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________________ किरण २ ] तभी वह अपने पूर्व गौरव-गरिमाको प्राप्त कर सकेगा । इसके लिये समाजके सदाचारनिष्ठ एवं धर्मपरायण विद्वानों को आगे आना चाहिये और ऐसे दूषित धर्माचरणोंकी युक्ति-पुरस्पर खरी-खरी श्रावोचना करके समाजको सजग तथा सावधान करते हुए उसे उसकी भूलोंका परिज्ञान कराना चाहिये तथा $ieeeeeeeeee62666666666eeeee66696665 सखि ! पर्वराज पर्युषण आये । [ लेखक - मनु 'ज्ञानार्थी ] मैं बसे पथ देख रही थी; भादोंकी रङ्गीन धरा पर; गुरुतम क्षमा मार्दव आर्जव Jain Education International भवके वन्धन ढीले करने, पर्वराज प्रियतम पर्युषण । • युगकी सोई साध जगाने आये । सखि ! पर्वराज त्याग तपस्या ब्रह्मचर्यमय, सत्य शौच सयम आकिंचन Geosces सखि ! पर्वराज पर्यूषण आ अब देखू तो अन्तस्तल में; रत्न- दशकके ज्योति पुंज से, स्वच्छ साफ है; पड़े नहीं हैं गगन अनिका छोर मिलाने आये । सखि ! पर्वराज परको छोड़ निहारू घर मैं; कैसे करूँ अतिथिका स्वागत, अर्ध चढ़ाने के पहले ही; [ ६१ भूलोंके सुधारका सातिशय प्रयत्न कराना चाहिये । यह इस समय उनका खास कर्त्तव्य है और बड़ा ही पुण्य कार्य है। ऐसे आन्दोलन- द्वारा सन्मार्ग दिखलानेके लिये अनेकान्तका द्वार खुला हुआ है । वे इसका यथेष्ट उपयोग कर सकते हैं। और उन्हें करना चाहिये । - जुगलकिशोर मुख्तार काम क्रोध मायाके छींट १ पर मैंने निज अन्तर घट रीते पाये । सखि ! पर्वराज स्वच्छ नहीं मेरा मानस-गृह १ लौट न जायें मेरे प्रभुवर १ जगी अन्तर- ज्योति जगाने आये । सखि ! पर्वराज For Personal & Private Use Only 35 www.jainelibrary.org
SR No.527329
Book TitleAnekant 1954 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1954
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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