Book Title: Vairagyashatakama
Author(s): Ramchandra D Shastri
Publisher: Ramchandra D Shastri

View full book text
Previous | Next

Page 242
________________ *********************** पालुं एवं पण मनुष्यप एले गमावे वे एटले जवसमुयी तारनार अने सकल सुखने श्रापनार एवा जिनधर्मने करतो मी. अने सांसारिक सुखनी air करे बे. पण हे जीव ! तुं सामान्य दुःख पण सहन करी शकतो नथी, त्यारे नरकनां दुःसह दुःख तहाराथी केम सहन थशे अने पमलोकमां तहा रीशी गति थशे ? एम गुरु महाराज उपदेश करे बे. ॥ ५३ ॥ स्थिरः समजेन निर्मलः परवशेनरोगादिना स्वाधीनः अस्थिरे ‍ ३ ७ ४ G थिरेण थिरो समले। ए निम्मलो परवसेण साहीणो ॥ धर्मः तदा किं न पर्याप्तं किं नतंपन्न देहेन यदि उपाय त १ १० १२ १.३ १४ देहेन जइ विप्प | धम्मो ता किं न पज्जतं ॥४॥ अर्थ-रे जीव ! (जर के०) जो (अधिरेण के० ) अस्थिर एव, तथा (समलेग के०) मलसहित एवा. अने (परवसेल के ० ) परवश एवा (देहेण के) देह For Private & Personal Use Only Jain Education International u *********************** www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270