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जीवनचरित्र ।
"हमें आपका है बड़ा आसरा । सुनो दीनके बंधु दाता वरा।।
नृपागारगतिते काढ़िये । अमैदान आनंदको बाढिये ॥" * ऐसा जान पडता है कि, इस ग्रन्थमे जितने स्तोत्र हैं, वे प्रायः सब
कारागृहमें बनाये गये है। सबमें उनके हृदयके अपार दुखकी झलक दिखलाई देती है, जिससे पाषाणहृदयमें भी करुणाका प्रादुर्भाव होता है। * काशीके राजघाटपर फुटही कोठीमे एक गार्डन साहव सौदागर रहते है। *थे । उनकी एक बड़ी भारी दूकान थी। सुनते हैं, कुछ दिनो आप उनकी । दूकानका काम करते रहे हैं। एक प्रकारसे आप उनके मैनेजर ही
थे। कारखाने में भी कागज पेंसिल आपके साथ रहती थी। आप कामकी र देखभाल करते जाते थे और कविता भी रचते जाते थे । कविता करनेकी
शक्ति उनमें ऐसी अद्भुत थी कि, देखने सुननेवाले आश्चर्य करते थे। बात *करते २ वे सुन्दर कविता करके लोगोंका मन हरण कर लेते थे। । कहते हैं, आप जब जिनमन्दिरमें दर्शन करने जाया करते थे, तव निस नवीन स्तोत्र बनाकर दर्शन करते थे। लेखक उनके निरन्तर साथ रहता था, जो उस कविताको तत्काल ही लिख लेता था। सुनते है, दे
वीदासजी जिनके थोड़ेसे पद इस ग्रन्थमें सग्रह किये गये हैं, उनके यहा 1 इसी कार्यपर नियत थे । देवीदासजीसे आपका विशेष सौहार्द था । अ
नेक पदोंमें वृन्द और देवीका एकत्र नाम देखकर इस बातमे कोई स-1 केन्देह नहीं रहता । कोई २ कहते हैं कि, हमारे कविवर ही अपना नाम * कभी २ देवीदास लिखते थे, क्योंकि उन्हें पद्मावती देवीका इष्ट था।परन्तु
१ यह पथ श्रीललितकीर्ति भट्टारककी चिट्ठीमें लिखा है । इससे सन्देह होता है कि, यह पत्र क्या उन्होंने कैदखानेमेसे लिखा था ! पत्रके प्रारममें जो विषय लिखा है, उससे इस पथका तथा इसके ऊपरके सारवती छन्दका सम्बन्ध नहीं मिलता है। कहीं ऐसा न हो कि, किसी स्तोत्रमेंके ये पर हों और चिट्ठी नकल करनेवाले महाशयने भूलसे चिट्ठीमें शामिल कर लिये हों। इन पोंके "दीनके बंधुके दातावरा" आदि सम्बोधन भी जिनदेवके जान पड़ते हैं। जो हो, यदि निश्चय ही जेलखानेमें यह पत्र लिखागया है, तो इस बातका पतारग जाता है कि, सवत् १८९१ में कविवरको 'नृपागारगर्तमें पड़ना पड़ा था।