Book Title: Vairagyashatakama
Author(s): Ramchandra D Shastri
Publisher: Ramchandra D Shastri

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Page 244
________________ रेणुना चेम्धिरण्यं चेत्सुधाब्धि।रबिन्दुना ॥ १ ॥ गृहेग यदि साम्राज्यं देहेन सुकृतं यदि ॥ कस्तदा तन्न गृहीयात्तत्त्वातचविचारकः ॥ २ ॥ युग्मम्. अर्थ-तत्त्व अने अतत्त्वनो विचार करनार (बुद्धिमान्) पुरुष जे ते, काचना ककमा साटे, अमूख्य एवा चिंतामणि रत्नने कोण न ग्रहण करे ? तथा धूल पापीने सोनू कोण न ग्रहण करे? तथा पाणीनो बिंदु आपीने अमृतना समु |इने कोण न ग्रहण करे? तथा पोताने रहेवार्नु कुंपडं आपीने चक्रवर्तिर्नु राज्य कोण न ग्रहण करे ? अर्थात् तत्त्वातत्त्वना विचारनार तो तरतज ग्रहण करे! | तेवीज रीते आ मलमूत्रादिके करीने नरपूर एवा देहवझे पूर्वे कहेला चिंता- | मणी रत्न समान जैनधर्मने कोणन ग्रहण करे? अर्थात् जे महामूर्ख होय तेज *न ग्रहण करे. ॥१॥२॥ । एवी रीते विचारीने या महामलिन एवा शरीर उपरथी मोह उतारीने, जेम बने तेम शुद्ध एवा धर्मने ग्रहण कस्य. ॥ ए॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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