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राजस्थानके जैनशास्त्रभंडारोंमें उपलब्ध महत्त्वपूर्ण साहित्य
(अनेकान्त वर्ष १२ किरण ५ से आगे)
(ले. कस्तूरचन्द काशलीवाल एम.ए.) (६) अष्टसहस्री-प्राचार्य विद्यानन्दका यह मह- द्वितीया वाक्पतौ पूर्णो फाल्गुार्जुन पाभिके ॥६॥ वपूर्ण ग्रन्थ जैन दार्शनिक संस्कृत साहित्यमें ही नहीं फाल्गुण सुदी २ गुरौ प्रदत्ता बर्द्धमानाय, किन्तु भारतीय दर्शनसाहित्यमें भी एक उल्लेखनीय
भावि भट्टारकोत्थ यः। रचना है। प्राचार्य विद्यानन्द अपने समयके एक प्रसिद्ध श्रेयसे . . . ......................"ध्ययनशालिना ॥७॥ दार्शनिक विद्वान थे। इनकी अनेक दार्शनिक रचनाएँ उप- ७ उत्तरपुराण टिप्पण-श्री गुणभद्राचार्य कृत लब्ध हैं जिनके अध्ययनसे उनकी विशाल प्रज्ञा और चम- उत्तरपुराण संस्कृत पुराणसाहित्यमें उल्लेखनीय रचना है। कारिणी प्रतिभाका पद पद पर दर्शन होता है । अष्टसहस्री उत्तरपुराणको महाकाव्यका भी नाम दिया जा सकता है। को तो विद्वानोंने कष्टसहस्री बतलाया है। इनकी दार्शनिक क्योंकि महाकाव्यमें मिलने वाले लक्षण इस पुराणमें भी महत्तासे वे भली भांति परिचित हैं जिन्होंने उसका आकण्ठ पाए जाते हैं। उत्तर पुराण महापुराणका उत्तर भाग है। पान किया है । भट्टाकलंकदेव कृत अष्टशतीका यह महाभाष्य इसका पूर्वभाग जो आदिपुराणके नामसे प्रसिद्ध है जिनसेनाहै। जिसका दूसरा नाम प्राप्तमीमांसालंकृति है । इसकी चार्य कृत है। गुणभद्राचार्य जिनसेनाचार्यके शिष्य थे। ये संवत् १४६० की लिखी हुई एक प्राचीन प्रति जयपुरके विक्रमकी स्वीं शताब्दीके विद्वान थे। तेरह पंथियोंके श्री दि० जैन बड़ा मन्दिरके शास्त्र भण्डारमें जैन समाजमें आदिपुराण और उत्तरपुराण इतने अधिक सुरक्षित है। प्रति सुन्दर शुद्ध तथा साधारण अवस्थामें
लोक-प्रिय बने हुए हैं कि ऐसा कोई ही जैन होगा जिसने है। इस ग्रन्थकी प्रतिलिपि प्राचार्य शुभचन्द्रकी प्रतिशिष्या
इसका स्वाध्याय अथवा श्रवण नहीं किया हो। जैनोंके आर्या मलयश्रीने करवायी थी। इसके लिपिकार गजराज थे,
प्रत्येक भण्डारमें इसकी हस्तलिखित प्रतियाँ १०-१५ की जिन्होंने विक्रम संवत् १४९० फाल्गुन वदी २ के दिन संख्यामें मिलती हैं। इसकी कितनी ही हिन्दी टीकाएँ हो तिलिपि पूर्ण का था। इस प्रतिका शुभचन्द्रन अपन चुकी हैं जिनमें पं० दौलतरामजी कृत उत्तर पुराणकी टीका
उल्लेखनीय है, इसी उत्तरपुराणका एक संस्कृत टिप्पण अमी की लेखक प्रशस्ति निम्न प्रकार है:
बड़े मन्दिरके शास्त्र भण्डारमें उपलब्ध हुआ है। (स्वस्ति) श्रीमूलामलसंघमंडणमणिः श्रीकुन्दकुन्दान्वये, टिप्पण सरल संस्कृतमें है । मूल ग्रन्थ के क्लिष्ट संस्कृत गीर्गच्छे च बलात्कारकगणे श्रीनन्दिसंघाग्रणीः। शब्दोंको सरल संस्कृतमें हो समझाया गया है। टिप्पण उत्तम स्याद्वादेतर वादिदंतिदवणो (मनो) द्यत्पाणि-पंचाननो, है। टिप्पणकार कौन और कब हुए हैं यह टिप्पण परसे कुछ यावत्सोऽस्तु सुमेधसामिह मुदे श्रीपदमनन्दीगणी॥ ज्ञात नहीं होता । टिप्पणकारने अपना ग्रन्थके आदि और श्रीपद्मनन्द्यधिप-पट्ट पयोजहंस
अन्तमें कहीं भी कोई परिचय नहीं दिया है। पूनासे प्रकाश्वेतातपत्रितयशस्फुरदात्मवशः (श्यः)। शित 'जिनरलकोश' में प्राचार्य प्रभाचन्द्र कृत एक टिप्पणका राजाधिराजकृतपादपयोजसेवः
उल्लेख अवश्य किया गया है । यह टिप्पण भी इन्हीं प्रभास्यान्नः श्रिये कुवलये शुभचन्द्रदेवः ॥२॥ चन्द्रका है अथवा नहीं है इस विषयमें जब तक दोनों प्रतिआर्याशीदार्यवर्य र्या दीक्षिता पद्मनंदिभिः । योंका मिलान न हो तब तक निश्चित रूपसे कुछ नहीं कहा रत्नश्रीरिति विख्याता तन्नामैवास्ति दीक्षिता ॥३॥ जा सकता। इसके अतिरिक्त श्रद्धय पं० नाथूराम जी प्रेमीने शुभचन्द्रार्यवय र्या श्रीमद्भिः शीलशालिनी ।
अपने 'जैनसाहित्य और इतिहास' में श्रीचन्द्र और प्रभाचन्द्र मलयश्रीरितिख्याता शांतिका गर्वगालिनी ॥४॥ वाले लेखमें प्रभाचन्द्रकी रचनाओंमें गुणभद्राचार्य कृत उत्तरतयैषा लेखिता यस्य ज्ञानावरणशान्तये ।
पुराणके टिप्पणका कोई उल्लेख नहीं किया। इस लिए लिखिता गजराजेन जीयादष्टसहस्रिका ॥५!! प्रभाचन्द्रने ही बह टिष्पण लिखा हो ऐसी कोई निश्चित व्योमग्रहाधिचन्द्राब्धे,(संवत१४६०)विक्रमार्के महीपते बात नहीं कही जा सकती। .
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