Book Title: Vruttabodh
Author(s): Shwetambar Sadhumargi Jain Hitkarini Samstha
Publisher: Shwetambar Sadhumargi Jain Hitkarini Samstha
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वियोगिनी. स-स-ज-त्रितयात्परो गुरु-,
विषमे स्थाचरण द्वयेऽध चेत् । स-भ-रा अपात्र लो गुरुः,
कविना तत्कथिता वियोगिनी ॥५२॥ (अन्वयः)अथ चत विपमे चरा ट्रय स -स-ज-त्रितयात पर: गुरुः स्यात, अपरत्र सम रा; ल: गुरुः तत कविना वियो. गिनी कथिता।। .. (टोका) अथ-यदि चेत विधमे प्रथम-तृतीयरूपे चरणद्वये - पादयुगले सगण सगा -जमगारू पान त्रिपात्पर:= परत्र गुरु., अपात्र-अपरस्मिन- सम चा मगदूये सगण-भगण 22730 - लघु-गुरवः स्युः तत् - तदा कविना वियोगिनी कथिता । स्त्र प्रथम- तृतीययोश्च यो: (155SIS) इति, द्वितीय- चतुशे-- योश्च (ISSISISIS ) इत्येवं स्वरवर्णक्रमो बोद्धव्यः ।।
(प्रति०) ला= लघुः । स्पष्टमन्ययाल्यातच ।।
(भाषा) यदि पहले तथा तीसरे चरण में दो सगण एक जगा और गुरु हो तथा दूसरे एवं चौथे चरण में सगण-भगम गण के अनन्तर एक लघु तथा अन्त में एक गुरु हो उसे वियोगिनी छन्द कहते हैं । अत एव इस के पहले और तीसरे चरण के स्वरचिह्न-(IISc:55) इस प्रकार तथा दूसरे और चौथे चरण के-(IISSIS/S15) इस प्रकार हैं ।।५.२||
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