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________________ तीर्थ और तीर्थंकर साधारणतः नदी समुद्रादिके पार उतारनेवाले घाट श्रादि स्थानको तीर्थ कहा जाता है। श्राचार्योंने तीर्थके दो भेद किए हैं: - द्रव्यतीर्थं और भावतीर्थं । महर्षि कुन्दकुन्दने द्रव्यतीर्थंका स्वरूप इस प्रकार कहा है:दाहोपसमरण तहाछेदो मलपंकपवहणं चेव । तिहि कारणेहिं जुत्तो तम्हा तं दव्वदो तित्थं ||६२|| अर्थात् जिसके द्वारा शारीरिक दाहका उपशमन हो, प्यास शान्त हो और शारीरिक या वस्त्रादिका मैल वा कीचड़ बह जाय, इन तीन कारणोंसे युक्त स्थानको द्रव्यतीर्थ कहते हैं । (मूलाचार षडावश्यकाधिकार) इस व्याख्या अनुसार गंगादि नदियोंके उन घाट श्रादि खास स्थानोंको तीर्थ कहा जाता है, जिनके कि द्वारा उक्त तीनों प्रयोजन सिद्ध होते हैं । पर यह द्रव्यतीर्थ केवल शरीरके दाहको ही शान्त कर सकता है, मानसिक सन्तापको नहीं; शरीर पर लगे हुए मैल या कीचड़को धो सकता है, श्रात्मा पर लगे हुए अनादिकालीन मैलको नहीं धो सकता; शारीरिक तृष्णा अर्थात् प्यासको बुझा सकता है, पर श्रात्माकी तृष्णा परिग्रह-संचयकी लालसाको नहीं बुझा सकता । श्रात्मा मानसिक दाह, तृष्णा और कर्म-मलको तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रय - तीर्थं ही दूर कर सकता है। अतएव श्राचार्यों ने उसे भावतीर्थं कहा है। श्रा० कुन्दकुन्दने भावतीर्थका स्वरूप इस प्रकार कहा है :-- सरण -पारण चरिते णिज्जुत्ता जिवरा दु सव्वेवि । तिहि कारणेहिं जुत्ता तम्हा ते भावदो तित्थं ॥ ६३|| श्रात्मा अनादिकालीन ज्ञान और मोह-जनित दाहकी शान्ति सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति से ही होती है। जब तक जीवको अपने स्वरूपका यथार्थ दर्शन नहीं होता, तब तक उसके हृदयमें अहंकार-ममकार-जनित मानसिक दाह बना रहता है और तभी तक इष्ट-वियोग और अनिष्ट-संयोगों के कारण वह बेचेनीका अनुभव करता रहता है। किन्तु जिस समय उसके हृदय में यह विवेक प्रकट हो जाता है कि पर पदार्थ कोई मेरे नहीं है और न कोई अन्य पदार्थ मुझे सुखदुख दे सकते हैं; किन्तु मेरे ही भले बुरे कर्म मुझे सुख-दुख देते हैं, तभी उसके हृदयका दाह शान्त हो जाता है। इस लिए श्राचार्योंने सम्यग्दर्शनको दाहका उपशमन करने बाला कहा है। पर पदार्थोंके संग्रह करनेकी तृष्णाका छेद सम्यग्ज्ञानको Jain Education International प्राप्तिसे होता है। जब तक आत्माको अपने श्रापका यथार्थ ज्ञान नहीं होता, तब तक वह धन, स्त्री, पुत्र, परिजन, भवन, उद्यानादि पर पदार्थोंको सुख देने वाला समझ कर रात-दिन उनके संग्रह अर्जन और रक्षणकी तृष्णामें पड़ा रहता है। किन्तु जब उसे यह बोध हो जाता है कि “धन, समाज, गज, बाज, राज तो काज न श्रावे, ज्ञान• श्रापको रूप भये थिर चल रहावे ।" तभी वह पर पदार्थोंके श्रर्जन और रक्षणको तृष्णाको छोड़कर आत्मस्वरूपकी प्राप्तिका प्रयत्न करता है और पर पदार्थोंके पानेकी तृष्णाको श्रात्मस्वरूपके जानने की इच्छामें परिणत कर निरन्तर श्रात्मज्ञान प्राप्त करने, उसे बढ़ाने और संरक्षण करनेमें तत्पर रहने लगता है। यही कारण है कि सम्यग्ज्ञानको तृष्णाका छेद करने वाला माना गया है। जल शारीरिक मल और पंकको बहा देता है, पर वह श्रात्मा के द्रव्य भावरूप मल और पंकको बहानेमें असमर्थ है। किन्तु शुद्ध श्राचरण श्रात्माके ज्ञानावरणादि रूप आठ प्रकारके द्रव्य-कर्म- पंकको और रागद्वेषरूप भाव-कर्ममलको बहा देता है और श्रात्माको शुद्ध कर देता है, इस लिए हमारे महर्षियोंने सम्यक् चारित्रको कर्म-मल और पाप-पंकका बहानेवाला कहा है । इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय धर्म ही भावतीर्थ है और इसके द्वारा ही भव्यजीव संसार-सागर से पार उतरते हैं। इस रत्नत्रयरूप भावतीर्थका जो प्रवर्तन करते हैं, पहले अपने राग, द्व ेष, मोह पर विजय पाकर अपने दाह और तृष्णा को दूर कर ज्ञानावरणादि कर्म-मलको बहाकर स्वयं शुद्ध हो संसार-सागर से पार उतरते हैं और साथमें अन्य जीवों को भी रत्नत्रयरूप धर्म-तीर्थका उपदेश देकर उन्हें पार उतारते हैं— जगत्के दुःखोंसे छुड़ा देते हैं - वे तीर्थंकर कहलाते हैं । लोग इन्हें तीर्थकर, तीर्थकर्त्ता, तीर्थकारक, तीर्थकृत् तीर्थनायक, तीर्थप्रणेता, तीर्थप्रवर्तक, तीर्थकर्ता, तीर्थविधायक, तीर्थवेधा, तीर्थसृष्टा और तीर्थेश श्रादि नामोंसे पुकारते हैं । , संसारमें सद्ज्ञानका प्रकाश करनेवाले और धर्मरूप तीर्थका प्रवर्तन करनेवाले तीर्थंकरोंको हमारा नमस्कार है । - हीरालाल For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527329
Book TitleAnekant 1954 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1954
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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