________________
अनेकान्त
[ वर्षे १३
अंग है, जिसका वर्णन करते हुए श्रीअमितगति आचार्य ष्ठान किया जाता है तो वह अनुष्ठान धर्मकी कोटिसे निकल उपासकाचारके तीसरे परिच्छेदमें साफ लिखते हैं
जाता है-ऐसे सकाम धर्मसाधनको वास्तवमें धर्मसाधन ही विधीयमानाः शम-शील-संयमाः
नहीं कहते । धर्मसाधन तो स्वरूपसिद्धि अथवा आत्मविकास श्रियं ममेमे वितरन्तु चिन्तिताम् । .
के लिये प्रात्मीय कर्तब्य समझ कर किया जाता है, और सांसारिकानेकसुखप्रवद्धिनी
इसलिये वह निष्काम धर्मसाधन ही हो सकता है। निष्कांक्षितो नेति करोति कांक्षाम ॥७४||
इस प्रकार सकाम धर्मसाधनके निषेधमें आगमका स्पष्ट अर्थात्-नि:कांक्षित अंगका धारक सम्यग्दृष्टि इस
विधान और पूज्य श्राचार्योंकी खुली अाशाएँ होते हुए भी प्रकारकी बांछा नहीं करता है कि मैंने जो शम, शील और
खेद है कि हम आज-कल अधिकांशमें सकाम धर्मसाधनकी संयमका अनुष्ठान किया है वह सब धर्माचरण मुझे उस
ओर ही प्रवृत्त हो रहे हैं। हमारी पूजा-भक्ति-उपासना,स्तुतिमनोवांच्छित लक्ष्मीको प्रदान करे जो नाना प्रकारके सांसा
वन्दना-प्रार्थना, जप, तप, दान और संयमादिकका सारा लक्ष रिक सुखोंमें वृद्धि करनेके लिए समर्थ होती है-ऐसी बांछा
लौकिक फलोंकी प्राप्तिकी तरफ ही लगा रहता है-कोई कस्नेसे उसका सम्यक्त्व दूषित होता है।
उसे करके धन-धान्यकी वृद्धि चाहता है तो कोई पुत्रकी इसी निःकांक्षित सम्यग्दृष्टिका स्वरूप श्रीकुन्दकुन्दा
संप्राप्ति । कोई रोग दूर करनेकी इच्छा रखता है, तो कोई चार्यने 'समयसार' में इस प्रकार दिया है
शरीरमें बल लाने की। कोई मुकदमेमें विजयलाभके लिये जो ण करेदि दु कंखं कम्मफले तह य सव्वधम्मेसु। उसका अनुष्ठान करता है, तो कोई अपने शत्रुको परास्त सो णिक्कंखो चेदा सम्मादिट्ठी मुणेयव्यो ।। २४८।। करनेके लिये। कोई उसके द्वारा किसी ऋद्ध-सिद्धिकी ____ अर्थात्-जो धर्मकर्म करके उसके फलकी-इन्द्रिय- साधनामें व्यग्र है, तो कोई दूसरे लौकिक कार्योंको सफल विषयसुखादिकी इच्छा नहीं रखता है-यह नहीं चाहता है
बनानेकी धुनमें मस्त । कोई इस लोकके सुखको चाहता है, कि मेरे अमुक कर्मका मुझे अमुक लौकिक फल मिले- तो कोई परलोकमें स्वर्गादिकोंके सुखोंकी अभिलाषा रखता और न उस फल साधनकी दृष्टिसे नाना प्रकारके पुण्यरूप
है । और कोई-कोई तो तृष्णाके वशीभूत होकर यहाँ तक धर्मोको ही इष्ट करता है-अपनाता है और इस तरह
अपना विवेक खो बैठता है कि श्रीवीतराग भगवानको भी निष्कामरूपसे धर्मसाधन करता है, उसे निःकांक्षित सम्यग- रश्वत (घूस ) देने लगता है-उनसे कहने लगता है कि दृष्टि समझना चाहिये।
हे भंगवान् , आपकी कृपासे यदि मेरा अमुक कार्य सिद्ध हो यहां पर मैं इतना औरभी बतला देना चाहता हूं कि
जायेगा तो मैं आपकी पूजा करूँगा, सिद्धचक्रका पाठ श्रीतत्त्वार्थसूत्रमें क्षमादि दश धर्मोंके साथमें 'उत्तम विशेषण था। गा, छत्र-चंवरादि भेट करूँगा, रथ यात्रा निकलवाऊँगा, लगाया गया है-उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दवादिरूपसे दश "
गज-रथ चलवाऊँगा अथवा मन्दिर बनवा दूंगा !! ये सब धर्मों का निर्देश किया है। यह विशेषण क्यों लगाया गया
धर्मकी विडम्बनाएँ हैं ! इस प्रकारकी विडम्बनाओंसे अपनेहै ? इसे स्पष्ट करते हुए श्रीपूज्यपाद प्राचार्य अपनी 'सर्वार्थ
को धर्मका कोई लाभ नहीं होता और न आत्म-विकास ही सिद्धि' टीकामें लिखते हैं
सध सकता है। जो मनुष्य धर्मकी रक्षा करता है-उसके
विषयमें विशेष सावधानी रखता है-उसे विडम्बित या "दृष्टप्रयोजनपरिवर्जनार्थमुत्तमविशेषणम् "
कलंकित नहीं होने देता, वही धर्मके वास्तविक फल को पाता अर्थात्-लौकिक प्रयोजनोंको टालनेके लिए 'उत्तम'
है । 'धर्मो रक्षति रक्षितः' की नीतिके अनुसार रक्षा किया विशेषणका प्रयोग किया गया है।
हुआ धर्म ही उसकी रक्षा करता है और उसके पूर्ण विकास इससे यह विशेषणपद यहां 'सम्यक्' शब्दका प्रतिनिधि
म्यक' शब्दका प्रतिनिधि को सिद्ध करता है। जान पड़ता है और उसकी उक्त व्याख्यासे स्पष्ट है कि किसी
ऐसी हालतमें सकाम धर्मसाधनको हटाने और धर्मकी बौकिक प्रयोजनको लेकर कोई दुनियावी ग़ज़ साधनके विडम्बनाओंको मिटानेके लिये समाजमें पूर्ण आन्दोलन होने लिये यदि क्षमा-मार्दव-प्रार्जव-सत्य-शौच, संयम-तप-त्याग- की ज़रूरत है। तभी समाज विकसित तथा धसके मार्ग पर भाकिंचन्य ब्रह्मचर्य इन दश धर्मों में से किसीभी धर्मका अनु- अग्रसर हो सकेगा, तभी उसकी धार्मिक पोल मिटेगी और
Jain Education International
www.jainelibrary.org
For Personal & Private Use Only