Book Title: Vruttabodh
Author(s): Shwetambar Sadhumargi Jain Hitkarini Samstha
Publisher: Shwetambar Sadhumargi Jain Hitkarini Samstha

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Page 40
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३४) नगग्रहमिताक्षरः श्रितयतिः कवीन्द्राऽऽहता, ज-सा ज्व-स-य लाडेरौ क्षितितलेऽत्र पृथ्वी तदा।। (अन्वयः) यदि द्वितीयम् अथ षष्ठकं तथा अष्टम द्वादशं चतुर्दशं पञ्चदशम् अन्तिमं गुरु राजते तदा जसाजसयलाद्गुरौ नगग्रह मिताक्षरैः श्रितयतिः कवीन्द्राऽऽहता अत्र क्षितितले पृथ्वी ॥ (टीका) यदि प्रतिचरणं द्वितीयं षष्टमष्टमं द्वादशं चतुर्दशं पञ्चदशं चरणान्त्यं चाक्षरं गुरु समुलसति, तदा जगण मगणाभ्यां परतो ये जगण-सगण यगण लघवस्तस्मात्परत्र गुरौ जाते सति अष्टभिनवभिश्चाक्षरैः प्राप्त विरामा कविवरैराहता अत्र भूतले पृथ्वी भवतीतिशेषः । अत्र प्रतिपादम् (ISISIS||sissis)इति स्वरवर्णविन्यासः ।। (प्रति०) षष्ठक= षष्ठम् | सपञ्चदशम् पञ्चदशसहितम् । अन्तिमम्= पादान्त्यम्। (भाषा) यदि प्रत्येक चरण का दूसरा छठा पाठवा बारहवा चौदहवा पन्द्रहवा एवं सत्रहवाँ अक्षर गुरु हो और माठवें तथा अन्तिम अक्षर पर विश्राम हो तो उस को पृथ्वी छन्द कहते हैं। इस के प्रत्येक चरण में जगण सगण जगण सगण यगण एक लघु और एक गुरु रहते हैं अत एव स्वरचिह्न(ISISISISIssis) इस प्रकार समझना चाहिये ॥ ३७ ॥ For Private And Personal Use Only

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