Book Title: Vidyanushasan
Author(s): Matisagar
Publisher: Digambar Jain Divyadhwani Prakashan

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Page 11
________________ S5I0505250SOTE विद्यानुशासन 501512151052525 शांतः कृपाल निषिः प्रसन्नः शिष्य वत्सलः षट्कर्म वित्साधुः सिद्भविद्यो महायशाः ॥३॥ वह अत्यंत शांत कृपालु,द्वेषरहित, कुशल शिष्यों से प्रेम करने वाला, छहों कर्मों के कृत्य को जानने याला,भली प्रकार विद्या सिद्ध किये हुआ और बढ़ा यशस्वी हो। सत्ययादी जितासूयो निराशो निरहंकृतिः लोकज्ञः सर्वशास्त्रज्ञो तत्वज्ञो भावसंयुतः ॥४॥ वह सत्यवादी , ईर्ष्या रहित, अहसान करने याला, अतिमान रहित, लोक को पहचानने वाला, सब शास्त्रों के तत्त्वों को जानने याला और भायुक हो। भवेतमंत्रोपदेशेषु गुरुमंत्रं फलाथिनां। इहोपदिश्यमानानां मंत्राणमुपदेशने ॥५॥ यह यहाँ आगे उपदेश किये जाने वाला मंत्रों के मंत्र के फल की इच्छा करने वालों को उपदेश देने से गुरू का काम कर सकता है। | शिष्य के लक्षण॥ लक्षणेन गुरू: प्रोक्तः शिष्ट वास्याभि धीयते दक्षो जितेन्द्रियो मौनी देवताराधनोद्यतः गुरू के लक्षण कहे गये हैं। अब शिष्य के लक्षण कहे जाते हैं। शिष्य चतुर, जितेन्द्रिय, मौन रखनेवाला और देवता की आराधना करने को तैयार हो। निर्भयो निमंदो मंत्र जप होम रतः सदा। धीरः परिमिताहारः कषाय रहितः सुधीः ॥७॥ यह भय, और मद रहित च सदा जप और होम में लीन रहने वाला, धीर, अल्प भोजन करने वाला, कषाय रहित और विद्वान हो। सदष्टि विगतालस्टा: पापभीरू ढव्रतः शीलोपवास संयुक्तोधर्मदानादि तत्परः ॥८॥ यह अच्छी दृष्टि वाला, पाप से डरने वाला, दृढ़ व्रत वाला, शील और उपवास से युक्त और धर्म तथा दान आदि में तत्पर हो ।

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