Book Title: Vairagyashatakama
Author(s): Ramchandra D Shastri
Publisher: Ramchandra D Shastri

View full book text
Previous | Next

Page 259
________________ - ॥ आर्यावृत्तम् ।। चतसृणांगतीनायान्यनंतानिःखानितान्येवानजस्तनप्रदीप्तेनाकानने मह.जीने XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX चनगइणतउहानल । पलित्तजवकाणणे महानीमे ॥ सेवस्व रेजीव त्वं जिनवचनं अमृतकुमसमें सेवसु रेजीव तुमं । जिणक्यणं अमियकुंमसमं॥१०॥ अर्थ-(महालीमे के०) महा जयंकर एवं (चनगणंतहानल के०) च्यार गतिमा रहेलां एवां अनंतां पुखरुप महोटा अनिये करीने (पलितलवकागणे के० लागतुं एवं जे संसाररूप वन, तेने विषे रेजीब के० ) हे जीव! (तुमं | के०) तुं (अमियकुंझसमं के०) अमृतना कुंम समान (जिणवयणं के) जिन | राजना वचनने सेवसु के० ) सेवन कस्व. एटले सिद्धांतमां कहेला अनुष्ठानने विधिसहित अंगीकार कस्व. ॥ १७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270