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( प्रति०) पादान्ते = चरणान्तं । गुरुद्विमात्रम् | ज्ञेयं =बोध्यम् । संयोगे==संयुक्तवर्णे परतः = परे । =तथा । प्रा=पूर्वम् । चत्रि |
( भाषा) प्रत्येक चरण के अन्त का हस्व अक्षर विकल्प से गुरु माना जाता है, अर्थात् जहां गुरु बोलने से श्लोक की सुन्दरता आती हो, वहां गुरु और अन्यत्र लघु रहता है । इसी प्रकार अनुस्वार विसर्ग तथा संयुक्त वर्ण पर हो तो पहला ह्रस्व वर्ण गुरु होता है, एवं दीर्घ भी गुरु होता है ॥ ३ ॥
(गणविचार) छन्दो जिज्ञासुभिध्या भजसा, घरता मनौ । सर्वत्र गणा अष्टौ, गो गुरुलों लघुस्तथा ॥ ४ ॥
(अन्वयः) छन्दोजिज्ञासुभिः 'भजसाः यरताः मनो' ये अ गणाः सर्वत्र बोध्या:, तथा गः गुरु: ल: लघुः ।
( टीका) छन्दोज्ञानमिच्छुभिः सर्वत्र भ-ज-स-य-र-त-मन- संज्ञका अष्टौ गया बोध्या:, तथा गः = गुरुसंज्ञकः, लःलघुसंज्ञको बोद्धव्य इत्यर्थः ।
( प्रति०) प्रतिशब्दाः स्पष्टाः ।
( भाषा) छन्द के जानने वालों को सर्वत्र भगण जगण सगण यगण रगण तगण मगण और नगा, ये आठ गण, तथा 'ग' से गुरु और 'ल' से लघु समझना चाहिये || ४ ||
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