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________________ ५४ ] दिया और रोटीके टुकड़े खिला २ कर उसे 'दोगला बना दिया है । शंका- बहिरंग कारण और उनका असर तो समझ में आया, पर यह सिंह या श्वान नामक नामकर्मके उदयरूप अन्तरंगकारण क्या वस्तु है ? समाधान - जो कारण बाहिर में दृष्टिगोचर न हो सके, पर अन्तरंग में - भीतर आत्माके ऊपर अपना सूक्ष्म असर डाले, उसे अन्तरंग कारण कहते हैं। जीव अपनी भली-बुरो नाना प्रकारकी हरकतों से अपने आत्मा पर जो संस्कार डाल लेता है, उसे जैन शास्त्रोंको परिभाषा में 'कर्म' कहते हैं और वही कर्म संचित संस्कारों का फल देने के लिए अन्तरंग कारण है । शंका वे ऐसे कौनसे संस्कार हैं, जिनके कारण जीव सिंह और श्वान नामक कर्मको उपार्जन करता है। और उनके उदय सिंह और कुत्तेकी पर्यांयको धारण करता है ? अनेकान्त समाधान पशुओं में उत्पन्न होनेका प्रधान कारण 'मायाचार' है । सिंह और श्वान दोनों ही पशु हैं, अतः यह स्वतः सिद्ध है कि दोनोंने पूर्वभवमें भरपूर मायाचार किया है ! मनमें कुछ और रखना, वचनसे * दोगला का अर्थ है, दो प्रकारका गला । पशु स्वभावतः दो जातिके होते हैं-- शाकाहारी और मांसाहारी । कुत्ता स्वभावतः मांसाहारी है. पर मनुष्योंके संसर्गसे अन्नभोजी भी हो गया अन्नभोजी फल तथा घासाहारी जीवोंकी गणना शाकाहारियों में ही की जाती है । कुत्ता मांसाहारियों के साथ मांस भी खा लेता है और मनुष्यों के साथ अन्न भी खा लेता है, इस प्रकार परस्पर विरोधी दो भक्ष्य पदार्थोंको अपने गले के नीचे उतारनेके कारण वह 'दोगला' कहलाता कहलाता है । [ वर्ष १३ कुछ और कहना, तथा काम कुछ और ही करना, यह मायाचार कहलाता है । यह मायाचार कोई प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए करता है, कोई धन कमानेके लिए और कोई व्यभिचार आदि अन्य मतलब हल करनेके लिए । धनको ग्यारहवां प्राण कहा गया है जो मायाचार करके दूसरेके धनको हड़प करते हैं, वे मांसभक्षी या छोटे-मोटे जीवोंको जिन्दा हड़प जाने वाले जानवरों में पैदा होते हैं। सिंह और श्वान दोनों ही मांसभक्षी हैं, पर इनका पूर्वभव में मायाचार धन-विषयक रहा, ऐसा जानना चाहिए। जो जीव सामने जाहिर मेंतो धनयों की खुशामद करते हैं और अवसर पाते ही पीछे से उसके धनको चुरा लेते हैं, या लिए हुए, और अमानत रखे धनको हड़प कर जाते हैं, या हड़प करने की भावना रखते हुए भी कभी-कभी अमानत रखनेवालेको व्याज या सहायता अदिके रूप में कुछ तांबेके टुकड़े देते रहते हैं, वे तो कुत्तोंके संस्कार अपनी आत्मापर डालते हैं । किन्तु जो दूसरेके धनको चुराने या हड़प करनेके लिए न सामने खुशामद ही करते हैं और न पोछे धन ही चुराते हैं, किन्तु दिनभर तो स्वाभिमानका वाना पहने अपने घरोंमें पड़े रहते हैं और रातको शस्त्रों से लैस होकर दूसरों पर डाका डालते हैं, वे जीव शेर, चीते, सिंह आदि जानवरोंमें उत्पन्न होनेका कर्म उपार्जन करते हैं। जो मायाचार करते हुए अपने सजातीयोंका उत्कर्ष नहीं देख सकते उन्हें नीचा दिखाने मारने और काटनेको दौड़ते हैं वे कुत्तेका कर्म संचय करते हैं किन्तु जो उक्त प्रकारका मायाचार करते हुए भी अपने सजातीयों का सन्मान करते हैं । उन्हें काटने नहीं दौड़ते, पेटके लिए दूसरोंको खुशामद नहीं करते, दूसरोंके इशारोंपर नहीं नाचते भले बुरेका स्वयं विवेक रखते हैं और आत्मनिर्भर रहते हैं. वे सिंह नामक नामकर्मको उपार्जन करते हैं । Jain Education International समाजसे निवेदन 'अनेकान्त' जैन समाजका एक साहित्यिक और ऐतिहासिक सचित्र मासिक पत्र है । उसमें खोजपूर्ण पठनीय लेख निकलते रहते हैं। पाठकों को चाहिये कि वे ऐसे उपयोगी मासिक पत्रके ग्राहक बनकर, तथा संरक्षक या सहायक बनकर उसको समर्थ बनाएं। हमें दो सौ इक्यावन तथा एक सौ एक रुपया देकर संरक्षक व सहायक श्र ेणीमें नाम लिखाने वाले के वलदो सौ सज्जनोंकी यवश्यकता है। आशा है समाज के दानी महानुभाव एक सौ एक रुपया प्रदानकर सहायक सीमें अपना नाम अवश्य लिखाकर साहित्य सेवामें हमारा हाथ बटायेंगे । - मैनेजर 'अनेकान्त' For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527329
Book TitleAnekant 1954 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1954
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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