Book Title: Vairagyashatakama
Author(s): Ramchandra D Shastri
Publisher: Ramchandra D Shastri
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| नावार्थ-या संसाररूप जयकर दावानलयो दाऊला एवो जे तु, ते जिनवचनरूप अमृतना कुंभमां मग्न था. अर्थात् रूमा अनुष्ठानने ग्रहण कस्व.जेयी तने अपूर्व सुखशांति अशे ॥१२॥
विषमे जवएवमरुदेशे अनाखान्येवग्रीष्मतापस्तेनसंतप्ते विसमे लवमरुदेशे। अणंतउहगिम्हतावसंतत्ते ॥
जिनधर्मएवकल्पवृक्षस्तं स्मर त्वं हेजीव शिवमुखदं जिणधम्मकप्परुळं। सरसु तुम जीव सिवसुहदं ॥१३॥ अर्थ-(जीव के) हे जीव! (विसमे के०) विषम एटसे चालनारने सुख कारी एवा, अने (अतऽहगिम्हतावसंतत के०) अनंतां पुखरूप ग्रीष्मऋतुना तापवमे सारी पेठे तपेला एवा (नवमरुदेसे के) संसाररूप मारवाम देश ने विषे (सिवसुहदं के) मोक सुखने आफ्नार एवा (जिराधम्मकप्परुस्कं
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