Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्री स्थानकवासी जैन ग्रन्थमाला पुष्प ०१ य श्री श्री १००८ श्री श्रीलालजी महाराज की स्मृति-स्वरूप)
cohodros hdchhooo
999695959 ASA55595
भीवीतरागाय नमः
कवृत्त-बाधा (संस्कृत भाषा का एक उत्कृष्ट छन्दोग्रन्थ )
प्रकाशक---
श्री श्वेताम्बर साधुमार्गी जैन हितकारिणी संस्था,
बीकानेर (राजपूताना) बीर संवत् २४५४१ प्रथमावृति न्योछावर 58 विक्रम स० १९८४१००० । HERS519505555HESHESS φφφφφφφφφφα
For Private And Personal Use Only
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सदा मे भारतीय हित में शान्त, करुण तथा बैं रस की प्रधानता रही: पन्तु र के कुछ दिन पहले इसे साहित्य-क्षेत्र में शृङ्गार का सार भाती तूफान आया था, जिसे में बड़े बड़े पण्डित और सौरियाचार्य पडकर भ्रष्ट गये- वे श्राप तो गये ही, साथ होली सोमा सदः के लिए भ्रष्ट करने का मार्ग खोल गये। काव्य, नाटक, छन्दःशास्त्र, कहां तक कहें, वैद्यक-शास्त्र तक में, वही पतित शृङ्गार किंवा काराभास का विष मिश्रित कर दिया गया, जिससे हमारा समाज गलिताङ्ग हो गया है। __ संस्कृत के छन्दो-ग्रन्थों में भी यही बात है। 'श्रुतबोध प्रादि के 'घन-पीन-पयोधर-भार-नते' वाले श्लोक कौनसा लौकिक गुरु अपने शिष्य को, पिता अपने पुत्र और पुत्री को यामा अपनी बेटी को निःसङ्कोच होकर पढ़ा सकती है? फिर यह प्रारम्भिक विषय है-काव्य-प्रासाद पर चढ़ने के लिए प्रथम सोढी है। बालक-बालिकाओं को नत-पीन-पयोधर' का अर्थ कोई कैसे समझा सकता है? और विना समझाए शिष्य मन्द-बुद्धि होगा। क्या हमारे समाज और साहित्य के लिए यह अभीष्ट है? - हिन्दी में इस विषय के अभाव की पूर्ति प्रख्यात कीर्ति बाबू
भी जगन्नाथदास 'भानु' कवि ने 'छन्द-प्रभाकर' की रचना करके किरदी है। परन्तु, संस्कृत भाषा के क्षेत्र में अभी तक इधर किस निध्यान ही नहीं दिया है। इसी प्रभाव की पूर्ति के लिए यह पुस्तक लिखो गई है। प्राशा है, इस से हमारे साहित्य और समाज का कल्याण होगा।
पुस्तक लिखने में सरलता पर विशेष ध्यान रखा गया है और उन भावों के लाने का प्रयास किया गया है, जो अति आवश्यक है। विशेषतः पाठशालाओं और विद्यालय-महाविद्यागयों के पाठ्य-ग्रन्थों में सम्मिलित होने योग्य इस में सामग्री रखी गयी है।
For Private And Personal Use Only
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private And Personal Use Only
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥श्री॥ वृत्तबोधस्य
शुद्धिपत्रम् । अशुद्धिः शुद्धिः नैकंवचनम्। नैकवचनम् ।
सप्तभिः विरामः- विरामे(यस्यां सत्यां) ( यत्यां सत्यां ) विरामें विरामे ০০
वर्ण
सप्तर्मिक
१२ १५
सातवें
२५
८
२७ १४
ततजै० जतजै. যথা
यया ऽक्षर
ऽक्षरे और लघु लघु और गुरु (111555SSIIISSIIls) (15555SINUSSIS) ०वणाः, वर्णाः, पञ्चभिः पञ्चभिः= पञ्चभिः पञ्चभिः मचिरे
मूचिर
For Private And Personal Use Only
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
वृत्तबोधस्य
६
विषयानुक्रमः। श्लोक छन्दोनाम - पृष्ठ श्लोक इन्दानाम १ मङ्गलाचरण १ २०. श्राख्यानिकी २ परिभाषा
२१ रथोद्धता ३ गुरुलघुविचार
२२ स्वागता ४ गणविचार
२३ ताटक ५ गणविचार
२४ प्रमिताक्षरा छन्दोविचार. २५ भुजङ्गप्रयात ६ अनुष्टुए
२६ जलोद्धतगति ७ पद्य
२७ द्रुतविलम्बित मात्रावृत्ति २८ हरिणीप्लुता ८ आर्या
६ २६ वंशस्थ ९ गीति
७. . ३० इन्द्रवंशा १० उपगीति ८ ३१ प्रभावती समाक्षर छन्दों के लक्षण ३२ प्रहर्षिणी ११ नगस्वरूपिणी(प्रमाणिका)- ३३ वसन्ततिलका १२ विद्युन्माला ९ ३४ मालिनी १३ शालिनी १० ३५ हरिणी १४ चम्पकमाला ११ ३६ शिखरिणी १५ रुक्मवती (मणिबन्ध) १२ ३७ पृथ्वी १६ दोधक
१३ ३८ मन्दाक्रान्ता १७ इन्द्रवज्रा १४ ३६ हंसी १८ उपेन्द्रवज्रा १५ ४० शार्दूलविक्रीडित १६ उपजाति १६ ४१ स्रग्धरा
३७
For Private And Personal Use Only
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४२ पणबन्ध ४३ मत्ता ४४ मणिगुणनिकर ४५ कुड़मलदन्ती ४६ वैश्वदेवी ४७ कुसुमविचित्रा ४८ स्रग्विणी
४०४६ प्रहरणकलिता ४७ ५० भ्रमरविलसित ४१ ५१ स्त्रक् (माला) ४३ ५२ वियोगिनी
५३ पुष्पिताना ४५ ५४ द्रुतमध्या ४६ । समामिश्लोक
NMAN
ATV
HTTA
For Private And Personal Use Only
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
|| श्री वीतरागाय नमः ॥
6 वृत्तवोधः
छन्दसां सुप्रसिद्धाना, - मायाले बुद्धये मया । श्रीजिनेन्द्रं प्रणम्यादौ, वृत्तबोधो विरच्यते ॥ १ ॥
पूज्याङ्गि - कमलद्वन्द्र, मकरन्दमधुव्रतः । घासीलालस्तनोतीमा, वृत्तबोध प्रकाशिकाम् ॥
( अन्वयः) छन्दसामिति - यादी श्रीजिनेन्द्र प्रगाम्य सुप्रसिद्वानां छन्दसाम् आवाले वृद्ध भया वृत्तबोध वियत
इत्यन्वयः ||
(टीका) प्रथमत: श्रीजिनेन्द्रं भगवन्तमर्हन्तं प्रगाम्य बालपर्यन्द्रमन्दमतिभिरपीति यावत् सुप्रसिद्धानां छन्दसां पद्यानां बुद्धये बोधाय मया श्रीजवाहिरलालाचार्यण 'वृत्तबोव:' एतन्नामको ग्रन्थो विरच्यते - निमयत इत्यर्थः ।
(प्रतिशब्दा:) आदौ प्रथमतः । आबालम् बालपर्यन्तेः । शिष्टं स्पष्टम् ।
( भाषा) प्रथम श्रीजिन भगवान को नमस्कार करके बुद्धिवालों को प्रसिद्ध प्रसिद्ध छन्दों का ज्ञान हो, इसलिए यह वृत्तबोध बनाया जाता है ॥ १ ॥
For Private And Personal Use Only
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
परिभाषा। यस्य यस्यास्ति यद्यत्तु, लक्षणं छन्दसो मतम् । तेन तेनैव पद्येन, तत्तदन्न प्रवक्ष्यते ॥२॥
(अन्वयः) यस्य यस्य छन्दसः यद्यत् तु लक्षणं मनमस्ति अत्र वृत्तबोधे तत्तत तेन तेनैव पद्येन प्रवक्ष्यत इत्यन्धयः ।
(टीका) तुशब्दोऽवधारणार्थस्तेन यस्य यस्य छन्दसो यद्यदेव स्वरूपं निर्णीतमस्ति (छन्दःशास्त्रे इति शेष:) तत्ततेन तेनैव पद्येनात्र वृत्तबोधे कथयिष्यत इत्यर्थः ।
(प्रति०) छन्दसाम्रद्यस्य । तु-व। लक्षण=म्यरूपम् । प्रवक्ष्यते कथयिष्यते।
(भाषा) जिस जिस छन्द का जो जो लक्षण है इस वृत्तबोध में उस को उसी छन्द से कहा जायगा ॥२॥
_ (गुरुलघुविचार) वा पादान्ते गुरु ज्ञेय,-मनुस्वारविसर्गयोः । संयोगे परतश्चाद्य, दीर्घ च स्याद्यदक्षरम् ॥३॥
(अन्वयः) पादान्ते वा गुरु ज्ञेयम्, अनुस्वारविसर्गयोः संयोगे च परत श्राद्यम्, यञ्चाक्षरं दीर्घ स्यादित्यन्वयः ।।
(टीका) चरणान्ते यदक्षरं तद्विकल्पेन द्विमानं बोध्यन, अनुस्वारे विसर्गे तथा संयुक्तवणे परे पूर्वम् , किञ्च दीर्वं यदक्ष तदपि द्विमात्रमित्यर्थः ।
For Private And Personal Use Only
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
(3)
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( प्रति०) पादान्ते = चरणान्तं । गुरुद्विमात्रम् | ज्ञेयं =बोध्यम् । संयोगे==संयुक्तवर्णे परतः = परे । =तथा । प्रा=पूर्वम् । चत्रि |
( भाषा) प्रत्येक चरण के अन्त का हस्व अक्षर विकल्प से गुरु माना जाता है, अर्थात् जहां गुरु बोलने से श्लोक की सुन्दरता आती हो, वहां गुरु और अन्यत्र लघु रहता है । इसी प्रकार अनुस्वार विसर्ग तथा संयुक्त वर्ण पर हो तो पहला ह्रस्व वर्ण गुरु होता है, एवं दीर्घ भी गुरु होता है ॥ ३ ॥
(गणविचार) छन्दो जिज्ञासुभिध्या भजसा, घरता मनौ । सर्वत्र गणा अष्टौ, गो गुरुलों लघुस्तथा ॥ ४ ॥
(अन्वयः) छन्दोजिज्ञासुभिः 'भजसाः यरताः मनो' ये अ गणाः सर्वत्र बोध्या:, तथा गः गुरु: ल: लघुः ।
( टीका) छन्दोज्ञानमिच्छुभिः सर्वत्र भ-ज-स-य-र-त-मन- संज्ञका अष्टौ गया बोध्या:, तथा गः = गुरुसंज्ञकः, लःलघुसंज्ञको बोद्धव्य इत्यर्थः ।
( प्रति०) प्रतिशब्दाः स्पष्टाः ।
( भाषा) छन्द के जानने वालों को सर्वत्र भगण जगण सगण यगण रगण तगण मगण और नगा, ये आठ गण, तथा 'ग' से गुरु और 'ल' से लघु समझना चाहिये || ४ ||
For Private And Personal Use Only
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
(४)
आदिमध्यान्तभागेषु भजसा गुरवः क्रमात् । यरता लघुतायुक्ता मनौ गुरुलघु तथा ॥ ५ ॥
-
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(अन्वयः) भजसा श्रादिमध्यान्तभागेषु क्रमात् गुरवः यरता लघुतायुक्ताः, तथा मनौ गुरुलघु ।
(टीका) भगण जगण - सगणा आदिमध्यान्तभागेषु क्रमशो गुरवः, अर्थादादिभागे गुरुर्भगणो, - मध्यभागे गुरुर्जगणो ऽन्त भागे गुरुः सगण इति । एवं यगण - रगण-तगया लवव', अर्था-' दादिभागे लघुर्यगणो मध्यभागे लघु रगणो ऽन्तभागे लघुस्तगण इति । तथा सर्वगुरुर्मगणः सर्वलघुगगा इर्थः । इदमंत्र तत्त्वम्- प्रतिगणं गुरुलघुरूपास्त्रयः स्वरवर्णा भवन्ति, तत्र गुरुचिहम् - ( 5 ) इति, लघुचिह्नम् - (1) इति, एवं व आदिगुरुर्मग यथा - (Sii) इति, मध्यगुरुर्जगो यथा - (151) इति, अन्तगुरुः सगो यथा - ( 115 ) इति व्यादिलघुर्वगणां यथा - (155) इति, मध्यलबू रगणो यथा - (डा) इति, अन्तलघुस्तगणो यथा(SI) इति, सर्वगुरुगणो यथा - (555) इति, सर्वलघुर्नग यथा - ( 111 ) इतीति ।
,
(प्रति०) क्रमात् = क्रमशः । लघुतायुक्ता:लघ बः । शिष्टं स्पष्टम् ।
(भाषा) इन उक्त गणों में भगण आदिगुरु जैसे- (511). जगण मध्यगुरु जैसे- (11). समय अन्त्यगुरु जैसे- ( 115 ). यगण आदिलवु जैसे- (155) रंगण मध्यलघु जैसे- (ज) तगण
For Private And Personal Use Only
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
. अन्त्यलघु जैसे-(s).मगण सर्वगुरु जैसे-(ऽऽऽ).और नगण सर्वलघु जैसे-(ii). तथा गुरु जैसे-(s). एवं लघु जैसे--(). जानना चाहिये । ध्यान रहे कि प्रत्येक गण तीन तीन स्वर वों से बनता है ॥ ५ ॥
छन्दविचार.
अनुष्टुप. पञ्चमं लघु सर्वत्र, गुरु षष्ठमनुष्टुभि । पादयो राद्ययो दीर्घ,-मन्ययोलघु सप्तमम् ॥६॥
(अन्वयः) अनुष्टुभि सर्वत्र पञ्चमं लघु षष्ठं गुरु, श्राद्ययोः पादयोः सप्तमं दीर्वम् अन्ययोलघु ॥
(टीका) अनुष्टुपछन्दसि चतुर्पु पादेषु प्रतिपादं पञ्चममसरं लघु षष्ठं च गुरु तथा श्लोकपूर्वदिपरााद्ययो:-प्रथमततीययोः पादयोः सप्तमं गुरु अवशिष्टयोदितीयचतुर्थयोः पादयोः सप्तमं लघु भवतीति शेष इत्यर्थः ॥ ___ (प्रति०) सर्वत्र सर्वपादेषु । अनुष्टुभि अनुष्टुप छन्दसि । आद्ययो: प्रथमतृतीययोः । अन्ययो:-द्वितीयचतुर्थयोः ॥
(भाषा) अनुष्टुप्छन्द के चारों चरणों का पांचवाँ अक्षर लघु और छठा गुरु, तथा पहले और तीसरे चरण का सातवाँ गुरु एवं दूसरे और चौथे चरण का सातवाँ लघु होता है ॥ ६ ॥
For Private And Personal Use Only
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पञ्चमं लघु षष्ठं च, गुरु सर्वत्र निश्चितम् । युग्मयोः पादयोः पद्ये, सप्तमं च तथा लघु ॥७॥
(अन्वयः) पद्ये सर्वत्र पञ्चमं लघु षष्ठं च गुरु तथा युग्मयोः पादयोः सप्तमं च लघु निश्चितम् ॥
(टीका) पद्यनामके छन्दसि सर्वेषु पादेषु पञ्चममक्षरं लघु षष्टं गुरु तथा द्वितीयचतुर्थपादयोः सप्तमं च लघु नियतमित्यर्थः।
(प्रति०) निश्चित नियतम् । युग्मयोः द्वितीयचतुर्थयोः । स्पष्टमितरत् ।
(भाषा) पद्यछन्द के भी चारों चरणों का पांचवाँ अक्षर लघु तथा छठा गुरु ही रहता है किन्तु केवल दूसरे और चौथे चरण का सातवाँ अक्षर लघु होता है ॥ ७ ॥
मात्रावृत्ति.
आर्या. प्रथमे तथा तृतीये,बादश मात्रा भवन्ति यदि पादे। अष्टादश द्वितीये, तुर्ये चेत् पश्चदश साऽऽर्या ॥८॥
(अन्वयः) यदि चेत् प्रथम तथा तृतीय पादे द्वादश, द्वितीयेऽष्टादश, तुर्ये पञ्चदश मात्रा भवन्ति सा आर्या ॥
(टीका) यदि चेत् प्रथम-तृतीयचरणयोद्वादश, द्वितीयेऽष्टादश तथा चतुर्थे पञ्चदश मात्रा: लघुगुरुसंकलनया मात्रिका: स्वावजा पन्ते (तदेति शेवः) सा आर्यानगम्नी वृत्तिरित्यर्थः ।
For Private And Personal Use Only
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मात्रावृत्तिरियं पिङ्गलादिषु प्रसिद्धा, एतत्प्रभेदेऽपि मात्रा एव परिगण्यन्ते ॥
(प्रति०) तुर्य-चतुर्थे । उक्तमवशिष्टम् ।
(भाषा) जिस के पहले तथा तीसरे चरण में बारह बारह, और दूसरे में अठारह, तथा चौथे में पन्द्रह मात्राएँ हों वह आर्या छन्द कहलाता है ॥ ८ ॥
गीति पूर्वार्द्धवदार्याया,यत्र पराई च जायते वृत्तौ ।
कविकुलतिलकैः सर्वेः, सेयमिहाऽऽयव गीयते गीतिः ॥१॥
(अन्वयः) यत्र वृत्तौ आर्यायाः पूर्वार्द्धवत् परार्द्ध च जायते. सर्वैः कविकुलतिलकैः इह सा इयम् श्रायैव गीतिः गीयते ॥
(टीका) यस्याम् आर्यायां प्रथमद्वितीय चरणतुल्यस्तृतीयचतुर्थचरणयोरपि मात्रान्यासो जायते, अर्थात् प्रथमवत्ततीयेऽपि द्वादश, द्वितीयवच्चतुर्थेऽप्यष्टादश मात्रा भवन्ति इह-छन्दःशास्त्रे सेयमायैव गीतिरिति नाम्ना सर्वैर्महाकविभिः कथ्यत इत्यर्थः ॥
(प्रति०) पूर्वार्द्धवत् प्रथमद्वितीयचरणद्वयवत् । पराई-तृतीयचतुर्थचरणद्वयम् । च= अपि । कविकुलतिलकै महाकविभिः । गीयते कथ्यते ।
For Private And Personal Use Only
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(भाषा) आर्या के पहले दूसरे चरणों के बराबर यदि तीसरा और चौथा चरण भी हो जाय तो उसे गीति छन्द कहते हैं ॥६॥
उपगोति. आर्योत्तराईवस्या,-यस्यां पूर्वार्द्धमपि बद्धम् । तामुपगीति कविजन,-मानसहंसा:प्रभाषन्ते।
(अन्वयः) यस्याम् आर्योत्तरार्द्धवत् पूर्वार्द्धमपि त्वद्धं स्यात्, कविजनमानसहंसाः ताम् उपगीति प्रभाषन्ते ।।
(टीका) यस्यामार्यावृत्तरुत्तरार्द्धसदृशं पूर्वार्द्धमपि निरूपितं भवेत् अर्थात् प्रथमतृतीययोः पादयोर्दादश द्वादश मात्रा:, द्वितीयचतुर्थयोश्च पञ्चदश पञ्चदश मात्रा: स्युः कविकुलशिरोमणयस्ताम् उपगीति कथयन्ति ।।
(प्रति०) बद्ध निरूपितम् । कविजनमानसहसा:-कविकुलशिरोमणयः । स्फुटमन्यत् ।
(भाषा) आर्या के तीसरे चौथे चरणों के समान पहला और दूसरा भी चरण हो तो उसे उपगीति छन्द कहते हैं ।
समाक्षर छन्दों के लक्षण
नगस्वरूपिणी (प्रमाणिका) गुरु द्वितीय- षष्ठमष्टमं च यत्र ताम् । नगस्वरूपिणी परे,-ऽपरे प्रमाणिकां जगुः ॥११॥
१ द्वितीयं च तुर्थं च प चत्यषां समाहारद्वन्द्रनैकवचनम् ।
For Private And Personal Use Only
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
( 1 )
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(अन्वयः) यत्र द्वितीयतुर्यषष्टम् अष्टमं च गुरु, तां परे नगस्वरूपिणीम् अपरे प्रमाणिकां जगुः ||
( टीका ) यस्यां प्रतिचरणमष्टावष्टावक्षराणि तेषु द्वितीयं चतुर्थ षष्ठमष्टमं चाक्षरं गुरु भवति तां केचित् ( कवय इति शेषः) नगरवरूपिणीम् अन्ये प्रमाणिकामूचुः । अत्र प्रतिचरणं जगारगणाभ्यां परतो लघुगुरुन्यासात् - (ISISISIS ) इति स्वरवर्णक्रमो बोध्यः ॥
>
( प्रति०) परे = केचित् । अपरे=ततोऽन्यं । जगुः = ऊचुः । व्याख्यातमन्यत् ।
( भाषा) जिस के प्रत्येक चरण में दूसरा चौथा छठा और mia अक्षर गुरु हो उसे कोई नगस्वरूपिणी और कोई प्रमाणिका छन्द कहते हैं । इस के प्रत्येक चरण में (ISIS/SIS) इतने स्वर वर्ण होते हैं ॥ ११ ॥
विद्यन्माला.
तुर्ये तुर्ये विश्रामः स्याद्यस्यां दीर्घाः सर्वे वर्णाः । छन्दः शास्त्रे सेयं प्रोक्ता, माभ्यां गाभ्यां विद्युन्माला ॥
(अन्वयः) यस्यां तुयें तुर्ये विश्रामः स्यात्, सर्वे वर्णाः दीर्घाः, छन्दः शास्त्रे सेयं माभ्यां गाम्यां विद्यन्माला प्रोक्ता ।
(टीका ) यस्यां चतुर्थे चतुर्थेऽक्षरे विरामः स्यात् तथा सर्वे वर्णा गुरवः स्युः, सेयं प्रतिचरणं मगणद्वयात् परं गुरुद्वय
For Private And Personal Use Only
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
संयुक्ता छन्दःशास्ने विद्युन्माला प्रोक्ता । अत्र प्रथमं मगणद्वयं ततो गुरुद्वयेन प्रतिचरणं-(ऽऽऽऽऽऽऽऽ) इत्येवमष्टौ गुरवः संपद्यन्ते ।
(प्रति०) तुर्य-चतुर्थे । विश्राम: विरामः (यतिः) । दीर्घा:-गुरवः । माभ्यां मगणद्वयेन । गाभ्यां गुरुद्वयेन । अन्यत् स्पष्टम् ।
(भाषा) जिस के सभी वर्ण गुरु हों और प्रत्येक चरण के चौथे २ अक्षर पर यति विश्राम हो; अतएव दो मगण और दो गुरु अक्षरों से जिस के प्रत्येक चरण की पूर्ति होती हो,उसे विद्यन्माला छन्द कहते हैं। इसके प्रत्येक चरण में-(55555555) इस प्रकार आठ आठ गुरु होते हैं ॥१२॥
शालिनी. षष्ठो वर्णस्तद्वदेवाष्टमान्त्यः, पादे पादे हस्वतां याति यत्र ।
तुरश्वैर्विश्रमे सा कवीन्द्रः, शालिन्युक्ता मात्तताभ्यां गुरुभ्याम् ॥१३॥
(अन्वयः) यत्र पादे पार पष्टो वर्णः तद्वदेव अष्टमान्त्यः नवम': ह्रस्वतां याति तुर्यैः अश्वैःविश्रमे मात् तताभ्यां गुरुभ्यां सा कवीन्द्रः शालिनी उक्ता ।।
(टीका) यस्यां प्रतिचरणं षष्टस्तथैव नवमो वर्णी लघुत्वं प्राप्नोति तथा आदितश्चनुभिस्तदुपरितश्च सप्तर्भिवणविरामः
For Private And Personal Use Only
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
(११)
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
* (यस्यां सत्यां) मगणादुत्तरं तगणद्वयेन सह गुरुद्वयसंनिवेशात् सा कविवरे : शालिनी कथिता । अत्र प्रतिचरणम्- (ssssSssss) इत्येकादश स्वरवर्णा ज्ञेयाः ॥
( प्रति०) तदेव =तथैव | अष्टमान्त्यः =नवमः । ह्रस्वतां=लघुत्वम् | याति=प्राप्नोति । तुयैः चतुर्भिः । अश्वैः =सप्तभिः । विश्रमे= विरामें । मात्= मगणात् । तताभ्यां=तगणाभ्याम् ।
( भाषा) जिस के प्रत्येक चरण में छठा और नवाँ अक्षर लघु हो, तथा प्रथम अक्षर से लेकर चोथे, एवं पांचवें से लेकर सातवें अक्षर पर विश्राम हो, वह मगण लगा तगया के अनन्तर दो गुरुओं से प्रत्येक पाद की पूर्ति होने के कारण शालिनी नामक छन्द कहलाता है। इस के हर एक चरण में ( SSSSS155 55 ) इतने स्वर वर्ण होते हैं । १३ ॥
चम्पकमाला.
आये तुरीयं पञ्चमंषष्ठं, यत्र गुरु स्यादन्त्यमुपान्त्यम् । पञ्चमवर्णैर्लब्धविरामा, भान्मसगैः सा चम्पकमाला ||
(अन्वयः) यत्र आद्य - तुरीयं पञ्चम- पष्ठम्, उपान्त्यम्, अन्त्यं गुरु स्यात् । पञ्चमवर्णैः लब्धविरामा साभात् मसगैः
चम्पकमाला ||
१ आय तुरीयञ्चेत्यनयोः समाहारादेकवचनम् ।
२ चमच षचेत्यनयोः समाहारः । एवमीदृशस्थलेऽग्रेऽपि बोध्यम् ।
For Private And Personal Use Only
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Acharya Shri
(टीका) यस्यां प्रतिपादं प्रथमं चतुर्थ पञ्चमं षष्ठं नवम दशमं चाक्षरं गुरु स्यात् पञ्चमैः पञ्चमैवणः प्राप्तो विश्रामो यया तथाभूता सा भगणादुत्तरं मगण-सगण-गुरुभिहेतुमि श्वम्पकमाला भवतीत्यर्थः । अत्र (s||ऽऽऽऽऽ)इत्येवं स्वरवर्णक्रमः ।।
(प्रति०) आद्य-तुरीयं-प्रथम-चतुर्थ । अन्त्य दशमम् । उपान्त्यं नवमम् । लब्धविरामा प्राप्तविश्रामा भात्भगणात् । मसगैः-मगणसगण-गुरुभिः ।।
(भाषा) जिसके प्रत्येक चरण का पहला चौथा पांचवाँ छठा नवाँ और दशवाँ अक्षर गुरु हो तथा पांचवें पांचवें अक्षर पर विश्राम हो भगण मगण सगण तथा एक गुरु से युक्त वह छन्द चम्पकमाला कहलाता है । इस के प्रत्येक चरण में- (susssss) इस प्रकार स्वरवर्ण .जानना चाहिए ॥१४॥
रुक्मवती (मणिबन्ध) अन्तिमवर्णन्यूनतया, चम्पकमालामेव पुनः । रुक्मवतीमूचुः कवयो,-ऽन्ये मणिबन्धं शुद्धधियः
(अन्वयः) कवयः चम्पकमालामेव पुनः अन्तिमवर्गन्यूनतया रुक्मवतीम् उचुः, अन्ये शुअधियो मणिबन्धम ।।
(टीका) प्रतिपादमन्तिमं वर्ण न्यूनीकृत्य भदत्वेत्यर्थः कवयः पुनश्चम्पकमालामेव रुक्मवतोम, अन्ये विद्वांसो मणिबन्धमुक्तवन्तः । अत्र प्रतिपादं गणा:- (sISSIS) इति ॥
For Private And Personal Use Only
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Acha
(१३) (प्रति०) अन्तिमवर्णन्यूनतया अन्तिमवर्णाभावेन । ऊचुः उक्तवन्तः । शुद्धधिया विद्वांसः॥
(भाषा) चम्पकमाला के प्रत्येक चरण के अन्तिम अक्षर को हटा देने से कितनेक कवि 'रुक्मवती' और कितनेक मणिबन्ध कहते हैं ॥१५॥
दोधक. " पत्र गुरु प्रथमं च तुरीयं,
सप्तमकं दशमं च ततोऽन्त्यम्। भत्रिक-गढयतः प्रतिपाद,
दोधकवृत्तमिदं प्रतिपाद्यम् ॥१६॥ (अन्वयः) यत्र प्रथमं तुरीयं च सप्तमकं दशमं ततोऽन्त्यं च गुरु, इदं प्रतिपादंत्रिक-गद्वयतः दोधेकवृत्तं प्रतिपाद्यम ।।
(टीका) यस्मिन् वृत्ते प्रथमं चतुर्थ सप्तमं दशममेकादशं चाक्षरं गुरु भवति तदिदं प्रतिचरणं भगणत्रय-गुरुद्वययोगेन दोध. कवृत्तं वक्तव्यम् । अत्र- (॥।॥5॥ऽऽ) इति स्वरवर्णक्रमः ॥
(प्रति०) यत्र-यस्मिन् । तुरीयं चतुर्थम् । अन्त्यम्एकादशम् । भत्रिकं भगणत्रयम् । गवयं-गुरुयुग्मम् । प्रतिपादप्रति चरणम् । प्रतिपाद्यं वक्तव्यम् ॥
(भाषा) जिस का पहला चौथा सातवां दशवां और ग्यारहवां अक्षर गुरु हो अतएव एक एक चरण तीन भगण भोर
१ स्वार्थिकः कात्ययोऽत्र ।
For Private And Personal Use Only
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
(१४)
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
दो गुरुओं से बनता हो उसे दोधकवृत्त कहते हैं। इसके प्रतिचरण की स्वरसंख्या-- (SIS ISIS ) इस प्रकार है ॥ १६ ॥
इन्द्रवज्रा
अत्याहतायां कविभिः प्रसिद्धैः, प्रत्यङ्घि यस्यां ततजा गयुग्मम् । बाणे रसैर्लब्धविरामयोगां,
तामिन्द्रवज्रां कथयन्ति धीराः ॥ १७॥
(अन्वयः) प्रसिद्धः कविभिः प्रत्याहतायां यस्यां प्रत्यनि ततजाः युग्मम्, वागणैः रसैः लब्धविरामयोगां तां धीराइन्द्रवज्रां कथयन्ति ||
( टीका) महद्भिः कविभिरतिशयेनाऽऽदृतायां यस्यां प्रतिचरणं ततजा अर्थात् तगा-तगण जगणास्ततो गुरुद्वयं च स्युः मादितः पञ्चभिस्ततोऽग्रे च षडभिर्वर्णैः प्राप्तविश्रमां तां चीराइन्द्रवज्रां कथयन्ति । अत्र प्रतिचरणम् ( SS SS IIS/SS ) इत्येकादश स्वरवर्णाः ।
-
( प्रति०) प्रत्यङ्घ्रि=प्रतिचरणम् । बाणैः=पञ्चभिः । रसैभिः । लब्धविरामयोगां= प्राप्तविश्रामसम्बन्धाम् ।
( भाषा) प्रसिद्ध कवियों के प्रिय जिस छन्द के प्रत्येक चरण में तगण तगण जगण और दो गुरु हो, तथा पहले से लेकर पाँचवें एवं सातवें से लेकर छठे अक्षर पर विश्राम हो
For Private And Personal Use Only
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
(१.)
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
उसे इन्द्रवज्रा कहते हैं । इसके प्रत्येक चरण में ( 55/5515.55 ) ऐसे स्वरवर्ण चिह्न होते हैं ॥ १७ ॥
उपेन्द्रवज्रा.
इहैव पादाऽऽदिमलाघवेन, तथा विरामे जतजैर्गुरुभ्याम् |
उपेन्द्रवज्रां जिनपादपद्म, -
स्तवेच्छवे साधु वदन्ति सन्तः ॥ १८ ॥ ( अन्वयः) सन्तः इहें ततजैर्गुरुभ्यां पादाऽऽदिमलाघवेन तथाविरामे जिनपादपद्मम्तवेच्छये उपेन्द्रवज्रां साधु वदन्ति ।
(टीका) विद्वांसः इहैवेन्द्रवज्रायां प्रतिपादं जत-जगणानां गुरुद्वयस्य च समावेशेन चरणाऽऽद्याऽक्षराणि लघुकृत्य पूर्ववद्विश्रामे कृते सति जिनपदकमलयुगलस्तुतिमिच्छते जनाय (जिनचरणकमलस्तावकजनार्थम्) उपेन्द्रवज्रां सम्यग् वदन्ति ॥
( प्रति० ) इह = इन्द्रवज्रायाम् । पादादिमलाघवेन = चरगाप्रथमाक्षरलघुत्वेन । तथाविरामे = पूर्ववद्विश्रामे । साधु=सम्यक् । सन्तः = विद्वांसः ॥
( भाषा) इसी इन्द्रवज्रा के प्रत्येक चरण के प्रथम अक्षर को लघु करने से उपेन्द्रवज्रा छन्द बनता है, विश्राम इसमें भी पहले की भाँति ही समझना चाहिये, इस का एक एक चरण जगण तगण जगण और दो गुरुओं से बनता है त
For Private And Personal Use Only
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
एव इस के प्रत्येक चरण में (ISISssiss) इस प्रकार स्वरन्यास होता है ॥१८॥
उपजाति. यत्रेन्द्रवज्राऽऽद्य-तृतीययोः स्या, ___ दुपेन्द्रवज्रायुगतुर्ययोश्च। छन्दोविदः कोविदकामूर्या,
ब्रुवन्ति विज्ञा उपजातिमेनाम्॥१६॥ (अन्वयः) यत्र श्राद्यतृतीययोः इन्द्रवज्रा, युगतुर्ययोश्च उपेन्द्रवज्रा स्यात्. कोविद कञ्जसूर्याश्छन्दोविदो विज्ञा एनाम् उपजाति ब्रुवन्ति ।
(टीका) यस्यां प्रथम-तृतीययोः पादयोरिन्द्रवज्रायाः तथा द्वितीयचतुर्थयोंस्तयोरुपेन्द्रवज्राया लक्षणं स्यात, छन्द:शास्त्रवेत्तारः पण्डितकुलकमलभास्करा विद्वांसस्तामुपजाति कथयन्ति ॥
(प्रति०) विज्ञाः विद्वांसः । एनां ताम् । व्यारख्यातानीतराणि ।
(भाषा) जिस के पहले तथा तीसरे चरण में इन्द्रवज्रा के, और दूसरे तथा चौथे चरण में उपेन्द्रवज्रा के सभी लक्षण
१ यद्यपि युग्मं तु युगलं युगनिति कोषे युगशब्दस्य द्वित्वसंख्यावाचकत्वमस्ति, तथापि छन्दःशास्त्रेऽत्रास्यापि तुर्यादिशब्दवत्पूरणान्तार्थबोधकत्व सर्वजनीनम् ।
For Private And Personal Use Only
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हों उस को उपजाति कहते हैं। इस का स्वरविचार स्वयं समझलेना चाहिये ॥१६॥
आख्यानिकी. आख्यानिकी कैश्चिदुदाहृताऽसौ,
यदीन्द्रवजाचरणेन पूर्वः। उपेन्द्रवज्राचरणैस्त्रयोऽन्ये,
भवन्ति पादाः क्रमभेद्भद्राः ॥२०॥ (अन्वयः) कैश्चित् असौ भारव्यानिकी उदाहृता, यदि पूर्वः इन्दप लावणेन, अन्य प्रयः पादाः उपेन्द्रव नाचरणः कमभेदभद्राः भवन्ति ।।
(टीका) केश्चित कविमिरसावुपजातिस्तदा भास्यानिकी निर्दिष्टा, यदि प्रथमः पाद इन्द्रवजा वरणेन, मन्ये त्रयः पा। उपेन्द्रवजावरणः कृत्वा पूर्वोक्तप्रमाद् भेदेन भद्रा:सुनवा भवन्ति ॥
(प्रति०) उदाहता निर्दिष्टा । असौ- उपजातिः । इन्द्रवजाचरणेन- इन्द्रवावर पाहणेन । स्पष्टमन्यस्याख्यातं च ॥
(भाषा) यदि केवल प्रथम चरण में इन्द्रधना के, और शेष चरणों में उपेन्द्रवत्रा के लक्षण हों तो इसी उपजाति को कई एक कवि माल्यानिकी कहते हैं ॥२०॥
For Private And Personal Use Only
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
(१८)
रथोद्धता
यंत्र रान्नरलगाः क्रमादमी, विश्रमो भवति वाजितुर्ययोः ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
तामवेत कविता- लता - फलस्वादि- कोविद मतां रथोद्धताम् ॥ २१ ॥
(अन्वयः) यत्र रात् न-र-ल-गाः श्रमीकमात्, वाजितुर्ययोः विश्रमः भवति, कविता-लता फल स्वादि- कोविद-मूतां तां रथोद्धताम् श्रवेत |
(ater) स्यात्परं नगगरगबौ लघुर्गुरुथ, इत्यमी क्रमेण भवन्ति, सप्तमे सप्तमे चतुर्थे चतुर्थं चाक्षरे यतिर्भवति, कविता- लता - फलानां स्त्रादिनोऽर्थात् काव्यमार्मिका ये कोविदा:= परितास्तेषां समतां तां रथोद्धता मवगच्छत । अत्र प्रतिपाद(Sisiiisisis) इत्येकादश स्वरवर्णाः ॥
मवगच्छत ।
: (प्रति०) रात्= रगणात् । न-र-ल-गा:- नगणरगण-लघु-गुरवः । वाजितुर्पयोः सप्तमचतुर्थयोः । अवेत=
12
( भाषा) जिस के प्रत्येक चरण में रंगण नगण रगण के अनन्तर एक लघु तथा एक गुरु हो और सातवें तथा चरण के अन्तिम अक्षर पर विश्राम हो उसे रथोद्धता उन्द जानो । इस के प्रति चरण में - ( SISHISS: 5 ) इस प्रकार स्वर चिह्न होते हैं ॥ २१ ॥
For Private And Personal Use Only
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
स्वागता अक्षरं गुरु भवेदशमं तु, ___ व्यत्ययेन नवमं लघु यत्र । पूर्ववद्यतिमती प्रथितासा,
स्वागतेति कवयः कथयन्ति ॥ २२ ॥ (अन्वयः) यत्र तु व्यत्ययेन नवममक्षरं लघु दशमं गुरु भवेत्. पूर्ववत् यतिमती प्रथिता सो स्वागता इति कवयः कथयन्ति ।।
(टीका) यस्यां पुन: पूर्वस्मात वैपरीत्येन नवममक्षरं लघु दशमं गुरः भवेत, पूर्ववदेव सप्तमचतुर्थाक्षरेषु यतियुक्ता ख्याता सा स्वागता इति पण्डिताः कथयन्ति ॥
(प्रति०) तु= पुनः । व्यत्ययेनः- पूर्वोक्तवैलक्षण्येन । पूर्ववत् स्योद्धतावत । यतिमती= यतियुक्ता । प्रथिताख्याता ॥
(भाषा) जिन के प्रत्येक चरण में नववा अक्षर लधु और दशवा गुरु हो,तथा रथोद्वता के समान विश्नाम हो उसे स्वागता कहते हैं । इस के प्रत्येक चरगा में गुरु लघु-न्यास इस प्रकार हैं - (55555)॥२२॥
तोटक सकलाश्चरणाः सगणे रचिता,
विरतिश्च तथा रसोरुदिता।
For Private And Personal Use Only
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(२०)
रचनानिपुणैः कविभिः कलितं, किल तोटकवृत्तमिदं ललितम् ॥ २३ ॥
(अन्वयः) राकला : चरणाः सगौ: रचिताः, तथा विरतिश्व रसयोः उदिता, ललितमिदं रचना निपुणैः कविभिः किल तोटकवृत्तं कलितम् ॥
(टीका) चत्वारश्चरणाः सगणे रचिताः स्युः (चतुर्भिश्चतुभिः सगौरेकैकस्य पादस्य निर्मितेः) तथा विरामश्च प्रतिपादमादितः षष्ठे षष्ठे समाचष ं २ व प्रादुर्भवेत्, तदिदं निश्चित सर्वजनमनोहरं रचनाकुशलैः कविभिः तोटकतं कलितं निरूपितम् | पत्र ( Issss ) इत्येवं प्रतिपाद स्वरवर्णक्रमः ॥
(प्रति०) विरति:= विरामः । रक्षयोः षष्ठे षष्ठे | उदिता प्रादुर्भूना | रचनानिपुणै: प्रबन्ध | किल=
निश्चितम् | ललितम् = मनोहरम् ॥
( भाषा) जिस के प्रत्येक चरण में चार चार सगण हो तथा छठे छठे अक्षर पर विश्राम हो उसको कविलोग तोटक वृत्त कहते हैं । अत एव इस में - (IIS/S/S/5 ) इस प्रकार प्रत्येक चरण का स्वरवन्यास होता है || २३ ॥
प्रमिताक्षरा
गुरु पञ्चमं यदि भवेल्लघु चेद्,रससंख्यकं पुनरिहैव तदा ।
For Private And Personal Use Only
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Acharya Shi
(२१)
प्रमिताक्षरां सजससै रुचिरा,
- निगदन्ति काव्य-कमल भ्रमराः ॥२४॥ (अन्वयः) यदि चेत् पुन: इहैव पञ्चमं गुरु रससङ्ख्यक लघु भवेत, तदा काव्यकमलममराः सजससै: रुचिरां प्रमिताक्षरां निगदन्ति ॥
(टीका) यदि चेत् पुनरिहैव तोटके सर्वपादेषु पञ्चममक्षरं गुरु षष्ठं लघु भवेत् तदा सगण-जगण-सगण सगणैः शोभनां काव्यकमल-भमरायमासा: पण्डिताः प्रमिताक्षरां कथ. यन्ति । अत्र पादे पादे-- ( 555) इत्येवं द्वादश स्वरवर्णा बोध्याः॥
(प्रति०) रससङ्ख्यक षठम् । रुचिरां- शोभनाम् । निगदन्ति: कथयन्ति । स्फुटमन्यत् ।
(भाषा)जिस के एक एक चरण में सगण जगण सगण 'सगण होने के कारण पांचवा अझर गुरु तथा छठा लघु हो और शेष अक्षरों का न्यास तोटक के समान हो उसे प्रमिताक्षरा छन्द कहते हैं । इस के प्रति चरण का स्वरन्यासक्रम-(ISISIISIS ) इस प्रकार है ॥ २४ ॥
भुजङ्गप्रयात चतुर्भिर्यकाररुपन्यस्तपादे,
यतिः षष्टषष्ठाक्षरेष्वेति यस्मिन् ।
For Private And Personal Use Only
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Acharya Shri
(२२) भुजङ्गाय गत्या पदन्यासहेतो,
भुजङ्गप्रयातं सुधीभिस्तदुक्तम् ॥२५॥ (अन्वयः) चतुर्भिर्यकार: उपन्यस्तपादे यस्मिन् षष्ठषष्ठाक्षरेषु यतिः एति तत् भुजङ्गस्य गत्य पदन्यासहेतोः सुधीभिः भुजङ्गप्रयातम् उक्तम् ।।
(टीका) चतुर्भिश्चतुभियगणरुपन्यस्ताः-- निर्मिताः पादा यस्य तथाभूते यस्मिन् प्रतिपाद पटपटाक्षरेषु षष्ठे वक्षरेषु यतिः-विश्रान्तिः एति--आगच्छति तद गुजङ्गस्य सर्पस्य गत्या - चालेन पदानां शब्दाना न्यासाद्धताविति भुजङ्गप्रयात मुक्तम् पत्र प्रतिपादं - (155755ISSESS ) इत्येवं स्वरवर्णाक्रमः ||
(प्रति०) यकार:-याणैः । स्पष्ट मतरत् ॥
(भाषा) जिस के प्रत्येक नागा में चार चार यगण हों और छठे छठे अक्षर पर विश्राम ही उसकी भुजङ्गप्रयात छन्द कहते हैं। इसके एक एक चरण के स्वचिह्न ---- (ISS/SSISsss) इस प्रकार हैं ॥ २५ ॥
जलोद्धतगति यदि त्रिकचतुष्टयं ज-स-ज-सैः,
क्रमेण चरणाः श्रयन्ति सकलाः। मता कविजनालिनामथ रसै-, ... रसैः कृतयतिजलोद्धलगतिः ॥ २६॥
For Private And Personal Use Only
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Acharya Shri
(अन्वयः) यदि सकला: चरणा: क्रमेणा ज-स-ज-सैः त्रिकचतुष्टयं श्रयन्ति अथ से सैः कृतयतिः कविजनालिनां मता जलोहतगतिः ।।
(टीका) यदि सर्वे चरणा: क्रमेण --- क्रमशः एकैकश इति यावत् (प्रतिपादगित्यर्थात ) जगण-सगण जगण-समणैर्हेतुभिस्त्रयाणां (स्वर।गां) सङ्घास्त्रिकाणि तेषां चतुष्टयं गणचतुष्टयगित्यर्थः श्रयन्ति प्राप्नुवन्ति तदा रसः रसैः षडभि. षड्भिः कृता= विहिता यति:- विश्रामो यस्यां सा तथाभूता कविजना अलन्तिः- भूषयन्ति ये तन्डीला: विजनालिनस्तेषां सत्कवीनामिति यावत मता- सत्कविभिमन्येित्यर्थ: जलोद्धतगतिः एतन्नामक उन्दो भवतीति शेषः । अत्र प्रतिचरणम् (Is||sis|| 5) इति स्वरन्यासो बोध्य: ॥
(प्रति०) अथ= डा । व्याख्याता अन्ये ॥...
(भाषा) जिस के प्रत्येक चरण में जगण समण जगणा मगण हों और छटे छट अक्षर पर विश्राम हो उसे जलोद्धतगति नागक छन्द कहते हैं, अत एव इस के एक एक चरण में(ISIS:s!|Is) इस प्रकार स्वरवर्ण समझना चाहिये ॥२६॥
द्रुतविलम्बित गुरु चतुर्थमुवति सप्तम,
दशम-मन्तिमकं च यदाऽक्षरम् । (१) स्वार्थिकः कः।
Maunam
For Private And Personal Use Only
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
(२४)
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
न-भ-भ-रै: प्रतिपादमुदाहृतं, द्रुतविलम्बितवृत्तमदस्तदा ॥ २७ ॥
(अन्वयः ) यदा चतुर्थ सप्तमं दशमम् अन्तिमकं च अक्षरं गुरु उदञ्चति, तदा प्रतिपादं न-म-भ-रै: लदाहृतम् पदः द्रुतविलम्बितवृत्तम् ॥
1
(टीका) स्पष्टोऽर्थः । अत्र प्रतिपादम् - ( ||||||S(S) इत्ययं स्वरवर्णक्रमो द्रष्टव्यः ॥
(प्रति०) उदञ्चति= समापतति (सम्भवति ) । अन्तिमकम् = अन्तिमम् । न-म-म-ः नगय- भगय- भग-रगणैः । उदाहृतम् = निर्दिष्टम् | अ:- एतत् ॥
2
(१) एवमिहापि ।
( भाषा) नगय भगण भगा और रंग से प्रत्येक चरण बनने के कारण जिस के एक एक चरण में चौथा सातवाँ दशवाँ तथा बारहवाँ अक्षर गुरुही उस को द्रुतविलम्बित छन्द कहते हैं, अत एव इस के प्रत्येक चरण में - ( |||5||5||sis) ऐसे स्वरचिह्न माने गये हैं ॥ २७ ॥
हरिणीलुता
प्रथमं प्रथमे च तृतीयेके,
न यदि चेम्वरणेऽक्षरमाहितम् । वो ब्रुवते हरिणीप्लुतां, द्रुतविलम्बितमेव तदाहताम् ॥ २८॥
For Private And Personal Use Only
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(अन्वयः) यदि चेत् प्रथमे तृतीयके च चरणे प्रथमम् अक्षरं न आहितम् , तदा कवयः द्रुतविलम्बितमेव आता हरिणीप्लुतां ब्रुवते ।
(टीका) यदि चेद् द्रुतविलम्बितस्य प्रथमे तथा तृतीये चरणे प्रथमाक्षरं न पाहितम् = नोपात्तं (न पठित) स्यादर्थात् प्रथम-तृतीयपाइयोराद्यमक्षरमनुक्त्वा यदि द्रुतविलम्बितं पठ्यते तदैतद्रुतविलम्बितमेव कवयः प्रशस्ता हरिणीप्लुतां वदन्ति ॥
(प्रति०) तृतीयके= तृतीये । ब्रुवते वदन्ति । पाहतां प्रशस्ताम् । व्याहृतान्प्रन्यानि ॥
(भाषा) यदि दुतविलम्बित छन्द के पहले तथा तीसरे चरण से पहला अक्षर हटा दिया जाय तो उसको हरिणीप्स्तुता छन्द कहते हैं ॥ २८॥
वंशस्थ चतुषु पादेषु जतौ ज-ौ यदा,
यतिश्च धाणेषु तुरङ्गमेष्वपि । कवीन्द्रचूडामणिचुम्बिताधिभि.
स्तदा तु वंशस्थमुदीर्यते बुधैः ॥२९॥ (अन्वयः) यदा चतुर्पु पादेषु ज-तौ ज-रौ, बाणेषु तुरङ्गमष्वपि यतिश्च. तदा नु कनीन्द्रचूडामणिचुम्बितातिभिः बुधैः वंशस्थम् उदीर्यते ।
For Private And Personal Use Only
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(टीका) गदा चतुर्पु पादेषु जगण-तगण-जगण-रंगणा भवन्त्यर्थादेतैश्चतुभिर्गणैः प्रत्येकपादपूर्तिर्भवति, तथा मादितः पञ्चमे पश्चमे तदपरितश्च सप्तमे सप्तमेऽक्षरे चेद्यतिस्तदा कवीन्द्रजन-मान्यविद्वद्भिः वंशस्थ-नामक वृत्तमुच्यते। भत्र प्रतिपादम्( ISISsIISISIS ) इति स्वान्यासः ।
(प्रति०) घाणेषु= पञ्चसु । तुरङ्गमेषु= सप्तसु । उदीर्यते= रच्यते । स्पष्टं शिष्टम् ॥
(भाषा) जिसके प्रत्येक चरण में जगण तगण जगण और रगण हों तथा पांचवें और सातवे अक्षर पर विश्राम हो उसको कविलोग वंशस्थ नामक छन्द कहते हैं। इस के एक एक चरण में- (Isss||5.51s) ऐसे स्वाचिह्न होते हैं ।। २६ ॥
इन्द्रवंशा वंशस्थपादेवखिलेषु ते यया,
वर्णा भवन्ति प्रथमे द्विमात्रिकाः। मत्काव्यरत्नाकरमन्धनोद्धरा
स्तामिन्द्रवंशांब्रुवते कवीश्वराः॥३०॥ (अन्वयः) यथा अखिलेषु वंशयमादेषु ते प्रथमे वण द्विभात्रिकाः मन्ति, सत्काव्यरत्नावरम बनोक्षुराः कवीश्वराः ताम् इन्द्रवंशां त्रुबते ।।
(टीका) अर्थः प्रस्फुट एव ॥ (१) — दण्डेन घट ' इति वतृतीया ।
For Private And Personal Use Only
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(२७)
(प्रति०) ते वंशस्थोक्ताः प्रथमे आदिमाः। सत्काव्यरत्नाकरमन्धनोद्धरा:= सत्काव्यच्यसमुद्रमथनयत्ववन्तः । ब्रुवते कथयन्ति ॥
(भाषा) यदि वंशस्थ छन्द के प्रत्येक चरण का पहला अक्षर गुरु हो तो इन्द्रवंशा छन्द कहलाता है ।॥ ३०॥
प्रभावती तुर्ये तथा प्रतिचरणेऽन्तिमेऽक्षरे,
यस्यां भवेद्विरतिरतीय सुन्दरी। मान्या स्मृता त-भ-स-ज-गैः प्रभावती,
- सेयं महाकविकुलचक्रवर्तिभिः॥३१॥ (अन्वयः) यस्यां प्रति चरणे तुर्थे तथा अन्तिमेऽक्षरे अतीव सुन्दरी विरतिः भवेत, त-म-स-ज-गैः सेयं पगावती महाकवि-कुल-चमतिभिः मान्या स्मृता ।।
(टीका) यस्यो अनि नामाविषय चतुर्थ एवमन्तिमेऽक्षरे श्रवणसुखाऽऽ वहां पतिर्भवेत, तगा-भगण -सगण-जगणैर्गुरुणा चोपलक्षिता (युक्ता)सेयं प्रभावती महाकविजनमान्यैः पण्डितवर्यान्या-माननीया स्मृता-निश्चितेत्यर्थः । अत्र प्रतिचायाम--- (Sss||SIsis) इत्येष स्वरवर्णन्यासः ॥
(प्रति०) तुर्य= चतुर्थे ! प्रतिचयो प्रतिपादम् । (१). इत्यम्भूतलक्षणे ' इत्यनेन दृतीयाऽत्र , एघमीदशस्थलेष्वम्यवापि।
For Private And Personal Use Only
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(२८)
अतीव अत्यन्तम् । सुन्दरी सुश्रवा । अपशिष्टम
विशिष्टम् ।।
(भाषा) जिस के प्रति चरमण में तगण भगण सगण जगण और एक गुरु हों, तथा चौथे एवम् अन्तिम अक्षर पर विश्राम हो उस को प्रभावती छन्द कहते हैं। इस के प्रत्येक चरण के स्वरचिह्न (ssismssis) ऐसे हैं ॥ ३१ ॥
महर्षिणी यत्राऽऽयं त्रिकमभितोऽष्टमं नवान्त्य,
पादान्त्यं निकमपि निश्चितं गुरुत्यात। विश्रामखिभिरय दिग्भिरर्थनीयो,
व्याख्याताम-न-ज-रगैःप्रहर्षिणी सा।। (अन्धयः) यत्र अभितः आद्य विकम् अष्टमं भवान्य पादान्त्यं द्विकमपि गुरु निश्चित म्यात, श्रथ त्रिभिः दिग्भिः विश्रामःअर्थनीयः, म-न-ज-र-गः सा प्रहषिणः व्याख्याता ।।
(टीका) यस्यां सर्वपादेषु प्रायत्रयम् अष्टमं दशमं चरणान्त्य-द्वयं चाक्षरं गुरु नियतं स्यात, तथा प्रादितस्त्रिभिश्चतुथादशभिश्च विरामो -ऽभिलषणीय: , मगगनगण-जगण-रगमा गुरुभिरुपलक्षिता सामहर्षिगी प्रोता । अत्र प्रतिचा गां क्रमेण (sssisIS/SS) इति स्वरवान्यासः ॥ . (प्रति०) आद्यम् पूर्वम् । त्रिकत्रितयम् । अभि. त= सर्वपादेषु । नवान्त्यं = दशमम् । द्विकं व्यम्
For Private And Personal Use Only
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
निश्चित नियतम् । दिग्भिः = दशभिः । अर्थनीय:अभिलषणीयः । अन्य व्याख्यातम् ॥
(भाषा) जिसके प्रत्येक चरण में आदि के तीन और पाठवा तथा दसवा एवम् चरण के अन्तिम दो अक्षर गुरु हों, तथा तीसो और अन्तिम अक्षर पर विश्राम हो, मगण-नगण-जगण गण और एक गुरु से युक्त वह छन्द महर्षिणी नामक है। इस के प्रत्येक चरण में ( 555||sis!ऽऽ ) इतने स्वरवर्ण चिह्न होते हैं ॥ ३२ ॥
वसन्ततिलका आधे द्विकं गुरु तथा परतश्चतुर्थ, .
यत्राष्टमंचदशमान्तिममन्त्ययुग्मम् । पादा भवन्ति त-भ-जै ज-ग-गैः कवीनां,
रम्या वसन्ततिलका तिलकायतेसा।३३। (अन्वयः) यत्र याद्यं द्विकं तथा परत: चतुर्थम् अष्टमं दशमान्तिमम अन्त्ययुग्मं च गुरु. त-भ-जैः ज-ग-गैः पादा भवन्ति सा रम्या वसन्ततिलका कवीनां तिलकायते ॥ .
(टीका) यस्यां प्रतिपादमाद्यद्यं तथा तदुत्तरं चतुर्थमष्टममेकादशमन्त्यद्वयं चाक्षरं गुरु भवति, अतएव तगण-भगण-जगणजगण-गुरुद्वयः पादा भवन्ति सा रमणीया वसन्ततिलका कवीनां तिलकमिव प्रतिभाति । अत्र प्रतिवरणम्-(SSISISil. Si55) इति स्वरवर्णन्यास:॥
For Private And Personal Use Only
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(प्रति०) परतः= अनन्तरम् । दशमान्तिमम्= एकादशम् । अन्त्ययुग्मम्= त्रयोदशचतुर्दशे । स्फुटमन्यत् ॥
(भाषा) तगण भगण जगण जगण और दो गुरुओं से युक्त होने के कारण जिस के प्रत्येक चरण में आठवें और छठे. अक्षर पर विश्राम हो तथा मादि के दो और चौथा आठवा ग्यारहवा एवम् अन्तिम दो अक्षर गुरु हों वह वसन्ततिलका छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में स्वान्यास (SSISHISISIS इस प्रकार जानना चाहिये ॥ ३३ ॥ .
मालिनी प्रतिवरणमुदीर्यं षट्कमाद्य लघु स्या,
दपिच दशममेवं द्वादशान्यं च यस्याः। वसुभिस्थ तुम लब्धविश्रामयोगा,
न-न-म-यय-युनासा मालिनी सुप्रसिद्धा॥ (मन्वया)यस्याः प्रतिवरणम् श्राई षट्कम् अपि च दशमम् एवं द्वादशान्त्यं च लघु उदीय स्यान, वसभिः अथ तुर. लब्धविश्रामयोगान-न-म-य-य-गुता सामालिनी सुप्रसिद्धा ॥
(टीका) यस्याः प्रतिचरणमादितः षटकं किञ्च दशममेवं द्वादशान्त्यमर्थात् त्रयोदशं चाक्षर लघु उदार्थ स्यात्, आदितोऽष्टाभिस्तदने सप्तभिश्वाक्षरविश्रान्तिमती नगण-नगण-मगण-वाण यगणैर्युक्ता सा मालिनी ख्याता । अत्र प्रतिचरणम् (155. SSSISS) इत्येवमवगन्तव्यो न्यासः ।।
For Private And Personal Use Only
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(३१)
(प्रति०) उदीयम्= उच्चारणीयम् । षट्कम् = षट् । अपिच=किञ्च । वसुभिः= अष्टाभिः । तुरङ्गैः= सप्तभिः । स्पष्टमवशिष्टम् ॥ . (भाषा) जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण एक मगण
और दो यगण हों अत एव आदि के छः एवं दसवा और तेरहवा अक्षर लघु हों उसे मालिनी छन्द कहते हैं । इस के पाठवें और सातवें अक्षर पर विश्राम होता है । स्वर वर्णों के चिह्न यहां पर (MISSsISSISs) इस प्रकार हैं ॥ ३४ ॥
हरिणी दधति लघुना पूर्वे पश्च त्रयोदश-तत्परावपिच दशमान्त्योपान्त्यौ द्वौन्समाद्रसलाद्गुरौ। भवति विरतिःषड्भिस्तुयैहयैश्च यहा तदा,कविकुल-शिरोरत्नैः प्रत्नबुधैर्हरिणी स्मृता ।।
(अन्वयः) यदा न्-स-मात् र-स-लात् गुरौ पूर्वे पञ्च त्रयोदश-तत्परौ अपि च द्वौ दशमान्त्योपान्त्यौ लघुता दधति, विरतिश्च षड्भिस्तुहथैर्भवति, तदा कविकुलशिरोरलैः प्रलैः बुधैः हरिणी स्मृता ।।
(टोका) यदा नगण सगणाभ्यां परतो मगण-रगण-सगण लववस्ततः परे गुरौ सति प्रतिवरणमाद्याः पञ्च वर्णास्त्रयोदशश्वतुर्दशस्तथैकादशः षोड़शश्च लघुतां दधति- लघवो भवन्ति, आद्यात्षड्भिस्ततश्चतुर्भिस्ततः सप्तभिश्च , वर्णविरामो .. भवति,
For Private And Personal Use Only
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
तदा कवि-कुल-शिरोरत्नैः= महामान्यैः प्राचीनविद्वद्भिहरिणी प्रोक्ता । अत्र प्रतिचरणम् (||||sssss/SISIS) इत्यस्ति कमो न्यासस्य ॥ (प्रति०) पूर्व प्राद्याः । त्रयोदश-तत्परौ त्रयोदशचतुर्दशौ ।दशमान्त्योपान्त्यो एकादश-धोडशौ । लोकःसप्तभिः । तुः= चतुर्थैः । रसैः षड्भिः । प्रत्नैः- प्राचीनैः । स्मृता सम्मता (प्रोक्ता) समानमन्यत् ॥
(भाषा) जिस के प्रत्येक चरण के आदि के पांच, और ग्यारहवा तेरहवा चौदहवा तथा सोलहवा अक्षर लघु हो अत एव नमण सगण मगा रमण सगमा एक लघु और एक गुरु से चरमा की पूर्ति होती हो, तथा छठे दसवें और अन्तिम अक्षर पर विश्राम होता-हो उस को कविलोग हरिणी छन्द कहते हैं। इस के प्रत्येक चरण के स्वर चिह्न- ( Sssssss) इस प्रकार हैं ॥ ३५ ॥
হিজাব लघुः पूर्वो यस्यामनुपतति षष्ठाच परत,स्तथा, पञ्चोपान्त्यास्त्रय इति च वर्णाः प्रतिपदम् ।
यतिः षड्भी रुद्रैः कविजन समाराधितधियां, . महामान्या गान्तैथ-म-न-स-भ-लैःसा शिखरिणी॥
(अन्वयः) यस्यां प्रतिपदम् पूर्वः लघुः अनुपतति, षष्ठात्परतः पञ्च उपान्त्यालय इति वर्णाश्च तथा, षड्भिः रुद्रेः यति,
For Private And Personal Use Only
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
गन्तैिः य-म-न-स-भ-लैः कवि-जन-समाराधितधियां महामा- . न्या सा शिखरिणी ।।
(टीका) यस्यां प्रतिवरणं प्रथमो वर्णो लघुरायाति, एवं षष्टात्परतोऽर्थात् सप्तमादारभ्य पञ्च, उपान्त्याः - चतुर्दश-पञ्चदशषोड़शान्त्रप इत्येते वर्णाश्च लघव आयान्ति विरामश्च प्रथमं षड्भिस्तत एकादशभिर्भवति यगण-मगण-नगण-सगण-भगणैर्लघुगुरुभ्यां चोपलक्षिता कविवरैः समाराधिता- धन्यवादपात्रीकृता धी:- बुद्धिर्यषां तेषां महाकवीनामिति यावत् महामान्याअतिमाननीया सा शिखरिणीत्यर्थः । अत्र (15ऽऽऽSIIISSIS) इति प्रतिपादं स्वरवर्णविन्यासो द्रष्टव्यः ॥
(प्रति०) अनुपतति आयाति । उपान्त्याः अन्त्यपूर्वस्थाः । प्रतिपदम् प्रति चरणम् । रुदै: एकादशमिः । गान्तः- गुर्वक्षरान्तैः ॥ । (भाषा) जिस के प्रत्येक चरण में यगण मगण नगण सगण भगण और लघु रहने के कारण पहला, तथा छठे से लेकर पाँच, एवं चौदहवा, पन्द्रहवा, और सोलहवा अक्षर लघु हो वह शिखरिणी छन्द कहलाता है । इसमें छठे और मन्तिम अक्षर पर विश्राम होता है । इस के प्रत्येक चरण के स्वरवर्णन्यास का क्रम(Iऽऽऽऽऽऽऽ|||s) इस भांति है।३६।
पृथ्वी द्वितीयमथ षष्ठकं गुरु तथाऽष्टमं द्वादश,
सपञ्चदशमन्तिमं यदि चतुर्दशं राजते ।
For Private And Personal Use Only
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(३४)
नगग्रहमिताक्षरः श्रितयतिः कवीन्द्राऽऽहता,
ज-सा ज्व-स-य लाडेरौ क्षितितलेऽत्र पृथ्वी तदा।। (अन्वयः) यदि द्वितीयम् अथ षष्ठकं तथा अष्टम द्वादशं चतुर्दशं पञ्चदशम् अन्तिमं गुरु राजते तदा जसाजसयलाद्गुरौ नगग्रह मिताक्षरैः श्रितयतिः कवीन्द्राऽऽहता अत्र क्षितितले पृथ्वी ॥
(टीका) यदि प्रतिचरणं द्वितीयं षष्टमष्टमं द्वादशं चतुर्दशं पञ्चदशं चरणान्त्यं चाक्षरं गुरु समुलसति, तदा जगण मगणाभ्यां परतो ये जगण-सगण यगण लघवस्तस्मात्परत्र गुरौ जाते सति अष्टभिनवभिश्चाक्षरैः प्राप्त विरामा कविवरैराहता अत्र भूतले पृथ्वी भवतीतिशेषः । अत्र प्रतिपादम् (ISISIS||sissis)इति स्वरवर्णविन्यासः ।।
(प्रति०) षष्ठक= षष्ठम् | सपञ्चदशम् पञ्चदशसहितम् । अन्तिमम्= पादान्त्यम्।
(भाषा) यदि प्रत्येक चरण का दूसरा छठा पाठवा बारहवा चौदहवा पन्द्रहवा एवं सत्रहवाँ अक्षर गुरु हो और माठवें तथा अन्तिम अक्षर पर विश्राम हो तो उस को पृथ्वी छन्द कहते हैं। इस के प्रत्येक चरण में जगण सगण जगण सगण यगण एक लघु और एक गुरु रहते हैं अत एव स्वरचिह्न(ISISISISIssis) इस प्रकार समझना चाहिये ॥ ३७ ॥
For Private And Personal Use Only
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मन्दाक्रान्ता प्राकचत्वारस्तदनु गुरुतां चेद्दशैकादशौ द्वौ,
प्राप्तौ वर्णी प्रतिपदमय छादशान्त्यौ तथाऽन्त्यौ । तुर्यः षभिस्तदिह तुरगैर्लब्धविश्रामधाम्नी, मन्दाऽऽक्रान्तांम-म-न-त त गाद्गुन गायन्ति धीराः॥
(अन्वयाः) चेत् प्रतिपदं पाक चत्वारस्तदनु दशैकादशौ द्वौ अथ द्वादशान्त्यौ तथा अन्त्यौ वर्णै। गुरुताम्प्राप्तौ, तत् तुर्यैः षडभिः तुरगैः लन्धविश्रामधाम्नीम् इह धीराः म-भन-त-त-गाद्न मन्दाऽऽक्रान्तां गायन्ति ।
(टीका) यदि चेत् प्रतिपादं पूर्व चत्वारों वर्णास्तत्पश्चादशैकादशौ दो वर्गों, अनन्तरं द्वादशान्त्यो= त्रयोदश-चतुर्दशी, एवमन्त्यौ= षोड़श-सप्तदशौ गुरवः स्युः, तदा क्रमेण चतुर्भि: षभिः सप्तभिश्च प्राप्तविराम छन्दःशास्त्रे पण्डिताः मगणभगण-नगण-तगण-तगणेभ्यः परत्र गुरुभ्यामुपलक्षितां मन्दाऽऽ क्रान्तां कथयन्ति । अत्र प्रतिचाणम् (ऽऽऽsillssssiss) इति स्वरवर्णचिह्नानि ॥
(प्रति०) तदनु= तत्पश्चात् । प्रतिपदम् प्रतिपादम्। तुरगैः सप्तभिः । तत् तदा ! इह-छन्दःशास्त्रे लब्ध विश्रामधाम्नी प्राप्तविरामस्थानाम् । गायन्ति= भाषन्ते। धीराः पण्डिताः ॥ (१) द्वादशस्यान्त्याविति विग्रहः । ।
For Private And Personal Use Only
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(३६)
( भाषा) जिसके प्रत्येक चरण में पहले के चार और दसवाँ ग्यारहवाँ तेरहवाँ चौदहवाँ एवम् अन्त के दो अक्षर गुरु हों और पहले चार तब छः तथा अन्त में सात अक्षरों से विश्राम हो उस को मन्दाक्रान्ता छन्द कहते हैं । इस का प्रत्येक चरण मग भगण नगण तगण तगण और एक गुरु से बनता है अत एव स्वर चिह्न - (sssssss) इस प्रकार जानना चाहिये ॥ ३८ ॥
हंसी
मन्दाऽऽक्रान्ता ऽऽद्ययतियुगला, पादे पादे विलसति यदा । छन्दोविद्भिः कविभिरुदिता,
सेयं हंसी म-भ-न-गयुता ॥ ३९ ॥
(अन्वयः) यदा पादे पादे आद्ययतियुगला मन्दाऽऽकान्ता विलसति, म-अ-न- गता सा इयं छन्दोविद्भिः कविभिः हंसी उदिता ॥
(टीका) मन्दाऽऽकान्तायां प्रतिचरणं यतित्रयं तत्र यदा पादे पादे मद्यं यतिद्र्यं यस्यां तथाभूताऽर्थान्प्रतिपादमन्त्यभागतः सप्तभि: सहभिरक्षर रहिता मन्दाऽऽकारता विलसति विराजते ( अत्र तदेत्यस्य शेषः ) मगरण - भगण-नगण-गुरुभिरुपलक्षिता (उपनिबद्धा) छन्दः शास्त्रज्ञेः कविभि हँसी प्रोक्ता । अत्र प्रतिचरणम् ( SSSS | 5 ) इति स्वरवर्णन्यासः ॥
For Private And Personal Use Only
3
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(३७)
- (प्रति०) उदिता उक्ता । स्पष्टं व्याख्यातञ्चान्यत् ।।
(भाषा) यदि मन्दाक्रान्ता के प्रत्येक चरण से अन्तिम सात अक्षर निकाल दिये जाये तो उसे हंसी छन्द कहते हैं | इस के प्रतिचरण में मगण भगण नगण तथा एक गुरु रहते हैं अत एव स्वर चिह्न (5335!!|||5 ) ऐसे होते हैं ॥ ३६॥
___ शार्दूलविक्रीडितम् - यत्राऽऽद्या गुरवस्त्रयो विनिहिताः षष्ठस्तथैवाष्टमः, किञ्चैकादशतः परे त्रय इतोऽप्यष्टादशाद्यौ परः ।
आदित्यैस्तुरंगैगृहीतविरति श्रेयस्करं श्राविणां, तब्यक्तम-स-जस्-त-तैःसगुरुभिःशार्दूलविक्रीडितम्
(अन्वयः) यत्र श्राद्यास्त्रयः तथैव षष्ठः अष्टमः किच्च एकादशतः परे त्रया इतोऽधि-अष्टादशाऽऽधौ परः गुरवः विनि-- हिताः, आदित्यैः तुरगैः गृहीतविरति श्राविणां श्रेयस्करं सगुरुभिः म-स-न-स्-त-तैः व्यक्तं तत् शार्दूलविक्रीडितम् ।
(टीका) यस्मिन् प्रतिचरणमाद्यास्त्रयो वः तथैव षष्ठः अष्टम : एवमेकादशत: परे त्रयः इतोऽपि परेऽष्टादशस्याऽऽद्योषोड़शसप्तमौ तथा पर:- पादान्ल्य: गुरतो विनिहिताः स्युरिति शेषः प्रादित द्वादशभिस्त्रयोदशासप्तविश्व प्रप्तविमं श्रोतणां श्रावयितणां च कल्याणकारक माम-सगण-जगण-सगण-तगण
-
-
-
-
-
-
(1) अष्टादशस्याऽऽयानितिविग्रहः । (२) शवन्ति श्रावयन्ति वा तच्छीलं येषामिति ताच्छील्ये गिनिरत्र ।
For Private And Personal Use Only
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
(३८)
तगणैर्गुरुणा च व्यक्तम् = उत्पन्नं तत् शार्दूलविक्रीडितम् ।
- अत्र प्रतिचरणम् ( Sss || 5 |||||S5 (5) इति स्वरवर्णकमो ज्ञेयः ॥
www.kobatirth.org
( प्रति०) विनिहिताः = दत्ताः | पर:= अन्त्यः | आदित्यै: = द्वादशभिः । तुरगैः = सप्तभिः | श्रेयस्करं =
कल्याणकारकम् । व्यक्तम् = उत्पन्नम् ॥
प्रकार
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( भाषा) जिस के प्रत्येक चरण में आदि के तीन छठा आठवाँ बारहवाँ तेरहवाँ चौदहवाँ सोलहवाँ सत्रहवाँ और उन्नीसवाँ अक्षर गुरु हों, तथा बारहवें और अन्तिम अक्षर पर विश्राम हो उसे शार्दूलविक्रीडित छन्द कहते हैं । इस के प्रति चरण में मगण सगण जगण सगण तगण और एक गुरु रहने के कारण स्वर चिह्न - ( SSS IS / Silts 515 ) इस
हैं
॥ ४० ॥
स्त्रग्धरा
वर्णाश्चत्वार आद्या विजहति लघुतां षष्ठकः सप्तमश्च, प्रत्यङ्घ्रि द्वौ तथाऽन्यौ श्रुतिपथललितौ षोडेशाद्यौ तदन्त्यौ । विश्रान्तिर्यत्र दत्ता रसिकजनमुदे सप्तभिः सप्तभिश्च, यो पत्रिकेण स्फुटमिह विदिता स्रग्धराऽसौ घ
रायाम् ॥ ४१ ॥
(१) षोड़शस्याऽऽयाविति विग्रह: । ( २ ) तस्य षोड़शस्यान्त्यौ ।
For Private And Personal Use Only
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Acharya Shr
(अन्वयः) यत्र प्रत्यति आद्याश्चत्वारः षष्ठकः सप्तमश्च तथा श्रुतिपथललितौ द्वावन्त्यौ षोडशाऽऽद्यौ तदन्त्यौ वर्णाः लघुतां विजहति, रसिकजनमुद सप्तभिः सप्तभिः विश्रान्तिच दत्ता, म्रनेभ्यो पत्रिकेण इह धरायां स्फुटं विदिता असौ स्रग्धरा ।
(टीका) यस्यां प्रतिचरणमादितश्चत्वार: षष्ठः . सप्तमः तथा सुश्रवौ द्वावन्त्यो षोड़शाऽऽद्यौ चतुर्दश-पञ्चदशौ तदन्त्यौ= सप्तदशाष्टादशौ इत्येते वर्णा लघुतां त्यजन्ति अर्थाद्वो भवन्ति, तथा रसिकजनानामानन्दाय सप्तभिःसप्तभिर्वणविश्रान्तिश्च दत्ता, मगण-गण-भगणा-नगणेभ्यः परस्तात् त्रिभियगणैरस्यां पृथिव्यां स्फुट विदिताऽसौ स्रग्धरा अत्र प्रतिचरणम्-55ss/5silluss/ssss) इत्येवं स्वरवर्णन्यासः ।
(प्रति०) विजहति= त्यजन्ति । प्रत्यानिप्रतिचरणम् । तदन्त्यौ= षोडशान्त्यौ । रसिकजनमुदे रसिकजनानन्दाय । विदिता विज्ञाता । स्पष्टं शिष्टम् ॥
(भाषा) जिस के प्रति चरण में आदि के चार, छठा सातवाँ चौदहवाँ पन्द्री सत्रहवाँ अठारहवा और अन्त के दो अक्षर गुरु हों, तथा सातवे २ अक्षर पर विश्राम हो उस को स्रग्धरा छन्द कहते हैं । मगण रगण भगण नगण और तीन यगण से युक्त रहने के कारण इस के प्रत्येक चरण के स्वर 'चिह्न-(ऽऽऽऽ।ऽऽऽऽऽऽ) इस प्रकार हैं ॥ ४१॥
For Private And Personal Use Only
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(४०)
पणबन्ध चत्वारो यदि लघवो वणाः,
. प्रत्यध्रि स्युरिह हि मध्यस्थाः। पाणैरातविरति तकृत,
निर्णीतं खलु पणबन्धाऽऽख्यम्॥४२॥ (अन्धयः) इह हि यदि प्रत्यति मध्यस्थाः चत्वारः वर्णाः लघवः स्युः, आणैः श्रामविरति तत् वृत्तं खलु पूणबन्धाऽऽख्यं निर्णीतम् ।।
(टीका) इह-छन्दःशास्त्रे हि यदि प्रतिचरणं दशसु दशस्वक्षरेषु मध्यस्थाश्चत्वार चत्वारो वर्णा लवयो भवेयुः तत= तदा बाग:- पञ्चभिः- पञ्चभिः- प्राप्ता वितिः= विरामो येन तथाभूतं वृत्तं खलु= नियमेन पणबन्धाऽऽख्यं निर्णीतम् ॥
पत्र प्रतिपादम्-(555555) इति स्वराः ॥ _(प्रति०) पणषन्धाऽऽख्य= ' पणबन्ध ' नामकम् । व्याख्यातानीतराणि ॥
(भाषा) यदि प्रत्येक चरण के मध्य के चार चार अक्षर लघु हों और पांचवें पांचवें अक्षर पर विश्राम हो तो उसे पणबन्ध छन्द कहते हैं । इस के प्रति चरण के स्वर चिह्न(SS5Isss) इस प्रकार हैं !॥ ४२ ॥
मत्ता चत्वारश्चेन्नियमितरूपाः,
प्राग त्याभ्यां यदि लघवः स्युः।
For Private And Personal Use Only
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
दीधैरन्यविरचित्तवेषा,
मत्ता सैषा म-भ-स-ग-युक्ता ॥ ४३ ॥ (अन्वयः) यदि चेत् अन्त्याभ्यां प्राक् चत्वारः नियमितरूपाः लघवः स्युः, अन्यैः दीर्घः विरचितवषाम-भ-स-गयुक्ता साएषा 'मत्ता' ॥
(टीका) स्फुटोऽर्थः । अत्र प्रतिवरणम्-(Ssssss) इति स्वरन्यासः॥
(पति०) नियमितरूपा:= निर्धारितस्वरूपाः । म. त्याभ्याम् पादान्त्यवर्णाभ्याम् । भन्यैः अवशिष्टैः । विरचितषा- निबद्धस्वरूपा । म-भ-स-गयुक्तामगण-भगण-सगण-गुरुवर्णविन्यस्ता ॥ - (भाषा) जिस के प्रत्येक चरण के मन्तिम दो अक्षरों से पहले के चार २ अक्षर लघु और प की सभी प्रक्षर गुरु हों उस को मत्ता छन्द कहते हैं । इस का प्रत्येक चरण मगण भगण साण और एक गुरु से युक्त रहता है अत एव स्वरचिह्न(Ssssss) इस प्रकार जानना चाहिये ॥ ४३ ॥
_. मणिगुणनिकर प्रतिचरणचरमविनिहितगुरुको-,
वसुःतुरग-विरतिमनुसरप्ति तथा । (१) विरचितो= निर्मितो वेषः- स्वरूपं यस्याः सा ।
For Private And Personal Use Only
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(४२)
न-न-न-न-पर लघु लघु-गुरु- चरणो रमयति यतिमपि मणिगुया निकरः ॥४४॥
(अन्वयः) प्रतिचरण चरमविनिहितगुरुकः वसुतुरगविरतिम अनुसरति तथा न-न-न-न-पर-लघु लघु-गुरुचरण:मणिगुणनिकरः यतिमपि रमयति ।।
( टीका ) यदि प्रतिचरणं चरमे:- अन्ते विनिहित:= कृतः गुर्यस्मिंस्तथाभूतः प्रष्टसु सप्तसु च विरामं प्राप्नोति तथा एवम् नगणचतुष्ट्यात्वरी लघुद्वयसहितो गुरुर्येषु तादृशाश्ररणाः पादा यस्य स ' मणिगुणानिकरः' यति परित्यक्तमुखदुःखादिभेदभावमपि रमयति- प्रसादयति । भत्र परार्जुन कस्याश्चिज्ज्ञातयौवनाया नवोदायाचरणगृहीतमनूपुराया: केली गुहदेहली मभ्युपेतायाः स्वात्मानं प्रति पतिमनोभावमात्रष्टुं सुरतप्रारम्भे नकारस्तद्वय पारं विफलयन्त्याः क्षणे मन्दं क्षणे सत्वर - मभिगच्छन्त्याश्चरणस्थ मणिगुणनिकरोऽपि व्यज्यते, अत्र पक्षे म न न न परौ= नहि नहि नहि नहीति निषेधोधक लघुलघु प्रतिसस्वरौ ( मेलोत्कण्टया) गुरु = मन्दतरौ लेनापारवश्येन मन्धरौ चरणौ यस्मिन्नेवम्भूतो मणिगुणनिकरो यति जितेन्द्रियमपि रमयतीत्यादिरीत्याऽर्थो बोध्यः । मत्रं श्लोके प्रतिचरणम् (iii) इत्येष स्वरन्यासः ।
क
,
(प्रति०) वसु-तुरग विरत्तिम्= अष्ट- सप्त- विरामन् । तथा किश्च । स्पष्टमदुतम् ॥
For Private And Personal Use Only
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(भाषा) जिस के प्रत्येक चरण का केवल अन्तिम मक्षर गुरु हो और पाठवें तथा अन्तिम अक्षर पर विश्राम हो उसको मणिगुणनिकर छन्द कहते हैं । इस के प्रतिचरण में चार नगण दो लघु तथा एक गुरु रहने के कारण स्वरचिह- (1. mis) इस प्रकार हैं || ४४ ॥
कुमलदाती या प्रतिपादं शर-रसयामा,
काव्यरसज्ञेषु विहितपामा। पण्डितमुख्यरिह कथिता सा,
कुड्मलदन्ती भ-त-न-ग-गाऽऽसा४५|| (अन्वयः)या प्रतिपादं शर-रसयामाभ-त-न-ग-गाला, काव्यरसज्ञेषु विहितपामा सा पण्डितमुख्यैः इह कुड्मलदन्ती कथिता।
(टीका) या पादम्पादम्प्रति शरेषु= पञ्चसु रसेषु= षट्सु (च) यामः = यतियस्यां तथाभूता, एवम् भगण-तगण-नगणगुरुद्वयोपेता , काव्यरसज्ञेषु विहिता= कृता पामाखजः (प्रवण-पठन-निर्माणाधभिलाषबाहुल्येन ) यया एवंभूता मा प. ण्डितप्रधानः इह-छन्दःशास्त्रे कुड्मलदन्तीकथिता प्रोक्ता । अत्र प्रतिपादम्-(Suss|liss) इत्येवं स्वरवर्णन्यासः ॥ . (प्रति०) व्याख्याताः प्रतिशब्दाः ।।
For Private And Personal Use Only
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Acharya Shri
(भाषा) जिस के प्रति चरण में भगण तगण नगण तथा दो गुरु हों और पांचवें तथा अन्तिम अक्षर पर विश्राम हो उसको कुठभलदन्ती छन्द कहते हैं । इस के प्रत्येक चरण के स्वरचिह- (Issiuss) ऐसे हैं ॥ ४५ ॥
वैश्वदेवी हस्थो वर्णवेत्सतमोऽथो नधान्त्यो,
वाणैरश्वैः स्यायत्र विश्रामयोगः । माभ्यांयाभ्यांसानिर्मितकैकपादा,
प्रोक्ता काव्यादौ वैश्वदेवी सुधीभिः॥४६॥ (अन्वयः) यत्र सप्तमः अथो नवान्न्यः वर्ण : हरवश्चेत् वाणैः अश्वैः विश्रामयोगः स्यात, माभ्यां याभ्यां निर्मितकैकपादा सा सुधीभिः काव्यादौ वैश्वदेवी प्रोक्ता ।
(टोका) यत्र= यस्यां प्रतिचरणं सप्तमः अायो अथच नवान्त्यः = शम: वर्ण: हस्वश्चत् तथा बाणैः पञ्चभिस्ततश्च प्रश्वः सप्तमिणविश्रामयोग:- पतिसम्बन्ध: स्यात् , मगण मगण वगण-यगणैनिर्मित एकैकः पादो यस्यास्तथाभूता सा काव्यादौ सुधीभिश्वदेवी प्रोतासथिता । अत्र प्रतिवरणम (ssssssississ) इत्येष स्वरवर्णन्यासनियमः ।। (प्रति०) व्याख्याताः सर्वे ॥
(भाषा) जिस के एक एक चरण में सातवा और दसवें अक्षर लघु हो एवं पांचवें तथा अन्तिम अक्षर पर विश्राम के
For Private And Personal Use Only
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
उस को वैश्वदेवी छन्द कहते हैं । इस के प्रत्येक चरमा में दो मगया तथा दो या रहते हैं अत एव स्वर चिह्न- (ssSsss (SSISS ) इस प्रकार जानना चाहिये ॥ ४६ ॥
कुसुमविचित्रा
न-य-न-य-कामा रस-रस यामा, प्रतियतदेशे गुरुयुगयुक्ता ।
श्रुतिपचित्रा 'कुसुमविचित्रा' मृदुतमवर्णा सुकविभिरुक्ता ॥ ४७ ॥
(अन्वयः) न-य-न-य-काना रस-रस-यामा प्रतियत देशे गुरुयुगयुक्ता श्रुतिपचित्रा मृदुतमवरण सुकविभिः कुसुमविचित्रा उक्ता
(टीका) न-य-न-यानी नगण-यगणानां कामोऽभिलाष: सम्बन्ध इति यावत् यस्यास्तथाभूता प्रतिपादं नगण-यगानगण-वगणोपेनेत्यर्थः, रसेषु रसेषु षट्सु षट्सु वर्णेषु यामः यतिर्यस्यां तथोक्ता, यता: यतियुक्ता: देशा: प्रदेशा यतदेशा: यतदेशान् यतदेशान् प्रतीति प्रतियतदेशं तस्मिन् प्रत्येकयतिप्रदेश इत्यर्थः, गुरुयुगयुक्ता = गुरुद्वग्रसहिता भत एव जनानां श्रुतिपय चत्रा = श्रवणयोग्या मृदुत्तमा:= अतिकोमलाः वर्णाः = अक्षराणि यस्यां तादृशी सुकविभिः कुसुमविचित्रा उक्त= कथिता । अत्र प्रतिचरणम् (IIIISS||||SS ) इत्येष स्वरवर्णकमः । watseतरमप्यभिप्रेतं, तथा हि
For Private And Personal Use Only
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Acharya Shri
(टोका) नयने याति प्राप्नोतीति नयनय:- विशालनेत्र सुन्दरः पुरुष इति यावत, नयनयस्य कामः = अभिलाषो यस्याः सा नयनयकामा तथारसे रसे-प्रतिरसं ( शृङ्गारादिरूपे) याम: प्रहरो यस्याः सा (एकैकरसं- चुम्बनादिरूपं प्रति प्रहरसमययापिनी) किञ्च- प्रतियतः वस्त्रादिना संवृतो यो देशस्तरिमन्न.
दक्षःस्थले गुरुदयसहिता= विशालस्तनद्वयोपेता एवं मृदुत्तमःप्रतिकोमलो वर्ण: सपलावण्यं यस्याः सा श्रुतिपथे== श्रवणनागें चित्रा= पाश्चर्यकारिणी कुसुमैः= पुपविचित्र:= यथास्थानवि. न्यस्तष्पतया रसिकजनमनोहारिणो अत एव नाम्नाऽपिर. मविचित्रा' सुफविभिरुक्तति ॥ (पति) व्याख्याताः प्रतिशब्दाः ।।
(भाषा) नगण यगण नगम तथा याय से युक्त रहने के कारण जिस के प्रत्येक चरण के छोरे २ अक्षर पर विश्राम हो और पांचवा तथा छठा एवं ग्यारहवा तथा बारहवा अक्षर गुरु हों उस की कविलोग कुसुमविचित्रा छन्द कहते हैं । इस के स्वचिह्न- (Assnss) इस प्रकार हैं ॥ ४७॥
ग्विणी मध्यम मध्यमं चेल्लघुत्वं व्रजेत,
सर्वपादेषु सर्वत्र वर्णत्रिके। अन्त्यवर्णविरत्या सदारै-रसा, स्रग्विणीमचिरेतांसदा कोविदा॥४८॥
For Private And Personal Use Only
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
.. (अन्वयः) चेत् सर्वपादेषु सर्वत्र वर्णत्रिके मध्यम मध्यम लघुत्वं व्रजेत्, अन्त्यवर्गविरत्या सदा रैः रतां तां तदा कोविदाः स्रग्विणीम् अचिरे ।।
(टीका) यदि चेत् सर्वेषु पादेषु सर्वस्मिन् वर्णत्रयसंधे मध्यमं मध्यममक्षरं लघुत्वं व्रजेत्= प्राप्नुयात् , अन्त्यवर्ग:पादान्तस्थैर्वर्णविरत्या= विरामेण उपलक्षिताम् ( उपलक्षणे तृतीया ) सदा सर्वदा :- रगणैः सह रतां रंगणैर्बद्वामिति यावत् तां तदा कोविदा:-- विद्वांसः स्रग्विणीम् उक्तवन्तः । तेनात्र-(SISSISSISSIS) इत्येष प्रतिसाद स्वरवर्णन्यासो बोध्यः
इहापि पक्षान्तरं, तथाहि--
(टीका) सर्वत्र वर्णत्रिके ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्यात्मके (शू. देषु ताइक्सौन्दर्यस्य कचिदप्यदृष्टचरत्वात) (कुले उत्पन्नाया:) . पस्थाः सर्वपादेषु प्रतिवरणनिक्षेपेषु मध्यम- मध्यमस्थान का टिप्रदेशरूपमिति यावत् लघुत्वं ब्रजेत्, अन्त्यवर्गः- चाण्डा लादिभिः सह विरत्या मोत्यकरणेन विशिष्टजातीयकैः सदारे: स्त्रीसहितैरपि सह रताम् = अनुरक्तां, यद्वा सत= सज्जनान् : अन्तिः प्राप्नुवन्तीति सदारास्तैः सह रताम, अथका संदा सर्वहारापि-धने रतां धनवती स्त्रग्विणीं-मालावती कोविदा
उक्तवन्त इति ॥ ... (प्रति०) लघुत्व= लघुताम् । अचिरे- उक्तवन्तः । व्याख्यातमन्यत् ॥
For Private And Personal Use Only
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(भाषा) जिस के प्रत्येक चरण में चार रंगण हों तथा अन्तिम वर्ण पर ही विश्राम हो उसे स्रग्विणी बन्द कहते हैं। इस के स्वर चिह्न-(sISSISSISSIS) इस प्रकार हैं ॥४८॥
- प्रहरणालता गुरु-पर-तुरगोपरि-कृतविरमा,
न-न-मन-सुगंणलघुगुरु-घरमा। प्रहरणकलिताऽकलि कृतिमुखरै-,
रसिकरसकलोचितजयललिता ।४६। (प्रन्ययः) गुरु-पर-तुरगोपरिकृतविरमा न-न-म-न-सुगगलवुगुरुचरमा रसिक-रस-कलोचित-जयललिता कृतिमुखरैः प्रहरणकलिता अकलि ॥
(टीका) गुरु:= गुरुवर्गः पर:= भन्स्यो येषां त दशा ये तुरगा:- सप्त सप्त वर्णास्तदुपरि तेषां तेषामन्तेऽर्थात्सप्तमे सप्तमे वर्ण कृतो विरम:- विश्रामो यया ला नगण-गण-भगणनगण-रूपसुन्दग्गणः सह (सहाथे तृतीया) लघुवर्णो गुरुवर्णश्च क्रमेण चरमः= अन्त्यो यस्याः सा, रसिकानां सकलाया उ. चितो यो जयः- जयशब्दस्तेन ललिता काव्यमार्मिक नै दुःतेति यावत्, कृतिमुखी- पण्डितप्रवरैः पहरणकलिता'
(१) 'पृथग्विनानानाभि' रित्यादिवत् ' सहेनाप्रधान ' इति न्यासेनैवसिद्ध युरूग्रहण सशब्दप्रयोगाऽभावेऽपि तदर्थसत्तामात्रेऽपि तृतीयेति बोधनार्थमत एक पद्वों यूनेतिनिदेशः साच्छते । स्पष्ट वेदं सयुक्त ' इति सूत्रे शब्देन्दु थेपरे॥
For Private And Personal Use Only
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अकलि= निरचायि= निश्चितेत्यर्थः । अत्र ग्रहाणे = संग्रामे कलिना= प्रहरणायोद्यता काचित स्त्र्यपि व्यज्यते, सा कीदृशी? गुरु:- स्थूल: पर:= काटिपथाद्भागो यस्य तादृशो यस्तुरम:
यस्तदुपरि (तमामह्य) कृतो विमो-विश्रामो यया, पुन: नन-मननामकैः सुन्दरगणैः अर्थात् नन-भनादिनामकयोद्धगणैरुपलक्षिता, पुनश्च लघुगुरून्= नुद्राहदूपान् चरान्- गुप्तदूतान् माति= परिमातिः- परिचिनोनीति यावत् इति लघुगुरुचरमा अत एव अमिः-- बद्भः करेषु येषां ते च ते सकला असिकरसकलाबदामभकलमत्यास्तेषामुचिता यो जयः- जयध्वनिस्तेन समिता कृतिगुम्वर:= महाचतरैः (विपक्षिमतैः ) अकलिमानाागिअनुभिनेति । भत्र प्रतिचर याम्-(15|||s) इति स्वरवर्णन्यास: ॥
(प्रति०) व्याख्याताः प्रतिशब्दाः ।
(भाषा) जिस के प्रत्येक चरगा का सातवाँ तथा चौदहब मक्षा गुरु हो और वहीं पर विश्राम हो उस को प्रहरणकलिता छन्द कहते हैं। इस के प्रत्येक चरण में नगण नगम गगण गगरा एक लघु तथा एक गुरु रहते हैं अत एव स्वाचिह-( I|||||||||||) इस प्रकार जानना चाहिये । ४९ ॥
भ्रमरविलसित पादे पादे मं-भ-न-ल-ग-चितं,
तुर्थैरश्वैः कृतयतिललितम् ।
For Private And Personal Use Only
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
(५०)
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
काव्याम्भोजावनिमनुचलितं, पद्माऽऽश्वर्यं भ्रमरविलसितम् ॥ ५० ॥
(अन्वयः) पादे पादे म-म-न-ल-ग-चिंतं तुर्यैरश्वैः कृतयतिललितं काव्याम्भोजावनम् अनु चलितम् आश्चर्य 'भ्रमरविलसितं पश्य |
(टीका) पादे पादे = प्रतिचरां मग भगवा-नगा-लघुगुरुभिश्चितं = व्याप्तम्, तुर्यैः = चतुर्यैः श्वैः = सप्तमैश्च वर्णै: कृता या पतिस्तया ललितम् = सुन्दरम, काव्याम्भोजाव निम् = काव्यरूपकमलस्थानम् अनु - लक्ष्यीकृत्य चलितम् ग्रस्थितम् अतएव आश्चर्यम् आश्चर्यकारि भ्रमर विलसितम् एतजानकं वृत्तं भ्रमरविलासं च पश्य अवलोकय । अत्र प्रतिचरणम् ( SSSS||||||5) इति स्वरवर्णन्यास: /
( प्रति०) प्रतिशब्दा व्याख्याताः ।
( भाषा) जिस के प्रत्येक चरण में मगण भगण नगण एक लघु तथा एक गुरु हो तथा चौथे और अन्तिम अक्षर पर विश्राम हो उस को भ्रमर विलसित छन्द कहते हैं । इस के एक एक चरण के स्वरचिह्न - (SSSS IIIIIIS) इस प्रकार हैं ||५० ॥
क (माला)
वसु-हय-पतिरतिशयितमृदुपदा, प्रतिचरणकचर मकलितगुफ्ता ।
For Private And Personal Use Only
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(५१)
स्त्रगिह कविहृदयकमलविरचिता,
सुखयति जगतितुकमपि सुकृतिनम्।५१॥ (अन्वयः) वसु-हय-पतिः अतिशयित-मृदु-पदा प्रतिचरणक-चरम-कलित-गुरुता कवि हृदय-कमलविरचिता सक तु इह जगति कम् अपि सुकृतिनं सुखयति ।।
(टीका) पूर्व वसुषु- भष्टस्वष्टसु ( तदनन्तरं ) हयेषुसप्तसु सप्तसु वीवर्थात् प्रतिपादं पूर्वमष्टमे तत: सप्तमे वर्ण च यतिर्यस्यां सा तथाभूता, अतिशयितानिः अतिशयं प्राप्तानि मुनि-- कोमलानि पदानि यस्याः सा, प्रतिचरणकम् प्रतियरणं प्रत्येकचरणस्येति यावत चरमे- अन्ते कलिता- धता गुरुता यया सा, कवीना हृदयान्येव कमलानि तेविरचिता-मिर्मिता सक-माला (एतनामक वृत्तं मालाविशेषश्च)तु इह जगति कमपिदिव्यगुणशालिनं सुकृतिनं= चन्यं जनं सुखयति= आनन्दयसोत्यर्थः । अत्र प्रतिचरणम्-( s)इति स्वरसंस्थानम् ॥
(प्रति०) व्याख्याताः प्रतिशब्दाः, स्पष्टाश्च शिष्टाः ॥
(भाषा) जिस के प्रत्येक चरण के छठे और अन्तिम अक्षर पर विश्राम हो तथा चरण का अन्तिम २ अक्षर गुरु हो उस को स्त्रक् ( माला) छन्द कहते हैं। इस का प्रत्येक चरण चार नगण दो लघु एवं एक गुरु से बनता है अत एव स्वरचित- (Immmmms ) इस प्रकार हैं ॥ ५१॥
For Private And Personal Use Only
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
वियोगिनी. स-स-ज-त्रितयात्परो गुरु-,
विषमे स्थाचरण द्वयेऽध चेत् । स-भ-रा अपात्र लो गुरुः,
कविना तत्कथिता वियोगिनी ॥५२॥ (अन्वयः)अथ चत विपमे चरा ट्रय स -स-ज-त्रितयात पर: गुरुः स्यात, अपरत्र सम रा; ल: गुरुः तत कविना वियो. गिनी कथिता।। .. (टोका) अथ-यदि चेत विधमे प्रथम-तृतीयरूपे चरणद्वये - पादयुगले सगण सगा -जमगारू पान त्रिपात्पर:= परत्र गुरु., अपात्र-अपरस्मिन- सम चा मगदूये सगण-भगण 22730 - लघु-गुरवः स्युः तत् - तदा कविना वियोगिनी कथिता । स्त्र प्रथम- तृतीययोश्च यो: (155SIS) इति, द्वितीय- चतुशे-- योश्च (ISSISISIS ) इत्येवं स्वरवर्णक्रमो बोद्धव्यः ।।
(प्रति०) ला= लघुः । स्पष्टमन्ययाल्यातच ।।
(भाषा) यदि पहले तथा तीसरे चरण में दो सगण एक जगा और गुरु हो तथा दूसरे एवं चौथे चरण में सगण-भगम गण के अनन्तर एक लघु तथा अन्त में एक गुरु हो उसे वियोगिनी छन्द कहते हैं । अत एव इस के पहले और तीसरे चरण के स्वरचिह्न-(IISc:55) इस प्रकार तथा दूसरे और चौथे चरण के-(IISSIS/S15) इस प्रकार हैं ।।५.२||
For Private And Personal Use Only
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(५३)
पुष्पिताग्रा
funeraोर्न-नौ र-यौ चे-, न्न ज-ज-रगाश्च तद्न्यपादयोः स्युः । कविकुलमधुपान् प्रमोदयन्ती, तदिह मताऽजलतेव पुष्पिताग्रा ॥ ५३ ॥
( अन्वयः) चेत् विपमचरणयोः ननौर-यौ, तदन्यपादयोः न-ज-ज-रगाव स्युः, तत् इह कविकुलमधुपान् प्रमोदन्ती अorate पुरताया मता ॥
( टीका ) यदि चेन विषमचरणयो:, अर्थात् प्रथम-तृतीयपादयो: नगमा - नगगनगगा यगणाः तदन्यपादयोः द्वितीय- चतुर्थचरणयो: नगगा- जगण जगरण -गण-गुरवः स्युन तत् सदा इह छन्दःशास्त्र कविकुलमधुपान् = कतिजनामरान प्रमोदयन्ती हर्षयन्ती पुष्पितः अग्र:- अग्रभागी यस्थास्तादृशी मजलतेव=== कमलवलीव पुष्पिताग्रा मताख्याना अत्र क्रमेण प्रथम-तृतीययो: - ( |||||Sisis) इति, द्वितीयचतुर्थयोच (IPS|sisiss) इति स्वरवर्णक्रमः ||
( प्रति०) व्याख्याता: प्रतिशब्दाः ॥
( भाषा) जिस के पहले तथा तीसरे चरण में दो नगर एक रगण और एक यगय हो, तथा दूसरे और चौथे में एक दो जग एक रंग और एक गुरु हो उसको पुष्पिताग्रा
,
For Private And Personal Use Only
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Acharya Shrik
बन्द कहते हैं । इस के पहले और तीसरे चरण के स्वरचिह्न( Isis/ss) इस प्रकार, तथा दूसरे और चौथे चरण के ( ||5||SISIS5) इस प्रकार हैं !! ५३ ॥
द्रुतमक्ष्या चेद् भ-भ-भैः सह ग-क्ष्य युक्तो,
प्रथम-तृतीयपदी नियमात् स्तः । ना-ज-ज-यै रचिताववशिष्टी,
भुवि विदिता तदसौ द्रुतमध्या ॥५४॥ (अन्वयः) चत् प्रथमततीयपदो नियमात म.म. मह ग-द्वययुक्तो, अवशिष्टौ नात ज-ज-यै रचितौ रतः तत शासौ भुवि द्रुतमच्या विदिता ॥
(टोका) यदि चेत् प्रथम-तृतीय चरणौ भगण-भगण भगणगुरुद्वग-युक्तौ, अवशिषौ- द्वितीय-चतुर्थचरणो नगणात परतो ये जगण-जगण-यगणास्ते रचित निर्मिती स्तः भवतः तत तदा असौ-सा मुवि भूतले द्रुतमध्या विदिता- ख्याता । अत्र प्रथमततीयचरणयो:-( ISHSS ) इति, द्वित्तीय-चतुर्थ चरणयोश्च-- (Insususs) इति स्वरवर्णन्यासोऽवगन्तव्यः । (प्रति०) प्रतिशब्दा व्याख्याताः ॥
(भाषा) यदि तीन भगण और दो गुरु अक्षरों से पहला लया सीसरा चरण , एवं एक नगण दो जगण तथा एक यगय .
For Private And Personal Use Only
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(४५)
से
दूसरा और चौथा चरण बनता हो तो उसे दुतमभ्या छन्द
कहते हैं । अत एव इसके पहले और तीसरे चरगा के स्वरचिह्न
9
( | ) इस प्रकार और दूसरे तथा चौथे चरण के ( ||||||SS) इस प्रकार हैं । ५४ ॥
समाप्तिश्लोक
वर्षे सिन्धु-वसु-ग्रहेन्दु-तुलिते पक्षे सिते पञ्चमी-, तिथ्यामग्रपणे जिनेन्द्रचरणाम्भोजद्रयं ध्यायता । लालान्तेन जवाहिरेण मुनिनाऽऽचार्येया तत्वार्थिनां, प्रोत्यै स्थानकवासिना विरचितोऽसौ व्रतबोधो मया ॥ ॥ इति वृत्तबोधः समाप्तः ॥
( अन्वयः) सिन्धु- वसु-प्रहेन्दु-तुलिते बर्षे, अश्रयणे
4
सिते पक्ष पञ्चमीतियां जिनेन्द्रचरणाग्भोनद्वयं ध्यायता स्थानकवासिना सुधिया लालान्तेन जवाहिरेण श्राचार्येण मया तार्थिनी वृत्तबोधः विरचितः ॥
,
(टीका) सिन्धवः चत्वार, बमव: अष्टौ ग्रहाः नव, इन्दुः एकः, तत्तलिते== तन्मिते मर्यादङ्कानां वामतो गत्या १६८४ एतत्परिमिते वर्ष अभय अग्रयण-मासे लितेशुक्रे पक्ष पञ्चमीतिभ्यां जिनेन्द्र-चरण-कमलद्वयं ध्यायता स्थानकवासिना (साधुमार्गणा ) मुनिना लालान्तेन जवाहिरेय
(१) संज्ञात्त्रानवत्त्वम् ।
For Private And Personal Use Only
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
in aradhana Kendra
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
जवाहिलालेन आचार्यग गया तत्त्वार्थिनाम- अश्लीलार्थपरित्यागेन सारग्राहिणां प्रीत्यै- प्रमोदाय असौ वृत्तबोधो विरचितः।। (प्रति०) अप्रथणे= मार्गशीर्ष । म्पष्टमन्यद्वयाख्यातं च ।। भन्नत्सिन्धुवर्स-ग्रह.., चन्द्रमितऽवगणमामि गुरुभक्तः । अहि तिथि-वलक्षपक्ष, घासीलालो व्यधा-टीकाम् ॥
॥इति वृत्तवाधीका समाना (भाषा) श्री जिन भगवान के चरण कमलों को हत्य में
कर स्थानकामी मुनि श्रीजवाहिरलाल मावार्य ने मारग्राही मजनों के मन्तोर के लिये १६८४ वर्ष के मृगशिा म. हीने के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी तिथि में इन पृतबोध को रचा ॥५५॥
इति वृत्तयोधभाषा समाप्त
॥ ममाप्तोऽयं ग्रन्थः॥
For Private And Personal Use Only
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुस्तक मिलने का पताअगरचन्द भैरोंदान सेठिया जैन शासभण्डार (लाइब्रेरी) बीकानेर राजपूताना] SIRRORRENERPRERA सेठिया जैन प्रिंटिंग प्रेस बीकानेर में मुद्रित 17 For Private And Personal Use Only