Book Title: Vairagyashatakama
Author(s): Ramchandra D Shastri
Publisher: Ramchandra D Shastri

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Page 253
________________ - XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX जे ते (हु के०) निश्चे (तमि के०) ते जिनेनाषित धर्मने विषे (कयावि के) क्यारे पण, एटले कोइ वखत पण (न रमंति के०) नथी रमता. एटले नथी जोमाता! ॥ ए॥ नावार्थ-श्रा लोकने विषे यश, अने परलोकने विषे स्वर्ग तथा मोक्षनां सुखापवा. रूप गुणवाला, अने जेने विषे कांश पण दोष नश्री एवा, श्री जिनेश्धर्मने प्रत्यक्षपणे देखे , तोयपण अज्ञाने करीने आंधला एवा जे पुरुषो, ते जेम जे वस्तु , तेम ते वस्तुने जणावनार एवा श्री जिनधर्मने अंगीकार नयी करता ॥ ए॥ मिथ्यात्वे अनंतदोपाः प्रकवाः दृश्यते न अपि च गुणलेशः मिने आतदोसा। पयमा दीसंति न वि य गुणलेसो॥ तथापि च तं एव जीवाः होति विस्मये मोहांधाः निषेवंते तहविय तं चेव जिया। ही मोहंधा निसेवंति एन॥ EXIXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX - Jain Education Heatonal For Private & Personal Use Only ** www.jainelibrary.org

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