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॥आर्यावृत्तम् ।। हत् किमपि नास्ति स्थानं लोके वालाग्रकोटीमात्रमपि.
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त किंपि ननिगाणं। लोए वालग्गकोमिमित्तंपि॥ यत्र न जोवाः बहुशः मुखङःखपरंपरां प्राप्ताः
जन्न न जीवा बहसो। सुहउस्कपरंपरं पत्ता ॥ २४ ॥
अर्थ-(जब के०) जे स्थानने विषे (जीवा के०) जीव जे ते (सुह उस्क परं * पर के०) सुख पुःखनी परंपराने (बहुसो के०) घणीवार (न पत्ता के०)नश्री पा * म्या. (तं के) ते. अर्थात् तेवु (किंपि के) कोइ पण (लोए के) लोकने विषे Ma (वालग्ग के) वालनो अग्रतेनो (कोमिमित्तंपि के०) प्रांतनाग मात्र पण, अ
यात् किंचितमात्र पण (गणं के०) स्थान जे ते (नति के) नश्री. अर्थात् आ जीव, सर्वे स्थानकमां जश् श्राव्यो . ॥ २५ ॥
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