Book Title: Vairagyashatakama
Author(s): Ramchandra D Shastri
Publisher: Ramchandra D Shastri
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चै०
११३
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हिमान: नरकेषु व्यपि अनंतशः हे जीव प्राप्तोसि दुःख
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हिमं नरसुवि।
तसो जीव पत्तोसि ॥८४॥ र्थ - ( जीव के०) हे जीव ! तुं (दुकम्म के०) दुष्ट एवां जे आठ कर्म. एट ले डुष्ट फलने आपनाएं ज्ञानावरणीयादिक आठ कर्म ते रूप (पलयानिल के० प्रलय कालना वायु वमे (पेरिन के०) प्ररेणा कर्यो एवो, अने (जीसरांमि के ० ) जयानक एवी (नवरणे के०) संसाररूप अटवीने विषे ( हितो के०) चालतो सतो ( नरएसु वि के०) नरकने विषे पण, पूर्वोक्त दुःख (प्रांतसो के ० ) अनंत वार (पत्तोसि के०) पाम्यो बे ॥ ८४ ॥
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जावार्थ- हे श्रात्मन्! ते ज्ञानावरणीयादिक आठ कर्मे करीने नरकादिकग तिने विषे, अनंत वार दुःख जोगव्यामां खामी राखी नथी. तोपावली पाठां तेनांतेज दुःख प्राप्त थाय, तेवा नपाय करे जाय बे. माटे हवे तेवां दुःखो जो. गववां परे नहि, तेवो उपाय करच. ॥ ८४ ॥
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