Book Title: Vairagyashatakama
Author(s): Ramchandra D Shastri
Publisher: Ramchandra D Shastri
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अर्थ - हे आत्मन्! (किं बहुणा के०) धणुं कहें वे करीने शुं ! ते प्रकारे (जिए धम्मे के०) जिनधर्म विषे (जइयां के०) यत्न करवो. (जह के०) जेम (जिन के०) जीव जे ते (घोरं के०) जयानक एवा (नवोदहिं के०) संसाररूप समुने ( लहु के ० ) शीघ्रपणे (तरियं के०) तरीने (श्रांतसुई के ० ) अनंतु वे सुख ते जेने विषे एवं (सासयं गां के०) शाश्वतुं स्थान एटले मोह, तेने ( लहइ के ) पामे. ॥ १०४ ॥
'जावार्थ - हे नव्यं जीवो! आाखा ग्रंथनो सारमां सार एटलोज कवानो बे के, जिनधर्मने विषे प्रमाद रहितपणे प्रयत्न करो. के, जेथी तमने मोनुं शाश्वतुं सुख प्राप्त थाय. ते सुखनुं वर्णन थइ शके तेम नथी. तेम बतां जो तेना स्वरूपने जागवानी मरजी होय तो श्री आचारांगजी सूत्रना पांचमा लोकसार नामा अध्ययनमां जोइ लेज्यो. ॥ १०४ ॥
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