिद्धि तहा अहिग्गामी। जो कि प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र आदि अनेक धित्तिय धिदिबद्धको एत्तिय जि णसासणे भत्तो ।। दार्शनिक ग्रन्थोंके रचयिता और समाधिशतक, रत्नकरण्डक
अर्थात् कुछ लोग 'निसीधिया' पदकी निरुक्ति करके आदि अनेक ग्रन्थोंके टीकाकार हैं-निषीधिकाके अनेक
उसका इस प्रकार अर्थ करते हैं:-नि-जो व्रतादिके नियमसे अर्थोंका उल्लेख करते हुए अपने कथनकी पुष्टिमें कुछ प्राचीन
युक्र हो, सि-जो सिद्धिको प्राप्त हो या सिद्धि पानेको गाथाएँ उद्धृत की हैं जो इस प्रकार हैं :
अभिमुख हो, धि-जो सृति अर्थात् धैर्यसे बद्ध कक्ष हो, जिण-सिद्धबिंब-णिलया किदगाकिदगा य रिद्धिजुदसाहू। और या अर्थात् जिनशासनको धारण करने वाला हो,
ण णजदा मुणिपवरा णाणुप्पत्तीय णाणिजुदखेत्तं ।१। उसका भक्त हो। इन गुणोंसे युक्त पुरुष 'निसीधिया' पदका सिद्धा य सिद्धभूमी सिद्धाण समासिओ णहो देसो। वाच्य है। सम्मत्तादिच उक्कं उप्पण्णं जेसु तेहिं सिदखेत्तं ॥२॥ साधुओंके दैवसिक-रात्रिकप्रतिक्रमणमें 'निषिद्धिकादंडक' चन तेहिं य देहं तट्रविदं जेसुता णिसीहीओ। नामसे एक पाठ है। उसमें णिसीहिया या निषिद्धिका की जेसु विसुद्धा जोगा जोगधरा जेसु संठिया सम्मं ॥३॥ वंदनाकी गई है। 'निसीहिया' किसका नाम है और उसका जोगपरिमुक्कदेहा पंडितमरणढिदा णिसीहीओ। मूलमें क्या रूप रहा है इस पर उससे बहुत कुछ प्रकाश पड़ता तिविहे पंडितमरणे चिट्ठति महामुणी समाहीए ।।४।। है। पाठकोंकी जानकारीके लिए उसका कुछ आवश्यक अंश एदाओ अण्णाओ णिसोहियाओ सया वंदे। यहाँ दिया जाता है :
अर्थात्-कृत्रिम और प्रकृत्रिम जिनबिम्ब, सिद्धप्रतिबिम्ब, णमो जिणाणं ३ । णमो णिसीहियाए ३। णमोजिनालय, सिद्धालय, ऋद्धिसम्पन्नसाधु, तत्सेवित क्षेत्र, त्थु दे अरहंत, सिद्ध बुद्ध, णीरय, णिम्मल,...... अवधि, मनः पर्यय और केवल ज्ञानके धारक मुनिप्रवर, इन गुणरयण, सीलसायर, अणंत, अप्पमेय, महदिमहावीरज्ञानोंके उत्पन्न होनेके प्रदेश, उक्त ज्ञानियोंसे आश्रित क्षेत्र, वड्ढमाण, बुद्धिरिसिणो चेदि णमोत्थु दे णमोत्थु दे सिद्ध भगवान् निर्वाणक्षेत्र, सिद्धोंसे समाश्रित सिद्धालय, णमोत्थु दे। (क्रियाकलाप पृष्ठ ५५) सम्यक्त्वादि चार आराधनाओंसे युक्त तपस्वी, उक्त आराधकोंसे xxx सिद्धिणिसीहियाओ अट्ठावयपव्वए सम्मेदे आधित क्षेत्र, आराधक या क्षपकके द्वारा छोड़े गये शरीरके उज्जंते चंपाए पावाए मज्झिमाए हथिवालियसहाए आश्रयवर्ती प्रदेश, योगस्थित तपस्वी, तदाश्रित क्षेत्र, योगि- जाओ अण्णाओ काो विणिसीहियाओजीवलोयम्मि, योंके द्वारा उन्मुक्त शरीरके आश्रित प्रदेश और भक्र प्रत्याख्यान इसिपब्भारतलग्गयाणं सिद्धाणं बुद्धाणं कम्मचक्कमुक्काण इंगिनी और प्रायोपगमन इन तीन प्रकारके पंडितमरणमें णीरयाणं णिम्मलाणं गुरु-आइरिय-उज्झायाणं'
भवनाम भोजन का है उसे क्रम-क्रमसे त्याग करके पत्ति-थर-कुलयराणं चाउव्वएणो य समणसंघो य और अन्तमें उपवास करके जो शरीरका त्याग किया जाता मरण करने वाला साधु दूसरेके द्वारा की जाने वाली वैयावृ. है उसे भक्त प्रत्याख्यान मरण कहते हैं । भक्तप्रत्याख्यान त्यको स्वीकार नहीं करता, केवल अपनी सेवा-टहल अपने करने वाला साधु अपने शरीरकी सेवा-टहल या वैयावृत्त्य हाथसे करता है। परन्तु प्रायोपगमन मरण करने वाला इसे स्वयं भी अपने हाथसे करता है और यदि दूसरा वैयावृत्त्य ग्रहण करनेके अनन्तर न स्वयं अपनी वैयावृत्त्य करता है करे तो उसे भी स्वीकार कर लेता है। इंगिनीमरणमें शेष और न दूसरेसे कराता है, किन्तु प्रतिमाके समान मरण विधि-विधान तो भक्तप्रत्याख्यानके समान हो है पर इंगिनी- होने तक संस्तर पर तदवस्थ रहता है।
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किरण २].
निसीहिया या नशियां
[४५
भरहेरावएसु दससु पंचसु महाविदेहेसु।' (क्रियाकलाप है, उसे निसीहिया या निषिद्धिका कहा गया है। यहाँ पर पृष्ठ ५६)।
टीकाकारने 'नषेधिक्यां शवप्रतिष्ठापनभूम्याम्' ऐसा स्पष्ट अर्थात् जिनोंको नमस्कार हो, नमस्कार हो, नमस्कार अर्थ किया है। जिसकी पुष्टि भागेकी गाथा नं. ५५४२ से हो । निषीधिकाको नमस्कार हो, नमस्कार हो, नमस्कार हो। भी होती है। अरहंत, सिद्ध, बुद्ध आदि अनेक विशेषण-विशिष्ट महति- भगवती अाराधनामें जो कि दिगम्बर-सम्प्रदायका अति महावीर-वर्धमान बुद्धिऋषिको नमस्कार हो, नमस्कार हो, प्राचीन ग्रन्थ है वसतिकासे निषीधिकाको सर्वथा भिन्न अर्थमें नमस्कार हो।
लिया है । साधारणतः जिस स्थान पर साधुजन वर्षाकालमें अष्टापद, सम्मेदाचल, ऊर्जयन्त, चंपापुरी, पावापुरी, रहते हैं, अथवा विहार करते हुए जहां रात्रिको बस जाते हैं, मध्यमापुरी और हस्तिपालितसभामें तथा जीवलोकमें जितनी उसे वसतिका कहा है। वसतिका का विस्तृत विवेचन करते भी निषीधिकाएं हैं, तथा ईषत्प्राग्भारनामक अष्टम पृथ्वी- हुए लिखा है :तलके अग्र भागपर स्थित सिद्ध, बुद्ध, कर्मचक्रसे विमुक्त, “जिस स्थानपर स्वाध्याय और ध्यानमें कोई बाधा न हो, नीराग, निर्मल, सिद्धोंकी तथा गुरु, प्राचार्य, उपाध्याय, स्त्री, नपुसक, नाई, धोबी, चाण्डाल आदि नीच जनोंका प्रवर्तक, स्थविर, कुलकर (गणधर) और चार प्रकारके श्रमण- सम्पर्क न हो, शीत और उष्णकी बाधा न हो, एक दम बंद संघकी जो पांच महाविदेहोंमें और दश भरत और दश या खुला स्थान न हो, अंधेरा न हो, भूमि विषम-नीचीऐरावत क्षेत्रोंमें जो भी निषिद्धिकाएँ हैं, उन्हें नमस्कार हो३। ऊँची न हो, विकलत्रय जीवोंकी बहुलता न हो, पंचेन्द्रिय
इस उद्धरणसे एक बात बहुत अच्छी तरह स्पष्ट हो पशु-पक्षियों और हिंसक जीवोंका संचार न हो, तथा जो जाता है कि निषीधिका उस स्थानका नाम है, जहाँ से महा- एकान्त, शान्त, निरुपद्रव और निाक्षेप स्थान हो, ऐसे मुनि कर्मोका क्षय करके निर्वाण प्राप्त करते हैं और जहाँ
उद्यान-गृह, शून्य-गृह, गिरि-कन्दरा और भूमि-गुहा पर प्राचार्य उपाध्याय प्रवर्तक, स्थविर कुलकर और ऋषि,
आदि स्थानमें साधुओंको निवास करना चाहिए। ये वसतियति, मुनि, अनगाररूप चार प्रकारके श्रमण समाधिमरण
काएं उत्तम मानी गई हैं।" करते हैं, वे सब निषीधिकाएँ कहलाती हैं।
(देखो-भग० आराधना गा० २२८-२३०,६३३-६४१) बृहत्कल्पसूत्रनियुक्किमें निषीधिकाको उपाश्रय या
__परन्तु वसतिकासे निषीधिका बिलकुल भिन्न होती है, वसतिकाका पर्यायवाची माना है। यथा
इसका वर्णन भगवती आराधनामें बहुत ही स्पष्ट शब्दोंमें अवसग पडिसगसेजाालय, वसधी णिसीहियाठाणे।
किया गया है और बतलाया गया है कि जिस स्थान पर
समाधिमरण करने वाले क्षपकके शरीरका विसर्जन या अंतिम एगह वंजणाई उवसग वगडा य निक्खेवो ॥३२६॥
संस्कार किया जाता है, उसे निषीधिका कहते हैं। अर्थात्-उपाश्रय, प्रतिश्रय, शय्या, आलय, वसति,
यथा--निषीधिका-आराधकशरीर - स्थापनास्थानम् । निषीधिका और स्थान ये सब एकार्थवाचक नाम हैं।
(गा० १९६७ की मूलाराधना टीका) इस गाथाके टीकाकारने निषीधिका का अर्थ इस प्रकार
साधुओंको आदेश दिया गया है कि वर्षाकाल प्रारंभहोनेकिया है :
के पूर्व चतुर्मास-स्थापनके साथ ही निषीधिका-योग्य भूमिका . "निषेधः गमनादिव्यापारपरिहारः, स प्रयोजन
अन्वेषण और प्रतिलेखन करलेवें । यदि कदाचित् वर्षाकालमें मस्याः, तमहतीति वा नैषेधिकी।"
किसी साधुका मरण हो जाय और निषीधिका योग्य भूमि अर्थात्-गमनागमनादि कायिक व्यापारोंका परिहार कर पहलेसे देख न रखी हो, तो वर्षाकालमें उसे ढूढ़नेके कारण साधुजन जहां निवास करें, उसे निषीधिका कहते हैं। हरितकाय और त्रस जीवोंकी विराधना सम्भव है, क्योंकि
इससे आगे कल्पसूत्रनियुकिकी गाथा नं०५५४१ में उनसे उस समय सारी भूमि आच्छादित हो जाती है। अतः भी 'निसीहिया' का वर्णन आया है पर यहाँ पर उसका वर्षावास के साथ ही निषीधिकाका अन्वेषण और प्रतिलेखन अर्थ उपाश्रय न करके समाधिमरण करने वाले क्षाक साधुके कर लेना चाहिए। शरीरको जहां छोड़ा जाता है या दाह-संस्कार किया जाता भगवती आराधनाकी वे सब गाथाएँ इस प्रकार हैं:
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४६]
अनेकान्त
[वर्ष १३ विजहणा निरूप्यते
संघमें कलह उत्पन्न होता है, उत्तर दिशामें हो तो व्याधि एवं कालगदस्स दु सरीरमंतो बहिज्ज वाहिं वा। उत्पन्न होती है, पूर्व दिशामें हो तो परस्परमें खींचातानी होती विज्जावच्चकरात सयं विकिंचंति जदणाए ॥१६६६॥ है और संघमें भेद पड़ जाता है। ईशान दिशामें हो तो - समणाणं ठिदिकप्पो वासावासे तहेव उडुबंधे । किसी अन्य साधुका मरण होता है। (भग० श्रारा० गा० पडिलिहिदव्वा णियमाणिसीहिया सव्वसाधहिं १६.७॥ १९७१-१९७३) एगंता सालोगा णादिविकिट्ठा ण चावि आसपणा। इस विवेचनसे वसतिका और निषीधिकाका भेद बिलवित्थिरणा विद्धत्ता णिसीहिया दूरमागाढा ॥१६६८॥ कुल स्पष्ट हो जाता है । ऊपर उद्धत गाथा नं० १९७० में अभिसुभा असुसिराअघसा उज्जोवा बहुसमायअसिणिद्धा यह साफ शब्दोंमें कहा गया है कि वसतिकासे दक्षिण, नैऋत्य णिज्जंतुगा अहरिदा आविला य तहाअणाबाधा ॥१६६६॥ और पश्चिम दिशामें निषीधिका प्रशस्त मानी गई है । यदि
जा अवर-दक्खिणाए व दक्खिणाए व अध व अवराए। निषाधिका वसतिकाका ही पर्यायवाची नाम होता, सो ऐसा वसधीदो वणिज्जदि णिसीधिया सा पसत्थत्ति॥१६७०॥ वर्णन क्यों किया जाता । ___अब समाधिसे भरे हुए साधुके शरीरको कहां परित्याग प्राकृत 'णिसीहिया' का अपभ्रंश ही 'निसीहिया' हुआ करे, इसका वर्णन करते हैं इस प्रकार समाधिके साथ काल और वह कालान्तरमें नसिया होकर अाजकल नशियांके रूपमें गत हुए साधुके शरीरको वैयावृत्य करने वाले साधु नगरसे व्यवहृत होने लगा। बाहिर स्वयं ही यतनाके साथ प्रतिष्ठापन करें। साधुओंको इसके अतिरिक्त आज कल लोग जिन मन्दिरमें प्रवेश चाहिए कि वर्षावासके तथा वर्षाऋतुके प्रारम्भमें निषीधिका- करते हुए 'ओं जय जय जय, निस्सही निस्सही नस्सही, का नियमसे प्रतिलेखन करलें, यही श्रमणोंका स्थितिकल्प है। नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोस्तु' बोलते हैं । यहां बोले जाने वाले वह निषाधिका कैसी भूमिमें हो, इसका वर्णन करते हुए 'निस्सही' पदसे क्या अभिप्रेत था और आज हम लोगोंने कहा गया है- वह एकान्त स्थानमें हो, प्रकाश युक्त हो, उसे किस अर्थमें ले रखा है, यह भी एक विचारणीय बात वसतिकासे न बहुत दूर हो, न बहुत पास हो, विस्तीर्ण हो, है। कुछ लोग इसका यह अर्थ करते हैं कि 'यदि कोई देवाविध्वस्त या खण्डित न हो, दूर तक जिसकी भूमि दृढ़ या दिक भगवानके दर्शन-पूजनादि कर रहा हो, तो वह दूर या ठोस हो, दीमक-चींटी आदिसे रहित हो, छिद्र रहित हो, एक ओर हो जाय ।' पर दर्शनके लिए मन्दिर में प्रवेश करते घिसी हुई या नीची-ऊँची न हो, सम-स्थल हो, उद्योतवती हुए तीन वार निस्सही बोलकर 'नमोस्तु' बोलनेका यह हो, स्निग्ध या चिकनी फिसलने वाली भूमि न हो निर्जन्तुक अभिप्राय नहीं रहा है, किन्तु जैसा कि 'निषिद्धिका दंडकका हो. हरितकायसे रहित हो, विलोंसे रहित हो, गीली या उद्धरण देते हुए ऊपर बतलाया जा चुका है, वह अर्थ यहांदल-दल युक्र न हो, और मनुष्य-तियंचादिकी बाधासे रहित अभिप्रेत है। ऊपर अनेक अर्थों में यह बताया जा चुका है हो। वह निषीधिका वसतिकासे नैऋत्य, दक्षिण या पश्चिम कि निसीहि या यानिषीधिका का अर्थ जिन, जिन-बिम्ब, सिद्ध दिशामें हो तो प्रशस्त मानी गई है।
और सिद्ध-बिम्ब भी होता है। तदनुसार दर्शन करने वाला इससे आगे भगवती आराधनाकारने विभिन्न दिशाओंमें तीन वार 'निस्सही'-जो कि 'णिसिहीए' का अपभ्रंश रूप होने वाली निषीधिकाओंके शुभाशुभ फलका वर्णन इस है-को बोलकर उसे तीन बार नमस्कार करता है। यथार्थप्रकार किया है:
में हमें मन्दिरमें प्रवेश करते समय 'णमो णिसीहियाए' या यदि वसतिकासे निषीधिका नैऋत्य दिशामें हो, इसका संस्कृत रूप 'निषीधिकायै नमोऽस्तु, अथवा 'णिसीतो साधुसंघमें शान्ति और समाधि रहती है, दक्षिण हियाए णमोत्थु पाठ बोलना चाहिए। दिशामें हो तो संघको आहार सुलभतासे मिलता है, यहां यह शंका की जा सकती है कि फिर यह अर्थ कैसे पश्चिम दिशामें हो, तो संघका विहार सुखसे होता है प्रचलित हुआ-कि यदि कोई देवादिक दर्शन-पूजन कर
और उसे ज्ञान-सयंमके उपकरणोंका लाभ होता है । रहा हो तो वह दूर हो जाय ! मेरी समझमें इसका कारण यदि निषीधिका आग्नेय कोणमें हो, तो संघमें स्पर्धा निःसही या निस्सही जैसे अशुद्धपदके मूल रूपको ठीक तौरसे अर्थात् तू तू मैं-मैं होती है, वायव्य दिशामें हो तो न समझ सकनेके कारण 'निर उपसर्ग पूर्वक स्' गमनार्थक
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किरण . २ ]
धातुका श्राज्ञाके मध्यम पुरुष एक वचनका बिगड़ा रूप मान कर लोगोंने वैसी कल्पना कर डाली है । अथवा दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि साधुको किसी नवीन स्थानमें प्रवेश करने या वहांसे जानेके समय निसीहिया और आसिया करनेका विधान है। उसकी नकल करके लोगोंने मन्दिर प्रवेश के समय बोले जाने वाले 'निसीहिया' पदका' भी वही अर्थ लगा लिया है। साधुयोंके १० प्रकारके समाचारोंमें निसीहिया और आसिया नामके दो समाचार हैं और उनका वर्णन मूलाचार में इस प्रकार किया गया है
कंदर- पुलि-गुहादिसु पवेसकाले खिसिद्धियं कुज्जा । तेर्हितो गिग्गमणे तहासिया होदि कायव्या ॥१३४ || - ( समा० अधि० ) अर्थात् — गिरि-कंदरा, नदी आदिके पुलिन मध्यवर्ती जलरहित स्थान और गुफा आदिमें प्रवेश करते हुए निषिद्धिका समाचारको करे और वहांसे निकलते या जाते समय आशिका समाचारको करे । इन दोनों समाचारोंका अर्थ टीकाकार ० वसुनन्दिने इस प्रकार किया है :
टीका - पविसंतेय प्रविशति च प्रवेशकाले णिसिही निषेधिका तत्रस्थानमभ्युपगम्य स्थानकरणं, सम्यग्दर्शनादिषु स्थिरभावो वा, णिग्गमणे - निर्गमनकाले आसया देव-गृहस्थादीन् परिपृच्छ्य यानं, पापक्रियादिभ्यो मनोनिवर्तनं वा । "
निसीहिया या नशियां
•
अर्थात् - साधु जिस स्थानमें प्रवेश करें, उस स्थानके स्वामीसे श्राज्ञा लेकर प्रवेश करें। यदि उस स्थानका स्वामी कोई मनुष्य है तो उससे पूछें और यदि मनुष्य नहीं है तो उस स्थानके अधिष्ठाता देवताको सम्बोधन कर उससे पूछें इसीका नाम निसीहिक। समाचार है। इसी प्रकार उस स्थानसे जाते समय भी उसके मालिक मनुष्य या क्षेत्रपालको पूछकर और उसका स्थान उसे संभलवा करके जावें । यह उनका श्रासिकासमाचार है अथवा करके इन दोनों पदोंका टीकाकारने एक दूसरा भी अर्थ किया है। वह यह कि विव
* साधुओं का अपने गुरुओंके साथ तथा अन्य साधुनों के साथ जो पारस्परिक शिष्टाचारका व्यवहार होता है, उसे समाचार कहते हैं ।
[ ४७
क्षित स्थानमें प्रवेश करके सम्यग्दर्शनादिमें स्थिर होनेका नाम 'निसीहिया' और पाप क्रियाओंसे मनके निवर्तनका नाम 'सिया' है । श्राचारसारके कर्त्ता श्र० वीरनन्दिने उक्त दोनों समाचारोंका इस प्रकार वर्णन किया है जीवानां व्यन्तरादीनां बाधायै यन्निषेधनम् । अस्माभिः स्थीयते युष्मद्दिष्टैघवेति निषिद्धिकां ॥११॥ प्रवासावसरे कन्दरावासा देर्निषिद्धिका । तस्मान्निर्गने कार्या स्यादाशीर्वैरहारिणी ॥ १२॥ ( आचारसार द्वि० ० )
श्रर्थात् - व्यन्तरादिक जीवोंकी बाधा दूर करनेके लिए जो निषेधात्मक वचन कहे जाते हैं कि भो क्षेत्रपाल यक्ष, हम लोग तुम्हारी प्रज्ञासे यहां निवास करते हैं, तुम लोग रुष्ट मत होना, इत्यादि व्यवहारको निषिद्धिका समाचार कहते हैं और वहाँ से जाते समय उन्हें वैर दूर करने वाला श्राशीर्वाद देना यह आशिका समाचार है 1
ऐसा मालूम होता है कि लोगोंने साधुओंके लिए विधान किये गये समाचारोंका अनुसरण किया और “व्यन्तरादीनां बाधायै यन्निषेधनम्” पदका अथ मन्दिरप्रवेशके समय लगा लिया कि यदि कोई व्यन्तरादिक देव दर्शनादिक कर रहा हो तो वह दूर हो जाय और हमें बाधा न दे । पर वास्तवमें 'निस्सही' पद बोलने का अर्थ 'निषीधिका अर्थात् जिनदेवका स्मरण कराने वाले स्थान या उनके प्रतिबिम्बके लिए नमस्कार अभिप्र ेत रहा है ।
उपसंहार
मूलमें 'निसीहिया पद मृत साधु-शरीरके परिष्ठापनजो स्वस्तिक या चबूतरा छतरी आदि बनाये जाने लगे, स्थानके लिए प्रयुक्त किया जाता था। पीछे उस स्थानपर उनके लिए भी उसका प्रयोग किया जाने लगा । मध्य युगमें साधु के समाधिमरण करनेके लिए जो खास स्थान बनाये कालान्तर में वहां जो उस साधुकी चरण पादुका या मूर्ति जाते थे उन्हें भी निसिधि या निसीहिया कहा जाता था । आदि बनाई जाने लगी उसके लिए भी 'निसीहिया' शब्द प्रयुक्त होने लगा । श्राजकल उसीका अपभ्रंश या विकृत रूप निशि, निसिधि और नशियां आदिके रूपमें दृष्टिगोचर होता है ।
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तीर्थ और तीर्थंकर
साधारणतः नदी समुद्रादिके पार उतारनेवाले घाट श्रादि स्थानको तीर्थ कहा जाता है। श्राचार्योंने तीर्थके दो भेद किए हैं: - द्रव्यतीर्थं और भावतीर्थं । महर्षि कुन्दकुन्दने द्रव्यतीर्थंका स्वरूप इस प्रकार कहा है:दाहोपसमरण तहाछेदो मलपंकपवहणं चेव । तिहि कारणेहिं जुत्तो तम्हा तं दव्वदो तित्थं ||६२||
अर्थात् जिसके द्वारा शारीरिक दाहका उपशमन हो, प्यास शान्त हो और शारीरिक या वस्त्रादिका मैल वा कीचड़ बह जाय, इन तीन कारणोंसे युक्त स्थानको द्रव्यतीर्थ कहते हैं । (मूलाचार षडावश्यकाधिकार)
इस व्याख्या अनुसार गंगादि नदियोंके उन घाट श्रादि खास स्थानोंको तीर्थ कहा जाता है, जिनके कि द्वारा उक्त तीनों प्रयोजन सिद्ध होते हैं । पर यह द्रव्यतीर्थ केवल शरीरके दाहको ही शान्त कर सकता है, मानसिक सन्तापको नहीं; शरीर पर लगे हुए मैल या कीचड़को धो सकता है, श्रात्मा पर लगे हुए अनादिकालीन मैलको नहीं धो सकता; शारीरिक तृष्णा अर्थात् प्यासको बुझा सकता है, पर श्रात्माकी तृष्णा परिग्रह-संचयकी लालसाको नहीं बुझा सकता । श्रात्मा मानसिक दाह, तृष्णा और कर्म-मलको तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रय - तीर्थं ही दूर कर सकता है। अतएव श्राचार्यों ने उसे भावतीर्थं कहा है।
श्रा० कुन्दकुन्दने भावतीर्थका स्वरूप इस प्रकार कहा है :-- सरण -पारण चरिते णिज्जुत्ता जिवरा दु सव्वेवि । तिहि कारणेहिं जुत्ता तम्हा ते भावदो तित्थं ॥ ६३||
श्रात्मा अनादिकालीन ज्ञान और मोह-जनित दाहकी शान्ति सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति से ही होती है। जब तक जीवको अपने स्वरूपका यथार्थ दर्शन नहीं होता, तब तक उसके हृदयमें अहंकार-ममकार-जनित मानसिक दाह बना रहता है और तभी तक इष्ट-वियोग और अनिष्ट-संयोगों के कारण वह बेचेनीका अनुभव करता रहता है। किन्तु जिस समय उसके हृदय में यह विवेक प्रकट हो जाता है कि पर पदार्थ कोई मेरे नहीं है और न कोई अन्य पदार्थ मुझे सुखदुख दे सकते हैं; किन्तु मेरे ही भले बुरे कर्म मुझे सुख-दुख देते हैं, तभी उसके हृदयका दाह शान्त हो जाता है। इस लिए श्राचार्योंने सम्यग्दर्शनको दाहका उपशमन करने बाला कहा है।
पर पदार्थोंके संग्रह करनेकी तृष्णाका छेद सम्यग्ज्ञानको
प्राप्तिसे होता है। जब तक आत्माको अपने श्रापका यथार्थ ज्ञान नहीं होता, तब तक वह धन, स्त्री, पुत्र, परिजन, भवन, उद्यानादि पर पदार्थोंको सुख देने वाला समझ कर रात-दिन उनके संग्रह अर्जन और रक्षणकी तृष्णामें पड़ा रहता है। किन्तु जब उसे यह बोध हो जाता है कि
“धन, समाज, गज, बाज, राज तो काज न श्रावे, ज्ञान• श्रापको रूप भये थिर चल रहावे ।" तभी वह पर पदार्थोंके श्रर्जन और रक्षणको तृष्णाको छोड़कर आत्मस्वरूपकी प्राप्तिका प्रयत्न करता है और पर पदार्थोंके पानेकी तृष्णाको श्रात्मस्वरूपके जानने की इच्छामें परिणत कर निरन्तर श्रात्मज्ञान प्राप्त करने, उसे बढ़ाने और संरक्षण करनेमें तत्पर रहने लगता है। यही कारण है कि सम्यग्ज्ञानको तृष्णाका छेद करने वाला माना गया है।
जल शारीरिक मल और पंकको बहा देता है, पर वह श्रात्मा के द्रव्य भावरूप मल और पंकको बहानेमें असमर्थ है। किन्तु शुद्ध श्राचरण श्रात्माके ज्ञानावरणादि रूप आठ प्रकारके द्रव्य-कर्म- पंकको और रागद्वेषरूप भाव-कर्ममलको बहा देता है और श्रात्माको शुद्ध कर देता है, इस लिए हमारे महर्षियोंने सम्यक् चारित्रको कर्म-मल और पाप-पंकका बहानेवाला कहा है ।
इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय धर्म ही भावतीर्थ है और इसके द्वारा ही भव्यजीव संसार-सागर से पार उतरते हैं।
इस रत्नत्रयरूप भावतीर्थका जो प्रवर्तन करते हैं, पहले अपने राग, द्व ेष, मोह पर विजय पाकर अपने दाह और तृष्णा को दूर कर ज्ञानावरणादि कर्म-मलको बहाकर स्वयं शुद्ध हो संसार-सागर से पार उतरते हैं और साथमें अन्य जीवों को भी रत्नत्रयरूप धर्म-तीर्थका उपदेश देकर उन्हें पार उतारते हैं— जगत्के दुःखोंसे छुड़ा देते हैं - वे तीर्थंकर कहलाते हैं । लोग इन्हें तीर्थकर, तीर्थकर्त्ता, तीर्थकारक, तीर्थकृत् तीर्थनायक, तीर्थप्रणेता, तीर्थप्रवर्तक, तीर्थकर्ता, तीर्थविधायक, तीर्थवेधा, तीर्थसृष्टा और तीर्थेश श्रादि नामोंसे पुकारते हैं ।
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संसारमें सद्ज्ञानका प्रकाश करनेवाले और धर्मरूप तीर्थका प्रवर्तन करनेवाले तीर्थंकरोंको हमारा नमस्कार है ।
- हीरालाल
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राजस्थानके जैनशास्त्रभंडारोंमें उपलब्ध महत्त्वपूर्ण साहित्य
(अनेकान्त वर्ष १२ किरण ५ से आगे)
(ले. कस्तूरचन्द काशलीवाल एम.ए.) (६) अष्टसहस्री-प्राचार्य विद्यानन्दका यह मह- द्वितीया वाक्पतौ पूर्णो फाल्गुार्जुन पाभिके ॥६॥ वपूर्ण ग्रन्थ जैन दार्शनिक संस्कृत साहित्यमें ही नहीं फाल्गुण सुदी २ गुरौ प्रदत्ता बर्द्धमानाय, किन्तु भारतीय दर्शनसाहित्यमें भी एक उल्लेखनीय
भावि भट्टारकोत्थ यः। रचना है। प्राचार्य विद्यानन्द अपने समयके एक प्रसिद्ध श्रेयसे . . . ......................"ध्ययनशालिना ॥७॥ दार्शनिक विद्वान थे। इनकी अनेक दार्शनिक रचनाएँ उप- ७ उत्तरपुराण टिप्पण-श्री गुणभद्राचार्य कृत लब्ध हैं जिनके अध्ययनसे उनकी विशाल प्रज्ञा और चम- उत्तरपुराण संस्कृत पुराणसाहित्यमें उल्लेखनीय रचना है। कारिणी प्रतिभाका पद पद पर दर्शन होता है । अष्टसहस्री उत्तरपुराणको महाकाव्यका भी नाम दिया जा सकता है। को तो विद्वानोंने कष्टसहस्री बतलाया है। इनकी दार्शनिक क्योंकि महाकाव्यमें मिलने वाले लक्षण इस पुराणमें भी महत्तासे वे भली भांति परिचित हैं जिन्होंने उसका आकण्ठ पाए जाते हैं। उत्तर पुराण महापुराणका उत्तर भाग है। पान किया है । भट्टाकलंकदेव कृत अष्टशतीका यह महाभाष्य इसका पूर्वभाग जो आदिपुराणके नामसे प्रसिद्ध है जिनसेनाहै। जिसका दूसरा नाम प्राप्तमीमांसालंकृति है । इसकी चार्य कृत है। गुणभद्राचार्य जिनसेनाचार्यके शिष्य थे। ये संवत् १४६० की लिखी हुई एक प्राचीन प्रति जयपुरके विक्रमकी स्वीं शताब्दीके विद्वान थे। तेरह पंथियोंके श्री दि० जैन बड़ा मन्दिरके शास्त्र भण्डारमें जैन समाजमें आदिपुराण और उत्तरपुराण इतने अधिक सुरक्षित है। प्रति सुन्दर शुद्ध तथा साधारण अवस्थामें
लोक-प्रिय बने हुए हैं कि ऐसा कोई ही जैन होगा जिसने है। इस ग्रन्थकी प्रतिलिपि प्राचार्य शुभचन्द्रकी प्रतिशिष्या
इसका स्वाध्याय अथवा श्रवण नहीं किया हो। जैनोंके आर्या मलयश्रीने करवायी थी। इसके लिपिकार गजराज थे,
प्रत्येक भण्डारमें इसकी हस्तलिखित प्रतियाँ १०-१५ की जिन्होंने विक्रम संवत् १४९० फाल्गुन वदी २ के दिन संख्यामें मिलती हैं। इसकी कितनी ही हिन्दी टीकाएँ हो तिलिपि पूर्ण का था। इस प्रतिका शुभचन्द्रन अपन चुकी हैं जिनमें पं० दौलतरामजी कृत उत्तर पुराणकी टीका
उल्लेखनीय है, इसी उत्तरपुराणका एक संस्कृत टिप्पण अमी की लेखक प्रशस्ति निम्न प्रकार है:
बड़े मन्दिरके शास्त्र भण्डारमें उपलब्ध हुआ है। (स्वस्ति) श्रीमूलामलसंघमंडणमणिः श्रीकुन्दकुन्दान्वये, टिप्पण सरल संस्कृतमें है । मूल ग्रन्थ के क्लिष्ट संस्कृत गीर्गच्छे च बलात्कारकगणे श्रीनन्दिसंघाग्रणीः। शब्दोंको सरल संस्कृतमें हो समझाया गया है। टिप्पण उत्तम स्याद्वादेतर वादिदंतिदवणो (मनो) द्यत्पाणि-पंचाननो, है। टिप्पणकार कौन और कब हुए हैं यह टिप्पण परसे कुछ यावत्सोऽस्तु सुमेधसामिह मुदे श्रीपदमनन्दीगणी॥ ज्ञात नहीं होता । टिप्पणकारने अपना ग्रन्थके आदि और श्रीपद्मनन्द्यधिप-पट्ट पयोजहंस
अन्तमें कहीं भी कोई परिचय नहीं दिया है। पूनासे प्रकाश्वेतातपत्रितयशस्फुरदात्मवशः (श्यः)। शित 'जिनरलकोश' में प्राचार्य प्रभाचन्द्र कृत एक टिप्पणका राजाधिराजकृतपादपयोजसेवः
उल्लेख अवश्य किया गया है । यह टिप्पण भी इन्हीं प्रभास्यान्नः श्रिये कुवलये शुभचन्द्रदेवः ॥२॥ चन्द्रका है अथवा नहीं है इस विषयमें जब तक दोनों प्रतिआर्याशीदार्यवर्य र्या दीक्षिता पद्मनंदिभिः । योंका मिलान न हो तब तक निश्चित रूपसे कुछ नहीं कहा रत्नश्रीरिति विख्याता तन्नामैवास्ति दीक्षिता ॥३॥ जा सकता। इसके अतिरिक्त श्रद्धय पं० नाथूराम जी प्रेमीने शुभचन्द्रार्यवय र्या श्रीमद्भिः शीलशालिनी ।
अपने 'जैनसाहित्य और इतिहास' में श्रीचन्द्र और प्रभाचन्द्र मलयश्रीरितिख्याता शांतिका गर्वगालिनी ॥४॥ वाले लेखमें प्रभाचन्द्रकी रचनाओंमें गुणभद्राचार्य कृत उत्तरतयैषा लेखिता यस्य ज्ञानावरणशान्तये ।
पुराणके टिप्पणका कोई उल्लेख नहीं किया। इस लिए लिखिता गजराजेन जीयादष्टसहस्रिका ॥५!! प्रभाचन्द्रने ही बह टिष्पण लिखा हो ऐसी कोई निश्चित व्योमग्रहाधिचन्द्राब्धे,(संवत१४६०)विक्रमार्के महीपते बात नहीं कही जा सकती। .
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अनेकान्त
[वर्ष १३
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टिप्पणके पूरे पत्र ११५ हैं। टिप्पणकारने आरम्भमें गूढ़ अर्थको समझानेका काफी प्रयत्न किया है। संस्कृत भाषाअपने कोई निजी मंगलाचरणसे टिप्पण प्रारम्भ नहीं किया है के अतिरिक्त उसने बीच २ में हिन्दीके पद्योंका भी प्रयोग किन्तु मूलग्रन्थके पदमें ही टिप्पण प्रारम्भ कर दिया है। किया है और उदाहरण देकर विषयको समझानेका प्रयत्न टिप्पणका प्रारम्भिक भाग इस प्रकार है:--
किया है । टीकाका प्रारम्भ निम्न प्रकार है :विनेयानां भव्यानां । अवाग्भागे-दक्षिणभागे। मोक्षमार्गस्य भेत्तारं भेत्तारं कर्मभूभृतां । प्रणयिनः संतः । वृणुतेस्म भजतिस्म । शक्ति सिद्धि । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वंदे तद्गुणलब्धये । त्रयोपेतः प्रभूत्साह मंत्र शक्तयस्तिस्त्रः।
अस्यार्थ:-विशिष्ठ इष्ट देवता नमस्कार पूर्वं तत्वार्थप्रभूशक्ति भवेदाद्या मंत्रशक्तिद्वितीयका। शास्त्रं करोमि । मोक्षमार्गस्य नेतारं को विशेशः यः परमेश्वरः तृतीयोत्साह शक्तिश्चेत्याहु शक्तित्रयं बुधाः ॥
अरहंतदेवः मोक्षमार्ग-अनन्तचतुष्टय सौख्यः शाश्वतासौख्यः टिप्पणका अन्तिम भाग
अव्यय विनाशरहितः ईदृग्विधं मोक्षमार्गस्य निश्चय व्यवहारस्य इत्यार्षे भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टि महा
निरवशेषनिराकृतमलकलंकस्य शरीस्यात्मनो स्वाभाविकतान् पुराणसंग्रहे श्रीवर्धमानतीर्थकरपुराणं परिसमाप्त
ज्ञानादिगुणमव्यावाधसुखमत्यंतिकमवस्थान्तरं मोक्षः तस्य
मार्ग उपायः तस्य नेत्तारं उपदेशकं .......... ... ...। षट्सप्ततितम पर्ख ॥७६।।
मंगलाचरणके पश्चात् ग्रन्थके प्रथम सूत्रकी भी टीका यह प्रति संवत् १५६६ कार्तिक सुदी ५ सोमवारके दिन ही की लिखी हुई है । इसकी प्रतिलिपि खण्डेलवाल वंशोत्पन्न
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनंपापल्या गोत्रवाले संगही नेमा द्वारा करवायी गयी थी।
तत्त्वशब्दो भावसामान्यवाची । भो भगवन् ! लिपिकार श्री हुल्लू के पुत्र पं० रतनू थे। .
सम्यग्दर्शनं किम् उक्तं च ? () तत्त्वार्थसूत्र टोका:
मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथाऽनायतनानि षट। तत्त्वार्थसूत्रका जैनोंमें सबसे अधिक प्रचार है। जैन
अष्टौ शंकादयो दोषा दृग्दोषाः पंचविंशति ।। समाजमें इसका उतना ही आदरणीय स्थान है जितना ईसाई पंचविंशति मलरहितं तत्त्वर्थानां भावना रुचिः सम्यग्दसमाजमें बाइबिन का, हिन्दू समाजमें गीताका तथा मुसलिम र्शनं भवति । समाजमें कुरान का है। यह उमास्वात्रिकी अमूल्य भेंट है। टीकाके बीच २ में टीकाकारने संस्कृत एवं कहीं २ सर्व प्रिय होनेके कारण इस पर अनेक टीकायें उपलब्ध हैं हिन्दीके पद्योंका उद्धरण दिया है इससे विषय और भी जिनरत्नकोश' में इनकी संख्या ३६ बतलायी गई हैं लेकिन स्पष्ट होगया है तथा यह एक नवीन शैली है जिसे टीकावास्तवमें इससे भी अधिक इस पर टीकायें मिलती हैं ! कारने अपनायी है। अभी तक. संस्कृत टीकाओं में हिन्दी तत्त्वार्थसूत्रकी टीका हिन्दी, संस्कृत, गुजराती, तामिल, पद्योंके उद्धरण देखने में नहीं आये। टीकाकारके समयमें तेलगू कन्नड श्रादि सभी भाषाओंमें उपलब्ध होती हैं। हिन्दीकी व्यापकता एवं लोकप्रियताकी भी यह द्योतक है। इसी तत्त्वार्थ सूत्र पर एक टीका अभी मुझे बड़े मन्दिर टीका में आये हुए कुछ उद्धरणोंको देखियेः(जयपुर) के शास्त्र भण्डरमें उपलब्ध हुई है जिसका परिचय
जो जेहा नर सेवियउ सो ते ही फलपत्ति । पाठकोंकी सेवामें उपस्थित किया जा रहा है :
जलहिं पमाणे पुण्डइ विहिणालइ निप्पजन्ति । तत्त्वार्थसूत्रकी यह टीका १७८ पत्रोंमें समाप्त होती है। भवाब्धौ भव्यसार्थस्य निर्वाणद्वीपायनः । टीकाकार कौन है तथा उन्होंने इसे कब समाप्त किया था। चारित्रयान पात्रस्य कर्णधारो हि दर्शनः ।
आदि तथ्योंके लिये यह प्रति मौन है। यह प्रति संवत् हस्ते चिंतामणिं यस्य गृहे यस्य सुरद्रुमः । १९५६ पासोज सुदी ११ मंगलवारकी है। साह श्री खीवसी
कामधेनु धनं यस्य तस्य का प्रार्थना परा ।। अग्रवालने इसकी प्रतिलिपि करवायी थी एवं रणथम्भोर
x x x x क्रमशः दुर्गमें पूर्णमल कायस्थ माथुरने इसकी प्रतिलिपि की थी।
- (श्री दि. जैन अ.क्षेत्र श्री महावीर जी टीका अत्यधिक सरल है एवं टीकाकार ने तत्त्वार्थसूत्रके
के अनुसन्धान विभागकी ओर से)
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सिंह- श्वान - समीक्षा
(पे० हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री )
प्राणिशास्त्र के अनुसार सिंह और श्वान दोनों ही हिंसक एवं मांसाहारी प्राणी हैं । दोनों ही शिकारी जानवर माने जाते हैं और दोनोंके खाने पीनेका प्रकार भी एक सा ही है। फिर भी जबसे लोगोंने कुत्तोंको पालना प्रारम्भ कर दिया, तबसे वह कृतज्ञ ( वफादार) और उपयोगी जानवर माने जाना लगा है। पर सिंहको लोगों ने लाख प्रयत्न करने पर भी - पिंजड़ों में और कठघरोंमें वर्षों तक बंद रखनेके बाद भी आज तक पालतू, वफादार और उपयोगी नहीं बना पाया है । सर्कस के भीतर इंटरके बलपर चाहे जैसा नाच नचाने पर भी न उसका स्वभाव बदला जा सका है और न खाना-पीना ही । जबकि लोगोंने कुत्तों रोटी खाना सिखाकर उसे बहुत कुछ अन्न-भोजी भी बना दिया है और उससे मेल-जोल बढ़ाकर उसे अपना दास, अंगरक्षक और घरका पहरेदार तक बना लिया है । युद्धके समय इससे संदेश वाहक (दूत) का भी काम लिया गया है और इसके द्वारा अनेक महत्वपूर्ण रहस्योंका उद्घाटन भी हुआ है । कुत्तेकी एक बड़ी विशेषता उसकी प्राण-शक्ति की है, जिसके . द्वारा वह चोर साहूकार और भले-बुरे आदम तकको पहिचान लेता है । सूघसूंघ कर वह जमीन के भीतर गड़ी हुई वस्तुओं का भी पता लगा लेता है । इसके अतिरिक्त कुत्तेकी नींद बहुत हल्की होती है, जरा सी आहट से यह जाग जाता है और रात भर घरवारकी रक्षा करता रहता है। इस प्रकार कुत्ता हिंसक प्राणियों में मनुष्यका सबसे अधिक लाभ दायक ( फायदेमन्द), उपकारी और वफादार प्राणी साबित हुआ है, और सिंह सदा इसके विपरीत ही रहा है ।
कुत्तेके इतना कृतज्ञ, उपयोगी और उपकारक सिद्ध होने पर भी यदि कोई मनुष्य अपने हितैषी या उपकारकको कुत्तेकी उपमा देकर कह बैठे- 'अजी, आप तो कुत्ते के समान हैं' तो देखिए, इसका उसपर क्या असर होता है ? लेने के देने पड़ जायेंगे, आज तकके किये - करायेपर पानी फिर जायगा और वह आपकी जानका ग्राहक बन जायगा !!! पर इसके विपरीत स्वभाव वाले और मनुष्य के कभी काम न आने वाले सिंहकी उपमा
'
देकर किसीसे कहिये - 'अजी, आपतो सिंहके समान हैं तो देखिए इसका उसपर क्या असर होता है ? वह आपके इस वाक्यको सुनते ही हर्ष से फूलकर कुप्पा हो जायगा, मूंछों पर ताव देने लगेगा और गर्वका अनुभव करेगा तथा मनमें विचार करेगा, वाक़ई मैंने ऐसे-ऐसे कार्य किये हैं कि मैं इस उपमाके ही योग्य हूँ !
यहां मैं पाठकों से पूछना चाहता हूँ-क्या कारण है कि कुत्तेके इतने उपयोगी और फायदेमन्द होने पर भी लोग उसकी उपमा तकको पसंद नहीं करते, प्रत्युत मरने-मारने को तैयार हो जाते हैं और जिससे मनुष्यका कोई लाभ नहीं, उसकी उपमा दिये जानेपर इतने अधिक हर्ष और गर्वका अनुभव करते हैं ? मालूम पड़ता है कि कुत्ते में भले ही सैकड़ों गुण हों, पर कुछ एक ऐसे महान् अवगुण अवश्य हैं, जिससे उसके
गुण पासंग पर चढ़ जाते हैं और जिनके कारण लोग उसकी उपमाको पसंद नहीं करते। इसके विपरीत सिंहमें लाख अवगुण भले ही हों, पर कुछ- एक महान् गुण उसमें ऐसे अवश्य हैं, जिसके कि कारण लोग उसकी उपमा दिये जाने पर हर्ष और गर्वका अनुभव करते हैं ।
सिंह और श्वान, इन दोनोंके स्वभावका सूक्ष्म अध्ययन करनेपर हमें उन दोनोंके इस महान् अन्तरका पता चलता है और तब यह ज्ञात होता है कि वास्तव में इन दोनों में महान् अन्तर है और उसके ही कारण लोग एककी उपमाको पसन्द और दूसरेकी उपमाको नापसन्द करते हैं ।
सिंह और श्वान में सबसे बड़ा अन्तर आत्मविश्वास का है। सिंहमें आत्मविश्वास इतना प्रबल होता है कि जिसके कारण वह अकेले ही सैकड़ों हाथियोंके साथ मुकाबिला करनेकी क्षमता रखता है । परन्तु कुत्ते में आत्मविश्वासकी कमी होती है । वह अपने मालिकके भरोसे पर ही सामने वाले पर आक्रमण करता है । जब तक उसे अपने मालिक की ओर से प्रोत्तेजन मिलता रहेगा, वह आगे बढ़ता रहेगा | आक्रमण करते हुए भी वह बार-बार मालिककी ओर झांकता रहेगा और ज्योंही मालिकका प्रोते
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अनेकान्त
[ वर्ष १३ जन मिलना बन्द होगा कि वह तुरन्त दुम दबा कर सदा रोटीके टुकड़ों के लिये दूसरोंके पीछे पूछ हिलाता वापिस लौट आयेगा । पर सिंह किसी दूसरेके भरोसे हुआ फिरा करता है और टुकड़ोंका गुलाम बना रहता शत्रु पर आक्रमण नहीं करता। आक्रमण करते हुए है । जब तक आप उसे टुकड़े डालते रहेंगे, आपकी वह कभी किसीकी सहायताके लिए पीछे नहीं झांकता गुलामी करेगा और जब आपने टुकड़े डालना बन्द
और शत्रसे हार कर तथा दुम दबा कर वापिस लौटना किये और आपके शत्रुने टुकड़े डालना प्रारम्भ किये तो वह जानता ही नहीं। वह 'कार्य वा साधयामि, देह तभीसे वह उसकी गुलामी शुरू कर देगा। वह 'गंगा वा पातयामि' का महामन्त्र जन्मसे ही पढा हा होता गये गङ्गादास और जमुना गये जमुनादास की है । अपने इस अदम्य आत्मविश्वासके बल पर ही लोकोक्तिको चरितार्थ करता है। पर सिंह कभी भी वह बड़े से बड़े जानवरों पर भी विजय पाता है और रोटीका गुलाम नहीं है। वह पेट भरने के लिये न जंगलका राजा बनता है।
दूसरोंके पीछे पूछ हिलाता फिरता है और न कुत्तेके ___ सिंह और श्वानमें दूसरा बड़ा अन्तर विवेकका समान दूसरोंकी जूठी हड़ियाँ ही चाटा करता है । है। कुत्ते में विवेककी कमी स्पष्ट है। यदि कहीं किसी सिंह प्रति दिन अपनी रोटी अपने पुरुषार्थसे स्वयं अपरिचित गलीसे आप निकलें, कोई कुत्ता आपको उत्पन्न करता है। सिंहके विषयमें यह प्रसिद्धि है कि काटने दौड़े और आप अपनी रक्षाके लिए उसे लाठी वह कभी भी दूसरोंके मारे हुए शिकारका हाथ नहीं मारे तो वह लाठीको पकड़ कर चबानेकी कोशिश लगाता । स्वतंत्र सिंहकी तो जाने दीजिये, पर कटघरों करेगा । उस बेवकूफको यह विवेक नहीं है कि यह में बन्द सिंहोंके सामने भी जब उनका भोजन लाठी मुझे मारने वाली नहीं है। मारने वाला तो यह लाया जाता है तब वे भोजन-दाताको ओर न तो सामने खड़ा हुआ पुरुष है, फिर मैं इस लकड़ीको क्यों दीनता-पूर्ण नेत्रों से ही देखते हैं, न कुत्ते के समान चबाऊँ । दूसरा अविवेकका उदाहरण लीजिये-कुत्ते- पूछ हिलाते हैं और न जमीन पर पड़ कर अपना को यदि कहीं हड्डीका टुकड़ा पड़ा हुआ मिल जाय तो उदर दिखाते हुए गिड़गिड़ाते ही हैं। प्रत्युत इसके यह उसे उठा कर चबायेगा और हड़ीकी तीखी नोकों एक बार गम्भीर गर्जना कर मानो वे अपना विरोध से निकले हुए अपने ही मुखके खूनका स्वाद लेकर प्रकट करते हुए यह दिखाते हैं कि अरे मानव ? क्या फूला नहीं समायेगा। वह समझता है कि यह खन तू मुझे अब भी टुकड़ों के गुलाम बनाने का व्यर्थ इस हडमिस निकल रहा है। पर सिंहका स्वभाव ठीक प्रयास कर अपने को दावार होने का अहकार करता इससे विपरीत होता है। वह कभी हड्डी नहीं है ? कहन का
है ? कहने का अर्थ यह कि पराधीन और कठघरे में चबाता और न आक्रमण करने वालेकी लाठी, बन्द सिंह भी रोटी का गुलाम नहीं है, पर स्वतन्त्र बन्दूक या भाला आदिको पकड़ कर ही उसे और आजाद रहने वाला भी कुत्ता सदा टुकड़ोंका चबाने की कोशिश करता है, क्योंकि उसे यह विवेक गुलाम हैं। कुत्तेको अपने पुरुषाथका भान नहीं, पर है कि ये लाठी, बन्दूक आदि जड़ पदार्थ मेरा स्वतः सिंह अपने पुरुषार्थसे खूब परिचित है और उसके कुछ बिगाड़ नहीं कर सकते; ये लाठी आदि मुझे मारने द्वारा ही अपनी रोटी स्वयं उपार्जित करता है। वाले नहीं, बल्कि इनका उपयोग करने वाला यह मनुष्य इस उपयक्त अन्तरके अतिरिक्त सिंह और श्वान ही मुझे मारने वाला है। अपने इस विवेकके कारण में एक और महान् अन्तर है और वह यह कि कुत्ता वह लाठी आदिको पकड़ने या पकड़ कर उन्हें चबाने- 'जाति देख घर्राऊ' स्वभावी है। अपने जाति वालोंको की चेष्टा नहीं करता ; प्रत्युत उनके चलाने वाले पर देखकर यह भौंकता, गुर्राता और काटनेको दौड़ता है। आक्रमण कर उसका काम तमाम कर देता है। इससे अधिक नीचताकी और पराकाष्ठा क्या हो
सिंह और श्वानमें एक और बड़ा अन्तर पुरुषार्थ- सकती है ? पर सिंह कभी भी दूसरे सिंहको देख का है । कुत्ते में पुरुषार्थकी कमी होती है, अतएव वह कर गुर्राता या काटनेको नहीं दौड़ता है, बल्कि जैसे
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किरमा २]
सिंह-श्वान-समीक्षा
एक राजा दूसरे राजासे ससम्मान और गौरवके साथ करता है, उनके उत्कर्षको देखकर कुढ़ता है और मिलता है, ठीक उसी प्रकार दो सिंह परस्पर मिलते अवसर आने पर उन्हें गिराने और अपमानित करनेसे हैं। सिंहमें अपने सजातीय बन्धुओंके साथ वात्सल्य नहीं चूकता। भाव भरा रहता है, जब कि कुत्ता ठीक इसके विपरीत है। उसमें स्वजाति वात्सल्यका नामोनिशान भी नहीं इन गुणों के प्रकाश में यदि सम्यक्त्वीके चारित्रहोता। स्वजाति वात्सल्यका गण सर्वगणोंमें सिरमौर मोहके उदयसे अविरति-जनित अनेकों अवगुण पाये है और उसके होनेसे सिंह वास्तवमें सिंह संज्ञाको जाते हैं, तो भी वे उक्त चारों अनुपम गुण-रत्नोंके सार्थक करता है और उसके न होनेसे कुत्ता 'कुत्ता' प्रकाशमें नगण्यसे हो जाते हैं । इसके विपरीत मिथ्याहो बना रहता है।
त्वीमें दया, क्षमा, विनय, नम्रता आदि अनेक गुणोंके __ इस प्रकार हम देखते हैं कि सिंहमें आत्मवि- पाये जाने पर भी आत्मविश्वासकी कमी से वह सदा श्वास, विवेक पुरुषार्थशीलता और स्वजातिवत्सलता
सशंक बना रहता है, विवेकके अभावसे उस पर ये चार अनुपम जाज्वल्यमान गुण-रत्न पाये जाते हैं,
अज्ञानका पर्दा पड़ा रहता है और इसलिए वह निस्तेज जिनके प्रकाशमें उसके अन्य सहस्रों अवगुण नगण्य
एवं हतप्रभ होकर किंकर्तव्यविमूढ़ बना रहता है, पुरुया तिरोभूत हो जाते हैं । इसके विपरीत कुत्तेमें आत्म
षार्थकी कमीके कारण वह सदा टुकड़ोंका गुलाम और विश्वासकी कमी, विवेकका अभाव, टुकड़ोंका गुलामी
दूसरोंका दास बना रहता है तथा स्वजाति-विद्वेषके
कारण वह घर-घर में दुतकारा जाता है। पना और स्वजाति-विद्वेष ये चार महा अवगुण पाये
हमें श्वानवृत्ति छोड़कर अपने दैनिक व्यवहार में जानेसे उसके अनेकों गुण तिरोभूत हो जाते हैं । सिंह
सिंहवृत्ति स्वीकार करना चाहिए । में उक्त चार गुणोंके कारण ओज, तेज और शौर्यका अक्षय भण्डार पाया जाता है और ये ही उसकी
शंका-समाधान सबसे बड़ी विशेषताएं हैं, जिनक कारण सिंहको " उपमा दिये जाने पर मनुष्य हर्ष और गर्वका अनुभव शंका - जबकि सिंह और श्वान दोनों मांसाहार। करते हैं । कुत्तेमें हजारों गुण भले ही हों, पर उसमें और शिकारी ज नवर हैं, तब फिर इन दोनों में उपयुक्त उक्त चार महान गुणोंकी कमी और उनके अभावसे आकाश-पाताल जैसे महान अन्तर उत्पन्न होनेका क्या प्रगट होने वाले चार महान अवगुणों के पाये जानेसे कारण है ? कोई भी कुत्तेकी उपमाको पसन्द नहीं करता । इस
__समाधान-इसके दो कारण हैं :- एक अन्तरंग प्रकार यह फलितार्थ निकलता है कि सिंह और श्वानमें और दूसरा बहिरंग । अन्तरंग कारण तो सिह और आकाश-पाताल जैसा महान् अन्तर है।
श्वान नामक पंचेन्द्रिय जातिनामकर्मका उदय है और ठीक यही अन्तर सम्यग्दृष्टि और मिथ्याष्टिमें बहिरंग कारण बाहिरी संगति, मनुष्योंका सम्पर्क एवं है । सम्यक्त्वी सिंहके समान है और मिथ्यात्वी कुत्तेके तदनुकूल अन्य वातावरण है। अन्तरंग कारण कर्मोसमान । सम्यक्त्वीमें सिंहके उपयुक्त चारों गुण पाये दयके समान होने पर भी जिन्हें मनुष्यके द्वारा पालें जाते हैं। आत्मविश्वाससे यह सदा निःशंक और जाने आदि बाह्य कारणोंका योग नहीं मिलता, वे निर्भयरहता है । विवेक प्रगट होनेसे वह अमूढदृष्टि जंगली कुत्ते आज भी भारो खूख्वार और भयानक या यथाथदर्शी बन जाता है। पुरुषार्थके बलसे बह देखे जाते हैं जिन्हें लोग 'शुना कुत्ता' कहते हैं। आत्मनिर्भर रहता है और साजातीय-वात्सल्यसे तो 'शुना शब्द 'श्वान' का ही अपभ्रंश रूप है जो आज वह लवालव भरा ही रहता है। सम्यक्त्वी स्वभावतः भी अपने इस मूल नामके द्वारा स्वकीय असली रूपअपने सजातीय या साधर्मीजनोंसे 'गो वत्स' सम प्रेम खूख्वारताका परिचय दे रहा है। मनुष्योंने इसे पालकरता है। पर मिथ्यात्वी सदा सजातियोंसे जला ही पुचकारके उसे उसकी स्वाभाविक शक्तिसे वेभान करा
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दिया और रोटीके टुकड़े खिला २ कर उसे 'दोगला बना दिया है ।
शंका- बहिरंग कारण और उनका असर तो समझ में आया, पर यह सिंह या श्वान नामक नामकर्मके उदयरूप अन्तरंगकारण क्या वस्तु है ?
समाधान - जो कारण बाहिर में दृष्टिगोचर न हो सके, पर अन्तरंग में - भीतर आत्माके ऊपर अपना सूक्ष्म असर डाले, उसे अन्तरंग कारण कहते हैं। जीव अपनी भली-बुरो नाना प्रकारकी हरकतों से अपने आत्मा पर जो संस्कार डाल लेता है, उसे जैन शास्त्रोंको परिभाषा में 'कर्म' कहते हैं और वही कर्म संचित संस्कारों का फल देने के लिए अन्तरंग कारण है ।
शंका वे ऐसे कौनसे संस्कार हैं, जिनके कारण जीव सिंह और श्वान नामक कर्मको उपार्जन करता है। और उनके उदय सिंह और कुत्तेकी पर्यांयको धारण करता है ?
अनेकान्त
समाधान पशुओं में उत्पन्न होनेका प्रधान कारण 'मायाचार' है । सिंह और श्वान दोनों ही पशु हैं, अतः यह स्वतः सिद्ध है कि दोनोंने पूर्वभवमें भरपूर मायाचार किया है ! मनमें कुछ और रखना, वचनसे
* दोगला का अर्थ है, दो प्रकारका गला । पशु स्वभावतः दो जातिके होते हैं-- शाकाहारी और मांसाहारी । कुत्ता स्वभावतः मांसाहारी है. पर मनुष्योंके संसर्गसे अन्नभोजी भी हो गया अन्नभोजी फल तथा घासाहारी जीवोंकी गणना शाकाहारियों में ही की जाती है । कुत्ता मांसाहारियों के साथ मांस भी खा लेता है और मनुष्यों के साथ अन्न भी खा लेता है, इस प्रकार परस्पर विरोधी दो भक्ष्य पदार्थोंको अपने गले के नीचे उतारनेके कारण वह 'दोगला' कहलाता कहलाता है ।
[ वर्ष १३
कुछ और कहना, तथा काम कुछ और ही करना, यह मायाचार कहलाता है । यह मायाचार कोई प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए करता है, कोई धन कमानेके लिए और कोई व्यभिचार आदि अन्य मतलब हल करनेके लिए । धनको ग्यारहवां प्राण कहा गया है जो मायाचार करके दूसरेके धनको हड़प करते हैं, वे मांसभक्षी या छोटे-मोटे जीवोंको जिन्दा हड़प जाने वाले जानवरों में पैदा होते हैं। सिंह और श्वान दोनों ही मांसभक्षी हैं, पर इनका पूर्वभव में मायाचार धन-विषयक रहा, ऐसा जानना चाहिए। जो जीव सामने जाहिर मेंतो
धनयों की खुशामद करते हैं और अवसर पाते ही पीछे से उसके धनको चुरा लेते हैं, या लिए हुए, और अमानत रखे धनको हड़प कर जाते हैं, या हड़प करने की भावना रखते हुए भी कभी-कभी अमानत रखनेवालेको व्याज या सहायता अदिके रूप में कुछ तांबेके टुकड़े देते रहते हैं, वे तो कुत्तोंके संस्कार अपनी आत्मापर डालते हैं । किन्तु जो दूसरेके धनको चुराने या हड़प करनेके लिए न सामने खुशामद ही करते हैं और न पोछे धन ही चुराते हैं, किन्तु दिनभर तो स्वाभिमानका वाना पहने अपने घरोंमें पड़े रहते हैं और रातको शस्त्रों से लैस होकर दूसरों पर डाका डालते हैं, वे जीव शेर, चीते, सिंह आदि जानवरोंमें उत्पन्न होनेका कर्म उपार्जन करते हैं। जो मायाचार करते हुए अपने सजातीयोंका उत्कर्ष नहीं देख सकते उन्हें नीचा दिखाने मारने और काटनेको दौड़ते हैं वे कुत्तेका कर्म संचय करते हैं किन्तु जो उक्त प्रकारका मायाचार करते हुए भी अपने सजातीयों का सन्मान करते हैं । उन्हें काटने नहीं दौड़ते, पेटके लिए दूसरोंको खुशामद नहीं करते, दूसरोंके इशारोंपर नहीं नाचते भले बुरेका स्वयं विवेक रखते हैं और आत्मनिर्भर रहते हैं. वे सिंह नामक नामकर्मको उपार्जन करते हैं ।
समाजसे निवेदन
'अनेकान्त' जैन समाजका एक साहित्यिक और ऐतिहासिक सचित्र मासिक पत्र है । उसमें खोजपूर्ण पठनीय लेख निकलते रहते हैं। पाठकों को चाहिये कि वे ऐसे उपयोगी मासिक पत्रके ग्राहक बनकर, तथा संरक्षक या सहायक बनकर उसको समर्थ बनाएं। हमें दो सौ इक्यावन तथा एक सौ एक रुपया देकर संरक्षक व सहायक श्र ेणीमें नाम लिखाने वाले के वलदो सौ सज्जनोंकी यवश्यकता है। आशा है समाज के दानी महानुभाव एक सौ एक रुपया प्रदानकर सहायक सीमें अपना नाम अवश्य लिखाकर साहित्य सेवामें हमारा हाथ बटायेंगे । - मैनेजर 'अनेकान्त'
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ग्रन्थोंकी खोजके लिये ६००) रु० के छह पुरस्कार
जो कोई भी सज्जन निम्नलिखित जैनग्रंथों में से, सूचीके अतिरिक, जो अनेक ग्रन्थसूचियों पर से बनी है, जिनका उल्लेख तो मिलता है परन्तु वे अभी तक उपलब्ध 'जैन ग्रन्थावली' में भी पाया जाता है, जिसमें वह सूरतके नहीं हो रहे हैं, किसी भी ग्रन्थकी, किसी भी जैन-अजैन उन सेठ भगवानदास कल्याणदासजीकी प्राइवेट रिपोर्टसे शास्त्रभण्डार अथवा लायब्ररीसे खोज लगा कर सर्व प्रथम लिया गया है जो कि पिटर्सन साहबकी नौकरीमें थे। सूचना नीचे लिखे पते पर देनेकी कृपा करेंगे और फिर बाद- 'नियमसार' की पद्मप्रभ-मलधारि देव-कृत-टीकामें 'तथा को ग्रन्थकी शुद्ध कापी भी देवनागरी लिपिमें भेजेंगे या चोक्त तत्त्वानुशासने इस वाक्यके साथ नीचे लिखा पद्य खुद कापीका प्रबन्ध न कर सकें तो मूल ग्रन्थ ही कापी उद्धृत किया गया है, जो रामसेनके उक्त तत्त्वानुशासनमें अथवा फोटोके लिये वीरसेवामन्दिरको भिजवाएँगे तो उन्हें, नहीं है, न ग्रन्थसन्दर्भकी दृष्टिसे उसका हो सकता है तथा ग्रंथका ठीक निश्चय हो जाने पर, पुरस्कारकी वह रकम भेंट विषय-वर्णनकी दृष्टिसे बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है, और इसलिये की जायगी जो प्रत्येक ग्रन्थके लिये १००) रु० की निर्धारित सम्भवतः स्वामीजीके तत्त्वानुशासनका ही जान पड़ता है:की गई है। ग्रन्थ सब संस्कृत-भाषाके हैं।
उत्सज्य कायकर्माणि भावं च भवकारणम् । उन सूचनाके साथमें ग्रन्थके मंगलाचरण तथा प्रशस्ति स्वात्मावस्थानमव्यग्रं कायोत्सर्गः स उच्यते ॥ (अन्तभाग) की और एक सन्धिकी भी (यदि संधियों हो तो) ३) सन्मति-सूत्रकी दो टीका-सिद्धसेनाचार्यका सन्मतिनकल आनी चाहिये । यदि सूचना तार-द्वारा दी जाय तो सूत्र नामका एक प्राकृत ग्रन्थ है, जिस पर दो खास संस्कृत उक्त नकल उसके बाद ही डाक रजिस्टरीसे भेज देनी चाहिये। टीकाएँ अभी तक अनुपलब्ध हैं-एक दिगम्बराचार्य सन्मति ऐसी स्थितिमें तार मिलनेका समय ही सूचना-प्राप्तिका समय या सुमतिदेवकी रचना है और दूसरी श्वेताम्बराचार्य मल्लसमभा जायगा । सूचना की अन्तिम अवधि फाल्गुन शुक्ल वादी को । दिगम्बराचार्यकी टीकाका उल्लेख वादिराजसूरिके पूर्णिमा संवत् २०११ तक है।
पार्श्वनाथचरितमें और श्वेताम्बराचार्यकी टीकाका उल्लेख
हरिभद्रकी अनेकान्तजयपताका तथा यशोविजयके अष्टकिसी ग्रंथकी श्लोकसंख्या यदि २०० से ऊपर हो तो
सहली-टिप्पणमें निम्न प्रकार . पाया जाता है :कुल कापीकी उजरत पुरस्कारको रकमसे अलग दी जाएगी
'नमः सन्मतये तस्मै भवकूप-निपातिनाम् । और वह दस रुपए हज़ारके हिसाबसे होगी। मूल ग्रन्थ प्रतिके
सन्मतिर्विवृता येन सुखधाम-प्रवेशिनी ।। हिन्दी लिपिमें देखनेको आजानेसे कापी भेजनेकी जिम्मेदारी
(पार्श्वनाथचरित) समाप्त हो जायगी। तब कापीका प्रबन्ध वीरसेवामंदिर-द्वारा
'उक्तं च व दिमुख्येन श्रीमल्लवादिना सम्मतौ।' हो जायगा।
(अनेकान्त जय०) खोजके ग्रन्थोंका परिचय
'इहार्थे कोटिशा भंगा निर्दिष्टा मल्लवादिना । (१) जीव-सिद्धि-यह ग्रंथ स्वामी समन्तभद्रका रचा मूल-सम्मति-टीकायामिदं दिङ्मात्रदर्शनम् ।। हुआ है और उनके युक्त्यनुशासनकी जोड़का - ग्रन्थ है । श्री
(अष्टसहस्री-टि.) जिनसेनाचार्यने हरिवंशपुराणके निम्न पद्यमें इसे भी भगवान्
र्थसूत्र-टीका (तत्त्वार्थालंकार) शिवकोटिमहावीरके वचनों जैसा महत्वशाली बतलाया है
आचार्यकृत-श्रवणबेल्ग.लके शिलालेख नं० १०५ (२५४) जीवसिद्धि-विधायीह कृतयुक्त्यनुशासनम् । के निम्न पद्यसे इस टीकाका पता चलता है और इसमें वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विज़म्भते ।।
प्रयुक्त हुश्रा 'एतत् ' शब्द इस बातको सूचित करता है कि (२) तत्त्वानुशासन-यह ग्रन्थ भी स्वामि-समन्तभद्र- यह पद्य उक्न टीका परसे ही उद्धृत किया गया है, जिसे कृत है और रामसेनकृत उस तत्त्वानुशासनसे भिन्न है जो समन्तभद्रके शिष्य शिवकोटिकी कृति बतलाया गया हैनागसेनके नामसे माणिकचन्दग्रन्थमालामें छपा है। इसका तस्यैव शिष्यः शिवकोटिसूरिस्तपोलतालम्बनदेहयष्टिः । उल्लेख 'दिगम्बर जैनग्रन्थ-कर्ता और उनके ग्रन्थ' नामकी संसार-वाराकर-पोतमेतत् तत्त्वार्थसूत्रं तदलंचकार ।।
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(५) त्रिलक्षणकदर्थन - यह ग्रंथ स्वामी पात्रकेसरीकारचा हुआ है | श्रवणबेलगोलके मल्लिषेणप्रशस्ति नामक शिलालेख नं० ५४ (६७), सिद्धिविनिश्चय-टीका और न्याय विनिश्चय-विवरणमें इसका उल्लेख है । वादिराजसूरिने न्यायविनिश्चय-विवरण में लिखा है
'त्रिलक्षणकदर्थने वा शास्त्रे विस्तरेण श्रीपात्रकेसरि-स्वामिना प्रतिपादनादित्यलमभिनिवेशेन ।' श्रावश्यक निवेदन -
इन ग्रन्थोंके उपलब्ध होनेपर साहित्य, इतिहास और तत्वज्ञान विषयक क्षेत्रपर बड़ा प्रकाश पड़ेगा और अनेक उली हुई गुत्थियाँ स्वतः सुलझ जाएँगी । इसीसे वर्तमान में इनकी खोज होनी बहुत ही आवश्यक है । अतः सभी विद्वानोंको -- खासकर जैनविद्वानोंको इनकी खोजके लिये शीघ्र ही पूरा प्रयत्न करना चाहिये, सारे शास्त्र भण्डारोंकी अच्छी छान-बीन होनी चाहिये। उन्हें पुरस्कारकी रकमको न देखकर यह देखना चाहिये कि इन ग्रन्थोंकी खोज-द्वारा
श्राचार्य श्री नमिसागरजीकी प्ररेणा आदिको पाकर वरसेवामन्दिरको उसके साहित्यिक तथा ऐतिहासिक कामोंके लिए जिन सज्जनोंसे जो सहायता प्राप्त हुई है लकी सूची निम्न प्रकार है:
१००१) ना० प्यारे लालजी सर्राफ, सब्जी मंडी देहली ५५१ ) अखिल भा० दि० जैन केन्द्रीय महा समिति १००) लाला रतनलाल सुकमाल चन्दजी. मेरठ ५००) डा० उत्तमचन्दजी, अम्बाला छावनी (३००) लाला मोतीलाल जी, ६४ दरियागंज; देहली २०१) ला• खजान सिंह विमलप्रसादजी मंसूरपुर १०१ ) ला०] हरिश्चन्द्र जी, देहली सहादरा १०१) लाला होशयारसिंह शीतलप्रसाद जी मंसूरपुर १०१) धर्मपत्नी बा० शिखरचन्दजी देहली १०१) ला० रामप्रसाद जी पंसारी, देहली १०१) ला० ज्योतिप्रसाद श्रीपालजी टाइप वाले देहली १००) बा० नेमचन्द्र जी मंगलौर
कान्त
[ वर्ष १३
हम देश और समाजकी बहुत बड़ी सेवा कर रहे हैं। ऐसी सेवाओं का वास्तवमें कोई मूल्य नहीं होता -- पुरस्कार तो आदर-सत्कार एवं सम्मान व्यक्र करनेका एक चिन्ह मात्र है । वे तो जिस ग्रंथकी भी खोज लगाएंगे उसके 'उद्धारक' समझे जाएंगे ।
"
जो सज्जन पुरस्कारके अधिकारी होकर भी पुरस्कार लेना नहीं चाहेंगे उनके पुरस्कारकी रकम साहित्यिक शोधखोजके विभाग में जमा की जायगी और वह उनकी श्रोरसे किसी दूसरे ग्रंथकी खोजके काममें लगाई जायगी। साथ ही उनका नाम उस ग्रन्थके 'उद्धारक' रूपमें प्रकाशित किया
जायगा ।
वीर सेवामन्दिरको सहायता
नोट - - दूसरे पत्र सम्पादकोंसे निवेदन है कि वे भी इस विज्ञप्तिको अपने-अपने स्त्रमें प्रकाशित करनेकी कृपा करें ।
जुगलकिशोर मुख्तार अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर'
१, दरियागंज, दिल्ली
८५) धर्मपत्नी लाला सुमेरचन्द्र जी खजांची देहली (५१) लाला जयन्तीप्रसादजी देहली
२५) ला० रामकरनदासजी, बहादुरगंज मण्डी २५) ल० धूमसेन महावीरप्रसादजी कटरा सत्यनारायण देहली
२५) श्रीमती राजकली देवी श्रम्बहटा ( सहारनपुर ) २५) ला० दांताराम जी, ७ दरियागंज देहली,
२५) जा० रघुवीरसिंह जी, हादुरगंज मण्डी, फर्म ला० केदारनाथ चन्द्रभान जी
२१) श्री विजयरत्न जी
१०) अज्ञात, मार्फत ला० ज्योतिप्रसादजी टाइप वाले ५) श्रीमती तारादेवी
ला० शिखरचन्दजी सब्जीमण्डी देहली
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निवेदक राजकृष्ण जैन व्यवस्थापक वीरसेवा मन्दिर
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सकाम धर्मसाधन
लौकिक-फलकी इच्छाओंको लेकर जो धर्मसाधन किया जाय । अन्यथा, क्रियाके-बाह्य धर्माचरणके-समान होने जाता है उसे 'सकाम धर्मसाधन' कहते हैं और जो धर्म पर भी एकको बन्ध फल दूसरेको मोक्षफल अथवा एकको वैसी इच्छात्रोंको साथमें न लेकर, मात्र आत्मीय कर्तव्य पुण्यफल और दूसरेको पापफल क्यों मिलता है ? देखिये, समझकर किया जाता है उसका नाम 'निष्काम धर्मसाधन' कर्मफलकी इस विचित्रताके विषयमें श्रीशुभचन्द्राचार्य ज्ञानाहै। निष्काम धर्मसाधन ही वास्तव में धर्मसाधन है और वही र्णवमें क्या लिखते हैंवास्तविक-फलको फलता है। सकाम धर्मसाधन धर्मको विकृत यत्र बालश्चरत्यम्मिन्पथि तत्रैव पण्डितः। . करता है. सदोष बनाता है और उससे यथेष्ट धर्म-फलकी बालः स्वमपि बध्नाति मुच्यते तत्त्वविद्ध्वम् ।७२१॥ प्राप्ति नहीं हो सकती । प्रत्युत इसके, अधर्मकी और कभी
अर्थात् -जिस मार्ग पर अज्ञानी चलता है उसी पर कभी घोर पाप-फल की भी प्राप्ति होती है। जो लोग धर्मके ज्ञानी चलता है। दोनोंका धर्माचरण समान होने पर भी वास्तविक स्वरूप और उसकी शक्किसे परिचित नहीं, जिनके
अज्ञानी अपने अविवेकके कारण कर्म बाँधता है और ज्ञानी अन्दर धैर्य नहीं, श्रद्धा नहीं, जो निर्बल हैं -कमजोर हैं, अपने विवेक द्वारा कर्म-बन्धनसे छूट जाता है। ज्ञानार्णवके उतावले हैं और जिन्हें धर्मके फल पर पूरा विश्वास नहीं, निम्न श्लोकमें भी इसी बातको पुष्ट किया गया हैऐसे लोग ही फल-प्राप्तिमें अपनी इच्छाकी टाँगें अड़ा कर
वेष्टयत्यात्मनात्मानमज्ञानी कर्मबन्धनैः। धर्मको 'अपना कार्य करने नहीं देते - उसे पंगु और
विज्ञानी मोचयत्येव प्रबद्धः समयान्तरे ॥७१७|| बेकार बना देते हैं, और फिर यह कहते हुए नहीं लजाते कि
इससे विवेक पूर्वक आचरणका कितना बड़ा माहात्म्य धर्म-साधनसे कुछ भी फलकी प्राप्ति नहीं हुई। ऐसे लोगोंके
है उसे बतलानेकी अधिक जरूरत नहीं रहती। ' समाधानार्थ-उन्हें उनकी भूलका परिज्ञान करानेके लिए ही यह लेख लिखा जाता है, और इसमें प्राचार्य-वाक्योंके द्वारा
श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने, अपने प्रवचनसारके चारित्राधिकारमें,
इसी विवेकका-सम्यग्ज्ञानका - माहात्म्य वर्णन करते ही विषयको स्पष्ट किया जाता है। श्रीगुणभद्राचार्य अपने 'आत्मानुशासन' ग्रन्थमें लिखते
हुए बहुत स्पष्ट शब्दोंमें लिखा है
जौं अण्णाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं । संकल्प्यं कल्पवृक्षस्य चिन्त्यं चिन्तामणे पि। तं पाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ३॥ :- असंकल्प्यमसंचिन्त्यं फलं धर्मादवाप्यते ॥२२॥ अर्थात्-अज्ञानी-अविवेकी मनुष्य जिस अथवा जितने
अर्थात्-फलप्रदानमें कल्पवृक्ष संकल्पकी ओर चिन्ता- ज्ञानावरणादिरूप कर्मसमूहको शत-सहस्र कोटि भवोंमेंमणि चिन्ताकी अपेक्षा रखता है-कल्पवृक्ष बिना संकल्प करोड़ों जन्म लेकर-क्षय करता है उस अथवा उतने कर्मकिये और चिन्तामणि विना चिन्ता किये फल नहीं देताः समूहको ज्ञानी-विवेकी मनुष्य मन-वचन-कायकी क्रियाका परन्तु धर्म वैसी कोई अपेक्षा नहीं रखता - वह बिना संकल्प निरोध कर अथवा उसे स्वाधीनकर स्वरूपमें लीन हुश्रा किए और बिना चिन्ता किए ही फल प्रदान करता है। उच्छवासमात्रमें-लीलामात्रमें-नाश कर डालता है। . जब धर्म स्वयं ही फल देता है और फल देनेमें कल्प- इससे अधिक विवेकका माहात्म्य और क्या हो सकता वृक्ष तथा चिन्तामणिकी शकिको भी मात (परास्त) करता है? यह विवेक ही चारित्रको 'सम्यक्चारित्र' बनाता है है, तब फल-प्राप्तिके लिए इच्छाएं करके-निदान बांधकर- और संसार-परिभ्रमण एवं उसके दुःख कष्टोंसे मुक्ति दिलाता अपने आत्माको व्यर्थ ही संक्लेशित और श्राकुलित करनेकी है। विवेकके बिना चारित्र मिथ्याचारित्र है, कोरा कायक्लेश है क्या जरूरत है ? ऐसा करनेसे तो उल्टा फल-प्राप्तिके मार्गमें और वह संसार-परिभ्रमण तथा दुःख-परम्पराका ही कारण कांटे बोए जाते हैं। क्योंकि इच्छा फल-प्राप्तिका साधन न है। इसीसे विवेकपूर्वक अथवा सम्यग्ज्ञानके अनन्तर चारिका होकर उसमें बाधक है।
अाराधन बतलाया गया है। जैसा कि श्रीअमृतचन्द्राचार्यके ___इसमें सन्देह नहीं कि धर्म-साधनसे सब सुख प्राप्त निम्न वाक्यसे प्रगट हैहोते हैं। परन्तु तभी तो जब धर्मसाधनमें विवेकसे काम लिया न हि सम्यग्व्यपदेशं चारित्रमज्ञा लभते ।
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ज्ञानानन्तरमुक्त चारित्राराधनं तस्मात् ॥ ३८ ॥ - पुरुषार्थसिद्ध, युपाय
अर्थात् — श्रज्ञानपूर्वक - विवेकको साथमें न लेकर दूसरोंकी देखा-देखी अथवा कहने-सुनने मात्रसे -- जो चरित्र - nt अनुष्ठान किया जाता है वह 'सम्यक् चारित्र' नाम नहीं पाता – उसे ‘सम्यक् चारित्र' नहीं कहते । इसीसे ( श्रागममें) सम्यग्ज्ञानके अनन्तर — विवेक हो जाने पर चारित्रके आराधनका – अनुष्ठानका — निर्देश किया गया है— रत्नत्रय धर्मकी आराधनामें, जो मुक्लिका मार्ग है, चारित्रकी श्राराधनाका इसी क्रमले विधान किया गया है।
श्री कुन्दकुन्दाचार्यने, प्रवचनसारमें, 'चारितं खलुधम्मो ' इत्यादि वाक्यके द्वारा जिस चारित्रको – स्वरूपाचरणको वस्तु भाव होनेके कारण धर्म बतलाया है वह भी यही विवेकपूर्वक सम्यक् चारित्र है, जिसका दूसरा नाम साम्यभाव है और जो मोह-क्षोभ अथवा मिथ्यात्व राग-द्वेष तथा काम-क्रोधादिरूप विभापरिणति रहित श्रात्मांका निज परिणाम होता है
।
वास्तवमें यह विवेक ही उस भावका जनक होता है जो धर्माचरणका प्राण कहा गया है। बिना भावके तो क्रियाएं फलदायक होती ही नहीं है। कहा भी है
अनेकान्त
( वष १३
/
नहीं होता ? स्वच्छ, शुभ तथा शुद्ध भाव किसे कहते हैं ? और अस्वच्छ, अशुद्ध तथा अशुभ भाव किसका नाम है ? सांसारिक विषय-सौख्यकी तृष्णा अथवा तीव्र कषायके वशीभूत हो कर जो पुण्य कर्म करना चाहता है वह वास्तवमें पुण्यकर्मका सम्पादन कर सकता है या कि नहीं ? और ऐसी इक्छा धर्मकी साधक है या बाधक ? वह खूब समझता कि सकाम धर्मसाधन मोह-क्षोभादिसे घिरा रहनेके कारण धर्मकी कोटिले निकल जाता है; धर्म वस्तुका स्वभाव होता है और इसलिये कोई भी विभाव परिणति धर्मका स्थान नहीं ले सकती । इसीसे वह अपनी धार्मिक क्रियाओं में तद्व पभावकी योजनाद्वारा प्राणका संचार करके उन्हें सार्थक और सफल बनाता है। ऐसे ही विवेकी जनोंके द्वारा श्रनुष्ठित धर्मको सब - सुखका कारण बतलाया है । विवेककी पुट बिना अथवा उसके सहयोगके अभाव में मात्र कुछ क्रियानोंके श्रनुष्ठानका नाम ही धर्म नहीं है। ऐसी क्रियाएँ तो जड़ मशीनें भी कर सकती हैं। और कुछ करती हुई देखी भी जाती है— फोनोग्राफ़के कितने ही रिकार्ड खूब भक्ति-रसके भरे हुए गाने तथा भजन गाते हैं और शास्त्र पढ़ते हुए भी देखने में आते हैं । और भी जड़मशीनोंसे आप जो चाहें धर्म की बाह्य क्रियाएँ करा सकते हैं । इन सब क्रियाओंको करके जडमशीनें जिस प्रकार धर्मात्मा नहीं बन सकतीं और न धर्मके फलको ही पा सकती हैं, उसी प्रकार अविवेकपूर्वक अथवा सम्यग्ज्ञानके बिना धर्मकी कुछ क्रियाएँ कर लेने मात्रले ही कोई धर्मात्मा नहीं बन जाता और न धर्मके फलको ही पा सकता है। ऐसे अविवेकी मनुष्यों और जड़ मशीनोंमें कोई विशेष अन्तर नहीं होता — उनकी क्रियाओंको सम्यक्चारित्र न कह कर 'यांत्रिक चारित्र' कहना चाहिये। हां, जड़मशीनोंकी अपेक्षा ऐसे मनुष्योंमें मिथ्याज्ञान तथा मोहकी विशेषता होनेके कारण वे उसके द्वारा पापबन्ध करके अपना श्रहित ज़रूर कर लेते हैं— जब कि जड़मशीनें वैसा नहीं कर सकतीं। इसी यांत्रिक चारित्रके भुलावेमें पड़कर हम अक्सर भूले रहते हैं और यह समझते रहते हैं कि इनने धर्मका अनुष्ठान कर लिया ! इसी तरह करोड़ों जन्म निकल जाते हैं और करोड़ों वर्षकी बालतपस्यासे भी उन कर्मोंका नाश नहीं हो पाता, जिन्हें एक ज्ञानी पुरुष त्रियोगके संसाधन- पूर्वक क्षणमात्रमें नाश कर
"यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः ४ ।" तदनुरूप भावके बिना पूजनादिककी, तप-दान-जपादिककी और यहां तक कि दीक्षाग्रहणादिककी सब क्रियाएँ भी ऐसी ही निरर्थक हैं जैसेकि बकरीके गलेके स्तन (थन ), अर्थात् जिस प्रकार बकरी के गलेमें लटकते हुए स्तन देखनेमें स्तनाकार होते हैं, परंतु वे स्तनोंका कुछ भी काम नहीं देते- उनसे दूध नहीं निकलता - उसी प्रकार बिना तदनुकूल भावके पूजा-तप-दानपादिककी उक्त सब क्रियाएँ भी देखनेकी ही क्रियाएँ होती हैं, पूजादिकका वास्तविक फल उनसे कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता +।
ज्ञानी विषेकी मनुष्य ही यह ठीक जानता है कि पुण्य किन भावोंसे बँधता है, किनसे पाप और किनसे दोनों का बन्ध
* चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो समोत्ति खिदिट्ठो । मोहक्खहविहीण परिणामो अप्पणो हु समो ॥७॥ x देखो, कल्याणमन्दिरस्तोत्रका 'आकर्रिणतोऽपि आदि पद्य ।
+भावहीनस्य पूजादि - तपोदान- जपादिकम् । व्यर्थ दीक्षादिकं च स्यादजाकण्ठे स्तनानिव ।।"
डालता है । श्रस्तु ।
इस विषय में स्वामी कार्तिकेयने, अपने अनुप्रेक्षा ग्रन्थमें, कितना ही प्रकाश डाला है। उनके निम्न वाक्य ख़ास तौर से
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किरण २] सकाम धर्मसाधन
[५६ ध्यान देने योग्य हैं :
होता है । इसलिए उसके द्वारा वीतराग भगवान्की पूजाकम्मं पुण्णं पावं हेऊ तेसिं च होंति सच्छिदरा। भक्ति-उपासना तथा स्तुतिपाठ, जप-ध्यान, सामायिक, स्वामंदकसाया सच्छा तिव्वकसाया असच्छा हु॥ ध्याय, तप, दान और व्रत-उपवासादिरूपसे जो भी धार्मिक जीवो कि हवइ पावं अइतिव्वकसायपरिणदो णिच्चं। क्रियाएँ बनती हैं वे सब उसके श्रात्मकल्याण के लिए नहीं जीवो हवेइ पुरणं उवसमभावेण संजुत्तो॥ होती-उन्हें एक प्रकारकी सांसारिक दुकानदारी ही समझना जोअहिलसेदि पुरणं सकसाओ विसयसोक्खतण्हाए। चाहिए। ऐसे लोग धार्मिक क्रियाएं करके भी पाप उपार्जन दूरे तस्स विसोही विसोहिमूलाणि पुरणाणि॥ करते हैं और सुखके स्थानमें उल्टा दुखको निमन्त्रण देते हैं। पुण्णासएण पुरण जदो गिरीहस्स पुण्णसंपत्ती। ऐसे लोगोंकी इस परिणतिको श्री शुभचन्द्राचार्याने, ज्ञानार्णइय जागिऊण जइयो पुण्णे वि म प्रायरं कुणह॥ वग्रन्थके २५वें प्रकरणमें, निदान-जनित प्रात्त ध्यान लिखा पुण्णं बंधदि जीवो मंदकसाएहिं परिणदो संतो। है और उसे घोर दुःखोंका कारण बतलाया है । यथातम्हा मंदकसाया हेऊ पुण्णस्स ण हि वंछा॥ पुण्यानुष्ठानजातैरभिलषति पदं यज्जिनेन्द्रामराणां,
-गांथा नं० १०, १६०, ४१० से ४१२ यद्वा तैरेव वांछत्यहितकुलकुजच्छेदमत्यन्तकोपात् । इन गाथाओं में बतलाया है कि-'पुण्य कर्मका हेतु पूजा सत्कार-लाभ-प्रभृतिकमथवा याचते यद्विकल्पः स्वच्छ, ( शुभ परिणाम है और पाप कर्मका हेतु अस्वच्छ स्यादात तन्निदानप्रभवमिहनृणां दुःखदावोप्रधामं ॥ 'अशुभ या अशुद्ध) परिणाम । मंदकषायरूप परिणामोको अर्थात् -अनेक प्रकारके पुण्यानुठानोंको-धर्म कृत्योंको स्वच्छ परिणाम और तीब्रकषायरूप परिणामोंको अस्वच्छ
करके जो मनुष्य तीर्थकरपद तथा दूसरे देवोंके किसी पदकी परिणाम कहते हैं। जो जीव अतितीव कषायसे परिणत होता
इच्छा करता है अथवा कुपित हुश्रा उन्हीं पुण्याचरणोंके है, वह पापी होता है और जो उपशमभावसे-कषायकी
द्वारा शत्रुकुल-रूपी वृत्तोंके उच्छेदकी वांछा करता है, और मंदतासे-युक्र रहता है वह पुण्यात्मा कहलाता है । जो या अनेक विकल्पोंके साथ उन धर्म-कृत्योंको करके अपनी जीव कषायभावसे युक्त हुश्रा विषयसौख्यकी तृष्णासे-इंद्रिय- लौकिक पूजाप्रतिष्ठा तथा लाभादिककी याचना करता है, विषयको अधिकाधिक रूपमें प्राप्त करनेकी तीव्र इच्छासे उसकी यह सब सकाम प्रवृत्ति 'निदानज' नामका, मार्तध्यान पुण्य करना चाहता है-पुण्य क्रियाओंके करनेमें प्रवृत्त होता है। ऐसा आर्तध्यान मनुष्योंके लिए दुःख-दावानलका अग्रहै.-उससे विशुद्धि बहुत दूर रहती हैं और पुण्य-कर्म स्थान होता है-उससे महादःखोंकी परम्परा चलती है। विशुद्धिमूलक-चित्तकी शुद्धि पर आधार रखने वाले होते हैं। वास्तवमें प्रार्तध्यानका जन्म ही संक्लेश परिणामोंसे अतः उनके द्वारा पुण्यका सम्पादन नहीं हो सकता-वे
__ होता है, जो पाप बन्धके कारण हैं । ज्ञानार्णवके उक्त प्रकरअपनी उन धर्मके नामसे अभिहित होनेवाली क्रियाओंको
णान्तर्गत निम्न श्लोकमें भी पार्तध्यानको कृष्ण-नील-कापोत करके पुण्य पैदा नहीं कर सकते | चूंकि पुण्यफलकी इच्छा ऐसी तीन अशुभ लेश्याओंके बल पर ही प्रकट होने वाला रखकर धर्मक्रियाओंके करनेसे-सकाम धर्मसाधनसे-पुण्य
लिखा है और साथ ही यह सूचित किया है कि यह प्रात. की सम्प्राप्ति नहीं होती, बल्कि नष्काम-रूपसे धर्मासाधन
ध्यान पाप,रूपी दावानलको प्रज्वलित करनेके लिए इन्धनके करने वालेके ही पुण्यकी संप्राप्ति होती है, ऐसा जानकर पुण्य
समान हैमें भी आसक्ति नहीं रखना चाहिए । वास्तवमें जो जीव मंद
कृष्ण नीलाद्यसल्लेश्याबलेन प्रविजम्भते। कषायसे परिणित होता है वही पुण्य बांधता है, इस लिये इदं दुरितदावाचिः प्रसूतेरिन्धनोपमम् ॥४०॥ मन्दकषाय ही पुण्यका हेतु है, विषयवांछा पुण्यका हेतु नहीं इससे स्पष्ट है कि लौकिक फलोंकी इच्छा रखकर धर्म-विषयवांछा अथवा विषयासक्ति तीव्रकषायका लक्षण है साधन करना धर्माचरणको दूषित और निष्फल ही नहीं और उसका करने वाला पुण्यसे हाथ धो बैठता है । बनाता, बल्कि उल्टा पापबन्धका कारण भी होता है, और
इन वाक्योंसे स्पष्ट है कि जो मनुष्य धर्म-साधनके इसलिए हमें इस विषयमें बहुतही सावधानी रखनेकी ज़रूरत द्वारा अपने विषय-कषायोंकी पुष्टि एवं पूर्ति चाहता है उसकी है। हमारा सम्यक्त्व भी इससे मल्लिन और खण्डित होता कषाय मन्द नहीं होती और न वह धर्मके मार्ग पर स्थिर ही है। सम्यक्त्वके आठ अंगोंमें निःकांक्षित नामका भी एक
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अनेकान्त
[ वर्षे १३
अंग है, जिसका वर्णन करते हुए श्रीअमितगति आचार्य ष्ठान किया जाता है तो वह अनुष्ठान धर्मकी कोटिसे निकल उपासकाचारके तीसरे परिच्छेदमें साफ लिखते हैं
जाता है-ऐसे सकाम धर्मसाधनको वास्तवमें धर्मसाधन ही विधीयमानाः शम-शील-संयमाः
नहीं कहते । धर्मसाधन तो स्वरूपसिद्धि अथवा आत्मविकास श्रियं ममेमे वितरन्तु चिन्तिताम् । .
के लिये प्रात्मीय कर्तब्य समझ कर किया जाता है, और सांसारिकानेकसुखप्रवद्धिनी
इसलिये वह निष्काम धर्मसाधन ही हो सकता है। निष्कांक्षितो नेति करोति कांक्षाम ॥७४||
इस प्रकार सकाम धर्मसाधनके निषेधमें आगमका स्पष्ट अर्थात्-नि:कांक्षित अंगका धारक सम्यग्दृष्टि इस
विधान और पूज्य श्राचार्योंकी खुली अाशाएँ होते हुए भी प्रकारकी बांछा नहीं करता है कि मैंने जो शम, शील और
खेद है कि हम आज-कल अधिकांशमें सकाम धर्मसाधनकी संयमका अनुष्ठान किया है वह सब धर्माचरण मुझे उस
ओर ही प्रवृत्त हो रहे हैं। हमारी पूजा-भक्ति-उपासना,स्तुतिमनोवांच्छित लक्ष्मीको प्रदान करे जो नाना प्रकारके सांसा
वन्दना-प्रार्थना, जप, तप, दान और संयमादिकका सारा लक्ष रिक सुखोंमें वृद्धि करनेके लिए समर्थ होती है-ऐसी बांछा
लौकिक फलोंकी प्राप्तिकी तरफ ही लगा रहता है-कोई कस्नेसे उसका सम्यक्त्व दूषित होता है।
उसे करके धन-धान्यकी वृद्धि चाहता है तो कोई पुत्रकी इसी निःकांक्षित सम्यग्दृष्टिका स्वरूप श्रीकुन्दकुन्दा
संप्राप्ति । कोई रोग दूर करनेकी इच्छा रखता है, तो कोई चार्यने 'समयसार' में इस प्रकार दिया है
शरीरमें बल लाने की। कोई मुकदमेमें विजयलाभके लिये जो ण करेदि दु कंखं कम्मफले तह य सव्वधम्मेसु। उसका अनुष्ठान करता है, तो कोई अपने शत्रुको परास्त सो णिक्कंखो चेदा सम्मादिट्ठी मुणेयव्यो ।। २४८।। करनेके लिये। कोई उसके द्वारा किसी ऋद्ध-सिद्धिकी ____ अर्थात्-जो धर्मकर्म करके उसके फलकी-इन्द्रिय- साधनामें व्यग्र है, तो कोई दूसरे लौकिक कार्योंको सफल विषयसुखादिकी इच्छा नहीं रखता है-यह नहीं चाहता है
बनानेकी धुनमें मस्त । कोई इस लोकके सुखको चाहता है, कि मेरे अमुक कर्मका मुझे अमुक लौकिक फल मिले- तो कोई परलोकमें स्वर्गादिकोंके सुखोंकी अभिलाषा रखता और न उस फल साधनकी दृष्टिसे नाना प्रकारके पुण्यरूप
है । और कोई-कोई तो तृष्णाके वशीभूत होकर यहाँ तक धर्मोको ही इष्ट करता है-अपनाता है और इस तरह
अपना विवेक खो बैठता है कि श्रीवीतराग भगवानको भी निष्कामरूपसे धर्मसाधन करता है, उसे निःकांक्षित सम्यग- रश्वत (घूस ) देने लगता है-उनसे कहने लगता है कि दृष्टि समझना चाहिये।
हे भंगवान् , आपकी कृपासे यदि मेरा अमुक कार्य सिद्ध हो यहां पर मैं इतना औरभी बतला देना चाहता हूं कि
जायेगा तो मैं आपकी पूजा करूँगा, सिद्धचक्रका पाठ श्रीतत्त्वार्थसूत्रमें क्षमादि दश धर्मोंके साथमें 'उत्तम विशेषण था। गा, छत्र-चंवरादि भेट करूँगा, रथ यात्रा निकलवाऊँगा, लगाया गया है-उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दवादिरूपसे दश "
गज-रथ चलवाऊँगा अथवा मन्दिर बनवा दूंगा !! ये सब धर्मों का निर्देश किया है। यह विशेषण क्यों लगाया गया
धर्मकी विडम्बनाएँ हैं ! इस प्रकारकी विडम्बनाओंसे अपनेहै ? इसे स्पष्ट करते हुए श्रीपूज्यपाद प्राचार्य अपनी 'सर्वार्थ
को धर्मका कोई लाभ नहीं होता और न आत्म-विकास ही सिद्धि' टीकामें लिखते हैं
सध सकता है। जो मनुष्य धर्मकी रक्षा करता है-उसके
विषयमें विशेष सावधानी रखता है-उसे विडम्बित या "दृष्टप्रयोजनपरिवर्जनार्थमुत्तमविशेषणम् "
कलंकित नहीं होने देता, वही धर्मके वास्तविक फल को पाता अर्थात्-लौकिक प्रयोजनोंको टालनेके लिए 'उत्तम'
है । 'धर्मो रक्षति रक्षितः' की नीतिके अनुसार रक्षा किया विशेषणका प्रयोग किया गया है।
हुआ धर्म ही उसकी रक्षा करता है और उसके पूर्ण विकास इससे यह विशेषणपद यहां 'सम्यक्' शब्दका प्रतिनिधि
म्यक' शब्दका प्रतिनिधि को सिद्ध करता है। जान पड़ता है और उसकी उक्त व्याख्यासे स्पष्ट है कि किसी
ऐसी हालतमें सकाम धर्मसाधनको हटाने और धर्मकी बौकिक प्रयोजनको लेकर कोई दुनियावी ग़ज़ साधनके विडम्बनाओंको मिटानेके लिये समाजमें पूर्ण आन्दोलन होने लिये यदि क्षमा-मार्दव-प्रार्जव-सत्य-शौच, संयम-तप-त्याग- की ज़रूरत है। तभी समाज विकसित तथा धसके मार्ग पर भाकिंचन्य ब्रह्मचर्य इन दश धर्मों में से किसीभी धर्मका अनु- अग्रसर हो सकेगा, तभी उसकी धार्मिक पोल मिटेगी और
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किरण २ ]
तभी वह अपने पूर्व गौरव-गरिमाको प्राप्त कर सकेगा । इसके लिये समाजके सदाचारनिष्ठ एवं धर्मपरायण विद्वानों को आगे आना चाहिये और ऐसे दूषित धर्माचरणोंकी युक्ति-पुरस्पर खरी-खरी श्रावोचना करके समाजको सजग तथा सावधान करते हुए उसे उसकी भूलोंका परिज्ञान कराना चाहिये तथा
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सखि ! पर्वराज पर्युषण आये ।
[ लेखक - मनु 'ज्ञानार्थी ]
मैं बसे पथ देख रही थी; भादोंकी रङ्गीन धरा पर;
गुरुतम क्षमा मार्दव आर्जव
भवके वन्धन ढीले करने, पर्वराज प्रियतम पर्युषण ।
• युगकी सोई साध जगाने आये । सखि ! पर्वराज
त्याग तपस्या ब्रह्मचर्यमय,
सत्य शौच सयम आकिंचन
Geosces
सखि ! पर्वराज पर्यूषण आ
अब देखू तो अन्तस्तल में;
रत्न- दशकके ज्योति पुंज से,
स्वच्छ साफ है; पड़े नहीं हैं
गगन अनिका छोर मिलाने आये । सखि ! पर्वराज
परको छोड़ निहारू घर मैं;
कैसे करूँ अतिथिका स्वागत,
अर्ध चढ़ाने के पहले ही;
[ ६१
भूलोंके सुधारका सातिशय प्रयत्न कराना चाहिये । यह इस समय उनका खास कर्त्तव्य है और बड़ा ही पुण्य कार्य है। ऐसे आन्दोलन- द्वारा सन्मार्ग दिखलानेके लिये अनेकान्तका द्वार खुला हुआ है । वे इसका यथेष्ट उपयोग कर सकते हैं। और उन्हें करना चाहिये । - जुगलकिशोर मुख्तार
काम क्रोध मायाके छींट १
पर मैंने निज अन्तर घट रीते पाये । सखि ! पर्वराज
स्वच्छ नहीं मेरा मानस-गृह १
लौट न जायें मेरे प्रभुवर १
जगी अन्तर- ज्योति जगाने आये । सखि ! पर्वराज
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सम्पादकीय १. दो नये पुरस्कारोंकी योजनाका नतीजा "आपकी टीका पढ़ी | fourteen dreams जो लिखा
गत वर्ष जुलाई मासकी किरण नं.२ में मैंने सो गया है वह मेरी स्पष्ट गलती है और इसलिए मैं विद्वानों दो नये पुरस्कारोंकी योजना की थी, जिसमें से १२५) का
तथा पाठकोंका क्षमाप्रार्थी हैं। इससे आपको और अन्यको एक पुरस्कार 'सर्वज्ञके संभाव्यरूप' नामक निबन्ध पर था ।
जो दुःख हुआ हो, उससे मुझे बहुत खेद है। 'पउमचरिउ'
के तीसरे खण्डमें उसकी शुद्धि जरूर कर लूगा ।" और दूसरा ३००) रु. का पुरस्कार समन्तभद्रके 'विधेयं वार्य वा' इत्यादि वाक्यको ऐसी विशद व्याख्याके लिये था ३-उत्तम ज्ञानदानके आयोजनका फल जिससे सारा 'तस्व-नय-विलास' सामने भाजाय । निबन्धोंके दो-ढाई वर्षसे उपरका अर्सा हुआ जब एक उदार-हदय लिए दिसम्बर तककी अवधि नियत की गई थी और बादको धर्मबन्धुने, जिनका नाम अभी तक अज्ञात है और जिन्होंने उसमें फर्वरी तक दो महीनेकी और भी वृद्धि कर दी गई अपना नाम प्रकट करना नहीं चाहा, सेठ मंगल जी छोटेलाल थी। साथ ही कुछ खास विद्वानोंको मौखिक तथा पत्रों द्वारा जी कोटावालोंकी मार्फत मेरे पास एक हजार रुपये भेजे थे निबन्ध लिखनेकी प्रेरणा भी की गई थी। परन्तु यह सव और यह इच्छा व्यक्त की थी कि इन रुपयोंसे ज्ञानदानका कुछ होते हुए भी खेदके साथ लिखना पड़ता है कि किसी आयोजन किया जाय अर्थात् जैन-अजैन विद्वानों, विदुषी भी विद्वान या विदुषी स्त्रीने निबन्ध लिखकर भेजनेकी स्त्रियों और उच्च शिक्षाप्राप्त विद्यार्थियों एवं साधारण कृपा नहीं की। पुरस्कारकी रकम कुछ कम नहीं थी और न विद्यार्थियोंको भी जैन धर्म-विषयक पुस्तकें वितरण कीजाएँ । यही कहा जा सकता है कि इन निबन्धोंके विषय उपयोगी. साथ ही खास-खास यूनिवर्सिटियों, विद्यालयों कालिजों और नहीं थे। फिर भी विद्वानोंकी उनके विषयमें यह उपेक्षा लायनेरियोंको भी वे दी जाएं। और सब प्रायोजनको, बहुत ही अखरती है और इसलिए साहित्यिक विषयके कुछ सामान्य सूचनाओंके साथ, मेरी इच्छा पर छोड़ा था। पासकारोंकी योजनाको अागे सरकानेके लिए कोई उत्साह तदनुसार ही मैंने उस समय दातारजी की पुनः अनुमति नहीं मिल रहा है । अतः अब आगे कुछ ग्रन्थोंके अनुसन्धान मँगाकर एक विज्ञप्ति जैनसन्देश और जैनमित्रमें प्रकाशित के लिए पुरस्कारोंकी योजना की गई है। जिसकी विज्ञप्ति की थी, जिसमें प्राप्तपरीक्षा, स्वयम्भूस्तोत्र, स्तुतिविद्या, इसी किरणमें अन्यत्र प्रकाशित है।
युक्त्यनुशासन और अध्यात्मकमलमार्तण्ड आदि पाठ ग्रन्थों
- की सामान्य परिचयके साथ सूची देते हुए, जैन-जैनेत्तर २. डा० भायाणीने भूल स्वीकार की
विद्वानों, विदुषी स्त्रियों, विद्यार्थियों, यूनिवर्सिटियों, कालिजों अनेकान्तकी गत किरणमें 'डा० भायाणी एम० ए० की विद्यालयों और विशाल लायबेरियोंको प्रेरणा की थी कि वे भारी भल' इस शीर्षकके साथ एक नोट प्रकाशित किया गया अपने लिए जिनग्रन्थों को भी मँगाना आवश्यक समझे उन्हें था, जिसमें उनके द्वारा सम्पादित स्वयम्भू देवके 'पउमचरिउ' शीघ्र मँगाले। तदनुसार विद्वानों श्रादिके बहुत से पत्र उस की अंग्रेजी प्रस्तावनाके एक वाक्य Marudexi saw a समय प्राप्त हुए थे, जिनमेंसे अधिकांशको आठों ग्रन्थोंके series of fourteen dreams) पर आपत्ति करते हुए पूरे सेट और बहुतोंको उनके पत्रानुसार अधूरे सेट भी भेजे यह स्पष्ट करके बतलाया गया था कि मूल ग्रन्थ में मरुदेवीके गये। कितनोंने अधिक ग्रन्थोंकी इच्छा व्यक्त की परन्तु उन्हें चौदह स्वप्नोंका नहीं किन्तु सोलह स्वप्नोंको देखनेका उल्लेख जितने तथा जो ग्रन्थ अपनी निर्धारित नीतिके अनुसार भेजने है। साथ ही इस भूलको सुधारने की प्रेरणा भी की गई उचित समझे गये वे ही भेजे गये, शेषके लिए इन्कार करना थी। इस पर डा. साहबने उदारता-पूर्वक अपनी भूल पड़ा। जैसे कुछ लोगोंने अपनी साधारण घरू पुस्तकालय स्वीकार की है और लिखा है कि ग्रन्थके तीसरे खण्डमें के लिये सभी ग्रंथ चाहे जो उन्हें नहीं भेजे जा सके। फिर भी गलतीका संशोधन कर दिया जायगा, यह प्रसन्नताकी बात जिन लोगोंकी मांगें आई उनमेंसे प्रायः सभीको कोई न कोई है। इस विषय में उनके २६ जुलाईके पत्र के शब्द निम्न ग्रन्थ मेजे जरूर गये हैं। इसके सिवाय देश-विदेशके अनेक प्रकार हैं
। विद्वानों, यूनिवर्सिटियों, कालिजों तथा लायनेरियोंको अपना
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किरण २ ]
पोस्टेज लगाकर भी ग्रन्थ भेजे गये हैं। और कुछको साक्षात् भेंट भी किए गये हैं । इस तरह उन दानकी रकमसे १३००) से ऊपर मूल्य वाले ग्रन्थ वितरित हुए हैं, जिन्हें प्राप्त कर अनेक विद्वानोंने अपना श्रानन्द तथा श्राभार व्यक्र किया है।
वीरसेना - मन्दिरको स्वीकृत सहायता
"
वितरणका यह कार्य अर्सा हुआ समाप्त हो चुका है. फिर भी कुछ लोगों की मांगें श्राप्तपरीक्षादि जैसे ग्रन्थोंके लिये
वीरसेवामन्दिरको
आचार्य श्रीनमिसागरजीजी की प्रेरणा आदिको पाकर वीर सेवामन्दिरको उसके साहित्यक तथा ऐति - हासिक कामोंके लिये जिन सज्जनोंने जो सहायता स्वीकृत की है उसकी सूची निम्न प्रकार है। इसमें से जो सहायता अब तक प्राप्त हो चुकी है उसकी सूची इसी किरण में अन्यत्र दी गई है : १५००) ला० मोतीलालजी, ६४ दरियागंज, देहली १५००) डा. उत्तमचन्दजी, अम्बाला छावनी १००१) अखिल भा० दि० जैन केन्द्रीय महासमिति धर्मपुरा देहली।
:
१००१) राय सा० ला० उल्फत रायजी, ७/३३ दरियागंज १००१) ला० प्यारेलालजी जैन सर्राफ, सब्जी मण्डी, २००१) ला० जुगमन्दरदास शीतलप्रसादजी मेरठ सदर १००१) पं० राजेन्द्र कुमारजी
६०१) ला० आनन्दस्वरूपजी सुनपत वाले, देहली ५०१) ला० विमलप्रसादजी मा० ला• हरिश्चन्द्रजी, ५००) ला० सुकमालचन्द्रजी मेरठसिटी
२०१) ला॰ मनाहरलाल नन्हेंमलजी जैन, दरियागंज, २०१) ला• खजानसिंह विमलप्रसादजी मंसूरपुर २०१) ला० नेमिचन्दजी मंगलार
१७५) ला० नानक चन्दजी सोनीपत वाले, सेंट्रल बैंक, १०१) धर्म पत्नी ला० सुमेरचन्दजी खजांची १०१) ला० शिखरचन्दजी ३ दरियागंज, देहली १०१) ला ० रामप्रसादजी किराना मर्चेन्ट, देहली १०१) ला• हरिश्चन्द्रजी देहली - शाहदरा १०१) ला० होशयारसिंह शीतलप्रसादजी मंसूरपुर १०१) ला• ज्योतिप्रसादजी टाइप वाले, मस्जिद खजूर
[ ६३
अभी तक भी आती रहती हैं जिन्हें पूरा करनेके लिये श्रसमर्थता व्यक्त करनी पड़ती है। यदि कोई दूसरे दानी महानु भाव शास्त्रदान जैसे पुण्य कार्योंके लिए दशलक्षण जैसे पावन पर्व में कुछ द्रव्य निकालें तो उनकी ओरसे यह उत्तम ज्ञानदानके प्रायोजनका सिलसिला जारी रक्खा जा सकत है। आशा है उदार हृदय महानुभाव इस ओर भी ध्यान देनेकी कृपा करेंगे ।
स्वीकृत सहायता
१०१) ला रंगीलाल श्रीपालजी जैन, दरियागंज, देहली १०१) श्रीमती कान्ता देवी, न्यू इंण्डिया' मोटर्स कम्पनी १०१ ) श्रीमती स्यालकोट वाली बहिन ला०अमरनाथजी, ५१) लाला दीवानचन्दजी सुपुत्र लाला दीपचन्दजी झज्झर वाले
५१) ला• जयन्ती प्रसादजी
२५) ला ० धूमसेन महावीर प्रसादजी कटरा सत्यनारायण २५) ला० रामकरणदासजी, बहादुरगंजमण्डी २५) ला• रघुवीरसिंहजी फर्म ला० केदारनाथ चन्द्रभानजी, बहादुरगंजमंडी
२५) श्रीमतीराजकलीदेवी अम्बहटा (सहारनपुर ) २५) ला० दातारामरायजी ७ दरियागंज देहली २१) ला ० विजयरत्नजी
११) ला० पन्नालालजी, २१ दरियागंज देहली ११) ला. माल्तीप्रसादजी मंसूरपुर
१०) अज्ञात् मा० ना० ज्योतीप्रसादजी टाइप वाले ५) श्रीमती तारादेवी
५) ला० शिखरचन्दजी सब्जी मण्डी
११५८४)
बीर सेवामन्दिरको सहायता
गत वीरशासन जयन्ती और वीरसेवामन्दिर के नूतन भवन के शिलान्यासके अवसर पर श्रीमान् रायबहादुर ला० दयाचन्द्र जीदरियागंज देहली ने वीरसेवामन्दिरको उसके साहित्यिक कार्योंके लिए ५०० ) रुपयेकी सहायताका वचन दिया है, जिसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं ।
मैनेजर - वीरसेवामंदिर
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साहित्य परिचय और समालोचन १. श्रीमहावीर स्तोत्रम् –'चन्द्रदूत काव्य ‘और गैट अप चित्राकर्षक है। सस्तासाहित्यमण्डलने और विद्वत्प्रबोध शास्त्र एवं नरसुन्दरगणिकी अव- इस पुस्तकको प्रकाशित कर असम्प्रदायक उदारताका चरिसे अलंकृत) प्रकाशक, श्राजिनदत्तसरि-ज्ञान जो परिचय दिया है वह सराहनीय है। आशा है भंडार, सूरत । पृष्ठ संख्या ६४ । मूल्य भेंट । भ वष्यमें अन्य भी शिक्षाप्रद जैन कथानकोंको मंडल
प्रस्तुत ग्रन्थमें खरतर गच्छीय अभयदेवसरिके द्वारा प्रकाशमें लाया जायगा। " शिष्य जिनवल्लभसरि द्वारा रचित 'महावीर स्तोत्र' ३० ३गृहस्थ धर्म-- लेखक स्व० ० शीतलप्रसाद जी। पद्यों में दिया हुआ है, और उस पर नरसुन्दरगणीकी प्रकाशक, मूलचन्द किसनदास जी कपड़िया, सूरत। अवचूरि भी साथमें दी हुई है। .
-पृष्ठ संख्या २७२, मूल्य सजिल्द प्रतिका ३) रुपया। महावीर स्तोत्र अच्छा भावपूर्ण स्तवन है। यह प्रस्तुत ग्रन्थका नाम उसके विषयसे स्पष्ट है। स्तवन विक्रमकी १२ वीं शताब्दी (सं० ११२५-११६७) इसमें मर्म से लेकर मरण पर्यन्त तक सभी आवश्यक की रचना है । अवचूरिको रचना कब हुई, यह कुछ क्रियाओंका स्वरूप और उनके करनेको विधिका परिज्ञात नहीं हो सका । उक्त स्तोत्रके कर्ता जिनवल्लभ चय दिया हुआ है । यह ग्रन्थ ३१ अ यायांमें विभक्त सूरिजी प्राकृत संस्कृत भाषाके अच्छे विद्वान थे। है गृहस्थ धर्म तुलनात्मक अध्ययनको लिए हुये एक उन्होंने अनेक स्तोत्र-ग्रन्थोंकी रचना की है। विचारपूर्ण पुस्तकके लिखे जाने की आवश्यकता है।
दूसरी रचना चन्द्रदूतकाव्य है जिसके कर्ता फिर भी वह पुस्तक उसकी आंशिक पूर्ति तो करती ही साधु सुन्दरके शिष्य विमलकीर्ति हैं । और 'विद्वत्प्रबोध है। छपाई सफाई साधारण है। शास्त्रके कर्ता वल्लभगणी हैं।
४. चारुदत्त चरित्र-लेखक पं० परमेष्ठीदास इस ग्रन्थकी प्रस्तावनाके लेखक मुनि मंगलसागर जैन न्यायतीर्थ । प्रकाशक, मूलचन्द किसनदास कापहैं। ग्रन्थकी छपाई सफाई अच्छी है । ग्रन्थका प्रका- डिया सुरत | पृष्ठ संख्या १५६, मूल्य १३)। शन बालाघाट वालाका आरस हुआ है, और यह प्रस्तुत पुस्तकमें चम्पा नगरीके सेठ चारुदत्तका प्रकाशन स्थानसे भेंट स्वरूप प्राप्त हो सकता है। जीवन-परिचय दियो हआ है। लेखकने उक्त चरित्र
२. बाहुबली और नेमिनाथ-बाबू माईद- सिंघई भारामलके पद्यमय चारुदत्त चरित्र, जो संवत् याल जैन सम्पादक, यशपाल जैन । प्रकाशक, मार्तण्ड १८१३ का रचा हुआ है, से लेकर लिखा है। जहाँ उपाध्याय, मन्त्री सस्तासाहित्य मण्डल, नई दिल्ली। कोई बात विरुद्ध या असंगत जान पड़ी, उसके सम्बपृष्ठ संख्या ३२ मूल्य छः पाना।
न्धमें फुटनोटमें खुलाशा करनेका यत्न भी किया गया ____उक्त पुस्तक 'समाज-विकास माला' का १६ वां है। चरित नायक किस तरह वेश्या बन्धनमें पड़ कर भाग है। इसमें बाहुबली और नेमिनाथके तप और अपनी करोड़ोंकी सम्पत्ति दे डालता है, और अपने त्यागकी कथा शिक्षाप्रद कहानीके रूपमें अंकित की परिवारके साथ स्वयं भी अनन्त कष्टोंका सामना करता गई है। पुस्तककी भाषा सरल है और उक्त भहपुरुषों हुआ दुःखी होता है और विषयासक्तिके उस भयंकर के जीवन परिचयको साररूपमें रखनेका प्रयत्न किया परिणामका पात्र बनता है। परन्तु अन्त में विवेकके गया है । साथमें कुछ चित्रोंकी भी योजना की गई है जागृत होने पर किए हुए उन पापोंका प्रायश्चित करने जिससे पुस्तककी उपयोगिता बढ़ गई है । पुस्तकमें दो तथा आत्म-शोधनके लिए मुनिव्रत धारण किया, और एक खटकने योग्य भूलें रह गई हैं जैसे पोदनपुरको अपने व्रतोंको पूर्ण दृढ़ताके साथ पालन कर महद्धिक अयोध्याके पास बतलाना । जलयुद्धको घटनामें विजय- देव हुआ। पुस्तकके भाषा साहित्यको और प्रांजल के कारणको स्पष्ट न करना और नेमिनाथके साधु बनानेकी आवश्यकता है, अस्तु पुस्तककी छपाई तथा होने पर उन्हें साधुके मामूली कपड़े पहने हुए बतलाना सफाई साधारण है, प्रेस सम्बन्धी कुछ अशुद्धियाँ जब कि वे जिनकल्पी दिगम्बर साधु थे। यह सब खटकने योग्य हैं । फिर भी प्रकाशक धन्यवादाहे हैं। होते हुए भी पुस्तक उपयोगी है, छपाई सफाई सुन्दर
परमानन्द जैन
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वीरसेवामन्दिरके सुरुचिपूर्ण प्रकाशन
(१) पुरातन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृतके प्राचीन ६४ मूल-ग्रन्थोंकी पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थोंमें
उद्धृत दूसरे पद्योंकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्योंकी सूची । संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी की गवेषणापूर्ण महत्वकी १७० पृष्ठकी प्रस्तावनासे अलंकृत, डा. कालीदास नागर एम. ए., डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्याय एम. ए. डी. लिट् की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-खोजके विद्वानों के लिये अतीव उपयोगी, बड़ा साइज,
सजिल्द ( जिसकी प्रस्तावनादिका मूल्य अलगसे पांच रुपये है) (२) प्राप्त-परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचार्यकी स्वोपज्ञ सटीक अपूर्वकृति,प्राप्तोंकी परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयके सुदर
सरस और सजीव विवेचनको लिए हुए, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिसे
युक्त, सजिल्द । (३) न्यायदीपिका-न्याय-विद्याकी सुन्दर पोथी, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजीके संस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद,
विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टोंसे अलंकृत, सजिल्द । ... (४) स्वयम्भूस्तोत्र-समन्तभद्रभारतीका अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद छन्दपरि ___ चय, समन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करती हुई महत्वकी गवेषणापूर्ण १०६ पृष्ठकी प्रस्तावनासे सुशोभित ।
.. ) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्रकी अनोखी कृति, पापोंके जीतनेकी कला, सटीक, सानुवाद और श्रीजुगलकिशोर
मुख्तारकी महत्वकी प्रस्तावनादिसे अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित । ... (६) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमल्लकी सुन्दर आध्यात्मिक रचमा, हिन्दीअनुवाद-सहित और मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी खोजपूर्ण ७८ पृष्ठको विस्तृत प्रस्तावनासे भूषित ।
" ॥) (७) युक्त्यनुशासन-तत्त्वज्ञानसे परिपूर्ण समन्तभद्रकी असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हुआ था । मुख्तारश्रीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिसे अलंकृत, सजिल्द ।
११) (८) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्दरचित, महत्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ... ॥) (६) शासनचतुस्त्रिशिका-(तीर्थपरिचय)-मुनि मदनकीर्तिकी १३ वीं शताब्दीकी सुन्दर रचना, हिन्दी _अनुवादादि-सहित । (१०) सत्साध-स्मरण-मंगलपाठ-श्रीवीर वर्द्धमान और उनके बाद के २१ महान् प्राचार्यों के १३७ पुण्य-स्मरणोंका
महत्वपूर्ण संग्रह, मुख्तारश्रीके हिन्दी अनुवादादि-सहित। (११) विवाह-समुद्देश्य -मुख्तारश्रीका लिखा हुआ विवाहका सप्रमाण मार्मिक और तात्विक विवेचन " ॥) (१२) अनेकान्त-रस-लहरी-अनेकान्त जैसे गूढ़ गम्भीर विषयको अवती सरलतासे समझने-समझानेकी कुंजी,
मुख्तार श्रीजुगलकिशोर-लिखित । (१३) अनित्यभावना-श्रा० पद्मनन्दी की महत्वकी रचना, मुख्तारश्रीके हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ) (१४) तत्त्वार्थसत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तारश्रीके हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्यासे युक्त । . ... ) (१५) श्रवणबेल्गोल और दक्षिणके अन्य जैनतीर्थ क्षेत्र-ला. राजकृष्ण जैनकी सुन्दर सचित्र रचना भारतीय
पुरातत्व विभागके डिप्टी डायरेक्टर जनरल डा०टी०एन० रामचन्द्रनकी महत्त्व पूर्ण प्रस्तावनासे अलंकृत १) ___ नोट-ये सब ग्रन्थ एकसाथ लेनेवालोंको ३८॥) की जगह ३०) में मिलेंगे।
व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला' वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, देहली
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________________ Regd. No. D. 211 अनेकान्तके संरक्षक और सहायक संरक्षक 101) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता 1500) बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता 101) बा० बद्रीप्रसादजी सरावगी, 251) बा० छोटेलालजी जैन सरावगी , 101) बा० काशीनाथजी, ... A251) बा० सोहनलालजी जन लमेचू, 101) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी 251) ला० गुलजारीमल ऋषभदासजी , 101) बा० धनंजयकुमारजी 251) बा० ऋषभचन्द (B.R.C. जैन, 101) बा० जीतमलजो जैन 5251) बा० दीनानाथजी सरावगी। 101) बा० चिरंजीलालजी सरावगी 251) बा० रतनलालजी झांझरी 101) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, राँची 251) बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी , 101) ला० महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली 251) सेठ गजराजजी गंगवाल 101) ला० रतनलालजी मादीपुरिया, देहली 251) सेठ सुआलालजी जैन 101) श्री फतेहपुर जैन समाज, कलकत्ता 251) बा०मिश्रीलाल धर्मचन्दजी। 105) गुप्तसहायक, सदर बाजार, मेरठ 251) सेठ मांगीलालजी 101) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी, एटा 251) सेठ शान्तिप्रसादजी जैन 101) ला०मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकेदार, देहली 5251) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया 101) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता 251) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर 101) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता 251) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली 101) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता 251) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली 101) बा० बद्रीदास आत्मारामजी सरावगी, पटना र 251) बा० मनोहरलाल नन्हेंमल जी, देहली 101) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर 251) ला० त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर 101) बा० महावीरप्रसादजी एडवोकेट, हिसार 251) सेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद 251) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली 101) ला० बलवन्तसिंहजी, हांसी जि० हिसार / 251) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांची -181) सेठ जोखीरामबैजनाथ सरावगी, कलकत्ता 251) सेठ वधीचन्दजी गंगवाल, जयपुर / 101) बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर सहायक 101) वैद्यराज कन्हैयालालजो चाँद औषधालय,कानपुर 101) बा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली 101) रतनलालजी जैन कालका देहली 101) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी, देहली 101) ला० प्रकाशचन्द व शील चन्दजी जौहरी, देहलो 101) बा० लालचन्दजी बी० सेठी, उज्जैन 101) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर' 101) बा० लालचन्दजी जैन सरावगी . सरसावा, जि. सहारनपुर प्रकाशक-परमानन्दजी जैन शास्त्री, दरियागंज देहली। मद्रक-रूप-वायी प्रिटिंग हाऊस 23. दरियागंज, देहली ForPemaAPotato