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अनेकान्त
इस स्ट्रीट रायपेा (मनास) की जमीनसे ५ जैन मूर्तियाँ भवन के लिए नीव खोड़ते समय प्राप्त हुई थीं। श्री सीतारामने इनमेंसे ४ मूर्तियाँ तो किसी गाँवमें भेज दी थीं और एक मूर्ति अब भी उसी भवनके बाहरी आँगन में पड़ी हुई है जिसका फोटो मैंने अभी ता० ४ मईको लिया था । यह पद्मासन मूर्ति महावीर स्वामी की है, और प्रायः ३८ इंच ऊँची है (चित्र) ।
राजा सर अनमलाई चेट्टिवर रोड, महास, निवासी रायबहादुर एस. टी. श्रीनिवास गोपालाचारियर के पास दशबारह जैन मूर्तियाँ हैं। इसी प्रकार न जाने मद्रासके कितने ही अन्य स्थानोंमें जैन मूर्तियाँ पड़ी होंगी, जिनका हमें पता ही नहीं है और कितनी ही भूगर्भमें होंगी।
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हम पाठकोंको मद्रासके ही एक विशिष्ट अंचलके सम्वन्धमें कुछ बताना चाहते हैं— वर्तमान पौर-सीमान्तर्गत 'मयिलापुर' नगरके दक्षिण भागमें अवस्थित है। इसकी प्राचीनता कमसे कम २० शताब्दी (द्विसहस्र) काल की है। और उस समयके उच्च श्रेणी 'ग्रीक-रोमन' भूगोलज्ञ और शिकों ने इस नगरकी महानताका उल्लेख किया है। ।
'मयिल' या 'मविले' का अर्थ है मयूरनगर तामिल भाषामें मोरको मयिल कहते हैं। सन् १६४० में ईस्ट इंडिया कंपनी (अंग्रेजों द्वारा फोर्ट सेंट जार्ज दुर्गके निर्माणसे महास का उत्पादन सम्भव हुआ, और मयिलापुर उस नूतन नगरके अन्तर्गत होकर उसमें मिल गया।
ई० पू० प्रथमशताब्दी के उत्तरार्ध के पवित्र 'तिरुकुरल' के अमर सृष्टा ( रचयिता) लोक प्रसिद्ध तामिल सन्त 'तिरुवल्लुवर' मयिलापुरके निवासी थे । ये जैनधर्मानुयायी थे (देखो. ए. चक्रवर्तीकी तिरुकुरल) । परम्परागत प्रवासे ज्ञात होता है कि प्राचीनकालमें समुद्रतट के किनारे Foreshore उस अंश पर जहां भाटाके समय जल नहीं रहता है), मापुरमें एक बड़ा मन्दिर था, जिसे समुद्रके वह आनेके कारण त्यक्त करना पड़ा था। इस घटनाका समर्थन जैन और कृश्चियन दोनों ही जन श्रुतियोंसे होता है ।
मथिलापुर कांचीके पल्लवराज्यका पोताश्रय (बन्दर) था। पल्लव नरेश मन्दिवर्मन तृतीयको मल्लविवेन्दन अर्थात् मल्लविया मामलपुरम् के नृपति और मयिलेलन् अर्थात् मथिलापुरके रक्षक और अभिभावकके विरुद दिए गए थे टोंटमण्डलम्के पुलियूरका यह एक भाग था। यह नगर जैनों और शैयोंकि धार्मिक कार्य-कलापका केन्द्र था और
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सप्तमशताब्दी के प्रसिद्ध शेव सन्यासी 'तिरज्ञानसम्बन्ध' का यह भी कर्मक्षेत्र था । तिरज्ञानसम्बन्धने जैनों पर बहुत उत्पीडन किया था ।
१६ वीं १७ वीं शताब्दियों में मयिलापुरका अपने निकट के नगर सेगधामीले घनिष्ट सम्बन्ध था ऐसी जनश्रुति है कि ३३०० वर्ष पूर्व सेन्ट थामसने मयिलापुर और उसके निकटस्थ स्थानों में कृत्रियन धर्मका प्रचार किया था। मयि जापुरके सैनधामी गिरजाघरमें उनकी का है। उन्हींीकि नामसे उस अंचलका नाम सैनधामी पड़ा था । यह दुःखकी बात है कि गिरजाघरकी नींव प्राचीन मन्दिरोंके पत्थरोंका उपयोग किया गया है।
सन् १४० में प्रसिद्ध भूगोल डालेमीने दक्षिणभारतके पूर्व उपकूल पर स्थित जिस महत्वपूर्ण स्थानका मलियारफाके नामसे वन किया है वह और मयिलापुर दोनों श्रभिन्न हैं । मलियारफा, टामिल शब्द मयिलापुरका अनुवाद है।
१६वीं शताब्दी में हुआारेट वारवोसां नामक प्रसिद्ध समुद्र यात्रीने ऋष्टानोंके इस पूज्य स्थानको उजड़ा हुआ देखा था। सन् १९२२ में पुर्तगाल वासियोंने यहां उपनिवेश बनाया और कुछ ही समय बाद सेन्ट थामसकी कके चारों श्रोर एक दुर्गका निर्माण किया और उसका नाम रक्खा 'खैन थामी दी मेलियापुर' ।
प्राचीन कालमें मयिलापुर (अपर नाम वामनाथपुर ) जेनों का एक महान केन्द्र था, वहां २२वें तीर्थंकर श्रीनेमिनाथका प्राचीन मन्दिर था, यह मन्दिर उसी जगह पर था जहां अय सेनथामी गिर्वापर अवस्थित है। एक विवरणके अनुसार यह मन्दिर बढ़ते हुए समुद्र के उदरमें समा गया था और अन्य कई लोगोंके मतानुसार पुर्तगाल- वासियोंने धर्मद्वपके कारण इसका विध्यंसकर इसकी सारी सम्पत्तिका अप हरण कर लिया था ।
कहते हैं कि १२वीं शताब्दीके शेष भागमें समुद्र बदकर मन्दिरके निकट आ गया था और भय हुआ कि मन्दिर व जायगा, इससे वहाँ की मूल नायक प्रतिमा (नेमिनाथकी ) वहांसे हटाकर दक्षिण आरकट जिलान्तर्गत चित्तामूरके जैन मन्दिरमें विराजमान कर दी गई, जहां पर अब भी इस प्रतिमाकी पूजा होती है। उपयुक्त नेमिनाथ मंदिर तथा अन्य जैन मन्दिरोंके मथिलापुर में अस्तित्व साहित्यिक और पुरातात्विक प्रमाण भी उपलब्ध हैं।
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