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________________ सकाम धर्मसाधन लौकिक-फलकी इच्छाओंको लेकर जो धर्मसाधन किया जाय । अन्यथा, क्रियाके-बाह्य धर्माचरणके-समान होने जाता है उसे 'सकाम धर्मसाधन' कहते हैं और जो धर्म पर भी एकको बन्ध फल दूसरेको मोक्षफल अथवा एकको वैसी इच्छात्रोंको साथमें न लेकर, मात्र आत्मीय कर्तव्य पुण्यफल और दूसरेको पापफल क्यों मिलता है ? देखिये, समझकर किया जाता है उसका नाम 'निष्काम धर्मसाधन' कर्मफलकी इस विचित्रताके विषयमें श्रीशुभचन्द्राचार्य ज्ञानाहै। निष्काम धर्मसाधन ही वास्तव में धर्मसाधन है और वही र्णवमें क्या लिखते हैंवास्तविक-फलको फलता है। सकाम धर्मसाधन धर्मको विकृत यत्र बालश्चरत्यम्मिन्पथि तत्रैव पण्डितः। . करता है. सदोष बनाता है और उससे यथेष्ट धर्म-फलकी बालः स्वमपि बध्नाति मुच्यते तत्त्वविद्ध्वम् ।७२१॥ प्राप्ति नहीं हो सकती । प्रत्युत इसके, अधर्मकी और कभी अर्थात् -जिस मार्ग पर अज्ञानी चलता है उसी पर कभी घोर पाप-फल की भी प्राप्ति होती है। जो लोग धर्मके ज्ञानी चलता है। दोनोंका धर्माचरण समान होने पर भी वास्तविक स्वरूप और उसकी शक्किसे परिचित नहीं, जिनके अज्ञानी अपने अविवेकके कारण कर्म बाँधता है और ज्ञानी अन्दर धैर्य नहीं, श्रद्धा नहीं, जो निर्बल हैं -कमजोर हैं, अपने विवेक द्वारा कर्म-बन्धनसे छूट जाता है। ज्ञानार्णवके उतावले हैं और जिन्हें धर्मके फल पर पूरा विश्वास नहीं, निम्न श्लोकमें भी इसी बातको पुष्ट किया गया हैऐसे लोग ही फल-प्राप्तिमें अपनी इच्छाकी टाँगें अड़ा कर वेष्टयत्यात्मनात्मानमज्ञानी कर्मबन्धनैः। धर्मको 'अपना कार्य करने नहीं देते - उसे पंगु और विज्ञानी मोचयत्येव प्रबद्धः समयान्तरे ॥७१७|| बेकार बना देते हैं, और फिर यह कहते हुए नहीं लजाते कि इससे विवेक पूर्वक आचरणका कितना बड़ा माहात्म्य धर्म-साधनसे कुछ भी फलकी प्राप्ति नहीं हुई। ऐसे लोगोंके है उसे बतलानेकी अधिक जरूरत नहीं रहती। ' समाधानार्थ-उन्हें उनकी भूलका परिज्ञान करानेके लिए ही यह लेख लिखा जाता है, और इसमें प्राचार्य-वाक्योंके द्वारा श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने, अपने प्रवचनसारके चारित्राधिकारमें, इसी विवेकका-सम्यग्ज्ञानका - माहात्म्य वर्णन करते ही विषयको स्पष्ट किया जाता है। श्रीगुणभद्राचार्य अपने 'आत्मानुशासन' ग्रन्थमें लिखते हुए बहुत स्पष्ट शब्दोंमें लिखा है जौं अण्णाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं । संकल्प्यं कल्पवृक्षस्य चिन्त्यं चिन्तामणे पि। तं पाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ३॥ :- असंकल्प्यमसंचिन्त्यं फलं धर्मादवाप्यते ॥२२॥ अर्थात्-अज्ञानी-अविवेकी मनुष्य जिस अथवा जितने अर्थात्-फलप्रदानमें कल्पवृक्ष संकल्पकी ओर चिन्ता- ज्ञानावरणादिरूप कर्मसमूहको शत-सहस्र कोटि भवोंमेंमणि चिन्ताकी अपेक्षा रखता है-कल्पवृक्ष बिना संकल्प करोड़ों जन्म लेकर-क्षय करता है उस अथवा उतने कर्मकिये और चिन्तामणि विना चिन्ता किये फल नहीं देताः समूहको ज्ञानी-विवेकी मनुष्य मन-वचन-कायकी क्रियाका परन्तु धर्म वैसी कोई अपेक्षा नहीं रखता - वह बिना संकल्प निरोध कर अथवा उसे स्वाधीनकर स्वरूपमें लीन हुश्रा किए और बिना चिन्ता किए ही फल प्रदान करता है। उच्छवासमात्रमें-लीलामात्रमें-नाश कर डालता है। . जब धर्म स्वयं ही फल देता है और फल देनेमें कल्प- इससे अधिक विवेकका माहात्म्य और क्या हो सकता वृक्ष तथा चिन्तामणिकी शकिको भी मात (परास्त) करता है? यह विवेक ही चारित्रको 'सम्यक्चारित्र' बनाता है है, तब फल-प्राप्तिके लिए इच्छाएं करके-निदान बांधकर- और संसार-परिभ्रमण एवं उसके दुःख कष्टोंसे मुक्ति दिलाता अपने आत्माको व्यर्थ ही संक्लेशित और श्राकुलित करनेकी है। विवेकके बिना चारित्र मिथ्याचारित्र है, कोरा कायक्लेश है क्या जरूरत है ? ऐसा करनेसे तो उल्टा फल-प्राप्तिके मार्गमें और वह संसार-परिभ्रमण तथा दुःख-परम्पराका ही कारण कांटे बोए जाते हैं। क्योंकि इच्छा फल-प्राप्तिका साधन न है। इसीसे विवेकपूर्वक अथवा सम्यग्ज्ञानके अनन्तर चारिका होकर उसमें बाधक है। अाराधन बतलाया गया है। जैसा कि श्रीअमृतचन्द्राचार्यके ___इसमें सन्देह नहीं कि धर्म-साधनसे सब सुख प्राप्त निम्न वाक्यसे प्रगट हैहोते हैं। परन्तु तभी तो जब धर्मसाधनमें विवेकसे काम लिया न हि सम्यग्व्यपदेशं चारित्रमज्ञा लभते । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527329
Book TitleAnekant 1954 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1954
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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