________________
५८ ]
ज्ञानानन्तरमुक्त चारित्राराधनं तस्मात् ॥ ३८ ॥ - पुरुषार्थसिद्ध, युपाय
अर्थात् — श्रज्ञानपूर्वक - विवेकको साथमें न लेकर दूसरोंकी देखा-देखी अथवा कहने-सुनने मात्रसे -- जो चरित्र - nt अनुष्ठान किया जाता है वह 'सम्यक् चारित्र' नाम नहीं पाता – उसे ‘सम्यक् चारित्र' नहीं कहते । इसीसे ( श्रागममें) सम्यग्ज्ञानके अनन्तर — विवेक हो जाने पर चारित्रके आराधनका – अनुष्ठानका — निर्देश किया गया है— रत्नत्रय धर्मकी आराधनामें, जो मुक्लिका मार्ग है, चारित्रकी श्राराधनाका इसी क्रमले विधान किया गया है।
श्री कुन्दकुन्दाचार्यने, प्रवचनसारमें, 'चारितं खलुधम्मो ' इत्यादि वाक्यके द्वारा जिस चारित्रको – स्वरूपाचरणको वस्तु भाव होनेके कारण धर्म बतलाया है वह भी यही विवेकपूर्वक सम्यक् चारित्र है, जिसका दूसरा नाम साम्यभाव है और जो मोह-क्षोभ अथवा मिथ्यात्व राग-द्वेष तथा काम-क्रोधादिरूप विभापरिणति रहित श्रात्मांका निज परिणाम होता है
।
वास्तवमें यह विवेक ही उस भावका जनक होता है जो धर्माचरणका प्राण कहा गया है। बिना भावके तो क्रियाएं फलदायक होती ही नहीं है। कहा भी है
अनेकान्त
( वष १३
/
नहीं होता ? स्वच्छ, शुभ तथा शुद्ध भाव किसे कहते हैं ? और अस्वच्छ, अशुद्ध तथा अशुभ भाव किसका नाम है ? सांसारिक विषय-सौख्यकी तृष्णा अथवा तीव्र कषायके वशीभूत हो कर जो पुण्य कर्म करना चाहता है वह वास्तवमें पुण्यकर्मका सम्पादन कर सकता है या कि नहीं ? और ऐसी इक्छा धर्मकी साधक है या बाधक ? वह खूब समझता कि सकाम धर्मसाधन मोह-क्षोभादिसे घिरा रहनेके कारण धर्मकी कोटिले निकल जाता है; धर्म वस्तुका स्वभाव होता है और इसलिये कोई भी विभाव परिणति धर्मका स्थान नहीं ले सकती । इसीसे वह अपनी धार्मिक क्रियाओं में तद्व पभावकी योजनाद्वारा प्राणका संचार करके उन्हें सार्थक और सफल बनाता है। ऐसे ही विवेकी जनोंके द्वारा श्रनुष्ठित धर्मको सब - सुखका कारण बतलाया है । विवेककी पुट बिना अथवा उसके सहयोगके अभाव में मात्र कुछ क्रियानोंके श्रनुष्ठानका नाम ही धर्म नहीं है। ऐसी क्रियाएँ तो जड़ मशीनें भी कर सकती हैं। और कुछ करती हुई देखी भी जाती है— फोनोग्राफ़के कितने ही रिकार्ड खूब भक्ति-रसके भरे हुए गाने तथा भजन गाते हैं और शास्त्र पढ़ते हुए भी देखने में आते हैं । और भी जड़मशीनोंसे आप जो चाहें धर्म की बाह्य क्रियाएँ करा सकते हैं । इन सब क्रियाओंको करके जडमशीनें जिस प्रकार धर्मात्मा नहीं बन सकतीं और न धर्मके फलको ही पा सकती हैं, उसी प्रकार अविवेकपूर्वक अथवा सम्यग्ज्ञानके बिना धर्मकी कुछ क्रियाएँ कर लेने मात्रले ही कोई धर्मात्मा नहीं बन जाता और न धर्मके फलको ही पा सकता है। ऐसे अविवेकी मनुष्यों और जड़ मशीनोंमें कोई विशेष अन्तर नहीं होता — उनकी क्रियाओंको सम्यक्चारित्र न कह कर 'यांत्रिक चारित्र' कहना चाहिये। हां, जड़मशीनोंकी अपेक्षा ऐसे मनुष्योंमें मिथ्याज्ञान तथा मोहकी विशेषता होनेके कारण वे उसके द्वारा पापबन्ध करके अपना श्रहित ज़रूर कर लेते हैं— जब कि जड़मशीनें वैसा नहीं कर सकतीं। इसी यांत्रिक चारित्रके भुलावेमें पड़कर हम अक्सर भूले रहते हैं और यह समझते रहते हैं कि इनने धर्मका अनुष्ठान कर लिया ! इसी तरह करोड़ों जन्म निकल जाते हैं और करोड़ों वर्षकी बालतपस्यासे भी उन कर्मोंका नाश नहीं हो पाता, जिन्हें एक ज्ञानी पुरुष त्रियोगके संसाधन- पूर्वक क्षणमात्रमें नाश कर
"यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः ४ ।" तदनुरूप भावके बिना पूजनादिककी, तप-दान-जपादिककी और यहां तक कि दीक्षाग्रहणादिककी सब क्रियाएँ भी ऐसी ही निरर्थक हैं जैसेकि बकरीके गलेके स्तन (थन ), अर्थात् जिस प्रकार बकरी के गलेमें लटकते हुए स्तन देखनेमें स्तनाकार होते हैं, परंतु वे स्तनोंका कुछ भी काम नहीं देते- उनसे दूध नहीं निकलता - उसी प्रकार बिना तदनुकूल भावके पूजा-तप-दानपादिककी उक्त सब क्रियाएँ भी देखनेकी ही क्रियाएँ होती हैं, पूजादिकका वास्तविक फल उनसे कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता +।
ज्ञानी विषेकी मनुष्य ही यह ठीक जानता है कि पुण्य किन भावोंसे बँधता है, किनसे पाप और किनसे दोनों का बन्ध
* चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो समोत्ति खिदिट्ठो । मोहक्खहविहीण परिणामो अप्पणो हु समो ॥७॥ x देखो, कल्याणमन्दिरस्तोत्रका 'आकर्रिणतोऽपि आदि पद्य ।
+भावहीनस्य पूजादि - तपोदान- जपादिकम् । व्यर्थ दीक्षादिकं च स्यादजाकण्ठे स्तनानिव ।।"
Jain Education International
डालता है । श्रस्तु ।
इस विषय में स्वामी कार्तिकेयने, अपने अनुप्रेक्षा ग्रन्थमें, कितना ही प्रकाश डाला है। उनके निम्न वाक्य ख़ास तौर से
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org