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किरण २].
निसीहिया या नशियां
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भरहेरावएसु दससु पंचसु महाविदेहेसु।' (क्रियाकलाप है, उसे निसीहिया या निषिद्धिका कहा गया है। यहाँ पर पृष्ठ ५६)।
टीकाकारने 'नषेधिक्यां शवप्रतिष्ठापनभूम्याम्' ऐसा स्पष्ट अर्थात् जिनोंको नमस्कार हो, नमस्कार हो, नमस्कार अर्थ किया है। जिसकी पुष्टि भागेकी गाथा नं. ५५४२ से हो । निषीधिकाको नमस्कार हो, नमस्कार हो, नमस्कार हो। भी होती है। अरहंत, सिद्ध, बुद्ध आदि अनेक विशेषण-विशिष्ट महति- भगवती अाराधनामें जो कि दिगम्बर-सम्प्रदायका अति महावीर-वर्धमान बुद्धिऋषिको नमस्कार हो, नमस्कार हो, प्राचीन ग्रन्थ है वसतिकासे निषीधिकाको सर्वथा भिन्न अर्थमें नमस्कार हो।
लिया है । साधारणतः जिस स्थान पर साधुजन वर्षाकालमें अष्टापद, सम्मेदाचल, ऊर्जयन्त, चंपापुरी, पावापुरी, रहते हैं, अथवा विहार करते हुए जहां रात्रिको बस जाते हैं, मध्यमापुरी और हस्तिपालितसभामें तथा जीवलोकमें जितनी उसे वसतिका कहा है। वसतिका का विस्तृत विवेचन करते भी निषीधिकाएं हैं, तथा ईषत्प्राग्भारनामक अष्टम पृथ्वी- हुए लिखा है :तलके अग्र भागपर स्थित सिद्ध, बुद्ध, कर्मचक्रसे विमुक्त, “जिस स्थानपर स्वाध्याय और ध्यानमें कोई बाधा न हो, नीराग, निर्मल, सिद्धोंकी तथा गुरु, प्राचार्य, उपाध्याय, स्त्री, नपुसक, नाई, धोबी, चाण्डाल आदि नीच जनोंका प्रवर्तक, स्थविर, कुलकर (गणधर) और चार प्रकारके श्रमण- सम्पर्क न हो, शीत और उष्णकी बाधा न हो, एक दम बंद संघकी जो पांच महाविदेहोंमें और दश भरत और दश या खुला स्थान न हो, अंधेरा न हो, भूमि विषम-नीचीऐरावत क्षेत्रोंमें जो भी निषिद्धिकाएँ हैं, उन्हें नमस्कार हो३। ऊँची न हो, विकलत्रय जीवोंकी बहुलता न हो, पंचेन्द्रिय
इस उद्धरणसे एक बात बहुत अच्छी तरह स्पष्ट हो पशु-पक्षियों और हिंसक जीवोंका संचार न हो, तथा जो जाता है कि निषीधिका उस स्थानका नाम है, जहाँ से महा- एकान्त, शान्त, निरुपद्रव और निाक्षेप स्थान हो, ऐसे मुनि कर्मोका क्षय करके निर्वाण प्राप्त करते हैं और जहाँ
उद्यान-गृह, शून्य-गृह, गिरि-कन्दरा और भूमि-गुहा पर प्राचार्य उपाध्याय प्रवर्तक, स्थविर कुलकर और ऋषि,
आदि स्थानमें साधुओंको निवास करना चाहिए। ये वसतियति, मुनि, अनगाररूप चार प्रकारके श्रमण समाधिमरण
काएं उत्तम मानी गई हैं।" करते हैं, वे सब निषीधिकाएँ कहलाती हैं।
(देखो-भग० आराधना गा० २२८-२३०,६३३-६४१) बृहत्कल्पसूत्रनियुक्किमें निषीधिकाको उपाश्रय या
__परन्तु वसतिकासे निषीधिका बिलकुल भिन्न होती है, वसतिकाका पर्यायवाची माना है। यथा
इसका वर्णन भगवती आराधनामें बहुत ही स्पष्ट शब्दोंमें अवसग पडिसगसेजाालय, वसधी णिसीहियाठाणे।
किया गया है और बतलाया गया है कि जिस स्थान पर
समाधिमरण करने वाले क्षपकके शरीरका विसर्जन या अंतिम एगह वंजणाई उवसग वगडा य निक्खेवो ॥३२६॥
संस्कार किया जाता है, उसे निषीधिका कहते हैं। अर्थात्-उपाश्रय, प्रतिश्रय, शय्या, आलय, वसति,
यथा--निषीधिका-आराधकशरीर - स्थापनास्थानम् । निषीधिका और स्थान ये सब एकार्थवाचक नाम हैं।
(गा० १९६७ की मूलाराधना टीका) इस गाथाके टीकाकारने निषीधिका का अर्थ इस प्रकार
साधुओंको आदेश दिया गया है कि वर्षाकाल प्रारंभहोनेकिया है :
के पूर्व चतुर्मास-स्थापनके साथ ही निषीधिका-योग्य भूमिका . "निषेधः गमनादिव्यापारपरिहारः, स प्रयोजन
अन्वेषण और प्रतिलेखन करलेवें । यदि कदाचित् वर्षाकालमें मस्याः, तमहतीति वा नैषेधिकी।"
किसी साधुका मरण हो जाय और निषीधिका योग्य भूमि अर्थात्-गमनागमनादि कायिक व्यापारोंका परिहार कर पहलेसे देख न रखी हो, तो वर्षाकालमें उसे ढूढ़नेके कारण साधुजन जहां निवास करें, उसे निषीधिका कहते हैं। हरितकाय और त्रस जीवोंकी विराधना सम्भव है, क्योंकि
इससे आगे कल्पसूत्रनियुकिकी गाथा नं०५५४१ में उनसे उस समय सारी भूमि आच्छादित हो जाती है। अतः भी 'निसीहिया' का वर्णन आया है पर यहाँ पर उसका वर्षावास के साथ ही निषीधिकाका अन्वेषण और प्रतिलेखन अर्थ उपाश्रय न करके समाधिमरण करने वाले क्षाक साधुके कर लेना चाहिए। शरीरको जहां छोड़ा जाता है या दाह-संस्कार किया जाता भगवती आराधनाकी वे सब गाथाएँ इस प्रकार हैं:
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