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किरण २] सकाम धर्मसाधन
[५६ ध्यान देने योग्य हैं :
होता है । इसलिए उसके द्वारा वीतराग भगवान्की पूजाकम्मं पुण्णं पावं हेऊ तेसिं च होंति सच्छिदरा। भक्ति-उपासना तथा स्तुतिपाठ, जप-ध्यान, सामायिक, स्वामंदकसाया सच्छा तिव्वकसाया असच्छा हु॥ ध्याय, तप, दान और व्रत-उपवासादिरूपसे जो भी धार्मिक जीवो कि हवइ पावं अइतिव्वकसायपरिणदो णिच्चं। क्रियाएँ बनती हैं वे सब उसके श्रात्मकल्याण के लिए नहीं जीवो हवेइ पुरणं उवसमभावेण संजुत्तो॥ होती-उन्हें एक प्रकारकी सांसारिक दुकानदारी ही समझना जोअहिलसेदि पुरणं सकसाओ विसयसोक्खतण्हाए। चाहिए। ऐसे लोग धार्मिक क्रियाएं करके भी पाप उपार्जन दूरे तस्स विसोही विसोहिमूलाणि पुरणाणि॥ करते हैं और सुखके स्थानमें उल्टा दुखको निमन्त्रण देते हैं। पुण्णासएण पुरण जदो गिरीहस्स पुण्णसंपत्ती। ऐसे लोगोंकी इस परिणतिको श्री शुभचन्द्राचार्याने, ज्ञानार्णइय जागिऊण जइयो पुण्णे वि म प्रायरं कुणह॥ वग्रन्थके २५वें प्रकरणमें, निदान-जनित प्रात्त ध्यान लिखा पुण्णं बंधदि जीवो मंदकसाएहिं परिणदो संतो। है और उसे घोर दुःखोंका कारण बतलाया है । यथातम्हा मंदकसाया हेऊ पुण्णस्स ण हि वंछा॥ पुण्यानुष्ठानजातैरभिलषति पदं यज्जिनेन्द्रामराणां,
-गांथा नं० १०, १६०, ४१० से ४१२ यद्वा तैरेव वांछत्यहितकुलकुजच्छेदमत्यन्तकोपात् । इन गाथाओं में बतलाया है कि-'पुण्य कर्मका हेतु पूजा सत्कार-लाभ-प्रभृतिकमथवा याचते यद्विकल्पः स्वच्छ, ( शुभ परिणाम है और पाप कर्मका हेतु अस्वच्छ स्यादात तन्निदानप्रभवमिहनृणां दुःखदावोप्रधामं ॥ 'अशुभ या अशुद्ध) परिणाम । मंदकषायरूप परिणामोको अर्थात् -अनेक प्रकारके पुण्यानुठानोंको-धर्म कृत्योंको स्वच्छ परिणाम और तीब्रकषायरूप परिणामोंको अस्वच्छ
करके जो मनुष्य तीर्थकरपद तथा दूसरे देवोंके किसी पदकी परिणाम कहते हैं। जो जीव अतितीव कषायसे परिणत होता
इच्छा करता है अथवा कुपित हुश्रा उन्हीं पुण्याचरणोंके है, वह पापी होता है और जो उपशमभावसे-कषायकी
द्वारा शत्रुकुल-रूपी वृत्तोंके उच्छेदकी वांछा करता है, और मंदतासे-युक्र रहता है वह पुण्यात्मा कहलाता है । जो या अनेक विकल्पोंके साथ उन धर्म-कृत्योंको करके अपनी जीव कषायभावसे युक्त हुश्रा विषयसौख्यकी तृष्णासे-इंद्रिय- लौकिक पूजाप्रतिष्ठा तथा लाभादिककी याचना करता है, विषयको अधिकाधिक रूपमें प्राप्त करनेकी तीव्र इच्छासे उसकी यह सब सकाम प्रवृत्ति 'निदानज' नामका, मार्तध्यान पुण्य करना चाहता है-पुण्य क्रियाओंके करनेमें प्रवृत्त होता है। ऐसा आर्तध्यान मनुष्योंके लिए दुःख-दावानलका अग्रहै.-उससे विशुद्धि बहुत दूर रहती हैं और पुण्य-कर्म स्थान होता है-उससे महादःखोंकी परम्परा चलती है। विशुद्धिमूलक-चित्तकी शुद्धि पर आधार रखने वाले होते हैं। वास्तवमें प्रार्तध्यानका जन्म ही संक्लेश परिणामोंसे अतः उनके द्वारा पुण्यका सम्पादन नहीं हो सकता-वे
__ होता है, जो पाप बन्धके कारण हैं । ज्ञानार्णवके उक्त प्रकरअपनी उन धर्मके नामसे अभिहित होनेवाली क्रियाओंको
णान्तर्गत निम्न श्लोकमें भी पार्तध्यानको कृष्ण-नील-कापोत करके पुण्य पैदा नहीं कर सकते | चूंकि पुण्यफलकी इच्छा ऐसी तीन अशुभ लेश्याओंके बल पर ही प्रकट होने वाला रखकर धर्मक्रियाओंके करनेसे-सकाम धर्मसाधनसे-पुण्य
लिखा है और साथ ही यह सूचित किया है कि यह प्रात. की सम्प्राप्ति नहीं होती, बल्कि नष्काम-रूपसे धर्मासाधन
ध्यान पाप,रूपी दावानलको प्रज्वलित करनेके लिए इन्धनके करने वालेके ही पुण्यकी संप्राप्ति होती है, ऐसा जानकर पुण्य
समान हैमें भी आसक्ति नहीं रखना चाहिए । वास्तवमें जो जीव मंद
कृष्ण नीलाद्यसल्लेश्याबलेन प्रविजम्भते। कषायसे परिणित होता है वही पुण्य बांधता है, इस लिये इदं दुरितदावाचिः प्रसूतेरिन्धनोपमम् ॥४०॥ मन्दकषाय ही पुण्यका हेतु है, विषयवांछा पुण्यका हेतु नहीं इससे स्पष्ट है कि लौकिक फलोंकी इच्छा रखकर धर्म-विषयवांछा अथवा विषयासक्ति तीव्रकषायका लक्षण है साधन करना धर्माचरणको दूषित और निष्फल ही नहीं और उसका करने वाला पुण्यसे हाथ धो बैठता है । बनाता, बल्कि उल्टा पापबन्धका कारण भी होता है, और
इन वाक्योंसे स्पष्ट है कि जो मनुष्य धर्म-साधनके इसलिए हमें इस विषयमें बहुतही सावधानी रखनेकी ज़रूरत द्वारा अपने विषय-कषायोंकी पुष्टि एवं पूर्ति चाहता है उसकी है। हमारा सम्यक्त्व भी इससे मल्लिन और खण्डित होता कषाय मन्द नहीं होती और न वह धर्मके मार्ग पर स्थिर ही है। सम्यक्त्वके आठ अंगोंमें निःकांक्षित नामका भी एक
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